आजकल सोने चाँदी के भाव अनेक और परस्पर विरोधी कारणों से आम आदमी के लिए भी चर्चा और चिंता के मसले बन गए हैं। कहा जा सकता है कि आम आदमी भारत में गरीब का दूसरा नाम है। सोना चाँदी उसकी पहुँच या आर्थिक वित्तीय बूते के बाहर की बात है। ये दोनों बहुमूल्य धातुएँ आम आदमी की ही नहीं किसी भी इंसान की बुनियादी या अपरिहार्य जीवनोपयोगी जरूरत का हिस्सा भी नहीं हैं। एक बहु प्रचलित आर्थिक नीति सूत्र यह कहता है कि एक अच्छी अर्थव्यवस्था और उसके राज्य की आर्थिक नीति मूलभूत आवश्यकताओं की संतुष्टि करने वाले साजो सामान की उपलब्ध मात्रा प्रचुर और कीमतों को अपेक्षाकृत नीचे स्तर पर और साथ में उन्हें यथासंभव स्थिर रखती है। कीमत नीति का एक दूसरा सूत्र भी ध्यान देने योग्य है। इसके अनुसार शानो शौकत विलासिता और दिखावा करने वाली चीजे धनी वर्ग को प्रिय होती हैं। इन चीजों की महत्ता उनके दामों से आँकी जाती है। जितने ऊँचे उनके दाम, उतना ही अपने को गौरवान्वित अनुभव करता है उनका खरीददार, न केवल अपनी नजर में बल्कि शेष समाज की नजर में भी। अतः बहुमूल्य वस्तुओं का बहुत लेनदेन और उनके दामों में निरन्तर बढ़ोत्तरी सीधे सीधे सम्पन्न लोगों के हाथ में सम्पत्ति के बढ़ते संग्रहण या केन्द्रीयकरण की सूचक है। 21वीं सदी के विश्व की दो विशेषताएँ एक सोने चाँदी की महँगाई और दूसरे विषमताओं का उछलता ज्वार मूलतः परस्पर जुड़ी हुई बातंे हैं। ’’तुलसी के आदर्श राजाराम ने भी-
‘‘मणि माणिक महँगे किए,
सहँगे तृण जल नाज’’
सहँगे तृण जल नाज’’
तो आज की अर्थ प्रधान, निजी स्वार्थ साधना और समृद्धि को सफलता का सोपान मानने वाले विषमतर होते समाज में सोने चाँदी की कीमतों में नित्य नये शिखर स्वाभाविक ही माने जाने चाहिए।
यदि स्याह और सफेद के दो भागों में बँटी हमारी सामाजिक यथार्थ की समझ सही पर्याप्त और उचित होती तो शायद उपर्युक्त कथनांे के आगे या पीछे कुछ कहने सुनने की जरूरत नहीं होती। किन्तु सामाजिक यथार्थ बहुरंगी, बहुपक्षीय और अनेक जटिलताओं से भरा होता है। क्षुद्र स्वार्थ उसको विकृत करते रहते हैं, फलतः इसमें अनेक उलझे हुए आपसी रिश्ते होते हैं। अतः कीमतों का स्तर निरपेक्ष या अपने आप में कोई पूरी कहानी नहीं कह पाता है। विभिन्न वस्तुओं की कीमतों के आपसी सम्बन्ध यानी उनकी सापेक्षिकता भी कम महत्वपूर्ण और प्रभावशाली नहीं होती है। सामाजिक उत्पादन और सम्पत्ति में जिन वस्तुओं की जितनी ही अहमियत होती है उतनी ही दूरगामी व्यापक और गहरे उनके कीमतों के स्तर के सापेक्ष और निरपेक्ष प्रभाव होते हैं। इस तरह केवल जीवनोपयोगी होने मात्र से अथवा मनोकामनाओं के आधार पर ही, वस्तुओं का महत्व उनके कीमतों के निर्धारण में अपना दखल नहीं दे पाता है। सम्पत्ति, शक्ति, प्रभाव और समाज में प्रतिष्ठा प्रदान करने में भी विभिन्न वस्तुओं की भूमिका भिन्नता पूर्ण हो जाती है। यह नुक्ता भी सोने-चाँदी की कीमतों की चाल ढाल समझने में सहायक होता हैं। उदाहरणार्थ हम कह सकते हैं कि जमीन की महत्ता और ऊँची कीमतें भी इन्हीं प्रभावों और प्रक्रियाओं के प्रतिफल हैं। अब तक सोने चाँदी के दामों की प्रकृति और प्रभाव के चर्चा के सिलसिले में हमने कुछ सामान्य और व्यापक विचारों का उल्लेख किया है, हमें यह कई कारणों से जरूरी लगा। सामान्यतः किसी भी वस्तु की कीमत उसकी माँग और पूर्ति के प्रभावों के द्वारा समझी जाती है किन्तु बहुधा इन दो व्यापक और मूलभूत तत्वों को बहुत स्थूल और सतही रूप में ले लिया जाता है। इनके पीछे छिपे, इनको प्रभावित करने वाले बिन्दुओं और मसलों पर बहुत चर्चा यदा कदा ही की जाती है।
