अन्ना हजारे के अनशन के विरोध और समर्थन में बहुत कुछ लिखा जा चुका है-विरोध में कम और समर्थन में ज्यादा। फिर, एक और लेख की क्या जरूरत है? हर लेखक का अपना एक दृष्टिकोण होता है और मेरा भी है। हर लेख कुछ ऐसे नए तथ्यों को उद्घाटित करता है जो पुराने लेखों में नहीं होते। इसके पहले भी मैंने अन्ना हजारे के आंदोलन का गांधीवाद के दृष्टिकोण से विश्लेषण किया था परंतु इस आंदोलन के बारे में कुछ और बातें भी कही जानी चाहिए, कुछ अन्य पहलुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए। चाहे हम इस आंदोलन के साथ हों, उसके प्रति तटस्थ हों या उसके विरोधी हों, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आंदोलन का हमारे प्रजातानात्रिक ढांचे और हमारे देश की सामूहिक सोच पर गहरा प्रभाव पड़ा है।
सबसे पहले हम यह जानने की कोषिष करें कि हजारे और उनके तरीके कितने गांधीवादी हैं। मीडिया उन्हें गांधीवादी बताते नहीं थक रहा है, षायद इसलिए क्योंकि उन्होंने महात्मा गांधी की तरह उपवास किया। परंतु क्या केवल उपवास करने से कोई व्यक्ति गांधीवादी हो जाता है? यह एक बहस का विषय है। गांधीजी के लिए अनषन राजनैतिक हथियार नहीं था। वे आत्मशुद्धि के लिए व्रत रखते थे। मेरा यह मत है कि कोई व्यक्ति मात्र इसलिए गांधीवादी नहीं बन जाता क्योंकि वह अनशन करता है। सच्चा गांधीवादी कहलाने के लिए उसे कुछ और शर्तों को भी पूरा करना होगा। ये शर्तें क्या हैं? गांधीजी साध्य और साधन-दोनों की पवित्रता पर जोर देते थे। उनकी यह मान्यता थी कि साध्य चाहे कितना ही पवित्र क्यों न हो, उसे पाने के लिए अनुचित साधनों के उपयोग से साध्य की पवित्रता ही नष्ट हो जाती है। प्रश्न यह है कि साधनों का क्या अर्थ है? क्या केवल अनशन ही साधन को पवित्र बना देता है? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें गांधीजी के जीवन का अध्ययन करना होगा। हमें यह देखना होगा कि उन्होंने किन परिस्थितियों में और किन उद्धेश्यों के लिए अनषन किए थे।
गांधीजी जब भी अनशन करते थे वे उसे या तो प्रायश्चित और या फिर आत्मशुद्धि का नाम देते थे। वे कभी यह नहीं कहते थे कि उनके अनशन के कारण कोई मांग या मांगें स्वीकार की जावें। प्रजातांत्रिक संस्थाओं व सिद्धांतों की कीमत पर अपनी कोई मांग मनवाने की कशिश तो उन्होंने कभी की ही नहीं। सच तो यह है कि उन्होंने कभी सरकार के विरूद्ध कोई अनषन ही नहीं किया। यह मानना या कहना कि केवल मेरी मांग सही और उचित है और कोई भी दूसरा दृष्टिकोण गलत है, न केवल गैर-प्रजातांत्रिक है वरन् प्रजातांत्रिक संस्थाओं का क्षरण करने वाला भी है। इस तरह की सोच से तानाशाही की बू आती है।
गांधीजी का उपवास उनका आत्मांदोलन होता था। वे इसमें किसी दूसरे व्यक्ति से सहायता की अपेक्षा नहीं करते थे। उपवास करने का निर्णय वे स्वयं लेते थे और उसे खत्म करने का निर्णय भी केवल उनका ही होता था। वे कभी कोई “टीम“ नहीं बनाते थे और न ही उस “टीम“ से कोई सलाह लेते थे। उन्होंने कभी किसी से उनकी ओर से सरकार या किसी अन्य व्यक्ति से बातचीत करने का अनुरोध नहीं किया। हजारे का जोर न केवल इस बात पर था कि उनकी मांगे मानी जाएं बल्कि उन्होंने एक “टीम“ बना रखी थी जो उनकी ओर से सरकार से बातचीत करती थी और निर्णय लेती थी। मीडिया भी लगातार “टीम अन्ना“ शब्द का प्रयोग करता रहा।
