रविवार, 31 जुलाई 2011

नवउदारवाद की प्रयोगशाला में भ्रष्टाचार भाग 2

अग्निवेश ने अपने भाषण में इसी 28-29 मई को हैदराबाद बनी सोशलिस्ट पार्टी का जिक्र किया। यह बताने के लिए कि भ्रष्ट राजनीति का मुकाबला राजनैतिक पार्टियां बना कर नहीं किया जा सकता। उनके मुताबिक कोई भी नवगठित राजनीतिक पार्टी राजनीतिक होने के नाते भ्रष्ट ही होगी। मंच पर उपस्थित जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने उनसे कहा कि वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष को वास्तविक और व्यापक बनाने के लिए सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होने की बाबत सोचें। अग्निवेश ने ऊंचे ओटले से जवाब दिया कि राजनीतिक पार्टी बनाना या उनमें शामिल होना भटके हुए लोगों का काम है। कुछ ‘भटके हुए’ लोगों के नाम भी उन्होंने उछाले कि ऐसे लोग चाहें तो सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हों।
मजेदारी यह है कि राजनीति को चरित्रातः भ्रष्ट मानने और बताने वाले ये लोग मनमोहन सिंह को परम ईमानदार और सोनिया गांधी को त्याग की देवी बताते हैं। नवउदारवाद की प्रयोगशाला में जो दो भावी प्रधानमंत्री तैयार हो रहे हैं - राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी - उनसे भी इन सबको कोई शिकवा-शिकायत नहीं होती है। खुद भी सब राज्यसभा जाने का सपना पाले रहते हैं और उसके लिए आपस में होड़ भी लगाते हैं। राजनीति के शीर्ष पर बैठे नेता प्रशंसा के पात्रा हैं, आप खुद पिछले दरवाजे से संसद में दाखिल होना चाहते हैं - पिफर राजनीति को भ्रष्ट बताने का क्या अर्थ है?
सभी जानते हैं राजनीति या जीवन का कोई भी सिद्धांत अथवा अभ्यास निगुर्ण-निराकार नहीं होता है। कोई सि(ांत अथवा अभ्यास एकमात्रा नियामक भी नहीं होता। हालांकि इतिहास के हर दौर का एक युग-ध्र्म भी होता है, जो आध्ुनिक काल में राजनीति है। सब सिद्धांत और अभ्यासों की कसौटी मनुष्य होता है और मनुष्य की कसौटी सामाजिकता। मनुष्य की सामाजिकता की कोशिशों को ही हम मानव सभ्यता कहते हैं। आध्ुनिक काल में सामाजिकता के निर्धरण का काम राजनीति करती है। वह सामाजिकता को खंडित अथवा खारिज करके नहीं चल सकती। उसी तरह सामाजिकता की भूमिका और स्वरूप राजनीति को नकार कर नहीं बन सकते। तभी लोहिया ने राजनीति को अल्पकालिक ध्र्म और ध्र्म को दीर्घकालिक राजनीति कहा है।
नवउदारवाद में सब कुछ की कसौटी मुनापफा और उसे कमाने का अखाड़ा बाजार है। नवउदारवाद राजनीति को भी बाजार की कसौटी पर लेता है। सामाजिकता का भी उसका वही पैमाना है, जिसमें भारत सहित दुनिया की अध्किांश आबादी का बहिष्करण ;एक्सक्लूजनद्ध किया जा रहा हैऋ केवल अपनी सिविल सोसायटी स्थापित और सुरक्षित की जा रही है। इस सिविल सोसायटी के एक्टिविस्टों द्वारा राजनीति को भ्रष्ट बताने और लोगों को उससे दूर रहने के ‘उपदेश’ का यही निहितार्थ निकलता है। कहना न होगा कि वह तभी संभव है जब ‘राजनीति का गंदा खेल’ कांग्रेस-भाजपा और उनके पिछलग्गू क्षेत्राीय क्षत्रापों के लिए छोड़ दिया जाए।
एक वरिष्ठ पत्राकार साथी ने लिखा कि जो जंतर-मंतर नहीं जाना चाहते, वे राजनीति के मैदान में जाएं। उनका लहजा तंज कसने का है। सलाह नेक है लेकिन सपाट। पहली बात तो यह कि जंतर-मंतर, रामलीला मैदान, राजघाट आदि पर लोग भोपाल गैस त्रासदी, सांप्रदायिकता, विस्थापन, उत्पीड़न-दमन, आत्महत्या, बेरोजगारी के शिकारों के पक्ष में भी जाते हैं। इरोम शर्मीला के समर्थन और जीवन की चिंता में भी कुछ लोग जंतर-मंतर गए थे। वे लोग थोड़े होते हैं तो इसका एक कारण नवउदारवाद की लहरों पर परवान चढ़ा मीडिया भी है, जो लोकपाल विध्ेयक को सब समस्याओं के लिए जादू की छड़ी बना देता है। दूसरे, ऐसा नहीं है कि राजनीति का मैदान खाली पड़ा है जहां कोई भी जाकर अपनी राजनीति का झंडा गाड़ दे। नवउदारवादियों ने वहां तगड़ी पकड़ और पैठ बनाई है। वे जानते हैं नवसाम्राज्यवाद की दलाली के लिए जैसे भी हो राजनीति पर अपना कब्जा रखना अनिवार्य है - वंश से, परिवार से, जाति से, धर्म से, इलाके से, धन से, बल से, झूठ से, छल से, फरेब से। ‘लोकशक्ति के साधकों’ का राजनीति के प्रति नपफरत का अभियान उसी सिक्के का दूसरा पहलू है। ऐसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में भी कुछ लोग राजनीतिक लड़ाई लड़ते ही हैं।
राजनीति का तिरस्कार नवउदारवादी राजनीति को ही मजबूत नहीं बनाता, सांप्रदायिक राजनीति को भी वैसा ही मजबूत करता है। जो साथी टीम हजारे और रामदेव का धर्मनिरेपक्षीकरण करने के प्रयास में लगे हैं, वे यह हकीकत जान लें। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह के बयानों से सिविल सोसायटी खासी नाराज है कि वे जिस तरह सब मामलों में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों की भूमिका देख लेते हैं, भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के पीछे भी उन्हें आरएसएस की भूमिका नजर आती है। विशेषकर रामदेव से वे खासे खपफा हैं। लोगों को लगता है, इस तरह की बयानबाजी से दिग्विजय सिंह जहां भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को कमजोर करते हैं, वहीं कांग्रेस को भी संकट में डालते हैं। लेकिन सोनिया गांधी को उनसे कोई परेशानी नहीं है। वे राहुल गांधी को प्रधनमंत्राी बनाने की कांग्रेसी कवायद में उनके प्रमुख सिपहसालार हैं। सोनिया गांधी की कांग्रेस को सांप्रदायिक ताकतों की मौजूदगी चाहिए ताकि उनका भय दिखा कर वे अपने सेकुलर सिपाहियों को कांग्रेस के पीछे लामबंद कर सकें। राहुल गांधी को प्रधनमंत्राी बनाने के लिए यह अनिवार्य होगा कि समय आने पर धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी उनके पक्ष में निर्णायक रूप से एकजुट हों। कहने का आशय यह है कि राजनीति का विरोध् जिस तरह से नवउदारवाद के हक में है, उसी तरह से सांप्रदायिकता के हक में भी है। कपिल सिब्बल और दिग्विजय सिंह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह ने नवउदारवाद के मोर्चे पर कपिल सिब्बल को और संप्रदायवाद के मोर्चे पर दिग्विजय सिंह को तैनात किया हुआ है। प्रणव मुखर्जी की तैनाती दोनों मोर्चों की लादी ढोने के लिए है।