सोने एवं चाँदी की कुछ खास विशेषताएँ उनकी माँग और आपूर्ति को प्रभावित करती हैं। ये दोनों धातुएँ तुलनात्मक दृष्टि से अत्यधिक उच्च कीमतों वाली वस्तुओं की श्रेणी में आती हैं। अतः ये सम्पत्ति संग्रह की साधन और वैभव की प्रतीक मानी जाती हैं। इन्हें सौन्दर्य प्रसाधन और कलात्मक अभिव्यक्ति के एक माध्यम के रूप में भी जाना जाता है। इनका स्थानान्तरण सुगम होने के कारण धन के स्थानान्तरण के माध्यम के रूप में भी इन दोनों धातुओं की उपादेयता जगजाहिर है। सम्पत्ति को दीर्घ काल तक सुरक्षित और अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए भी सोने-चाँदी का उपयोग होता रहा है। भौतिक रूप में भी इनका क्षरण नहीं होता है।
ऐसी विशेषताओं से युक्त चीजों की बाजार में माँग और उनकी आपूर्ति के पीछे कुछ विशेष दीर्घ कालिक और परिवर्तनीय प्रभाव छिपे रहते हैं। उन पर विचार विमर्श सोने-चाँदी के दामों की उच्चतर दिशा में प्रवृत्त गतिमानता को समझने में सहायक होना चाहिए। साथ ही यह विश्लेषण इस विषय पर प्रचलित अनेक भ्रांतियों को दूर करने में भी सहायक होता है। मानवीय आर्थिक-सामाजिक जीवन के इतिहास का बड़ा भाग लगातार वृद्धिमान, बहुमुखी विषमताओं का इतिहास रहा है। हाँ, इन विषमताओं के कारण, तौर-तरीके और प्रभाव अवश्य कई रूपों और अर्थों में बदलते रहे हैं। इन विषमतामय समाजों में उच्च स्थानासीन तबकों की जीवन शैली, कार्य व्यवस्था और मूल्य, शेष समाज से अपनी अलग पहचान रखते आए हैं, अपने लगातार जारी तथा बदलते दोनों रूपों में। इससे भी ज्यादा खास बात यह है कि इन तबकों की आर्थिक वित्तीय जरूरतें भी अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। प्राचीन काल में मुद्रा यानी सिक्कों के रूप में इस्तेमाल के कारण इन उच्च कीमत की धातुओं की बहुत अहमियत रही थी उसी तरह सुदूर प्रदेशों के आपसी व्यापार में वस्तु विनिमय के साथ साथ व्यापार में निर्यात आधिक्य का भुगतान भी कीमती धातुओं, मणि-माणिक और हीरे मोती के रूप में मुख्य रूप से लिया और दिया जाता था। राज्यों की सैन्य शक्ति के लिए भी बेशकीमती धातुओं के भण्डार की जरूरत होती थी, इसलिए युद्ध में विजय का पारितोषक भी सोने-चाँदी के भण्डारों की लूट के रूप में एकत्रित किया जाता था।
आपूर्ति पक्ष के चंद खास बिन्दुओं का संक्षिप्त विवरण भी सोने-चाँदी के आर्थिक पक्ष को स्पष्ट करने के लिए जरूरी है। इन धातुओं का खनन बहुत मेहनत माँगता है और जोखिम भरा होता है। इनकी खानों की खोज और उत्खनन भी बहुत श्रम साध्य और तकनीकी रूप से कठिन तरीकों पर आधारित होता है। इन धातुओं की उपलब्धि सर्वत्र नहीं होती, बल्कि कुछ खास इलाकों में केन्द्रित पाई गई है। किन्तु इनकी माँग सर्वत्र होती है। इनकी चाह तो स्वर्ण मृग की तमन्ना के रूप में अतृप्त और अदम्य चाहनाओं का दूसरा नाम बन चुकी है। आभूषणों, बर्तनों, पूजा सामग्री आदि के अलावा सोने-चाँदी का उपयोग कई औद्योगिक कच्चे या मध्यवर्ती सामान के रूप में भी होता हैं। किसी भी सामान्य वर्ष में आम तौर पर सोने चाँदी की जितनी माँग होती है, उसके मुकाबले इनका सालाना उत्पादन काफी कम यानी उसका छोटा सा भाग होता है। सोने के उत्पादक देश और खास तौर पर उसके निर्यातक देश संख्या में काफी कम हैं, किन्तु इनकी माँग तो हर देश में होती है। यह एक विरोधाभासों भरा तथ्य है कि भारत दुनिया में सोने का सबसे बड़ा आयातक देश है और कहा तो यह भी जाता है कि भारत के लोगों के पास विश्व का विशालतम स्वर्ण भण्डार जमा है। यही नहीं, अब विषमता वर्धन को अघोषित रूप से आार्थिक सफलता मानना भारत की सरकारों और मुख्य राजनैतिक गैर वामदलों की विचारधारा का अभिन्न अंग बन चुका है। भ्रष्टाचार विरोध का नाटक करने वाले बाबा या तथाकथित संत भी उसकी जड़, गैर बराबरी वर्धन के खेल के स्वयं धुरंधर खिलाड़ी बन गए हैं। अतः अब भारत के विशाल आयात खर्च का दसवाँ हिस्सा सोने-चाँदी जैसे अनावश्यक आयातों पर खर्च होता है। फूल, प्याज और अनाज का निर्यात करके सोने-चाँदी का देशी जखीरा बढ़ा रहे हैं और वह भी चंद लोगों के हाथों में। पेट की भूख बढ़ाकर आभूषणों की भूख मिटाने का ही यह एक नजारा है।
