देश के जनसाधारण को अमेरिका व यूरोपीय देशो के आये कर्ज़ संकट को समझने से कही ज्यादा जरूरी यह समझना है कि वैश्वीकरण के वर्तमान संबंधो में उसे जीवन के बुनियादी संकटो से मुक्ति नही मिलने वाली है | वैश्विक संकटो के नाम पर वह बढती ही जानी है | इसलिए उसकी मुक्ति वर्तमान दौर के वैश्वीकरणवादी , बाजारवादी संबंधो को तोड़ने - घटाने में ही निहित है
अमेरिका की ही एक साख निर्धारिक कम्पनी " स्टैंडर्ड एंड पुअर्स द्वारा अमेरिकी सरकार द्वारा कर्ज़ लेने की साख को थोड़ा घटा दिया गया | जाहिरा तौर पर तो इसका प्रमुख कारण यह था की अमेरिका की सरकार ने वहा की संसद में सरकारी कर्ज़ की अब तक निर्धारित 143 खरब डालर की सीमा से ज्यादा कर्ज़ लेने की माँग कर दी | इसी के बाद अमेरिकी संसद से लेकर अमेरिका व विश्व के प्रचार माध्यमो में अमेरिका सरकार के और अधिक कर्ज़ की माँग को अमेरिका सरकार का संकट बताकर चर्चा छेड़ दी गयी |संसद में विरोधी पार्टियों द्वारा भी सरकार की जमकर आलोचना हुई | अन्तोगत्वा संसद ने कुछ शर्तो के साथ अमेरिकी सरकार को 24 खरब डालर और ज्यादा कर्ज़ लेने की छूट दे दी | लेकिन इसी के बाद साख निर्धारक कम्पनी ने अमेरिका सरकार के कर्ज़ अदायगी की साख को थोड़ा नीचे गिरा दिया | इन्ही प्रक्रियाओं को अमेरिकी सरकार के कर्ज़ के संकट रूप में प्रचारित किया जा रहा है | उनके इस संकट के विश्व पैमाने पर फैलने बढने की आशकाओ पर प्रचार माध्यमो में निरन्तर चर्चाये चल रही है | दुनिया के शेयर बाज़ार इन्ही की चिंताओं में दुबले हुए जा रहे है | विश्व भर के राजनेताओं और इस देश के राजनेताओं द्वारा खासकर वित्त मंत्री द्वारा भी दबे गले से बयानबाजी की जा रही है | चिताए जताई जा रही है | देशवासियों को भरोसे दिलाये जा रहे है की हम पर इस संकट का प्रभाव नही पड़ेगा और यदि पड़ेगा तो भी तो अस्थाई रूप से और वह भी थोड़ा | क्या सचमुच ?
या फिर सच्चाई यह है कि अमेरिका के संकटों का प्रभाव इस देश पर कही ज्यादा पड़ेगा | अमेरिकी कर्ज़ संकट या फिर ग्रीस , पुर्तगाल , इटली , स्पेन जैसे अन्य यूरोपीय देशो में बढ़ते जा रहे कर्ज़ संकट के इस देश पर पड़ने वाले प्रभावों पर , उसके कारको व कारणों पर तथा उसके समाधान पर भी चर्चा जरुर होनी चाहिए | लेकिन उससे पहले अमेरिका व यूरोपीय देशो के कर्ज़ संकट के असली माने मतलब को समझने का प्रयास किया जाना चाहिए |
