सोमवार, 11 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार विरोध, विभ्रम और यथार्थ भाग-8

बहस की सीमा
जो बहस चल रही है उसमें कोई यह नहीं समझ रहा है कि सत्ता ने, दो दशकों में नवउदारवाद विरोधी जितनी भी सच्ची ताकत किसी न किसी रूप में जुटी थी, उसे उसी के अखाड़े में कड़ी पटखनी दे दी है। दयनीय हालत यह है कि गतिरोध के शिकार कई महत्वपूर्ण जनांदोलन और वैकल्पिक राजनीति के दावेदार हजारे की गाड़ी में सवार होकर गति पाने का भ्रम पाले हुए हैं। वे यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि जिन भ्रष्ट और दुष्प्रचारी तत्वों से हजारे के अभियान को बचाने की कोशिश में लगे हैं, हजारे उन्हीं के बुलावे पर यूपी जा रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने उन्हें महाराष्ट्र नहीं बुलाया। क्योंकि वहाँ नवउदारवादी विकास ठीक पटरी पर चल रहा है, भले ही वह पिछले दशक का सबसे भ्रष्ट राज्य रहा हो। उन्होंने हजारे को यूपी बुलाया है, ताकि नवउदारवाद की पिछड़ी गति से राज्य को मुक्ति दिलाई जा सके। यूपी में नवउदारवादी गति के पिछड़ने का कारण जानना कठिन नहीं है-जब मुलायम सिंह होते हैं तो उन्हें समाजवाद को नवउदारवादी शीशे में उतारने का और जब मायावती होती हैं तो उन्हें दलितवाद को, वाया ब्राह्मणवाद, नवउदारवाद के शीशे में उतारने का महत्वपूर्ण काम करना होता है। कांग्रेस के पास ऐसा कोई कार्यभार नहीं है। यूपी जीतना सोनिया गांध्ी का सबसे बड़ा सपना है। उसे अगर अमर सिंह पूरा करेंगे तो ईमानदारी के समर्थन और दुष्प्रचार की राजनीति के विरोध की घोषणाओं के बावजूद वे उन्हें 10 जनपथ बुलाएँगी। वे बिल्कुल यह ध्यान नहीं देंगी कि भूषणों पर कीचड़ उछालने वाले अमर सिंह से महत्वपूर्ण जनांदोलनकारी कितने खफा हैं?
संयुक्त समिति में कोई भी दलित, महिला और अल्पसंख्यक नहीं होने पर आपत्ति उठाई गई है। इसमें दो बातें ध्यान दी जा सकती हैं। पहली, यह आपत्ति सरकार के प्रति उठाई जानी चाहिए, जिसके साथ विपक्षी पार्टियों के प्रतिनिधि भी शामिल करने की माँग हो, न कि नागरिक समाज एक्टिविस्टों के प्रति। उनका वर्ग-चरित्र हमने ऊपर बता दिया है, जिसमें दलित, महिला और अल्पसंख्यक विरोध की कमी नहीं मिलती है। दूसरी, अब जिन्हें आरक्षण अथवा विशेष अवसर के तहत व्यवस्था/ सत्ता में भागीदारी मिलती है, वह मौजूदा पूँजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था, सत्ता में भागीदारी करने के लिए है, न कि एक ऐसी समाजवादी व्यवस्था कायम करने के लिए, जिसमें ये विभेद और विषमताएँ न रहें। निजी क्षेत्र में आरक्षण की माँग यह स्पष्ट करती है कि दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक नेतृत्व नवउदारवाद के साथ है। यह तर्क कि जो मिलता है वह तो ले लिया जाए, अभी तक के अनुभव के आधर पर, नवउदारवादी नीतियों और उन्हें चलाने वाली सरकारों को ही मजबूत करता है।