इन तथ्यों एवं मतों की सोने-चाँदी की कीमतों की ऊँची उड़ान की व्याख्या करने में बहुत अहम भूमिका है। साथ ही भारतीय अर्थ और समाज व्यवस्था का असली रूप समझने में यह एक बड़ा तथ्य है। जब से भारत में विषमतावर्धक आर्थिक उत्पादन बढ़त को राष्ट्रीय प्रगति का सर्वोच्च ही नहीं एकमेव प्रतिमान माना और प्रचारित किया जाता है, सोने-चाँदी के आयात की छूट दे दी गई है। सरकारी बैंकों व वित्तीय संस्थाओं और अन्य वित्तीय व्यवसायिकों द्वारा स्वर्ण संचयन के पक्ष में विज्ञापन दिए जाते हैं। जिस काम को कल तक तस्करी के रूप में अवैध माना जाता था, नव उदारीकरण की छत्र छाया मंे वह फल-फूल रहा है। अब सोने का सालाना अयात लगभग एक हजार टन हो रहा है। जो लोग विदेशों से मँगाकर सोना खरीदते हैं, उन्हें विदेशी बैंकों में अपना कालाधन जमा कराने की जहमत मोल नहीं लेनी पड़ती है। सोना-चाँदी खरीदों उसे कहीं गुप्त घरों में, फार्म हाउसों में जमा करके रखो, उसको जब चाहों देस परदेस में बेच दो, टैक्स चुराओ और सोने में लगाओ तथा उसके ऊँचे चढ़ते दामों के कारण भारी भरकम मुनाफा कमाओ, आदि-आदि आज के आर्थिक परिदृश्य के वास्तविक चित्र हैं जिनकी तह में सरकारी सभी गैर वामदलों की घोषित और डंके की चोट पर लागू की गईं नीतियांँ हैं। अजीब बात है कि सोने की ऊँची कीमतों को कारण बताकर इस पर कर की दर काफी नीची रखी जाती है। कर देयता की कुलराशि पर ध्यान दिया जाता है उसकी सापेक्षिक न्यूनता अपर्याप्तता पर नहीं। उसके गैर जरूरी प्रकृति तक उसके अन्य नकारात्मक पहलुओं को भी नज़रअंदाज कर दिया गया है। सोने का उपयोग स्वर्णधारक द्वारा देश के बाहर जमा काले धन की तरह जब चाहे देश के बाहर भी किया जा सकता है। विदेश में इसे हवाला के जरिये भेजना भी नहीं पड़ता है। विदेश यात्रा में इसे साथ ले जाया जाता है, और वहाँ इसका निवेश भी हो सकता है।
इस तरह प्राप्त राशि से विदेशों में वहाँ के अय्याशी के अड्डों में गुलछर्रे भी उड़ाए जा सकते हैं। रिश्वत देने-लेने में भी इन महँगी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से और बेखौफ हो रहा है। स्त्रीधन के रूप में प्रचारित घोषित करके स्वर्ण राशि और स्वर्ण आभूषण विशाल धनराशि के संचयन तथा काले धन को छिपाने के माध्यम बन गए हैं। इन नए समाज विरोधी रुझानों और प्रवृत्तियों की ही एक झाँकी मिलती है, आर्थिक आँकड़ों की नई परिभाषाओं और गणना के बदले हुए तरीकों मंे। पहले सोने-चाँदी, मणि-माणिक मंे लगी राशि को अनुत्पादक मानकर उनकी कीमत को राष्ट्रीय निवेश में शामिल नहीं किया जाता था। लेकिन अब पूरी तरह निजी स्वर्णाभूषण, रजत भण्डार और जवाहरात में लगी राशि को राष्ट्रीय निवेश दर की गणना में शुमार किया जाता है। नीतिगत सोच के बदले और सीमित स्वार्थ आधारित रुझानों की यह एक झाँकी भर है।
उपर्युक्त तथ्य सोने-चाँदी को निजी धन संचय, मुनाफा प्राप्ति तथा कई प्रकार की ‘सुविधाओं’ की जननी की भूमि को रेखांकित करते है। इनके साथ में राष्ट्रीय सामाजिक लाभ की दृष्टि से एक संभावना जरूर छिपी रहती है। अन्तर्राष्ट्रीय वित्त के क्षेत्र में स्वर्ण भण्डार की भूमिका पूरी तरह परिवर्तनीय या विनिमयक्षम मुद्राओं के समान अथवा समकक्ष होती है। अतः सामाजिक उद्देश्यों से प्रेरित सरकारें देश में भण्डारित स्वर्ण, रजत राशि का उपयोग विदेशी लेन देन में कर सकती है। बशर्ते इसके लिए पर्याप्त राजनैतिक इच्छा शक्ति और प्रतिबद्धता हो। ये सब बातें आधुनिक काल में सोने चाँदी की माँंग की प्रबलता और उनकी कीमतों की लगातार नई ऊँचाइयों की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति को परिलक्षित करती हैं। इसमें एक बात और जोड़ दीजिए तो सोने-चाँदी की ऊँची बढ़ती कीमतों की कहानी को नई ताकत और स्फूर्ति मिल जाएगी। सोने-चाँदी की ऊँची कीमतें उसके भण्डारण और आवागमन को एक भारी जोखिम भरा मामला बना देती हंै। बार-बार उसकी शुद्धता की गारन्टी भी हासिल