गांधीजी ने कभी अपने उपवास को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए लाखों तो छोडि़ए, हजारों या सैकड़ों की भीड़ नहीं जुटाई। उनके उपवास का लक्ष्य कभी जोर-जबरदस्ती से अपनी मांग मनवाना नहींे रहा। उनकी सोच में तानाशाही के लिए कोई स्थान नहीं था। अन्ना को अपने अनषन के सामने सरकार को झुकाने के लिए लाखों लोगों को सड़कांे पर निकालना पड़ा। अन्ना टीम के एक सदस्य ने उनके अनषन के नौवें दिन धमकी की भाषा में यह कहा कि अगर अन्ना को कुछ हो गया तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? अर्थात, सरकार जिम्मेदार होगी और इसलिए उसे अन्ना (ंअसल में अन्ना टीम) की मांगों को तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए।
अंततः यही हुआ। अन्ना के समर्थन में जो लोग सड़कों पर निकले, वे उच्च मध्यम वर्ग और उच्च जातियों के थे और भारत के सभी सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। उनमें अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और गरीबों की संख्या बहुत कम थी। उल्टे, ये वर्ग अन्ना के उपवास के परिणामों के बारे में सषंकित थे क्योंकि यह उपवास, संविधान और संसद की सर्वोच्चता को चुनौती दे रहा था।
समाज के कमजोर व वंचित वर्ग भी भ्रष्टाचार से पीडि़त हैं और वे भी भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी संघर्ष को अपना पूरा समर्थन देना चाहते हैं। परंतु यह संघर्ष अल्पसंख्यकों, दलितों व अन्य वंचित वर्गों की अन्य समस्याओं की कीमत पर नहीं हो सकता। अन्ना के आंदोलन का चरित्र ऐसा था कि उससे यह आषंका उत्पन्न होना स्वाभाविक थी कि उससे वंचित वर्गों की अपने अधिकार पाने की लड़ाई कमजोर होगी। इन वर्गों को ऐसा लग रहा था कि उनका अस्तित्व और उनके मूल अधिकार संविधान व संसद की सर्वोच्चता पर निर्भर हैं और यह सर्वोच्चता कमजोर होने से वे भी कमजोर होंगे।
अन्ना हजारे का आंदोलन, देष पर बहुसंख्यकवाद लादने का षड़यंत्र प्रतीत हो रहा था। इस आंदोलन को मुख्य विपक्षी दल भाजपा के अलावा, आरएसएस का भी पूरा समर्थन मिला। आरएसएस ने भाजपा को अन्ना टीम और उनके अनषन को पूरा सहयोग देने की सलाह दी। इससे वंचित वर्गों की आषंकाएं और गहरी हुईं। संघ और भाजपा के समर्थन ने अन्ना के आंदोलन को नैतिक दृष्टि से कमजोर किया।
इससे आंदोलन का राजनीतिकरण हो गया। अन्ना ने एक ऐसी पार्टी का समर्थन स्वीकार किया जिसके सदस्य गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। जिन राज्यों, विषेषकर कर्नाटक, में भाजपा की सराकारें हैं, वहां के मंत्रियों व पार्टी के उच्च पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। अन्ना, जो कि भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, भला कैसे किसी ऐसी पार्टी का समर्थन स्वीकार कर सकते हैं जिस पर भ्रष्टाचार के कई आरोप हों। संघ और भाजपा ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अन्ना के समर्थन में निकले जुलूसों, धरनों आदि को अपना पूरा समर्थन दिया और उनमें भीड़ जुटाई। इससे भी अन्ना का आंदोलन, नैतिक दृष्टि से कमजोर हुआ।