वर्तमान समय का कर्ज़ संकट अमेरिका और यूरोप की आम व ख़ास जनता का कर्ज़ संकट नही है , बल्कि वहा की खासकर अमेरिका की ताकतवर सरकार के कर्ज़ का संकट है | अमेरिकी कर्ज़ संकट के पीछे दो - तीन प्रमुख कारण गिनाये - बताये जा रहे है | एक तो यह अमेरिका द्वारा ईराक और अफगानिस्तान में चलाए जा रहे युद्ध के खर्चो से बढ़ा संकट | दुसरा है , अमेरिका शासन - प्रशासन के बढ़ते खर्च का संकट | तीसरा है , अमेरिका सरकार द्वारा अमेरिकी जनता को दी जा रही तमाम छूटो - सुविधाओं के चलते बढ़ता संकट | आगे बढने से पहले हम यहा इस बात की याद दिला दे की 2008 में अमेरिका से चलकर विश्व स्तर पर फैले बहुप्रचारित वित्तीय संकट को युद्ध के चलते एकदम नही बताया जा रहा था या कहिये बहुत कम बताया जा रहा था | लेकिन इस बार अमेरिकी सरकार के संकट में उसे पहले नम्बर पर बताया जा रहा है | अमेरिकी सरकार के बढ़ते कर्ज़ के मामले में उपरोक्त कारण गलत नही है , सही है , पर अधूरे है | इस कर्ज़ संकट का एक बड़ा कारण पिछले वित्तीय संकट के बाद वहा की बैंको व वित्तीय कम्पनियों आदि को खरबों डालर के प्रोत्साहन पैकेजों का दिया जाना है | परन्तु इस सब से न तो अमेरिका या कहिये पूरा अमेरिका संकट ग्रस्त है , और न ही अमेरिकी सरकार ही दरअसल संकटग्रस्त है | यह संकट एक दूसरी जगह पर है और वही उसे दिखाई भी पड़ना है | जहा तक अमेरिकी राष्ट्र का सवाल है , तो उस राष्ट्र में ही वे विशालकाय और प्रचण्ड रूप से शक्तिशाली अमेरिकी सामार्ज्यी , कम्पनिया है , जो अपनी पूंजी , तकनीकी , उच्च स्तरीय मशीनों , उपकरणों , मालो - सामानों से लेकर आधुनिक व घातकतंम हथियारों आदि की अपने राष्ट्र व विश्व के अन्य राष्ट्रों में निर्यात करके अधिकतम सूद व मुनाफे की कमाई करती रहती है | निश्चित रूप से ईराक व अफगानिस्तान पर सालो से किए जा रहे हमलो में अधिकतम बमो , हथियारों एवं अन्य युद्धक साजो - सामानों को बनाने वाली कम्पनियों ने उसे अमेरिकी सरकार को बेचकर अमेरिकी खजाने से भी भारी लाभ कमाया है और कमा रही है | अमेरिका और अन्य राष्ट्रों के शासन - प्रशासन के बढ़ते खर्चो में भी आधुनिकतम सुरक्षा एवं सुविधा के मालो सामानों की सरकारों द्वारा खरीदारी की जाती रही है | इस खरीद से भी अमेरिकी कम्पनिया मालामाल हो रही है | पूरी दुनिया में पूंजी निर्यात करके सूद - दर सूद कमाने में भी ये कम्पनिया और उनके साथ खड़े विशालकाय बैंक विश्व में सबसे आगे है | इसलिए ये हिस्से अमेरिकी सरकार के संकट से मुक्त भी है | उनके उपर फिलहाल तब तक संकट नही है जब तक इनकी पूंजियो तथा मालो - मशीनों तकनीको के निर्यात में गिरावट न आ जाए या फिर अन्य देशोके संकटों से उनकी लाभ व सूद समेत वापसी बाधित न हो जाए.