करनी पड़ती है। इन दिक्कतों के निवारण के साथ-साथ खरीद-बिक्री की सुविधा, खरीददारों ओर विक्रेताओं की खोज को भी सरल और विश्वव्यापी बनाने के लिए अभौतिक रूप में वायदा बाजारों में सोना-चाँदी महत्वपूर्ण स्थान रखने लगे हैं। इस तरह स्वर्ण बाजार की तरलता बढ़ गई है। शेयरों और विदेशी मुद्रा की तरह या किसी भी वित्तीय रुक्के की भाँति सोने चाँदी के वायदा बाजारो का लगातार विस्तार हो रहा है। इन बाजारों में पल-पल अरबों, खरबों रुपये के सोने-चाँदी का लेन-देन होता है। नई-नई बदली हुई कीमतें सामने आती हैं और फिर भी एक औंस या रत्ती भर सोने-चाँदी का स्थानान्तरण नहीं करना पड़ता है। केवल व्यापारित सोने-चाँदी की मिल्कियत के कागजात के हस्तांतरण द्वारा जब लेन-देन के एक चक्र की समाप्ति होती है केवल उनकी घोषित कीमत के एक अंश के लेन-देन के आधार पर बड़े-बड़े सौदे हो जाते हैं। अतः अब विश्व बाजारों में सोने-चाँदी की उपलब्ध मात्रा से कितने ही गुना ज्यादा मात्रा में सोने-चाँदी का लेन-देन या उनके नाम पर किए गए सौदे का लेन-देन उनको पाटना या आगे खिसकाना आदि होते हैं। इनको ठोस आर्थिक वित्तीय परिघटनाओं की तरह ही सट्टोरियों का मूड उनकी मानसिकता या धारणाएँ प्रभावित करती हंै।
विश्व अर्थ व्यवस्था के घोर विषमतामय होते रवय्ये के साथ ही उसका वित्तीयकरण (फाईनेन्शियलाईजेशन) यानी वित्त या मुद्रा या ऐसी ही परिसम्पत्तियों, अस्तियों के लेन-देन की प्रवृत्ति बढ़ती है। इससे इन परिसम्पत्तियों के दामों के निरन्तर उच्चतर स्तर की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति जन्म लेती है और सतत बलवती होती रहती है। आधुनिक विश्व में सोने-चाँदी के दामों में उछाल की कहानी के पीछे ये ठोस सामाजिक-आर्थिक और वित्तीय प्रक्रियाएँ और प्रवृतियाँ सक्रिय हैं।
यहाँ एक और तथ्य का खुलासा इस सवाल पर हमारी समझ को स्पष्ट करने में सहायक होगा। विश्व वस्तु व्यापार तथा वित्तीय लेन-देन लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वास्तव में मुद्रा, पँूजी, विदेशी मुद्रा, विभिन्न किस्म के वित्तीय रुक्को आदि का लेन-देन वास्तविक वस्तु व्यापार से हजारांे गुना ज्यादा होता जा रहा है। ये सब वित्तीय अस्तियाँ या रुक्के एक दूसरे का स्थान बखूबी ग्रहण कर लेने में सक्षम बना दिए गए हैं। सट्टोरिये, निवेशक, वित्तीय कम्पनियाँ विभिन्न वित्तीय बाजारों के बीच कीमतों, लाभ-हानि की गणना, भावी अनुमानों आशंकाओं के अनुसार अपनी परिसम्पत्तियों को घटाते-बढ़ाते रहते हंै। लक्ष्मी की चंचलता के बेजोड़ उदाहरण हैं ये।
एक विदेशी मुद्रा को किसी भी शेयर, सोने-चाँदी, ऋण पत्र आदि के बदले खरीद-बेच सकते हंै। किन्तु अपनी अन्तर्राष्ट्रीय सर्वव्यापक स्वीकार्यता के चलते इन बाजारांे में अमरीकी डाॅलर की भूमिका, महत्ता लम्बे अरसे से बेजोड़ है। किन्तु इन दिनों अमरीकी वर्चस्व वाला दुनिया का एकल ध्रुवीकरण समाप्ति की ओर है। अमरीका, अमरीकी अर्थव्यवस्था और डाॅलर अपनी सर्वोच्च स्थिति से हटते जा रहे हंै। एक ओसामा बिन लादेन को बरसों की जद्दोजहद के बाद अपनी पूरी ताकत झोंक कर मार गिराने को ही अब विश्व शक्ति होने का प्रमाण माना जा रहा है। यह भूलतेे हुए की वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान आदि में किस तरह एक अस्तांचल गामी शक्ति की झलक मिलने लगी है। किन्तु 2008 में शुरू, अमरीका में उत्पन्न हो, सारे संसार को लील लेने वाली बड़ी आर्थिक गिरावट ने तो विश्व अर्थव्यवस्था की रंगत ही बदल डाली। सच है यह बड़ी गिरावट सन् 1930 के दशक जैसी विश्व व्यापक महामंदी नहीं बन पाई। किन्तु तमाम ताबड़तोड़, भारी भरकम और विश्वव्यापी संभावित माने जाने वाले प्रयासों के बावजूद इस बड़ी गिरावट का भूत दुनिया का पिंड नहीं छोड़ रहा है। चीन, जापान तथा पेट्रोल धनी देशों के पास अमरीकी डाॅलर का विशाल जखीरा है। अमरीकी अर्थव्यवस्था तीनों