अमेरिकी संसद में प्रस्तुत एक रिपोर्ट में नरेन्द्र मोदी को भाजपा के तरफ से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताया जाना, अमेरिका की बदलती प्राथमिकताओं को दर्शाता है। यह पहली बार नहीं है जब अमेरिकी विदेशनीति और वैश्विक मामलों में उसने अपने नजरिये में उलटफेर किया हो। जब-जब अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में कोई बड़ा मिसनरी बुखार पनपता है , तो अमेरिका बावला हो अत्यधिक संवेदनशील हो उठता है. तब उसे मानवधिकार, विश्व शांति और अन्य वैश्विक नियम बड़े महत्वपूर्ण नज़र आने लगते हैं. किन्तु अगले ही दृश्य में जब एक स्वस्थ माहौल बनता दिखाई देता है, तो वहीँ अमेरिका अपने राग तुरंत बदल देता है।
यह 1988 में क्यूबा के लिए उपजी हमदर्दी हो जिसके पश्चात् अमेरिकिओं द्वारा प्युर्टो रिको और फिलिप्पिन्स में बड़े उद्योग बैठा, उनके बाज़ार पर कब्ज़ा करने का खेल शुरू हुआ. बाद में जब इसकी भर्त्सना होने लगी तो अमेरिका के पास इस कार्यवाही का कोई जवाब नहीं था. वह एक नियत समय में वहीँ करता है , जो उसे उस वक्त फायदेमंद मालूम पड़ता है. नौ-ग्यारह के हमले के बाद अमेरिका ऐसे ही पूरे विश्व के शांति के लिए संवेदनशील हो उठा. विश्व शांति की दुहाई देकर उसने मानवाधिकारों , सुरक्षा परिषद् तक की भी चिंता नहीं की और अफगानिस्तान में अपनी मनमानी करता रहा. आज विश्व के अन्य हिस्सों में हो रहे आतंकवादी घटनाओ के प्रति अमेरिका की कोई तीक्ष्ण प्रतिक्रिया नहीं सुनाई देती. मध्य एशिया में अपनी मनमानी कर लेने के बाद आज जब रॉबर्ट गेट्स यह कहते हैं
की हमारे पास एक थकी-हारी मेलेट्री के सिवा कुछ भी नहीं , तो इसे सार्वजनिक सराहना मिलती है. कुल मिलकर मोदी को लेकर अमेरिका के दृष्टिकोण में आया बदलाव उसकी पुरानी फितरत का ही एक नमूना है.
गौरतलब है कि यह वहीँ अमेरिका है जिसने मोदी को दो बार वीजा देने से इनकार कर दिया था. और जिसने मोदी पर ‘मानवता का दुश्मन’ होने तक की बात कही. आज वहीँ अमेरिका मोदी के सुशाशन और कानून व्यवस्था की दुहाई देते नहीं थक रहा. इसके पीछे दो बातों को समझना पड़ेगा. एक तो वर्तमान सरकार की लोकप्रियता में आये जबरदस्त गिरावट ने बीजेपी की स्थिति पर असर डाला है.
कमजोर ही सही पर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के कारण भाजपा को बेनिफिट ऑफ़ डाउट जरूर मिलेगा. ऐसे में भाजपा के सामने नेतृत्व की बड़ी कमी नज़र आती है . हालाँकि भाजपा अपने को प्रभावी नेतृत्व से रहित नहीं बताती. भाजपा के सामने शिवराज सिंह चौहान और नरेन्द्र मोदी जैसे ऐसे दिग्गज नेता है, जिन्हें राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरने की जरूरत है. भाजपा की सबसे बड़ी विडम्बना यहीं रही कि उसने कभी अपने ही सिद्धांतों पर विश्वास नहीं किया. भाजपा को गाना तो राष्ट्रवाद का पसंद है पर पॉप पर झुमने से भी बाज नहीं आती. उसकी इसी दुविधा ने मतदाताओं के मन में उसे शासन का विकल्प नहीं माना.
भाजपा सरकार का विकल्प तो हो सकती है, पर विदेश निति , आतंकवाद , अमेरिकापरस्ती और बाजारवाद जैसी मुद्दों पर वह कांग्रेस से इतर कोई अलग निति या तो रखती नहीं है या उसे ज़ाहिर नहीं कर पाती.