जहा तक अमेरिकी सरकार के संकट का सवाल है , तो उसका प्रमुख संकट , सरकारी खर्च के बढ़ते बोझ और उसके लिए अतिरिक्त कर्ज़ उठाने के रूप में ही है | हो सकता है , शासकीय - प्रशासकीय खर्च कम करने के नाम पर अमेरिकी सरकार सरकारी नौकरियों में तथा जनता को दी जाने वाली छुटो - सुविधाओं में कुछ कमी कर दे , पर इसे भी अमेरिकी राष्ट्र व सरकार का वास्तविक संकट नही कहा जाएगा | यह वास्तविक संकट इस लिए नही है कि हर देश की तरह ही और उनसे कही ज्यादा शक्तिशाली अमेरिकी सरकार अपने कर्जो का बोझ अमेरिकी जनसाधारण जनता के साथ - साथ भारत , पाक जैसे पिछड़े एवं विकासशील देशो पर ढकेलने में सक्षम है | उदाहरण ---- अमेरिकी सरकार के कर्ज़ - संकट के हो - हल्ले के साथ यह कहा जा रहा है कि अब भारत सरकार द्वारा 41000 करोड़ डालर के अमेरिकी बांडों की खरीद की वापसी के संकट तथा डालर के अवमूल्यन के संकट का प्रभाव भी इस देश पर कुछ ना कुछ जरुर पड़ेगा | अमेरिका व यूरोपीय देशो के संकटो के चलते देश के निर्यात में खासकर साफ्टवेयर , सिलेसिलाए वस्त्र , चमड़े व हस्तशिल्प तथा जेवरात आदि के निर्यात के संकट का बढना भी निश्चित बताया जा रहा है | इसके अलावा अमेरिका द्वारा अपने बढ़ते कर्ज़ संकट के नाम पर आउट सोर्सिंग के कटौती के फलस्वरूप अमेरिका में इस देश के उच्च शिक्षित लोगो को नौकरिया न मिल पाने या वहा से हटाए जाने का संकट भी अमेरिका का नही है , बल्कि भारत जैसे देशो का संकट है | जिस तरह से राजा या जमीदार के संकटो का बोझ प्रजा या रियाया ढोती थी | उनके संकटो को दूर करने के लिए बढ़े हुए लगान व टैक्सों को जमींदारों व राजाओं को देते हुए स्वंय अधिकाधिक संकटग्रस्त होती रहती थी | उसी तरह से खासकर वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में अमेरिका , इंग्लैण्ड , फ्रांस जैसे देशो की खासकर अमेरिका की सरकार अपने राष्ट्र के संकटो को अपने यहा की निचले स्तर की जनता पर और फिर पूरे विश्व के पिछड़े देशो के जनसाधारण पर ढकेलने में सक्षम है और वह उसे धकेल भी रही है चाहे यह बोझ देश के निर्यात के घटने के चलते उन क्षेत्रो में रोजगार पाए लोगो की छटनी , बेकारी के रूप में आये या फिर निर्यातक कम्पनियों व अन्य बड़ी कम्पनियों के अन्तराष्ट्रीय व्यापार में घाटे की क्षतिपूर्ति के लिए दिए जाने वाले इस देश के सरकारी पैकेजों के बढ़ते बोझ आदि के रूप में आये |
उन्ही पैआप को याद होगा की 2008 में अमेरिका से चले वैश्विक वित्तीय संकटो के हो - हल्ला के बाद से देश के धनाढ्य कम्पनियों को लाखो करोड़ो रूपये का पॅकेज और टैक्सों , करो में छुट दिया गया था | जो आज भी जारी है उसमे कमी की गयी है पर उसे वापस नही लिया गया है |केजों के बाद , कुछ महीनों का अन्तर देकर पेट्रोलियम पर्दाथो की मूल्य वृद्धि व टैक्स वृद्धि का सिलसिला आज तक लगातार बढ़ता चलता आ रहा है | फलस्वरूप पेट्रोलियम पर्दाथो के साथ - साथ अन्य मालो सामानों की महगाई भी तेज़ी से बढ़ी और आज तक बढती जा रही है | मालो व सामानों के मूल्य वृद्धि के साथ अप्रत्यक्ष टैक्सों में भी वृधिया होती रही है | इस सबका बोझ इस देश के आम लोगो पर तेज़ी से बढती महगाई बेकारी के रूप में आता जा रहा है |
