लोकतंत्र पर खतरा लोगों से नहीं है, बल्कि खतरा पूँजी की दानवी करतूत से है। लोकतंत्र और पूँजीवाद एक साथ नहीं चलते हैं। दानवी पूँजी लोकतंत्र का निषेध है। निरंकुश पूँजीवाद ने समाज के सारे ताने-बाने बिगाड़ दिए हैं। पूँजी के उन्मुक्त बाजारवाद ने गलाकाट अनैतिक न्रशंस प्रतियोगिता को जन्म दिया है। इसने उद्धम उपभोक्तावाद की बेलगाम संस्कृति विकसित की है। इसने तमाम मानवीय मूल्यों और आदर्शों की बलि चढ़ा दी है तथा लोकतान्त्रिक संस्थानों संसद एवं विधान सभाओं की कार्यप्रणाली को भी भ्रष्ट बना दिया है। लोगों ने अनुभव से देखा है कि सरकार बदलने से नीतियाँ नहीं बदलती हैं। कांग्रेस और भाजपा सरकारों की नीतियाँ एक जैसी हैं। यही हाल अमेरिका, ब्रिटेन और पाश्चात्य देशों का भी है। सत्ता के दावेदार पार्टियों की नीतियों में कोई बुनियादी भेद नहीं है।
भारतीय लोकतान्त्रिक प्रणाली का दोष यह है कि इसके अंतर्गत अल्पमत की सरकारें राज करती हैं। जनता जिसकी जमानत जब्त करा देती है, चुनाव आयोग उसे प्रमाण पत्र जारी करता है, क्यूंकि प्राप्त मतों में उसे ही सर्वाधिक मत मिला होता है। 1977 की जनता पार्टी सरकार को छोड़कर आजाद भारत में किसी भी केन्द्रीय सरकार को देश के बहुमत मतदाताओं का विश्वास हासिल नहीं हुआ है। सत्ताधारियों को इस हकीकत का एहसास होना चाहिए कि वे देश की बहुमत जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। इसलिए वक्त का तकाजा है कि चुनाव प्रणाली में तुरंत संशोधन किया जाये।
देश के सामने मूल प्रश्न यह नहीं है कि संसदीय सर्वोच्चता कायम कैसे रखी जाए, बल्कि मूल प्रश्न संसद और सांसदों के चारित्रिक पतन रोकने का है। वैश्वीकरण की नव उदारवादी आर्थिक नीति लागू होने के साथ नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में संसदीय बहुमत हासिल करने के लिये जो पैसों का खेल प्रारंभ हुआ, उसे डॉ मनमोहन सिंह ने शिखर तक पहुंचा दिया। हर्षद मेहता कांड से लेकर 2 जी स्पेक्ट्रम तक भ्रष्टाचार की भयावह यात्रा जनता का दिल दहला रही है। पूरे मामले में संसद की आश्चर्यजनक निष्क्रियता ने कार्यपालिका की काली करतूतों पर पर्दा डाला है। इससे संसदीय गरिमा का तीव्र क्षरण हुआ है। यद्यपि नगरपालिका समाये से पीछे चलनेवाली मानी जाती है, फिर भी उसने आगे बढ़कर हस्तक्षेप नहीं किया होता तो ये कुकांड कभी प्रकाश में नहीं आते। इसलिए जिस तीव्रता से संसदीय गरिमा का क्षरण रोका जायेगा, उसी क्रम से जनमानस में संसदीय सर्वोच्चता स्वीकार्य होगी।
2009 के सितम्बर महीने में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केन्द्रीय ट्रेड यूनियन की पांच सूत्री मांगों पर वार्ता करने का आश्वासन दिया था, वह आश्वासन आज तक पूरा नहीं किया जा सका, जबकि इसी बीच पूंजीपतियों के साथ अनेक दरवाजा बंद बैठकें की गयी। इससे अगर औद्योगिक अशांति फैलती है तो इसका जिम्मेदार सरकार ही है।
महंगाई पर काबू नहीं पाया गया, बेरोजगारी बढती जा रही है, लोगों की आमदनी काम होती जा रही है, उनका जीना दूभर है, किन्तु दूसरी और पूंजीपति मोटे हो रहे हैं, उनकी आमदनी आकाश चूम रही है। इस आर्थिक विषमता के चलते सामाजिक तनाव पैदा हुआ है और देश में हिंसक घटनाएं बढ़ी हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा सदाचार और लोकतंत्र का पथ पढाया जाना अनाचार ही होगा। इसलिए स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री के लालकिला के प्राचीर से दिया गया सन्देश लोगों में विश्वास पैदा नहीं करता है।
