शनिवार, 2 जुलाई 2011

ओबामा, ओसामा और अफ-पाक

अमरीकी सैनिक कार्यवाही में ओसामा बिन लादेन की मौत ने कई प्रश्नों को जन्म दिया है और कई छिपी हुई सच्चाइयाँ उजागर हुईं हैं। यह स्पष्ट है कि अमरीका ने एक सफल सैनिक कार्यवाही में, अल् कायदा के मुखिया और दुनिया के सबसे दुर्दान्त आतंकवादी ओसामा बिन लादेन का खात्मा कर दिया है। इस कार्यवाही को अंजाम देने के लिए, जिस उच्च प्रशिक्षित कमांडो दस्ते का इस्तेमाल किया गया, उसने पाकिस्तान की हवाई सीमा का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया।
बराक हुसैन ओबामा सातवें आसमान पर हैं। उनके नेतृत्व में अमरीका ने वह हासिल किया है, जिसे पाने की कोशिश अमरीकी गुप्तचर एजेन्सियाँ दस साल से कर रही थीं। ओबामा का खुश होना स्वाभाविक है। एक ओर वे नोबेल शांति पुरस्कार के विजेता हैं तो दूसरी ओर उनकी छवि एक ऐसे ताकतवर नेता की बन गई है जो अपने दुश्मनों का सफाया कर देता है। अगले चुनाव में उनकी जीत की संभावना काफी बढ़ गई है।
दूसरी ओर, पाकिस्तान सरकार एक अजीबो-गरीब परिस्थिति में फँस गई है। पाकिस्तान लगातार यह कहता रहा है कि ओसामा उसके देश में नहीं है, व यह भी कि पाकिस्तान, आतंकियों की पनाहगाह नहीं है और इसके बाद क्या हुआ? ओसामा, पाकिस्तान की सबसे प्रसिद्ध सैन्य प्रशिक्षण अकादमी से पैदल तय की जा सकने वाली दूरी पर पाया गया।
अमरीका ने पाकिस्तान को जमकर अपमानित किया है। अमरीका ने पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन किया। उसने पाकिस्तान की धरती पर सैनिक कार्यवाही करने से पहले पाकिस्तान की अनुमति लेना तो दूर, उसे सूचित करना तक जरूरी नहीं समझा। पाकिस्तान के घावों पर नमक छिड़कते हुए, अमरीका ने अपने सैन्य बलों का दूसरे देश में इस्तेमाल करने के लिए माफी माँगने से भी इंकार कर दिया है। ऐसी आशंका जताई जा रही है कि इसी प्रकार की सैनिक कार्यवाही के जरिए अमरीका, पाकिस्तान के परमाणु हथियारों के जखीरे को नष्ट कर सकता है। पाकिस्तान के ओसामा के बारे में लगातार झूठ बोलने के कारण यह माँग भी उठ रही है कि पाकिस्तान को “आतंकी राष्ट्र“ घोषित किया जाए। और तो और, भारतीय सेना प्रमुख तक ने भी ताल ठोककर यह कहा है कि भारतीय सैन्य बल भी पाकिस्तान के भीतर ऐसी ही सैनिक कार्यवाही करने में सक्षम हैं।
ओसामा की मौत के शोर-शराबे में कई सच्चाइयाँ दब सी गई हैं, ओसामा की मौत को एक आतंकी का अंत मात्र समझना गलत होगा। इस मामले में सच की कई परते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमरीका ही अल् कायदा का जनक है। इस तथ्य को आखिर क्यों छुपाया जा रहा है कि अमरीका ने ही ओसामा बिन लादेन को अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं से लड़ने के लिए धन और हथियार दिए थे? अमरीका आज भले ही पाकिस्तान को ओसामा को शरण देने का दोषी बता रहा हो परंतु क्या यह सच नहीं है कि पाकिस्तानी सेना और आई.एस.आई., मध्यपूर्व के तेल संसाधनों पर कब्जा जमाने की अमरीकी रणनीति के महत्वपूर्ण मोहरे रहे हैं?