तरह के (व्यापार, राजकोषीय और बचत) घाटों के चक्र में आकंठ फँसी हुई है। फलतः अन्य शक्तिमान होते देशों के पास अमरीकी डाॅलर जमा हो रहे हैं और अमरीकी राज्य उन देशों को अपनी प्रतिभूतियाँ बेच कर अपना घाटा पाट रहा है। नतीजन डाॅलर कमजोर हो रहा है। अब उसकी विश्वव्यापी रिजर्व करेंसी की भूमिका के पैर उखड़ने लगे हैं। विकल्प तलाशे और बनाए जा रहे है। इन हालात में डूबते डाॅलर को स्वयं अमरीका भी बड़ी मात्रा में नए डाॅलर छाप कर और ज्यादा कमजोर कर रहा है ताकि अन्य देशों के डाॅलर भण्डारों का मोल घट जाए। इन सब कारणों से वित्तीय और विदेशी मुद्रा बाजारों में भारी हलचल है। लोग कभी किसी वित्तीय परिसम्पत्ति से पलायन करते हैं तो कभी किसी अन्य अस्ति का वरण करते हैं। इसका नतीजा इन परिसम्पत्तियों की कीमतों की भारी अस्थिरता में नजर आता है। सोने-चाँदी का इस्तेमाल भी एक वित्तीय अस्ति के रूप में हो रहा है। इनकी माँग में दीर्घकालिक ही नहीं अल्पकालिक स्तर पर भी चढ़ाव का रुख है। चाहे तेजडि़यों का दौर हो या मन्दडि़यों का बोलबाला सोने-चाँदी की तो आम तौर पर बल्ले-बल्ले ही बनी रहती है। हम सोने-चाँदी में अपना पैसा डालने के लाभों का और न्यूनतम जोखिम की चर्चा कर चुके हंै। अतः न केवल बहरहाल बल्कि आने वाले समय में काफी दूर तक शायद ही कोई ऐसी अन्य अस्ति या मुद्रा नजर आए जो अपने कम वजन की गागर में इतने विशाल मूल्य की सर्व स्वीकार्य चिरन्तन क्रय शक्ति के इतने विशाल सागर को भरने की डाॅलर की क्षमता को टक्कर दे सके। अतः इनके दामों का हिमालय जैसी ऊँचाइयों की ओर बढ़ते रहना ही संभावित है। जिसके पास जितनी मात्रा सोने-चाँदी की है वह इनके आसमानगामी दामों से उतना ही प्रसन्न है और जैसे जैसे यह प्रसन्नता बढ़ती है, इन
धातुओं की खरीद बढ़ती है। यह एक परस्पर वृद्धि कारक प्रक्रिया बन चुकी है।
अब यह स्पष्ट है कि सोेने की अदम्य ललक की वजह से इस स्वर्ण मृग की तृष्णा में भारत का मध्यवर्ग किस तरह अति सम्पन्न तबकों के हाथ का उनकी स्वार्थ सिद्धि मंे सहायक, खिलौना बन गया है। एक व्यक्ति के स्तर पर सोने-चाँदी में निवेश लाभ का सौदा है यदि भौतिक सुरक्षा की गारन्टी हो। किन्तु मध्य आय वर्ग अपनी सामाजिक साख, प्रतिष्ठा और दिखावे के चक्कर में अपनी गाढ़ी मेहनत मशक्कत की कमाई इन धातुओं मंे लगा कर एक ओर तो रोजगार वर्द्धक तथा जरूरी आवश्यकता की चीजों के उत्पादन से निवेश को हटाता है, दूसरे शादी-ब्याह और भेंट के अपने खर्च को बढ़ाता है। साथ ही अतिसम्पन्न वर्ग की शक्ति के सम्मुख अपनी शक्ति क्षरण करने में मध्यम आमदनी वाला तबका खुद ही मददगार होता है। किस तरह सामाजिक ध्येय तथा स्वार्थ सतही सोच और निर्णयों से व्यक्तिगत हित साधना से टकराते है इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है सोने-चाँदी के दामों की ताजा तरीन प्रवृत्तियाँ।
-कमल नयन काबरा
मो0:- 09013504389
आपूर्ति पक्ष के चंद खास बिन्दुओं का संक्षिप्त विवरण भी सोने-चाँदी के आर्थिक पक्ष को स्पष्ट करने के लिए जरूरी है। इन धातुओं का खनन बहुत मेहनत माँगता है और जोखिम भरा होता है। इनकी खानों की खोज और उत्खनन भी बहुत श्रम साध्य और तकनीकी रूप से कठिन तरीकों पर आधारित होता है। इन धातुओं की उपलब्धि सर्वत्र नहीं होती, बल्कि कुछ खास इलाकों में केन्द्रित पाई गई है। किन्तु इनकी माँग सर्वत्र होती है। इनकी चाह तो स्वर्ण मृग की तमन्ना के रूप में अतृप्त और अदम्य चाहनाओं का दूसरा नाम बन चुकी है। आभूषणों, बर्तनों, पूजा सामग्री आदि के अलावा सोने-चाँदी का उपयोग कई औद्योगिक कच्चे या मध्यवर्ती सामान के रूप में भी होता हैं। किसी भी सामान्य वर्ष में आम तौर पर सोने चाँदी की जितनी माँग होती है, उसके मुकाबले इनका सालाना उत्पादन काफी कम यानी उसका छोटा सा भाग होता है। सोने के उत्पादक देश और खास तौर पर उसके निर्यातक देश संख्या में काफी कम हैं, किन्तु