जहां तक गांधीजी का प्रश्न है, उनके अनशन, राजनीति को आध्यात्मिक व नैतिक दृष्टि से समृद्ध करने के गंभीर प्रयास हुआ करते थे। इसके विपरीत, अन्ना और उनकी टीम ने जमकर राजनीति की। आरोपों और प्रत्यारोप का लंबा सिलसिला चला। रामलीला मैदान पर इकट्ठा भीड़ में कई लोग षराब पीकर षामिल हुए और उन्होंने अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। इतना ही नहीं, अन्ना के आव्हान पर अन्ना के समर्थकों ने सांसदों का घेराव शुरू कर दिया। सांसदों को यह चेतावनी दी गई कि या तो वे अन्ना की मांगें मान लें अन्यथा उनके साथ कुछ भी हो सकता है। प्रधानमंत्री के निवास का भी घेराव किया गया, जिससे निश्चय ही प्रजातांत्रिक व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति की गरिमा को आघात लगा।
अन्ना टीम पर यह आरोप भी लगा कि उन्होंने इतनी भारी भीड़ इकट्ठा करने के लिए विदेशों से प्राप्त धन का इस्तेमाल किया। करीब एक लाख लोगों के लिए दस-बारह दिनों तक खाने-पीने की पूरी व्यवस्था की गई। आखिर यह धन कहां से आया? क्या जिन लोगों ने यह धन दिया वे पूर्णतः ईमानदार और स्वच्छ थे? अगर ऐसा है तो उनके नाम क्यों छिपाए जा रहे हैं? कुछ लोगों ने यह आरोप भी लगाया है कि रामलीला मैदान पर भोजन का इंतजाम विहिप ने किया था। अगर इस आरोप में कोई सच्चाई है तो देष अन्ना से यह जानना चाहेगा कि उन्होंने इन स्त्रोतों से आर्थिक सहायता क्यों स्वीकार की? क्या उनके विहिप से कोई संबंध हैं? यदि नहीं तो उन्होंने अपनी टीम के सदस्यों को विहिप व ऐसे ही अन्य स्त्रोतों से आर्थिक मदद क्यों लेने दीं?
गांधीजी के विपरीत अन्ना ने कभी देष में साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ अनषन नहीं किया। बल्कि, उन्होंने कभी साम्प्रदायिक दंगों की निंदा तक नहीं की। अन्ना ने मोदी सरकार के विकास के माडल की तारीफ की। इन्हीं मोदी के नेतृत्व में सन् 2002 में गुजरात में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि विकास का मोदी माडल, गरीबों की कीमत पर करोड़पतियों को अरबपति बनाने वाला माडल है। इस तरह का माडल गांधीजी को कभी मंजूर नहीं होता।
हमें यह याद रखना चाहिए कि अर्थव्यवस्था का उदारीकरण-वैश्वीकरण और बड़ी कंपनियों के अनाप-शनाप मुनाफे, भ्रष्टाचार के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। सच तो यह है कि पहले की तुलना में आज बड़े उद्योगपति और कारपोरेट दुनिया भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्त्रोत बन गई है। गांधीजी समाज की आखिरी पंक्ति में खड़े सबसे आखिरी आदमी के प्रति चिंतित रहते थे। वे कहा करते थे कि ऐसा विकास का माडल किसी काम का नहीं है जो सबसे कमजोर व्यक्ति को लाभान्वित न करे।
अन्ना ने गुजरात के विकास के उस माडल की तारीफ की जो अमीरों को और अमीर बना रहा है और जिसके चलते, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और धनपषु अकूत संपदा इकट्ठा कर रहे हैं। फिर, हजारे को गांधीवादी कैसे कहा जाता सकता है? हजारे ने गांधीजी द्वारा अविष्कृत आंदोलन के तरीके का इस्तेमाल जरूर किया परंतु उनका आंदोलन गैर-गांधीवादी था और उन्होंने उसकी सफलता के लिए अनैतिक और गांधीजी को सर्वथा अस्वीकार्य रणनीतियों का इस्तेमाल किया। अन्ना ने कई बार यह कहा है कि भ्रष्ट लोगांे को फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। गांधीजी, किसी भी उद्धेष्य-चाहे वह कितना ही पवित्र क्यों न हो- के लिए हिंसा के प्रयोग के विरूद्ध थे।