मजदूर वर्ग समाज का अगुआ दस्ता है। 7 सितम्बर 2011 को ट्रेड यूनियनों का फिर राष्ट्रीय कनवेंशन हो रहा है। निश्चय ही यह कनवेंशन देश के मेहनतकश अवाम में नया विश्वास और जोश भरेगा।
सत्य नारायण ठाकुर
समाप्त
भारतीय लोकतान्त्रिक प्रणाली का दोष यह है कि इसके अंतर्गत अल्पमत की सरकारें राज करती हैं। जनता जिसकी जमानत जब्त करा देती है, चुनाव आयोग उसे प्रमाण पत्र जारी करता है, क्यूंकि प्राप्त मतों में उसे ही सर्वाधिक मत मिला होता है। 1977 की जनता पार्टी सरकार को छोड़कर आजाद भारत में किसी भी केन्द्रीय सरकार को देश के बहुमत मतदाताओं का विश्वास हासिल नहीं हुआ है। सत्ताधारियों को इस हकीकत का एहसास होना चाहिए कि वे देश की बहुमत जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। इसलिए वक्त का तकाजा है कि चुनाव प्रणाली में तुरंत संशोधन किया जाये।
देश के सामने मूल प्रश्न यह नहीं है कि संसदीय सर्वोच्चता कायम कैसे रखी जाए, बल्कि मूल प्रश्न संसद और सांसदों के चारित्रिक पतन रोकने का है। वैश्वीकरण की नव उदारवादी आर्थिक नीति लागू होने के साथ नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में संसदीय बहुमत हासिल करने के लिये जो पैसों का खेल प्रारंभ हुआ, उसे डॉ मनमोहन सिंह ने शिखर तक पहुंचा दिया। हर्षद मेहता कांड से लेकर 2 जी स्पेक्ट्रम तक भ्रष्टाचार की भयावह यात्रा जनता का दिल दहला रही है। पूरे मामले में संसद की आश्चर्यजनक निष्क्रियता ने कार्यपालिका की काली करतूतों पर पर्दा डाला है। इससे संसदीय गरिमा का तीव्र क्षरण हुआ है। यद्यपि नगरपालिका समाये से पीछे चलनेवाली मानी जाती है, फिर भी उसने आगे बढ़कर हस्तक्षेप नहीं किया होता तो ये कुकांड कभी प्रकाश में नहीं आते। इसलिए जिस तीव्रता से संसदीय गरिमा का क्षरण रोका जायेगा, उसी क्रम से जनमानस में संसदीय सर्वोच्चता स्वीकार्य होगी।
2009 के सितम्बर महीने में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केन्द्रीय ट्रेड यूनियन की पांच सूत्री मांगों पर वार्ता करने का आश्वासन दिया था, वह आश्वासन आज तक पूरा नहीं किया जा सका, जबकि इसी बीच पूंजीपतियों के साथ अनेक दरवाजा बंद बैठकें की गयी। इससे अगर औद्योगिक अशांति फैलती है तो इसका जिम्मेदार सरकार ही है।
महंगाई पर काबू नहीं पाया गया, बेरोजगारी बढती जा रही है, लोगों की आमदनी काम होती जा रही है, उनका जीना दूभर है, किन्तु दूसरी और पूंजीपति मोटे हो रहे हैं, उनकी आमदनी आकाश चूम रही है। इस आर्थिक विषमता के चलते सामाजिक तनाव पैदा हुआ है और देश में हिंसक घटनाएं बढ़ी हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा सदाचार और लोकतंत्र का पथ पढाया जाना अनाचार ही होगा। इसलिए स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री के लालकिला के प्राचीर से दिया गया सन्देश लोगों में विश्वास पैदा नहीं करता है।
मजदूर वर्ग समाज का अगुआ दस्ता है। 7 सितम्बर 2011 को ट्रेड यूनियनों का फिर राष्ट्रीय कनवेंशन हो रहा है। निश्चय ही यह कनवेंशन देश के मेहनतकश अवाम में नया विश्वास और जोश भरेगा।
सत्य नारायण ठाकुर
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