इनकी माँग तो हर देश में होती है। यह एक विरोधाभासों भरा तथ्य है कि भारत दुनिया में सोने का सबसे बड़ा आयातक देश है और कहा तो यह भी जाता है कि भारत के लोगों के पास विश्व का विशालतम स्वर्ण भण्डार जमा है। यही नहीं, अब विषमता वर्धन को अघोषित रूप से आार्थिक सफलता मानना भारत की सरकारों और मुख्य राजनैतिक गैर वामदलों की विचारधारा का अभिन्न अंग बन चुका है। भ्रष्टाचार विरोध का नाटक करने वाले बाबा या तथाकथित संत भी उसकी जड़, गैर बराबरी वर्धन के खेल के स्वयं धुरंधर खिलाड़ी बन गए हैं। अतः अब भारत के विशाल आयात खर्च का दसवाँ हिस्सा सोने-चाँदी जैसे अनावश्यक आयातों पर खर्च होता है। फूल, प्याज और अनाज का निर्यात करके सोने-चाँदी का देशी जखीरा बढ़ा रहे हैं और वह भी चंद लोगों के हाथों में। पेट की भूख बढ़ाकर आभूषणों की भूख मिटाने का ही यह एक नजारा है।
इन तथ्यों एवं मतों की सोने-चाँदी की कीमतों की ऊँची उड़ान की व्याख्या करने में बहुत अहम भूमिका है। साथ ही भारतीय अर्थ और समाज व्यवस्था का असली रूप समझने में यह एक बड़ा तथ्य है। जब से भारत में विषमतावर्धक आर्थिक उत्पादन बढ़त को राष्ट्रीय प्रगति का सर्वोच्च ही नहीं एकमेव प्रतिमान माना और प्रचारित किया जाता है, सोने-चाँदी के आयात की छूट दे दी गई है। सरकारी बैंकों व वित्तीय संस्थाओं और अन्य वित्तीय व्यवसायिकों द्वारा स्वर्ण संचयन के पक्ष में विज्ञापन दिए जाते हैं। जिस काम को कल तक तस्करी के रूप में अवैध माना जाता था, नव उदारीकरण की छत्र छाया मंे वह फल-फूल रहा है। अब सोने का सालाना अयात लगभग एक हजार टन हो रहा है। जो लोग विदेशों से मँगाकर सोना खरीदते हैं, उन्हें विदेशी बैंकों में अपना कालाधन जमा कराने की जहमत मोल नहीं लेनी पड़ती है। सोना-चाँदी खरीदों उसे कहीं गुप्त घरों में, फार्म हाउसों में जमा करके रखो, उसको जब चाहों देस परदेस में बेच दो, टैक्स चुराओ और सोने में लगाओ तथा उसके ऊँचे चढ़ते दामों के कारण भारी भरकम मुनाफा कमाओ, आदि-आदि आज के आर्थिक परिदृश्य के वास्तविक चित्र हैं जिनकी तह में सरकारी सभी गैर वामदलों की घोषित और डंके की चोट पर लागू की गईं नीतियांँ हैं। अजीब बात है कि सोने की ऊँची कीमतों को कारण बताकर इस पर कर की दर काफी नीची रखी जाती है। कर देयता की कुलराशि पर ध्यान दिया जाता है उसकी सापेक्षिक न्यूनता अपर्याप्तता पर नहीं। उसके गैर जरूरी प्रकृति तक उसके अन्य नकारात्मक पहलुओं को भी नज़रअंदाज कर दिया गया है। सोने का उपयोग स्वर्णधारक द्वारा देश के बाहर जमा काले धन की तरह जब चाहे देश के बाहर भी किया जा सकता है। विदेश में इसे हवाला के जरिये भेजना भी नहीं पड़ता है। विदेश यात्रा में इसे साथ ले जाया जाता है, और वहाँ इसका निवेश भी हो सकता है।
इस तरह प्राप्त राशि से विदेशों में वहाँ के अय्याशी के अड्डों में गुलछर्रे भी उड़ाए जा सकते हैं। रिश्वत देने-लेने में भी इन महँगी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से और बेखौफ हो रहा है। स्त्रीधन के रूप में प्रचारित घोषित करके स्वर्ण राशि और स्वर्ण आभूषण विशाल धनराशि के संचयन तथा काले धन को छिपाने के माध्यम बन गए हैं। इन नए समाज विरोधी रुझानों और प्रवृत्तियों की ही एक झाँकी मिलती है, आर्थिक आँकड़ों की नई परिभाषाओं और गणना के बदले हुए तरीकों मंे। पहले सोने-चाँदी, मणि-माणिक मंे लगी राशि को अनुत्पादक मानकर उनकी कीमत को राष्ट्रीय निवेश में शामिल नहीं किया जाता था। लेकिन अब पूरी तरह निजी स्वर्णाभूषण, रजत भण्डार और जवाहरात में लगी राशि को राष्ट्रीय निवेश दर की गणना में शुमार किया जाता है। नीतिगत सोच के बदले और सीमित स्वार्थ आधारित रुझानों की यह एक झाँकी भर है।