हजारे के “आदर्ष“ गांव में षराब पीने वालों को जूते मारे जाते हैं और उनके मुंह पर कालिख पोतकर उन्हें गधे पर बैठाकर गांव में घुमाया जाता है। यह निहायत बेहूदा और हिंसक तरीका है जिसके इस्तेमाल को गांधीजी कभी स्वीकार नहीं करते। इस सबसे यह साफ है कि अन्ना हजारे क मूल चरित्र तानाषाहीपूर्ण है। वे सफलता पाने की बहुत जल्दी में हैं और उनका यही चरित्र उनके नेतृत्व में चले आंदोलन मंे भी झलकता है।
भ्रष्टाचार का मुकाबला नए कानून बनाकर और कड़ी सजाएं देकर किया जा सकता है। हजारे का जोर हमेषा “कड़ी सजा“ पर रहता है। जैसा कि मैंने अपने पूर्व के एक लेख में लिखा था, भ्रष्टाचार, कानूनी नहीं बल्कि नैतिक समस्या है। चाहे हम कितने ही नए कानून बना दें, उससे भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है। हत्यारों को फांसी पर चढ़ाने की व्यवस्था है। परंतु क्या इससे हत्याएं बंद हो र्गइं हैं? क्या हत्याओं में जरा सी भी कमी आई है? समस्या यह है कि हमारी न्याय व्यवस्था ही भ्रष्ट है। बड़े-बड़े वकील, दुर्दांत खूनियों को मासूम सिद्ध करने के लिए अपनी जान लड़ा देते हैं। इसके विपरीत, गांधीजी का कहना था कि किसी वकील को कोई मुकदमा तब तक अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए जब तक कि वह संतुष्ट न हो कि उसका मुव्वकिल पूरी तरह निर्दोष है। इस बात की क्या गांरटी हैं कि “षक्तिषाली लोकपाल“ स्वयं भ्रष्ट नहीं हो जाएगा और भ्रष्ट वकील और जज, रिष्वतखोरों की वकालत कर उन्हें निर्दोष सिद्ध नहीं कर देंगे?
भ्रष्टाचार से लड़ने का सबसे प्रभावी हथियार है नैतिकता का प्रचार-प्रसार। परंतु हमारे नागरिक, नैतिक कैसे हो सकते हैं जब कि हमारी षिक्षा व्यवस्था ही मोटी रकम कैपिटेषन फीस के रूप में चुकाकर, महंगे कालेजों से डिग्री हासिल करने और उसके बाद भारी-भरकम पैकेज पाने की अंधी दौड़ पर आधारित है। हमें मजबूत लोकपाल की जरूरत तो है परंतु उससे ज्यादा जरूरी यह है कि हमारी षिक्षण संस्थाओं से पढ़कर निकलने वाले छात्र-छात्राओं का नैतिक चरित्र मजबूत हो।
अन्ना षायद ही कभी नैतिकता की बात करते हैं। उनकी सोच केवल कानूनों और सजाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। गांधीजी का जोर नैतिकता और आध्यात्मिकता पर था। वे समस्याओं का हल अपनी अंतरात्मा में ढूढ़ते थे न कि कानूनों में। जो व्यक्ति मसीहा बनने की जल्दी में होता है वह कभी अपनी अंतरात्मा की आवाज नहीं सुन पाता। वह सभी समस्याओं का हल बाहरी उपायों से करना चाहता है। गांधी बनने के लिए अपनी अंतरात्मा में डूबने की क्षमता अनिवार्य है ।
-डाॅ. असगर अली इंजीनियर
सबसे पहले हम यह जानने की कोषिष करें कि हजारे और उनके तरीके कितने गांधीवादी हैं। मीडिया उन्हें गांधीवादी बताते नहीं थक रहा है, षायद इसलिए क्योंकि उन्होंने महात्मा गांधी की तरह उपवास किया। परंतु क्या केवल उपवास करने से कोई व्यक्ति गांधीवादी हो जाता है? यह एक बहस का विषय है। गांधीजी के लिए अनषन राजनैतिक हथियार नहीं था। वे आत्मशुद्धि के लिए व्रत रखते थे। मेरा यह मत है कि कोई व्यक्ति मात्र इसलिए गांधीवादी नहीं बन जाता क्योंकि वह अनशन करता है। सच्चा गांधीवादी कहलाने के लिए उसे कुछ और शर्तों को भी पूरा करना होगा। ये शर्तें क्या हैं? गांधीजी साध्य और साधन-दोनों की पवित्रता पर जोर देते थे। उनकी यह मान्यता थी कि साध्य चाहे कितना ही पवित्र क्यों न हो, उसे पाने के लिए अनुचित साधनों के उपयोग से साध्य की पवित्रता ही नष्ट हो जाती है। प्रश्न यह है कि साधनों का क्या अर्थ है? क्या केवल अनशन ही साधन को पवित्र बना देता है? