सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

भूमण्डलीकरण एवं उसके अनैतिक विकास से उत्पन्न अन्याय की भारतीय उच्चतम न्यायालय द्वारा भत्र्सना भाग 1


नन्दिनी सुन्दर एवं अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य के केस में भारतीय उच्चतम न्यायालय ने ‘‘स्पेशल पुलिस अधिकारियों’’ की भर्ती के फैसले को अवैधानिक एवं असंवैधानिक करार दिया है, जिसके द्वारा राज्य सरकार ने केन्द्र के समर्थन से ऐसी नागरिक सतर्कता सेना, उन जनजाति क्षेत्रों में नियुक्त करनी चाही जो खनिज पदार्थों से परिपूर्ण हैं, ये इलाके पूर्वी एवं मध्य भारत में स्थित हैं। इन खनिज सम्पन्न इलाकों पर भारतीय एवं विदेशी कम्पनियाँ कब्जा जमाना चाहती हैं जिसका विरोध आदिवासी एवं किसान वर्ग कर रहा है। राज्य जो ‘‘फोर्स’’ बना रही है, उसे इन इलाकों में तैनात करके माओवादी, नक्सलवादी आन्दोलनों को, विद्रोही गतिविधियों का नाम देकर, कुचलना चाहती है। इस फैसले का महत्व यह है कि इसके द्वारा कम से कम सुप्रीम कोर्ट की यह मान्यता मिल गई कि इन क्षेत्रों में सरकार एवं जनता के बीच का ‘‘सामाजिक-सम्पर्क’’ तो टूट ही गया है, यह इसलिए हुआ कि भूमण्डलीकरण का विकृत रूप यहाँ लागू किया गया और इसके लिए राज्य द्वारा अवैधानिक एवं असंवैधानिक तरीके अपनाए गए।
कोर्ट का यह कथन है कि- ‘‘समस्या तो यह है कि राज्य ने आर्थिक राजनीति के अनैतिक रूप को मान्यता दी जिसके फलस्वरूप विद्रोही राजनीति पैदा हुई और इसी से हिसंक आन्दोलन की राजनीति ने जन्म लिया। इस बात को माना गया है कि भारत के अनेक भू भागों में जो सशस्त्र विद्रोह हुए उनका कारण सामाजिक आर्थिक हालात और स्थानीय असमानताएँ थीं’’।
कारपोरेट जगत के संगठन तथा उनके द्वारा नियंत्रित मीडिया ने, जैसा कि अनुमान था, कोर्ट के इस विचारण पर कि आदिवासियों को हिंसक रूप से उजाड़ा गया और सैकड़ों आदिवासी ग्रामों को ‘विकास’ के नाम पर खाली करा लिया गया, प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त की। जो समझौता छत्तीसगढ़ सरकार तथा भारतीय एवं सीमापार कम्पनी, टाटा, एस्सार, आरसेलर, मित्तल, डी बियर्स, बी0एच0पी0 बिलियन और रियो टिन्टो व अन्य के मध्य हुआ था और उसी के तहत आदिवासी जनसंख्या में से ही कम वेतन पर भर्ती किए गए सैनिक तथा पुलिस एवं अर्ध सैनिक बलों को इस हेतु इस्तेमाल किया गया। यही कारण था कि अनुसूचित जातियों, किसानों एवं आदिवासियों की मदद से माओवादियों का प्रतिक्रियात्मक हिंसक आन्दोलन उभरा। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सटीक रूप से ‘‘भूमण्डलीकरण का अँधेरा पहलू’’ करार दिया। कारपोरेट जगत की प्रतिक्रिया कुछभी आश्चर्यजनक नहीं थी, क्योंकि कुछ को छोड़कर समस्त मीडिया ने वर्तमान आर्थिक नीतियों के लाभ, उच्च मध्य वर्ग एवं उद्योग जगत की बड़ी आमदनी, अवस्थापना आदि के फायदे को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया।