इसी तरह से अब अमेरिकी सरकार ( व यूरोपीय देसों की सरकारों का ) कर्ज़ संकट भी इस देश ( व अन्य पिछड़े देशो ) के जनसाधारण हिस्से में बेकारी ,महगाई को और ज्यादा बढाने का भी कारक व कारण जरुर बनेगा | अमेरिका व अन्य साम्राज्यी देशो की पूंजी व तकनीक पर पहले से बढाई जा रही परनिर्भरता के साथ अब पिछले 20 सालो से उनकी , खासकर अमेरिका की अर्थव्यवस्था के साथ इस देश की अर्थव्यवस्था के भारी जुड़ाव के ये घातक नतीजे आते रहे है और आते जायेंगे | हां , देश के धनाढ्य व उच्च हिस्से के लिए ये नतीजे अधिकाधिक लाभ और अधिकाधिक उच्च आय व सुविधाओं के रूप में आते रहे है और फिलहाल आते भी रहेंगे | इसीलिए साम्राज्यी देशो से लेकर हमारे अपने देश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों को उसकी चिंता भी नही है जैसा की उनके बयानों में तथा छुई - मुई की तरह उपर नीचे होने वाले शेयर बाज़ार की गिरावट आदि में दिखाई पड़ता है | इसीलिए तो 2008 के वित्तीय संकट के समय और इस समय के प्रचारित कर्ज़ संकट के समय भी देश के वित्त मंत्री का यह ब्यान आता रहा है की हमारे उपर इन संकटो का कोई प्रभाव नही पड़ना है | हम इससे निपटने में सक्षम है | इसका वास्तविक अर्थ यह है कि जनसाधारण पर इन संकटो को महगाई , बेकारी आदि के रूप में बिन विरोध ढकेलने में सक्षम है , इसलिए हम पर यानी धनाढ्य उच्च एवं शासकीय हिस्से पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ना है | इसलिए देश के जनसाधारण को अमेरिका व यूरोपीय देशो की आये कर्ज़ संकटो को समझने से कही ज्यादा जरूरी यह समझना है की वैश्वीकरण के वर्तमान संबंधो में उसे जीवन के बुनियादी संकटो से मुक्ति नही मिलने वाली है | वैश्विक संकटो के नाम पर वह बढती जानी है | उसकी मुक्ति वर्तमान दौर के वैश्वीकरणवादी , बाजारवादी संबंधो को तोड़ने व घटाने में ही निहित है |
दुष्यंत कुमार की यह नज्म बरबस ही याद आ गयी ...........हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
-सुनील दत्ता
पत्रकार
09415370672
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अमेरिका की ही एक साख निर्धारिक कम्पनी " स्टैंडर्ड एंड पुअर्स द्वारा अमेरिकी सरकार द्वारा कर्ज़ लेने की साख को थोड़ा घटा दिया गया | जाहिरा तौर पर तो इसका प्रमुख कारण यह था की अमेरिका की सरकार ने वहा की संसद में सरकारी कर्ज़ की अब तक निर्धारित 143 खरब डालर की सीमा से ज्यादा कर्ज़ लेने की माँग कर दी | इसी के बाद अमेरिकी संसद से लेकर अमेरिका व विश्व के प्रचार माध्यमो में अमेरिका सरकार के और अधिक कर्ज़ की माँग को अमेरिका सरकार का संकट बताकर चर्चा छेड़ दी गयी |संसद में विरोधी पार्टियों द्वारा भी सरकार की जमकर आलोचना हुई | अन्तोगत्वा संसद ने कुछ शर्तो के साथ अमेरिकी सरकार को 24 खरब डालर और ज्यादा कर्ज़ लेने की छूट दे दी | लेकिन इसी के बाद साख निर्धारक कम्पनी ने अमेरिका सरकार के कर्ज़ अदायगी की साख को थोड़ा नीचे गिरा दिया | इन्ही प्रक्रियाओं को अमेरिकी सरकार के कर्ज़ के संकट रूप में प्रचारित किया जा रहा है | उनके इस संकट के विश्व पैमाने पर फैलने बढने की आशकाओ पर प्रचार माध्यमो में निरन्तर चर्चाये चल रही है | दुनिया के शेयर बाज़ार इन्ही की चिंताओं में दुबले हुए जा रहे है | विश्व भर के राजनेताओं और इस देश के राजनेताओं द्वारा खासकर वित्त मंत्री द्वारा भी दबे गले से बयानबाजी की जा रही है | चिताए जताई जा रही है | देशवासियों को भरोसे दिलाये जा रहे है की हम पर इस संकट का प्रभाव नही पड़ेगा और यदि पड़ेगा तो भी तो अस्थाई रूप से और वह भी थोड़ा | क्या सचमुच ?