अमेरिका अब अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के गिरते ग्राफ को समझ चुका है. अन्ना आन्दोलन ने कांग्रेस का बेडा गर्क कर दिया. कहाँ कांग्रेस ने सोचा था कि सारी गलातिओं का ठीकरा मनमोहन के सर फोड़ कर राहूल भैया को नया कर्णधार बता अगला चुनाव भी जीत जायेंगे. पर राहुल का बचपना इस आन्दोलन के दौरान साफ़ उभर कर आ गया . बेहतर होता की राहुल अन्ना के साथ मंच पर हाज़िर हो जाते तो कम से कम जनता राहूल को सरकार से अलग अपने साथ मानती।
दूसरे, विश्व आर्थिक परिदृश्य में एक और मंदी का दौर शुरू होने को है और यह मंदी का केंद्र इस बार यूरोप का बाज़ार होगा. अमेरिका की अधिकांश कम्पनियों द्वारा यूरोपीय बाज़ार के घाटे ने विशेषज्ञों की नींद उड़ा दी है. ज़ाहिर है यूरोप से अपना बोरिया बिस्तर समेटने वाली यह कम्पनियाँ भारत और ब्राजील जैसे नए बाज़ार की और रुख करेंगी. ऐसे में अमेरिका के लिए गुजरात से बेहतर और कोई भी स्टेट नहीं हो सकता. अब गुजरात मोदी के हाथ में है तो अमेरिका का यह रवैया तो आना ही था.
ऐसे में भाजपा के सामने यह सवाल यह आता है कि वह नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय परिदृश्य पर भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने का साहस जुटा पाती है?
लेखक : कनिष्क कश्यप
लेखक न्यू मीडिया विशेषज्ञ है.
यह 1988 में क्यूबा के लिए उपजी हमदर्दी हो जिसके पश्चात् अमेरिकिओं द्वारा प्युर्टो रिको और फिलिप्पिन्स में बड़े उद्योग बैठा, उनके बाज़ार पर कब्ज़ा करने का खेल शुरू हुआ. बाद में जब इसकी भर्त्सना होने लगी तो अमेरिका के पास इस कार्यवाही का कोई जवाब नहीं था. वह एक नियत समय में वहीँ करता है , जो उसे उस वक्त फायदेमंद मालूम पड़ता है. नौ-ग्यारह के हमले के बाद अमेरिका ऐसे ही पूरे विश्व के शांति के लिए संवेदनशील हो उठा. विश्व शांति की दुहाई देकर उसने मानवाधिकारों , सुरक्षा परिषद् तक की भी चिंता नहीं की और अफगानिस्तान में अपनी मनमानी करता रहा. आज विश्व के अन्य हिस्सों में हो रहे आतंकवादी घटनाओ के प्रति अमेरिका की कोई तीक्ष्ण प्रतिक्रिया नहीं सुनाई देती. मध्य एशिया में अपनी मनमानी कर लेने के बाद आज जब रॉबर्ट गेट्स यह कहते हैं
की हमारे पास एक थकी-हारी मेलेट्री के सिवा कुछ भी नहीं , तो इसे सार्वजनिक सराहना मिलती है. कुल मिलकर मोदी को लेकर अमेरिका के दृष्टिकोण में आया बदलाव उसकी पुरानी फितरत का ही एक नमूना है.
गौरतलब है कि यह वहीँ अमेरिका है जिसने मोदी को दो बार वीजा देने से इनकार कर दिया था. और जिसने मोदी पर ‘मानवता का दुश्मन’ होने तक की बात कही. आज वहीँ अमेरिका मोदी के सुशाशन और कानून व्यवस्था की दुहाई देते नहीं थक रहा. इसके पीछे दो बातों को समझना पड़ेगा. एक तो वर्तमान सरकार की लोकप्रियता में आये जबरदस्त गिरावट ने बीजेपी की स्थिति पर असर डाला है.