अनशन के दौरान रघुवंश प्रसाद सिंह और मनमोहन सिंह ने लोकतंत्र और संसद की प्रतिष्ठा का सवाल उठाया। उनकी बात लोगों को पसंद नहीं आई। क्योंकि उनसे पलट कर पूछा जा सकता है कि अमरीका में अमरीकियों द्वारा अमरीका के लिए बनाए गए भारत-अमरीका परमाणु करार को संसद में जिस तरह से पारित कराया गया, उसके बाद संसद की कौन-सी गरिमा या प्रतिष्ठा की बात वे कर रहे हैं? दोनों उस ध्त्कर्म में अपनी पार्टियों सहित भागीदार थे। उसी तरह कल उन जनांदोलनकारियों और विकल्पवादियों की बात भी सुनने से लोग इनकार कर सकते हैं, जो इस अभियान और उससे जुड़े नुमाइंदों का हर हालत में समर्थन कर रहे हैं। एन0ए0पी0एम0 के तत्वाव्धान में कुछ संगठनों और महत्वपूर्ण नागरिक समाज एक्टिविस्टों के शांति भूषण और प्रशांत भूषण के समर्थन में जारी बयान का गलत संदेश जा सकता है। जब नागरिक समाज के लोग बढ़-बढ़ कर नेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, कंपनियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं तो उन्हें आरोप सहने का धैर्य भी रखना चाहिए। देश की गरीब जनता भी कुछ देखती और समझती है।
जहाँ तक दुष्प्रचार का सवाल है, नेता भी हमेशा निहित स्वार्थों द्वारा किए गए दुष्प्रचार की शिकायत करते हैं। हम समझते हैं दोनों मशहूर, हैसियतमंद और काबिल अधिवक्ता अपना बचाव करने और पक्ष रखने में पूरी तरह सक्षम हैं। बयान जारी करने वाले साथियों ने कहा ही है कि प्रशांत भूषण ने कई महत्वपूर्ण मामलों में जनहित याचिकाएँ दायर की हैं और वे संकट में जनांदोलनकारी संघर्षकर्ताओं की सहायता करते हैं। लेकिन उनकी सहायता का बदला यह बयान नहीं होना चाहिए था। हम भी चाहते हैं कि शांति भूषण और प्रशांत भूषण संयुक्त समिति में रहें। जब नेताओं को आरोपों के चलते नहीं हटना पड़ता तो नागरिक समाज एक्टिविस्ट ही क्यों हटेंगे? लेकिन अगर वे दोनों संयुक्त समिति में नहीं भी रहेंगे तो कोई विशेष अंतर नहीं पड़ने वाला है। जन लोकपाल विधेयक उन्होंने ही तैयार किया है। आगे की सहायता वे बाहर से भी कर सकते हैं। मकसद तो जन लोकपाल विधेयक है, दुष्प्रचारकों से उलझना नहीं।
शांति भूषण और प्रशांत भूषण ने जब संयुक्त समिति के सदस्यों के तौर पर अपनी संपत्ति का ब्यौरा दिया तो साथ में कहना चाहिए था कि भ्रष्टाचार की व्यवस्था में, भले ही कानून-सम्मत ढंग से, यह संपत्ति हमारे पास जमा हुई है। यह हमारी गाढ़ी कमाई नहीं है, शासक वर्ग का प्रमुख सदस्य होने के नाते हमारे हिस्से आई है। मकान और प्लाट खरीदने के लिए जो भूषण परिवार ने किया है, वह सभी प्रोफेशनल और संपत्तिवान लोग करते हैं। हम जैसे वेतनभोगी भी मकान-प्लाॅट खरीदने-बेचने में वही करते हैं। भारत के नागरिक समाज ने अपने को प्राॅपर्टी डीलरों और बिल्डरों के हाथ बेच दिया है।
बयान जारी करने वाले साथियों का मानना है कि जन लोकपाल विधेयक अभियान लोकशक्ति की प्रभावशाली अभिव्यक्ति है, जिस पर चर्चा न करके लोकशक्ति के उभार से नाखुश कुछ तबके भारत के दो सर्वोत्तम जनहित अधिवक्ताओं का ‘चरित्र हनन’ करने में लगे हैं। निश्चित ही यह नहीं होना चाहिए। लेकिन बयान जारी करने वालों ने अभी तक खुद विधेयक के उन लोकतंत्र विरोधी प्रावधानों के बारे में अपनी राय नहीं दी है, जिनकी तरफ, औरों की जाने दें, के0एन0 पनिक्कर ने ध्यान आकर्षित किया है। (देखें, ‘जन लोकपालः