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें गांधीजी के जीवन का अध्ययन करना होगा। हमें यह देखना होगा कि उन्होंने किन परिस्थितियों में और किन उद्धेश्यों के लिए अनषन किए थे।
गांधीजी जब भी अनशन करते थे वे उसे या तो प्रायश्चित और या फिर आत्मशुद्धि का नाम देते थे। वे कभी यह नहीं कहते थे कि उनके अनशन के कारण कोई मांग या मांगें स्वीकार की जावें। प्रजातांत्रिक संस्थाओं व सिद्धांतों की कीमत पर अपनी कोई मांग मनवाने की कशिश तो उन्होंने कभी की ही नहीं। सच तो यह है कि उन्होंने कभी सरकार के विरूद्ध कोई अनषन ही नहीं किया। यह मानना या कहना कि केवल मेरी मांग सही और उचित है और कोई भी दूसरा दृष्टिकोण गलत है, न केवल गैर-प्रजातांत्रिक है वरन् प्रजातांत्रिक संस्थाओं का क्षरण करने वाला भी है। इस तरह की सोच से तानाशाही की बू आती है।
गांधीजी का उपवास उनका आत्मांदोलन होता था। वे इसमें किसी दूसरे व्यक्ति से सहायता की अपेक्षा नहीं करते थे। उपवास करने का निर्णय वे स्वयं लेते थे और उसे खत्म करने का निर्णय भी केवल उनका ही होता था। वे कभी कोई “टीम“ नहीं बनाते थे और न ही उस “टीम“ से कोई सलाह लेते थे। उन्होंने कभी किसी से उनकी ओर से सरकार या किसी अन्य व्यक्ति से बातचीत करने का अनुरोध नहीं किया। हजारे का जोर न केवल इस बात पर था कि उनकी मांगे मानी जाएं बल्कि उन्होंने एक “टीम“ बना रखी थी जो उनकी ओर से सरकार से बातचीत करती थी और निर्णय लेती थी। मीडिया भी लगातार “टीम अन्ना“ शब्द का प्रयोग करता रहा।
गांधीजी ने कभी अपने उपवास को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए लाखों तो छोडि़ए, हजारों या सैकड़ों की भीड़ नहीं जुटाई। उनके उपवास का लक्ष्य कभी जोर-जबरदस्ती से अपनी मांग मनवाना नहींे रहा। उनकी सोच में तानाशाही के लिए कोई स्थान नहीं था। अन्ना को अपने अनषन के सामने सरकार को झुकाने के लिए लाखों लोगों को सड़कांे पर निकालना पड़ा। अन्ना टीम के एक सदस्य ने उनके अनषन के नौवें दिन धमकी की भाषा में यह कहा कि अगर अन्ना को कुछ हो गया तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? अर्थात, सरकार जिम्मेदार होगी और इसलिए उसे अन्ना (ंअसल में अन्ना टीम) की मांगों को तुरंत स्वीकार कर लेना चाहिए।
अंततः यही हुआ। अन्ना के समर्थन में जो लोग सड़कों पर निकले, वे उच्च मध्यम वर्ग और उच्च जातियों के थे और भारत के सभी सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। उनमें अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और गरीबों की संख्या बहुत कम थी। उल्टे, ये वर्ग अन्ना के उपवास के परिणामों के बारे में सषंकित थे क्योंकि यह उपवास, संविधान और संसद की सर्वोच्चता को चुनौती दे रहा था।