या फिर सच्चाई यह है कि अमेरिका के संकटों का प्रभाव इस देश पर कही ज्यादा पड़ेगा | अमेरिकी कर्ज़ संकट या फिर ग्रीस , पुर्तगाल , इटली , स्पेन जैसे अन्य यूरोपीय देशो में बढ़ते जा रहे कर्ज़ संकट के इस देश पर पड़ने वाले प्रभावों पर , उसके कारको व कारणों पर तथा उसके समाधान पर भी चर्चा जरुर होनी चाहिए | लेकिन उससे पहले अमेरिका व यूरोपीय देशो के कर्ज़ संकट के असली माने मतलब को समझने का प्रयास किया जाना चाहिए |
वर्तमान समय का कर्ज़ संकट अमेरिका और यूरोप की आम व ख़ास जनता का कर्ज़ संकट नही है , बल्कि वहा की खासकर अमेरिका की ताकतवर सरकार के कर्ज़ का संकट है | अमेरिकी कर्ज़ संकट के पीछे दो - तीन प्रमुख कारण गिनाये - बताये जा रहे है | एक तो यह अमेरिका द्वारा ईराक और अफगानिस्तान में चलाए जा रहे युद्ध के खर्चो से बढ़ा संकट | दुसरा है , अमेरिका शासन - प्रशासन के बढ़ते खर्च का संकट | तीसरा है , अमेरिका सरकार द्वारा अमेरिकी जनता को दी जा रही तमाम छूटो - सुविधाओं के चलते बढ़ता संकट | आगे बढने से पहले हम यहा इस बात की याद दिला दे की 2008 में अमेरिका से चलकर विश्व स्तर पर फैले बहुप्रचारित वित्तीय संकट को युद्ध के चलते एकदम नही बताया जा रहा था या कहिये बहुत कम बताया जा रहा था | लेकिन इस बार अमेरिकी सरकार के संकट में उसे पहले नम्बर पर बताया जा रहा है | अमेरिकी सरकार के बढ़ते कर्ज़ के मामले में उपरोक्त कारण गलत नही है , सही है , पर अधूरे है | इस कर्ज़ संकट का एक बड़ा कारण पिछले वित्तीय संकट के बाद वहा की बैंको व वित्तीय कम्पनियों आदि को खरबों डालर के प्रोत्साहन पैकेजों का दिया जाना है | परन्तु इस सब से न तो अमेरिका या कहिये पूरा अमेरिका संकट ग्रस्त है , और न ही अमेरिकी सरकार ही दरअसल संकटग्रस्त है | यह संकट एक दूसरी जगह पर है और वही उसे दिखाई भी पड़ना है | जहा तक अमेरिकी राष्ट्र का सवाल है , तो उस राष्ट्र में ही वे विशालकाय और प्रचण्ड रूप से शक्तिशाली अमेरिकी सामार्ज्यी , कम्पनिया है , जो अपनी पूंजी , तकनीकी , उच्च स्तरीय मशीनों , उपकरणों , मालो - सामानों से लेकर आधुनिक व घातकतंम हथियारों आदि की अपने राष्ट्र व विश्व के अन्य राष्ट्रों में निर्यात करके अधिकतम सूद व मुनाफे की कमाई करती रहती है | निश्चित रूप से ईराक व अफगानिस्तान पर सालो से किए जा रहे हमलो में अधिकतम बमो , हथियारों एवं अन्य युद्धक साजो - सामानों को बनाने वाली कम्पनियों ने उसे अमेरिकी सरकार को बेचकर अमेरिकी खजाने से भी भारी लाभ कमाया है और कमा रही है | अमेरिका और अन्य राष्ट्रों के शासन - प्रशासन के बढ़ते खर्चो में भी आधुनिकतम सुरक्षा एवं सुविधा के मालो सामानों की सरकारों द्वारा खरीदारी की जाती रही है | इस खरीद से भी अमेरिकी कम्पनिया मालामाल हो रही है | पूरी दुनिया में पूंजी निर्यात करके सूद - दर सूद कमाने में भी ये कम्पनिया और उनके साथ खड़े विशालकाय बैंक विश्व में सबसे आगे है | इसलिए ये हिस्से अमेरिकी सरकार के संकट से मुक्त भी है | उनके उपर फिलहाल तब तक संकट नही है जब तक इनकी पूंजियो तथा मालो - मशीनों तकनीको के निर्यात में गिरावट न आ जाए या फिर अन्य देशोके संकटों से उनकी लाभ व सूद समेत वापसी बाधित न हो जाए.