कुछ दशक पहले तक, शीत युद्ध का दौर था। उस समय आतंकवाद नहीं बल्कि साम्यवाद, अमरीका का दुश्मन नंबर वन हुआ करता था। अमरीका का लक्ष्य था पूरी दुनिया पर आर्थिक, राजनैतिक व सैनिक दबदबा जमाना और उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा था समाजवादी देशों का गुट। इसी दौरान, अफगानिस्तान की कम्यूनिस्ट सरकार ने देश में भू-सुधार करने का कार्यक्रम हाथ में लिया और उसकी मदद के लिए सोवियत सेनाएँ अफगानिस्तान में काबिज हो गईं।
सोवियत संघ की इस कार्यवाही का विरोध करने के लिए, अमरीका ने क्षेत्र में कट्टरपंथी इस्लाम को प्रोत्साहन देना शुरू कर दिया। यह वह समय था जब वियतनाम में मुँह की खाने के बाद, अमरीकी सेना का मनोबल टूट चुका था और अमरीका, अपनी सेनाएँ अफगानिस्तान में भेजने की स्थिति में नहीं था।
सोवियत सेना से मुकाबला करने के लिए अमरीका ने एक चतुर रणनीति अपनाई। उसने इस्लाम के कट्टरपंथी संस्करण को प्रोत्साहन व समर्थन देना शुरू कर दिया। अमरीका के सी.आई.ए. ने आई.एस.आई. की मदद से पाकिस्तान में मदरसों की स्थापना करवाई। इन मदरसों में जिहाद और काफिर जैसी इस्लामिक अवधारणाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाने लगा। इन मदरसों का पाठ्यक्रम वाशिंगटन में तैयार किया गया। इसका उद्देश्य था एशियाई मुस्लिम युवकों को आतंकवाद के रास्ते पर ढकेलना। सऊदी अरब के एक सिविल इंजीनियर ओसामा को, मदरसों से खूँखार आतंकी बनकर निकल रहे युवकों के संगठन अल् कायदा का नेतृत्व सँभालने के लिए चुना गया। इसके बाद क्या हुआ, यह सर्वज्ञात है।
अल् कायदा के भारत व पाकिस्तान पर आतंकी हमलों के इतिहास से हम सब वाकिफ हैं परंतु हम सभी इस तथ्य को अपेक्षित महत्व नहीं देते कि अमरीका और आई.एस.आई. व पाकिस्तानी सेना के गठजोड़ ने ही अल् कायदा की विषबेल को बोया और सींचा था।
अमरीका से हथियारों से लदे जहाज, पाकिस्तानी बंदरगाहों पर पहुँचते थे, जहाँ उनकी कोई जाँच नहीं की जाती थी और हथियारों को सीधे अल् कायदा को सौंप दिया जाता था। अमरीका के एक पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन का एक दिलचस्प वक्तव्य इस सिलसिले में प्रासंगिक है। बात सन् 1985 की है। अल् कायदा के नेताओं का एक दल व्हाइट हाउस आया हुआ था। अजीब से कपड़े पहने हुए इन लोगों को हैरानी से देख रहे पत्रकारों को संबोधित करते हुए रीगन ने कहा- “जेंटिलमेन, ये अजीब से दिख रहे लोग, दरअसल, अमरीका के संस्थापकों के समकक्ष हैं“ (व्हाइट हाउस के लाॅन में मुजाहिदीन नेताओं का मीडिया से परिचय करवाते हुए रोनाल्ड रीगन- (1985)। उस समय ये मुजाहिदीन, अफगानिस्तान में अमरीका की लड़ाई लड़ रहे थे। वे अमरीका के एजेंट के बतौर यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे थे कि इस इलाके में शक्ति संतुलन कायम रहे और कच्चे तेल से भरपूर इस क्षेत्र में अमरीका का दबदबा बना रहे।
सन् 1991 के खाड़ी युद्ध में अमरीका ने इराक को परास्त किया। कई अन्य मुस्लिम देशों को भी अमरीका ने भारी नुकसान पहॅँुचाया। इस सब से अल् कायदा अपने ही जन्मदाता का दुश्मन बन बैठा। अल् कायदा और उससे जुडे़ संगठनों ने अमरीका को “सबसे बड़ा शैतान“ कहना शुरू कर दिया। वे अमरीका के खिलाफ जहर उगलने लगे।
इस दौर में पाकिस्तान का शासन कई अलग-अलग जनरलों के हाथों में रहा। ये जनरल, मौलानाओं के सहयोग से देश पर अपनी पकड़ बनाए रखते थे। वे अमरीका के वफादार सेवक थे। पाकिस्तानी सेना व आई.एस.आई., धन के बदले इस इलाके में अमरीकी नीतियों को लागू करने का काम करती रहीं। 9/11 के बाद स्थितियों में परिवर्तन आया। वल्र्ड टेªड सेंटर पर हमले में विभिन्न धर्मों व देशों के 3000 से अधिक लोग मारे गए।