समाज के कमजोर व वंचित वर्ग भी भ्रष्टाचार से पीडि़त हैं और वे भी भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी संघर्ष को अपना पूरा समर्थन देना चाहते हैं। परंतु यह संघर्ष अल्पसंख्यकों, दलितों व अन्य वंचित वर्गों की अन्य समस्याओं की कीमत पर नहीं हो सकता। अन्ना के आंदोलन का चरित्र ऐसा था कि उससे यह आषंका उत्पन्न होना स्वाभाविक थी कि उससे वंचित वर्गों की अपने अधिकार पाने की लड़ाई कमजोर होगी। इन वर्गों को ऐसा लग रहा था कि उनका अस्तित्व और उनके मूल अधिकार संविधान व संसद की सर्वोच्चता पर निर्भर हैं और यह सर्वोच्चता कमजोर होने से वे भी कमजोर होंगे।
अन्ना हजारे का आंदोलन, देष पर बहुसंख्यकवाद लादने का षड़यंत्र प्रतीत हो रहा था। इस आंदोलन को मुख्य विपक्षी दल भाजपा के अलावा, आरएसएस का भी पूरा समर्थन मिला। आरएसएस ने भाजपा को अन्ना टीम और उनके अनषन को पूरा सहयोग देने की सलाह दी। इससे वंचित वर्गों की आषंकाएं और गहरी हुईं। संघ और भाजपा के समर्थन ने अन्ना के आंदोलन को नैतिक दृष्टि से कमजोर किया।
इससे आंदोलन का राजनीतिकरण हो गया। अन्ना ने एक ऐसी पार्टी का समर्थन स्वीकार किया जिसके सदस्य गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। जिन राज्यों, विषेषकर कर्नाटक, में भाजपा की सराकारें हैं, वहां के मंत्रियों व पार्टी के उच्च पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। अन्ना, जो कि भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, भला कैसे किसी ऐसी पार्टी का समर्थन स्वीकार कर सकते हैं जिस पर भ्रष्टाचार के कई आरोप हों। संघ और भाजपा ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अन्ना के समर्थन में निकले जुलूसों, धरनों आदि को अपना पूरा समर्थन दिया और उनमें भीड़ जुटाई। इससे भी अन्ना का आंदोलन, नैतिक दृष्टि से कमजोर हुआ।
जहां तक गांधीजी का प्रश्न है, उनके अनशन, राजनीति को आध्यात्मिक व नैतिक दृष्टि से समृद्ध करने के गंभीर प्रयास हुआ करते थे। इसके विपरीत, अन्ना और उनकी टीम ने जमकर राजनीति की। आरोपों और प्रत्यारोप का लंबा सिलसिला चला। रामलीला मैदान पर इकट्ठा भीड़ में कई लोग षराब पीकर षामिल हुए और उन्होंने अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया। इतना ही नहीं, अन्ना के आव्हान पर अन्ना के समर्थकों ने सांसदों का घेराव शुरू कर दिया। सांसदों को यह चेतावनी दी गई कि या तो वे अन्ना की मांगें मान लें अन्यथा उनके साथ कुछ भी हो सकता है। प्रधानमंत्री के निवास का भी घेराव किया गया, जिससे निश्चय ही प्रजातांत्रिक व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति की गरिमा को आघात लगा।
अन्ना टीम पर यह आरोप भी लगा कि उन्होंने इतनी भारी भीड़ इकट्ठा करने के लिए विदेशों से प्राप्त धन का इस्तेमाल किया। करीब एक लाख लोगों के लिए दस-बारह दिनों तक खाने-पीने की पूरी व्यवस्था की गई। आखिर यह धन कहां से आया? क्या जिन लोगों ने यह धन दिया वे पूर्णतः ईमानदार और स्वच्छ थे? अगर ऐसा है तो उनके नाम क्यों छिपाए जा रहे हैं? कुछ लोगों ने यह आरोप भी लगाया है कि रामलीला मैदान पर भोजन का इंतजाम विहिप ने किया था। अगर इस आरोप में कोई सच्चाई है तो देष अन्ना से यह जानना चाहेगा कि उन्होंने इन स्त्रोतों से आर्थिक सहायता क्यों स्वीकार की? क्या उनके विहिप से कोई संबंध हैं? यदि नहीं तो उन्होंने अपनी टीम के सदस्यों को विहिप व ऐसे ही अन्य स्त्रोतों से आर्थिक मदद क्यों लेने दीं?