उपर्युक्त तथ्य सोने-चाँदी को निजी धन संचय, मुनाफा प्राप्ति तथा कई प्रकार की ‘सुविधाओं’ की जननी की भूमि को रेखांकित करते है। इनके साथ में राष्ट्रीय सामाजिक लाभ की दृष्टि से एक संभावना जरूर छिपी रहती है। अन्तर्राष्ट्रीय वित्त के क्षेत्र में स्वर्ण भण्डार की भूमिका पूरी तरह परिवर्तनीय या विनिमयक्षम मुद्राओं के समान अथवा समकक्ष होती है। अतः सामाजिक उद्देश्यों से प्रेरित सरकारें देश में भण्डारित स्वर्ण, रजत राशि का उपयोग विदेशी लेन देन में कर सकती है। बशर्ते इसके लिए पर्याप्त राजनैतिक इच्छा शक्ति और प्रतिबद्धता हो। ये सब बातें आधुनिक काल में सोने चाँदी की माँंग की प्रबलता और उनकी कीमतों की लगातार नई ऊँचाइयों की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति को परिलक्षित करती हैं। इसमें एक बात और जोड़ दीजिए तो सोने-चाँदी की ऊँची बढ़ती कीमतों की कहानी को नई ताकत और स्फूर्ति मिल जाएगी। सोने-चाँदी की ऊँची कीमतें उसके भण्डारण और आवागमन को एक भारी जोखिम भरा मामला बना देती हंै। बार-बार उसकी शुद्धता की गारन्टी भी हासिल करनी पड़ती है। इन दिक्कतों के निवारण के साथ-साथ खरीद-बिक्री की सुविधा, खरीददारों ओर विक्रेताओं की खोज को भी सरल और विश्वव्यापी बनाने के लिए अभौतिक रूप में वायदा बाजारों में सोना-चाँदी महत्वपूर्ण स्थान रखने लगे हैं। इस तरह स्वर्ण बाजार की तरलता बढ़ गई है। शेयरों और विदेशी मुद्रा की तरह या किसी भी वित्तीय रुक्के की भाँति सोने चाँदी के वायदा बाजारो का लगातार विस्तार हो रहा है। इन बाजारों में पल-पल अरबों, खरबों रुपये के सोने-चाँदी का लेन-देन होता है। नई-नई बदली हुई कीमतें सामने आती हैं और फिर भी एक औंस या रत्ती भर सोने-चाँदी का स्थानान्तरण नहीं करना पड़ता है। केवल व्यापारित सोने-चाँदी की मिल्कियत के कागजात के हस्तांतरण द्वारा जब लेन-देन के एक चक्र की समाप्ति होती है केवल उनकी घोषित कीमत के एक अंश के लेन-देन के आधार पर बड़े-बड़े सौदे हो जाते हैं। अतः अब विश्व बाजारों में सोने-चाँदी की उपलब्ध मात्रा से कितने ही गुना ज्यादा मात्रा में सोने-चाँदी का लेन-देन या उनके नाम पर किए गए सौदे का लेन-देन उनको पाटना या आगे खिसकाना आदि होते हैं। इनको ठोस आर्थिक वित्तीय परिघटनाओं की तरह ही सट्टोरियों का मूड उनकी मानसिकता या धारणाएँ प्रभावित करती हंै।
विश्व अर्थ व्यवस्था के घोर विषमतामय होते रवय्ये के साथ ही उसका वित्तीयकरण (फाईनेन्शियलाईजेशन) यानी वित्त या मुद्रा या ऐसी ही परिसम्पत्तियों, अस्तियों के लेन-देन की प्रवृत्ति बढ़ती है। इससे इन परिसम्पत्तियों के दामों के निरन्तर उच्चतर स्तर की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति जन्म लेती है और सतत बलवती होती रहती है। आधुनिक विश्व में सोने-चाँदी के दामों में उछाल की कहानी के पीछे ये ठोस सामाजिक-आर्थिक और वित्तीय प्रक्रियाएँ और प्रवृतियाँ सक्रिय हैं।
यहाँ एक और तथ्य का खुलासा इस सवाल पर हमारी समझ को स्पष्ट करने में सहायक होगा। विश्व वस्तु व्यापार तथा वित्तीय लेन-देन लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वास्तव में मुद्रा, पँूजी, विदेशी मुद्रा, विभिन्न किस्म के वित्तीय रुक्को आदि का लेन-देन वास्तविक वस्तु व्यापार से हजारांे गुना ज्यादा होता जा रहा है। ये सब वित्तीय अस्तियाँ या रुक्के एक दूसरे का स्थान बखूबी ग्रहण कर लेने में सक्षम बना दिए गए हैं। सट्टोरिये, निवेशक, वित्तीय कम्पनियाँ विभिन्न वित्तीय बाजारों के बीच कीमतों, लाभ-हानि की गणना, भावी अनुमानों आशंकाओं के अनुसार अपनी परिसम्पत्तियों को घटाते-बढ़ाते रहते हंै। लक्ष्मी की चंचलता के बेजोड़ उदाहरण हैं ये।