जहा तक अमेरिकी सरकार के संकट का सवाल है , तो उसका प्रमुख संकट , सरकारी खर्च के बढ़ते बोझ और उसके लिए अतिरिक्त कर्ज़ उठाने के रूप में ही है | हो सकता है , शासकीय - प्रशासकीय खर्च कम करने के नाम पर अमेरिकी सरकार सरकारी नौकरियों में तथा जनता को दी जाने वाली छुटो - सुविधाओं में कुछ कमी कर दे , पर इसे भी अमेरिकी राष्ट्र व सरकार का वास्तविक संकट नही कहा जाएगा | यह वास्तविक संकट इस लिए नही है कि हर देश की तरह ही और उनसे कही ज्यादा शक्तिशाली अमेरिकी सरकार अपने कर्जो का बोझ अमेरिकी जनसाधारण जनता के साथ - साथ भारत , पाक जैसे पिछड़े एवं विकासशील देशो पर ढकेलने में सक्षम है | उदाहरण ---- अमेरिकी सरकार के कर्ज़ - संकट के हो - हल्ले के साथ यह कहा जा रहा है कि अब भारत सरकार द्वारा 41000 करोड़ डालर के अमेरिकी बांडों की खरीद की वापसी के संकट तथा डालर के अवमूल्यन के संकट का प्रभाव भी इस देश पर कुछ ना कुछ जरुर पड़ेगा | अमेरिका व यूरोपीय देशो के संकटो के चलते देश के निर्यात में खासकर साफ्टवेयर , सिलेसिलाए वस्त्र , चमड़े व हस्तशिल्प तथा जेवरात आदि के निर्यात के संकट का बढना भी निश्चित बताया जा रहा है | इसके अलावा अमेरिका द्वारा अपने बढ़ते कर्ज़ संकट के नाम पर आउट सोर्सिंग के कटौती के फलस्वरूप अमेरिका में इस देश के उच्च शिक्षित लोगो को नौकरिया न मिल पाने या वहा से हटाए जाने का संकट भी अमेरिका का नही है , बल्कि भारत जैसे देशो का संकट है | जिस तरह से राजा या जमीदार के संकटो का बोझ प्रजा या रियाया ढोती थी | उनके संकटो को दूर करने के लिए बढ़े हुए लगान व टैक्सों को जमींदारों व राजाओं को देते हुए स्वंय अधिकाधिक संकटग्रस्त होती रहती थी | उसी तरह से खासकर वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में अमेरिका , इंग्लैण्ड , फ्रांस जैसे देशो की खासकर अमेरिका की सरकार अपने राष्ट्र के संकटो को अपने यहा की निचले स्तर की जनता पर और फिर पूरे विश्व के पिछड़े देशो के जनसाधारण पर ढकेलने में सक्षम है और वह उसे धकेल भी रही है चाहे यह बोझ देश के निर्यात के घटने के चलते उन क्षेत्रो में रोजगार पाए लोगो की छटनी , बेकारी के रूप में आये या फिर निर्यातक कम्पनियों व अन्य बड़ी कम्पनियों के अन्तराष्ट्रीय व्यापार में घाटे की क्षतिपूर्ति के लिए दिए जाने वाले इस देश के सरकारी पैकेजों के बढ़ते बोझ आदि के रूप में आये |