गांधीजी के विपरीत अन्ना ने कभी देष में साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ अनषन नहीं किया। बल्कि, उन्होंने कभी साम्प्रदायिक दंगों की निंदा तक नहीं की। अन्ना ने मोदी सरकार के विकास के माडल की तारीफ की। इन्हीं मोदी के नेतृत्व में सन् 2002 में गुजरात में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि विकास का मोदी माडल, गरीबों की कीमत पर करोड़पतियों को अरबपति बनाने वाला माडल है। इस तरह का माडल गांधीजी को कभी मंजूर नहीं होता।
हमें यह याद रखना चाहिए कि अर्थव्यवस्था का उदारीकरण-वैश्वीकरण और बड़ी कंपनियों के अनाप-शनाप मुनाफे, भ्रष्टाचार के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। सच तो यह है कि पहले की तुलना में आज बड़े उद्योगपति और कारपोरेट दुनिया भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्त्रोत बन गई है। गांधीजी समाज की आखिरी पंक्ति में खड़े सबसे आखिरी आदमी के प्रति चिंतित रहते थे। वे कहा करते थे कि ऐसा विकास का माडल किसी काम का नहीं है जो सबसे कमजोर व्यक्ति को लाभान्वित न करे।
अन्ना ने गुजरात के विकास के उस माडल की तारीफ की जो अमीरों को और अमीर बना रहा है और जिसके चलते, बहुराष्ट्रीय कंपनियां और धनपषु अकूत संपदा इकट्ठा कर रहे हैं। फिर, हजारे को गांधीवादी कैसे कहा जाता सकता है? हजारे ने गांधीजी द्वारा अविष्कृत आंदोलन के तरीके का इस्तेमाल जरूर किया परंतु उनका आंदोलन गैर-गांधीवादी था और उन्होंने उसकी सफलता के लिए अनैतिक और गांधीजी को सर्वथा अस्वीकार्य रणनीतियों का इस्तेमाल किया। अन्ना ने कई बार यह कहा है कि भ्रष्ट लोगांे को फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए। गांधीजी, किसी भी उद्धेष्य-चाहे वह कितना ही पवित्र क्यों न हो- के लिए हिंसा के प्रयोग के विरूद्ध थे।
हजारे के “आदर्ष“ गांव में षराब पीने वालों को जूते मारे जाते हैं और उनके मुंह पर कालिख पोतकर उन्हें गधे पर बैठाकर गांव में घुमाया जाता है। यह निहायत बेहूदा और हिंसक तरीका है जिसके इस्तेमाल को गांधीजी कभी स्वीकार नहीं करते। इस सबसे यह साफ है कि अन्ना हजारे क मूल चरित्र तानाषाहीपूर्ण है। वे सफलता पाने की बहुत जल्दी में हैं और उनका यही चरित्र उनके नेतृत्व में चले आंदोलन मंे भी झलकता है।
भ्रष्टाचार का मुकाबला नए कानून बनाकर और कड़ी सजाएं देकर किया जा सकता है। हजारे का जोर हमेषा “कड़ी सजा“ पर रहता है। जैसा कि मैंने अपने पूर्व के एक लेख में लिखा था, भ्रष्टाचार, कानूनी नहीं बल्कि नैतिक समस्या है। चाहे हम कितने ही नए कानून बना दें, उससे भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है। हत्यारों को फांसी पर चढ़ाने की व्यवस्था है। परंतु क्या इससे हत्याएं बंद हो र्गइं हैं? क्या हत्याओं में जरा सी भी कमी आई है? समस्या यह है कि हमारी न्याय व्यवस्था ही भ्रष्ट है। बड़े-बड़े वकील, दुर्दांत खूनियों को मासूम सिद्ध करने के लिए अपनी जान लड़ा देते हैं। इसके विपरीत, गांधीजी का कहना था कि किसी वकील को कोई मुकदमा तब तक अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए जब तक कि वह संतुष्ट न हो कि उसका मुव्वकिल पूरी तरह निर्दोष है। इस बात की क्या गांरटी हैं कि “षक्तिषाली लोकपाल“ स्वयं भ्रष्ट नहीं हो जाएगा और भ्रष्ट वकील और जज, रिष्वतखोरों की वकालत कर उन्हें निर्दोष सिद्ध नहीं कर देंगे?