इस हमले के बाद, अमरीकी मीडिया ने एक नया शब्द गढ़ा - “इस्लामिक आतंकवाद“। इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ने वाले इस शब्द को पूरी दुनिया के मीडिया ने हाथो-हाथ लिया। इसी के साथ आया “सभ्यताओं के टकराव“ का सिद्धांत। यह सिद्धांत, अमरीकी विदेश नीति का मार्गदर्शक बन गया।
इस सिद्धांत का लुब्बेलुबाब यह है कि “पिछड़ी इस्लामिक सभ्यता“ का उन्नत पश्चिमी सभ्यता से टकराव होना अवश्यंभावी है। जार्ज डब्लू बुश ने अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले को क्रूसेड्स (धर्मयुद्ध) की संज्ञा दी थी। सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत को सरल शब्दों में प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा था, “अमरीकन पूछ रहे हैं- वे हमसे घृणा क्यों करते हैं? वे हमारी स्वतंत्रताओं से घृणा करते हैं- हमारी
धार्मिक स्वतंत्रता से, हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से, हमारी वोट देने की स्वतंत्रता से और हमारे एकत्रित होने व एक दूसरे से असहमत होने की स्वतंत्रता से“(जार्ज डब्लू बुश, 11/9/2001 के बाद अमरीकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए)।
इस सिद्धांत ने दुनिया के मुसलमानों का दानवीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हाल में ट्यूनीशिया, मिस्र और अन्य अरब देशों की जनता द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से प्रजातंत्र के लिए संघर्ष करने से इस्लाम और मुसलमानों के बारे में कई मिथक व पूर्वाग्रह टूटे हैं। अमरीका भी अब अपना नारा बदलना चाहता है। दुनिया में अपनी दादागीरी चलाते रहने के लिए, “प्रजातंत्र का निर्यात“ अमरीका का अगला नारा हो सकता है। इस नारे से अमरीका को दूसरे देशों में अपने सैन्य हस्तक्षेप को उचित ठहराने में मदद मिलेगी। पाकिस्तान की सैनिक सरकारों, जिन्होंने अमरीकी हितों की पूरी वफादारी से रक्षा की, का स्थान नागरिक सरकार ने ले लिया है। यह सरकार पाकिस्तान में प्रजातंत्र लाने की कोशिश कर रही है और वहाँ के समाज को मिलेट्री-मुल्ला गठजोड़ के चंगुल से निकालने की इच्छुक है। यह संयोग की बात है कि लगभग इसी समय अमरीकी नीतियों में भी परिवर्तन हो रहा है। शायद अमरीका को अब पाकिस्तान की सेना और आई0एस0आई0 की सेवाओं की जरूरत नहीं है और इसलिए कई दशकों में पहली बार, अमरीका ने पाकिस्तान की खुलकर कटु आलोचना की है। पाकिस्तान के नेतृत्व को अपने देश के भविष्य के बारे में चिंतन और आत्मावलोकन करना चाहिए। उसे अमरीका के चंगुल सेे मुक्त होने की कोशिश करनी चाहिए और यह विचार करना चाहिए कि अन्य पश्चिम एशियाई देशों के सहयोग से पाकिस्तान किस तरह एक प्रगतिशील-प्रजातांत्रिक देश बन सकता है। अमरीका और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों से दूसरे देशों को भी सबक सीखना चाहिए। पाकिस्तान के साथ अमरीका के संबंधों का इतिहास बताता है कि अमरीका की दोस्ती किस तरह रातो रात दुश्मनी में बदल जाती है और किस तरह अमरीका अपने सहयोगियों के आत्मसम्मान की तनिक भी परवाह नहीं करता। जो अन्य देश व्हाइट हाउस की शरण में जाने की महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं उन्हें इससे सबक लेना चाहिए।

-राम पुनियानी
मो0:- 09322254043


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