प्रेम सिंह
मोबाइल: 09873276726
(क्रमश:)

2 टिप्‍पणियां:

SANDEEP PANWAR ने कहा…

धर्मनिरपेक्षता व सांप्रदायिकता महज दिखावा है,
असल में सब राजनेता जनता को उल्लू बना अपना काम निकाल रहे है।
आज के दौर में कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं दिखाई दे रहा है, जो असल में धर्मनिरपेक्ष हो।

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

आपकी पोस्ट अच्छी लगी।
हमारी कामना है कि आप हिंदी की सेवा यूं ही करते रहें। सोमवार को
ब्लॉगर्स मीट वीकली में आप सादर आमंत्रित हैं।
बेहतर है कि ब्लॉगर्स मीट ब्लॉग पर आयोजित हुआ करे ताकि सारी दुनिया के कोने कोने से ब्लॉगर्स एक मंच पर जमा हो सकें और विश्व को सही दिशा देने के अपने विचार आपस में साझा कर सकें। इसमें बिना किसी भेदभाव के हरेक आय और हरेक आयु के ब्लॉगर्स सम्मानपूर्वक शामिल हो सकते हैं। ब्लॉग पर आयोजित होने वाली मीट में वे ब्लॉगर्स भी आ सकती हैं / आ सकते हैं जो कि किसी वजह से अजनबियों से रू ब रू नहीं होना चाहते।

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