भ्रष्टाचार से लड़ने का सबसे प्रभावी हथियार है नैतिकता का प्रचार-प्रसार। परंतु हमारे नागरिक, नैतिक कैसे हो सकते हैं जब कि हमारी षिक्षा व्यवस्था ही मोटी रकम कैपिटेषन फीस के रूप में चुकाकर, महंगे कालेजों से डिग्री हासिल करने और उसके बाद भारी-भरकम पैकेज पाने की अंधी दौड़ पर आधारित है। हमें मजबूत लोकपाल की जरूरत तो है परंतु उससे ज्यादा जरूरी यह है कि हमारी षिक्षण संस्थाओं से पढ़कर निकलने वाले छात्र-छात्राओं का नैतिक चरित्र मजबूत हो।
अन्ना षायद ही कभी नैतिकता की बात करते हैं। उनकी सोच केवल कानूनों और सजाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। गांधीजी का जोर नैतिकता और आध्यात्मिकता पर था। वे समस्याओं का हल अपनी अंतरात्मा में ढूढ़ते थे न कि कानूनों में। जो व्यक्ति मसीहा बनने की जल्दी में होता है वह कभी अपनी अंतरात्मा की आवाज नहीं सुन पाता। वह सभी समस्याओं का हल बाहरी उपायों से करना चाहता है। गांधी बनने के लिए अपनी अंतरात्मा में डूबने की क्षमता अनिवार्य है ।
-डाॅ. असगर अली इंजीनियर
4 टिप्पणियां:
शंकाएँ वाजिब हैं।
अन्ना साहब तो केवल एक मोहरा थे उनका आंदोलन बेदी-केजरीवाल आदि द्वारा विदेशी धन और इशारे पर भारतीय संविधान और संसद को चुनौती देकर खोखला करने हेतु चलाया गया था जिससे कालांतर मे आर एस एस की अर्ध सैनिक तानाशाही स्थापित की जा सके। अन्ना साहब ने स्वाधीनता दिवस पर ब्लैक आउट की घोषणा कर,राष्ट्रध्वज लेकर आंदोलन चला कर एवं रात्रि मे राष्ट्रध्वज फहरा कर जघन्य और अक्षम्य राष्ट्रद्रोह किया किया उन्हें इसकी सख्त सजा मिलनी चाहिए थी परंतु पी एम साहब ने उन्हें गुलदस्ता भेंट कर ,कमांडोज़ दिलवा कर उनका महिमा मंडन किया है। इससे लगता है कि आर एस एस,भाजपा और कांग्रेस का मनमोहन गुट इस को शाह दे रहे थे।
शीर्षक है आलोचनात्मक विश्ले्षण ,लेकिन मुझे ये बिल्कुल एकपक्षीय लगा । गांधी जी का चित्रण ही अतिरेक सा लगा । इतिहास जानता है कि " ये पट्टाभिसीतारम्मैया की हार नहीं , गांधी की हार , ये कहने वाला कौन था , भगत सिंह और सुभाष जैसे वीरों को कैसे पार्श्व में डाला गया ।
अब बात अन्ना हज़ारे की , अगर वो गांधीवादी नहीं हैं , तो फ़िर क्या आज उनके नाम पर अपना नाम दाम कमा रही पार्टी को गांधीवादी माना जाए ..या फ़िर सोनिया गांधी को मानें क्योंकि गांधी तो वो भी हैं ..व्यवस्था के प्रति लोगों का आक्रोश ही वो वजह थी जो लाखों लोग सडक पर आ गए ..गांधी वाद को खुद वे लोग कब का मार चुके हैं ..जो कौन गांधीवादी है कौन नहीं ये तय कर रहे है
अच्छा लगा। गाँधी तो ठगे ही गए।
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