एन अल्टरनेटिव व्यू’, ‘दि हिंदू’, 19 अप्रैल) अपने मौजूदा रूप में जन लोकपाल विधेयक अभिजात्यवादी-वर्चस्ववादी सोच का प्रतिफल है। हम अभियान की समीक्षा कर रहे हैं, लोकपाल अथवा जन लोकपाल विधेयक की नहीं। लोकपाल के चुनाव के लिए जिन विभूतियों - भारत रत्न, नोबल, मेगसेसे पुरस्कार पाने वाले, उच्चतम और उच्च न्यायालयों के दो वरिष्ठतम न्यायधीश, मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, भारत के नियंत्रक और महालेखा निरीक्षक, प्रमुख चुनाव आयुक्त, लोकपाल बोर्ड के निवर्तमान सदस्य और संसद के दोनों सदनों के अध्यक्ष की फेहरिस्त दी गई है उनमें केवल लोकसभा अध्यक्ष की फेहरिस्त ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुन कर आते हैं।
प्रशांत भूषण का कहना है कि तथाकथित निर्वाचित प्रधानमंत्राी और गृहमंत्री कमजोर सी0वी0सी0 नियुक्त कर देते हैं। यानी निर्वाचित होना ईमानदारी और जवाबदेही की कोई गारंटी नहीं है। आज की भारत की राजनीति में यह सही प्रतीत होता है। लेकिन इससे यह कहाँ सिद्ध हो जाता है कि जो निर्वाचित नहीं हैं, वे ईमानदार होते हैं? खटका प्रशांत भूषण को भी है। वे लिखते हैं, ‘‘लोकपाल सदस्यों को, मिसकंडक्ट करने पर सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय खण्डपीठ हटा सकती है।’’ (‘जन लोकपाल बिल: एडरेसिंग कंसन्र्स’, ‘दि हिंदू’ 15 अप्रैल 2011) क्या यह ज्यादा सही नहीं होगा कि मिसकंडक्ट करने पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को ही हटाया जाए। उसके लिए सत्याग्रह भी है और चुनाव भी हैं। जाहिर है, राजनीति का मैदान भी। राजनीति बुरी है, आप उसमें नहीं जाना चाहते। बिल्कुल ठीक है। आप नागरिक समाज एक्टिविस्ट हैं। लेकिन राजनीति का स्थानापन्न होना चाहते हैं। यह संभव नहीं है। बल्कि आप मौजूदा राजनीति के इंस्ट्रमेंट बनते हैं। राजनैतिक शून्य पाकर भारत का नागरिक समाज अपनी सीमा से बाहर दावेदारी जता रहा है ताकि सत्ता में ज्यादा हिस्सेदारी पा सके। सत्ता के विरोध की ठेकेदारी भी प्यारी हिस्सेदारी बन जाती है।
ये महान विभूतियाँ शासकवर्ग के मुकुट हैं। यह साथियों का अपना लोकतंत्र-विवेक है कि इन मुकुटों में जड़े ‘जन’ और ‘लोक’ जैसे नगीने उन्हें रिझा रहे हैं! लेकिन एक और समस्या है। सभी साथी मानते हैं कि अगस्त में शुरू होने वाले मानसूत्र में जन लोकपाल कानून बन भी जाए, भ्रष्टाचार के विरोध का संघर्ष लंबा चलेगा। उस दौरान अगर बाबा रामदेव या चेतन भगत जैसों के खिलाफ ‘भ्रष्ट तत्वों’ ने किसी प्रकार का ‘दुष्प्रचार’ किया तो क्या साथी उनके समर्थन में भी बयान जारी करेंगे? यह नहीं भूलना चाहिए कि हजारे और उनके सहयोगियों के अभियान के उद्देश्य और तरीके पर सवाल उठाने वालों में ऐसे लोग भी हैं, नागरिक समाज में जिनका काम और साख इस पूरी टीम से ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं है। अगर हजारे को सवालों से ऐतराज था तो उन्हें खुद भ्रष्टाचार से इतर विषयों पर भाषण नहीं देना चाहिए था। बिना किसी प्रोवेकेशन के उन्होंने बार-बार ऐसा किया। उनके साथियों ने भी उन्हें अभी तक नहीं रोका है।