जोसेफ कानरैड की ‘‘हार्ट आफ डार्कनेस’’ में 19वीं तथा शुरू 20वीं सदी में अफ्रीका के उपनिवेशीकरण तथा वहाँ की साम्राज्यवादी, पूँजीवादी, विस्तारवादी भयंकर नीतियों का जो चित्रण है, कोर्ट ने भूमण्डलीकरण के नाम पर आदिवासियों पर जो अत्याचार हुए, इसी से उसकी तुलना की है।
उक्त नीतियों के लागू करने से अनेक गंभीर अनियमितताएँ सामने आई हैं जिनसे संविधान तथा ‘विधि का शासन’ प्रभावित हो रहा है, कोर्ट ने ऐसा सन्दर्भ दिया है। कोर्ट यह भी सन्दर्भ देता है कि आज पूरे विश्व में- मैक्सिको, हैती, मध्य एवं लैटिन अमरीका, अफ्रीका एवं अरब जगत में अर्थ एवं वित्तीय मामलों में दरवाजे के पीछे के निर्णय तथा इतर-संवैधानिक तरीके ही हिंसक उथल-पुथल का कारण बनते हैं। जैसा कि कहा जाता है कि यह ‘‘बैंकर-युद्ध’’ है जो यूरोप एवं अमरीका के नागरिकों को फकीर बनाए दे रहा है तथा सम्पूर्ण विश्व पर प्रभाव डाल रहा है।
अपने औद्योगिक विकास और वित्तीय सहायकों की प्रशंसा के बावजूद चीन और भारत भी इस प्रभाव से बचे नहीं हंै। एशियाई विकास बैंक के अनुसार आय में असमानता के मामले मंे क्षेत्र में चीन का स्थान दूसरे ऊँचे नम्बर पर है। वहाँ के राजकीय प्रबंधन- वर्कर सेफटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रतिवर्ष वहाँ एक लाख मजदूर काल के गाल में समा जाते हैं। इसी प्रकार से भारत में जब से यह नीतियाँ लागू हुई हैं, भारत सरकार के ‘नेशनल ब्युरो आॅफ क्राइम स्टैटिक्स’ के अनुसार 1995 से 15 वर्ष की काल अवधि में दो लाख पचास हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली हैं तथा कर्ज के फंदे में जकड़ जाने पर दूसरे तबकों के परिवारों ने सामूहिक आत्महत्याएँ की हैं।
इन नीतियों का भयानक रूप यह है कि मिलिट्री हमलों द्वारा न समाप्त होने वाले ऐसे युद्ध छेड़े जाते हैं कि लाखों आदमी जान से मार दिए जाते हैं और अनेक क्षेत्रों में पूरी मानव जाति की नस्ल समाप्त कर दी जाती है। आण्विक उद्योगों के कचरे से यूरेनियम अस्त्र बना कर इनका इस्तेमाल अतिशक्तिशाली एकाधिकार प्राप्त कम्पनियाँ तथा वित्तीय संस्थाएँ उन युद्धों में करती हैं, जिनका उद्देश्य कभी एक कभी दूसरे समाज के आर्थिक क्षेत्रों पर कब्जा करके, बजट एवं बचत स्रोतों को हथिया कर उन्हें गुलाम बनाना होता है। इसे मुसोलिनी के ‘फासिस्ट बिजनेस माॅडल’ के सन्दर्भ में ‘नवनाजी’ या ‘न्युकान्स’ भी कहते हैं।
नव-उदारवाद की ज़मीनी हक़ीक़त और इन नीतियों की भारत में प्रभाव पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने प्रेक्षण में प्रकाश डालते हुए भर्ती मामले को अवैधानिक एवं
असंवैधानिक करार दिया है और कहा है कि केन्द्र एवं राज्य ने मिलकर विद्रोह को शान्त करने के बहाने आदिवासियों की जमीन हथियाने के लिए ‘‘आदिवासी गरीबों की आधी जनसंख्या’’ को उनकी ‘‘दूसरी
आधी’’ जनता द्वारा मार डालने की नीति बनाई है ताकि कम्पनियों को खनिज-संपदा को लूटने का मौका मिले जबकि आदिवासी भूमि को किसी को देने पर संवैधानिक निषेध लागू है।


-नीलोफर भागवत
अनुवादक-डा.एस0एम0 हैदर

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