उन्ही पैआप को याद होगा की 2008 में अमेरिका से चले वैश्विक वित्तीय संकटो के हो - हल्ला के बाद से देश के धनाढ्य कम्पनियों को लाखो करोड़ो रूपये का पॅकेज और टैक्सों , करो में छुट दिया गया था | जो आज भी जारी है उसमे कमी की गयी है पर उसे वापस नही लिया गया है |केजों के बाद , कुछ महीनों का अन्तर देकर पेट्रोलियम पर्दाथो की मूल्य वृद्धि व टैक्स वृद्धि का सिलसिला आज तक लगातार बढ़ता चलता आ रहा है | फलस्वरूप पेट्रोलियम पर्दाथो के साथ - साथ अन्य मालो सामानों की महगाई भी तेज़ी से बढ़ी और आज तक बढती जा रही है | मालो व सामानों के मूल्य वृद्धि के साथ अप्रत्यक्ष टैक्सों में भी वृधिया होती रही है | इस सबका बोझ इस देश के आम लोगो पर तेज़ी से बढती महगाई बेकारी के रूप में आता जा रहा है |
इसी तरह से अब अमेरिकी सरकार ( व यूरोपीय देसों की सरकारों का ) कर्ज़ संकट भी इस देश ( व अन्य पिछड़े देशो ) के जनसाधारण हिस्से में बेकारी ,महगाई को और ज्यादा बढाने का भी कारक व कारण जरुर बनेगा | अमेरिका व अन्य साम्राज्यी देशो की पूंजी व तकनीक पर पहले से बढाई जा रही परनिर्भरता के साथ अब पिछले 20 सालो से उनकी , खासकर अमेरिका की अर्थव्यवस्था के साथ इस देश की अर्थव्यवस्था के भारी जुड़ाव के ये घातक नतीजे आते रहे है और आते जायेंगे | हां , देश के धनाढ्य व उच्च हिस्से के लिए ये नतीजे अधिकाधिक लाभ और अधिकाधिक उच्च आय व सुविधाओं के रूप में आते रहे है और फिलहाल आते भी रहेंगे | इसीलिए साम्राज्यी देशो से लेकर हमारे अपने देश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों को उसकी चिंता भी नही है जैसा की उनके बयानों में तथा छुई - मुई की तरह उपर नीचे होने वाले शेयर बाज़ार की गिरावट आदि में दिखाई पड़ता है | इसीलिए तो 2008 के वित्तीय संकट के समय और इस समय के प्रचारित कर्ज़ संकट के समय भी देश के वित्त मंत्री का यह ब्यान आता रहा है की हमारे उपर इन संकटो का कोई प्रभाव नही पड़ना है | हम इससे निपटने में सक्षम है | इसका वास्तविक अर्थ यह है कि जनसाधारण पर इन संकटो को महगाई , बेकारी आदि के रूप में बिन विरोध ढकेलने में सक्षम है , इसलिए हम पर यानी धनाढ्य उच्च एवं शासकीय हिस्से पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ना है | इसलिए देश के जनसाधारण को अमेरिका व यूरोपीय देशो की आये कर्ज़ संकटो को समझने से कही ज्यादा जरूरी यह समझना है की वैश्वीकरण के वर्तमान संबंधो में उसे जीवन के बुनियादी संकटो से मुक्ति नही मिलने वाली है | वैश्विक संकटो के नाम पर वह बढती जानी है | उसकी मुक्ति वर्तमान दौर के वैश्वीकरणवादी , बाजारवादी संबंधो को तोड़ने व घटाने में ही निहित है |
दुष्यंत कुमार की यह नज्म बरबस ही याद आ गयी ...........हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
-सुनील दत्ता
पत्रकार
09415370672
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2 टिप्पणियां:
क्या कहें हम इन सरकारों को अब!
sundar aur jankaripud lekh ke liye sukriya bhai aap ne sahi nabz par haath karkha hai
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