कमजोर ही सही पर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के कारण भाजपा को बेनिफिट ऑफ़ डाउट जरूर मिलेगा. ऐसे में भाजपा के सामने नेतृत्व की बड़ी कमी नज़र आती है . हालाँकि भाजपा अपने को प्रभावी नेतृत्व से रहित नहीं बताती. भाजपा के सामने शिवराज सिंह चौहान और नरेन्द्र मोदी जैसे ऐसे दिग्गज नेता है, जिन्हें राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरने की जरूरत है. भाजपा की सबसे बड़ी विडम्बना यहीं रही कि उसने कभी अपने ही सिद्धांतों पर विश्वास नहीं किया. भाजपा को गाना तो राष्ट्रवाद का पसंद है पर पॉप पर झुमने से भी बाज नहीं आती. उसकी इसी दुविधा ने मतदाताओं के मन में उसे शासन का विकल्प नहीं माना.
भाजपा सरकार का विकल्प तो हो सकती है, पर विदेश निति , आतंकवाद , अमेरिकापरस्ती और बाजारवाद जैसी मुद्दों पर वह कांग्रेस से इतर कोई अलग निति या तो रखती नहीं है या उसे ज़ाहिर नहीं कर पाती.
अमेरिका अब अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के गिरते ग्राफ को समझ चुका है. अन्ना आन्दोलन ने कांग्रेस का बेडा गर्क कर दिया. कहाँ कांग्रेस ने सोचा था कि सारी गलातिओं का ठीकरा मनमोहन के सर फोड़ कर राहूल भैया को नया कर्णधार बता अगला चुनाव भी जीत जायेंगे. पर राहुल का बचपना इस आन्दोलन के दौरान साफ़ उभर कर आ गया . बेहतर होता की राहुल अन्ना के साथ मंच पर हाज़िर हो जाते तो कम से कम जनता राहूल को सरकार से अलग अपने साथ मानती।
दूसरे, विश्व आर्थिक परिदृश्य में एक और मंदी का दौर शुरू होने को है और यह मंदी का केंद्र इस बार यूरोप का बाज़ार होगा. अमेरिका की अधिकांश कम्पनियों द्वारा यूरोपीय बाज़ार के घाटे ने विशेषज्ञों की नींद उड़ा दी है. ज़ाहिर है यूरोप से अपना बोरिया बिस्तर समेटने वाली यह कम्पनियाँ भारत और ब्राजील जैसे नए बाज़ार की और रुख करेंगी. ऐसे में अमेरिका के लिए गुजरात से बेहतर और कोई भी स्टेट नहीं हो सकता. अब गुजरात मोदी के हाथ में है तो अमेरिका का यह रवैया तो आना ही था.
ऐसे में भाजपा के सामने यह सवाल यह आता है कि वह नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय परिदृश्य पर भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने का साहस जुटा पाती है?
लेखक : कनिष्क कश्यप
लेखक न्यू मीडिया विशेषज्ञ है.
4 टिप्पणियां:
बढ़िया विश्लेषण
भावी प्रधानमंत्री कौन है, यह तो विवाद का विषय है लेकिन भारत में विदेशी रिपोर्टों को, भले ही उसे कोई चिरकुट आदमी तैयार करे, इतना महत्व देने की क्या जरूरत है? नरेंद्र मोदी क्या अमेरिका को काम पड़े तब लादेन को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दे दे।
अमेरिका की दिलचस्पी यों ही नहीं है। 1857 की क्रान्ति के 48 वर्ष बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने 1905 मे बंगाल का विभाजन करके जो ट्रायल लिया था वह उसके 42 वर्ष बाद 1947 मे देश के विभाजन के रूप मे फलीभूत हुआ। अब ब्रिताइन नहीं अमेरिका साम्राज्यवाद का सरगना है जो कभी विहिप को समर्थन देता है कभी मायावती को उसी श्रंखला मे अब नरेंद्र मोदी को समर्थन देकर भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी मे उस शख्स का पलड़ा भारी कर रहा है जो घोर सांप्रदायिक है। इससे आने वाले समय मे एक बार फिर भारत मे रक्त-पात का खतरा उत्तपन्न हो रहा है। इन बातों को हवा मे नहीं उड़ाया जा सकता।
aisa bhi to ho sakta hai k amerika janbuzkar modi ka gungaan kare. taaki b.j.p. me phut pade our uska faayda congress ko mile.
kbhi aisa bhi hota hai k kisiki vijai ki taarif kar do to wo mehnat nahi karta hi k mai to jitne hi wala hu. kahi yahi chaal amerika ki to nahi
taaki b.j.p. agle chunaav me jyada mehnat na kare our phir se congress aa jaye.
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