एक विदेशी मुद्रा को किसी भी शेयर, सोने-चाँदी, ऋण पत्र आदि के बदले खरीद-बेच सकते हंै। किन्तु अपनी अन्तर्राष्ट्रीय सर्वव्यापक स्वीकार्यता के चलते इन बाजारांे में अमरीकी डाॅलर की भूमिका, महत्ता लम्बे अरसे से बेजोड़ है। किन्तु इन दिनों अमरीकी वर्चस्व वाला दुनिया का एकल ध्रुवीकरण समाप्ति की ओर है। अमरीका, अमरीकी अर्थव्यवस्था और डाॅलर अपनी सर्वोच्च स्थिति से हटते जा रहे हंै। एक ओसामा बिन लादेन को बरसों की जद्दोजहद के बाद अपनी पूरी ताकत झोंक कर मार गिराने को ही अब विश्व शक्ति होने का प्रमाण माना जा रहा है। यह भूलतेे हुए की वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान आदि में किस तरह एक अस्तांचल गामी शक्ति की झलक मिलने लगी है। किन्तु 2008 में शुरू, अमरीका में उत्पन्न हो, सारे संसार को लील लेने वाली बड़ी आर्थिक गिरावट ने तो विश्व अर्थव्यवस्था की रंगत ही बदल डाली। सच है यह बड़ी गिरावट सन् 1930 के दशक जैसी विश्व व्यापक महामंदी नहीं बन पाई। किन्तु तमाम ताबड़तोड़, भारी भरकम और विश्वव्यापी संभावित माने जाने वाले प्रयासों के बावजूद इस बड़ी गिरावट का भूत दुनिया का पिंड नहीं छोड़ रहा है। चीन, जापान तथा पेट्रोल धनी देशों के पास अमरीकी डाॅलर का विशाल जखीरा है। अमरीकी अर्थव्यवस्था तीनों तरह के (व्यापार, राजकोषीय और बचत) घाटों के चक्र में आकंठ फँसी हुई है। फलतः अन्य शक्तिमान होते देशों के पास अमरीकी डाॅलर जमा हो रहे हैं और अमरीकी राज्य उन देशों को अपनी प्रतिभूतियाँ बेच कर अपना घाटा पाट रहा है। नतीजन डाॅलर कमजोर हो रहा है। अब उसकी विश्वव्यापी रिजर्व करेंसी की भूमिका के पैर उखड़ने लगे हैं। विकल्प तलाशे और बनाए जा रहे है। इन हालात में डूबते डाॅलर को स्वयं अमरीका भी बड़ी मात्रा में नए डाॅलर छाप कर और ज्यादा कमजोर कर रहा है ताकि अन्य देशों के डाॅलर भण्डारों का मोल घट जाए। इन सब कारणों से वित्तीय और विदेशी मुद्रा बाजारों में भारी हलचल है। लोग कभी किसी वित्तीय परिसम्पत्ति से पलायन करते हैं तो कभी किसी अन्य अस्ति का वरण करते हैं। इसका नतीजा इन परिसम्पत्तियों की कीमतों की भारी अस्थिरता में नजर आता है। सोने-चाँदी का इस्तेमाल भी एक वित्तीय अस्ति के रूप में हो रहा है। इनकी माँग में दीर्घकालिक ही नहीं अल्पकालिक स्तर पर भी चढ़ाव का रुख है। चाहे तेजडि़यों का दौर हो या मन्दडि़यों का बोलबाला सोने-चाँदी की तो आम तौर पर बल्ले-बल्ले ही बनी रहती है। हम सोने-चाँदी में अपना पैसा डालने के लाभों का और न्यूनतम जोखिम की चर्चा कर चुके हंै। अतः न केवल बहरहाल बल्कि आने वाले समय में काफी दूर तक शायद ही कोई ऐसी अन्य अस्ति या मुद्रा नजर आए जो अपने कम वजन की गागर में इतने विशाल मूल्य की सर्व स्वीकार्य चिरन्तन क्रय शक्ति के इतने विशाल सागर को भरने की डाॅलर की क्षमता को टक्कर दे सके। अतः इनके दामों का हिमालय जैसी ऊँचाइयों की ओर बढ़ते रहना ही संभावित है। जिसके पास जितनी मात्रा सोने-चाँदी की है वह इनके आसमानगामी दामों से उतना ही प्रसन्न है और जैसे जैसे यह प्रसन्नता बढ़ती है, इन
धातुओं की खरीद बढ़ती है। यह एक परस्पर वृद्धि कारक प्रक्रिया बन चुकी है।
अब यह स्पष्ट है कि सोेने की अदम्य ललक की वजह से इस स्वर्ण मृग की तृष्णा में भारत का मध्यवर्ग किस तरह अति सम्पन्न तबकों के हाथ का उनकी स्वार्थ सिद्धि मंे सहायक, खिलौना बन गया है। एक व्यक्ति के स्तर पर सोने-चाँदी में निवेश लाभ का सौदा है यदि भौतिक सुरक्षा की गारन्टी हो। किन्तु मध्य आय वर्ग अपनी सामाजिक साख, प्रतिष्ठा और दिखावे के चक्कर में अपनी गाढ़ी मेहनत मशक्कत की कमाई इन धातुओं मंे लगा कर एक ओर तो रोजगार वर्द्धक तथा जरूरी आवश्यकता की चीजों के उत्पादन से निवेश को हटाता है, दूसरे शादी-ब्याह और भेंट के अपने खर्च को बढ़ाता है। साथ ही अतिसम्पन्न वर्ग की शक्ति के सम्मुख अपनी शक्ति क्षरण करने में मध्यम आमदनी वाला तबका खुद ही मददगार होता है। किस तरह सामाजिक ध्येय तथा स्वार्थ सतही सोच और निर्णयों से व्यक्तिगत हित साधना से टकराते है इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है सोने-चाँदी के दामों की ताजा तरीन प्रवृत्तियाँ।
-कमल नयन काबरा
मो0:- 09013504389
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