प्रेम सिंह
क्रमश:

3 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

सत्ता के विरोध की ठेकेदारी भी प्यारी हिस्सेदारी बन जाती है। ये महान विभूतियाँ शासकवर्ग के मुकुट हैं। यह साथियों का अपना लोकतंत्र-विवेक है कि इन मुकुटों में जड़े ‘जन’ और ‘लोक’ जैसे नगीने उन्हें रिझा रहे हैं!
....सटीक बात!
जाने कब मुक्ति मिलेगी इस भ्रष्टाचार से !
प्रस्तुति हेतु आभार!

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

विचारणीय लेख...

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

धर्म को उसके लक्षणों से पहचान कर अपनाइये कल्याण के लिए
अक्सर लोग उपदेश भी बेमन से सुनते हैं और क़ानून की पाबंदी भी फ़िज़ूल समझते हैं। इस तरह अनुशासन और संयम से हीन लोगों की भीड़ वुजूद में आ जाती है जो ख़ुद तो अपने हक़ से ज़्यादा पाना चाहते हैं और दूसरों को उनका जायज़ हक़ तक नहीं देना चाहते। इस तरह समस्याएं जन्म लेती हैं और इनका कारण पिछले जन्म के पाप नहीं बल्कि इसी जन्म की अनुशासनहीनता होती है।
इंसान के अंदर डर और लालच, ये दो प्रवृत्तियां होती हैं। ईश्वर में विश्वास और धर्म के पालन से इनमें संतुलन बना रहता है लेकिन ठगों ने ईश्वर के आदेश छिपा कर अपने उपदेश समाज में फैला दिए और इसका नतीजा यह हुआ कि धर्म का लोप हो गया और ईश्वर और धार्मिक परंपराओं के नाम पर लूट और अत्याचार का बाज़ार गर्म हो गया, किसी एक देश में नहीं बल्कि सारी दुनिया में। बुद्धिजीवियों ने यह देखा तो उनका विश्वास धर्म से उठ गया और उन्होंने ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को ही नकार दिया। अतः पढ़े लिखे लोगों में यह धारणा बन गई कि ईश्वर है ही नहीं तो ईनाम या सज़ा कौन देगा ?
और जब आत्मा ही नहीं है तो फिर ईनाम या सज़ा का मज़ा भोगेगा कौन ?
इसके बाद तार्किक परिणति यही होनी थी कि दुनिया में ज़ुल्म का बाज़ार गर्म हो जाए और यही हुआ भी । पढ़े-लिखे और समझदार (?) अर्थात नास्तिक लोगों का मक़सद केवल प्रकृति पर विजय पाकर ऐश का सामान इकठ्ठा करना ही रह गया।
ईश्वर और धर्म का इन्कार करने वालों ने दुनिया को बर्बाद करके रख दिया और इन लोगों का विश्वास जिन ठगों ने हिलाया है वे मानवता के इससे भी ज़्यादा मुजरिम हैं।
मंदिर या मस्जिद में जाने से ही आदमी धार्मिक नहीं बन जाता। ये धार्मिक कर्मकांड तो रावण और यज़ीद दोनों ही करते थे। आदमी का धर्म उसके आचरण से प्रकट होता है। धर्म के लक्षण हरेक भाषा की किताब में लिखे हुए हैं और वे सत्य, न्याय , उपकार और क्षमा आदि हैं कि अगर इन्हें अपना लिया जाए तो आदमी की मेंटलिटी क्राइम फ़्री हो जाएगी। मानने वाले लोग पहले भी ईश्वर की कृपा पाने के लिए ही उसकी व्यवस्था का पालन करते थे और आज भी करते हैं। संविधान का पालन ख़ुद ब ख़ुद ही हो जाता है।
ये सिक्के आज भी चल रहे हैं। अपनी वासनाओं में डूबे हुए लोगों का अपनी मुसीबत में ईश्वर-अल्लाह को याद करना इसी का प्रमाण है।
इसी बात को आप नीचे दिए गए लिंक पर भी देख सकते हैं :
आदमी का धर्म उसके आचरण से प्रकट होता है

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