सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

अदालतें भ्रष्टाचार से मुक्त हों

न्यायपालिका के पास विशाल शक्तियाँ है क्योंकि वह जो कहती है अंतिम बात होती है, अचूक एवं अमोघ। इतनी शक्तिशाली है न्यायपालिका कि जब कार्यपालिका का कोई अधिकारी कानून का उल्लंघन करता है तो जज उसके आदेश को निरस्त कर सकते हैं और हुक्मनामे की अपनी ताकत से दिशा-निर्देश दे सकते हैं। जब संसद कोई कानून पास करती है और कानून का अतिक्रमण कर देती है या मौलिक अधिकारों की सीमाओं से बाहर निकल कर आदेश जारी करती है तो अदालत उस आदेश और कार्रवाई को खारिज कर सकती है। पर जब उच्च न्यायालय कानून के बेरोकटोक उल्लंघन के अपराधी हों तो उनकी इस चूक, उनकी इस गलती के लिए कोई तरीका है संहिता। हर संविधान का एक सामाजिक दर्शन होता है, खासकर भारत के संविधान का एक सामाजिक दर्शन है। हम एक समाजवादी लोकतांत्रिक गणतंत्र हैं। यदि संविधान के इन आदेशों का उल्लंघन होता है और जजों से जिस तरह के बर्ताव की उम्मीद की जाती है वे उस बर्ताव को धता बता देते हैं तो किसी को अधिकार नहीं कि उन्हें सही रास्ते पर लाए और उनके दुराचार को ठीक करे।
“जज लोग तत्वतः दूसरे सरकारी अधिकारियों से कुछ अलग नहीं हैं। न्यायिक ड्यूटियों पर आकर भी सौभाग्य से वे इंसान बने रहते हैं। अन्य इंसानों की तरह उन पर भी समय-समय पर गर्व और मनोविकारों का, तुच्छता एवं चोट खाई भावनाओं का, गलत समझ या फालतू जोश का असर पड़ता है।”
-ह्यूगो ब्लैक
अपनी पुस्तक में डेविड पैमिक जजों के बारे में लिखते हैंः
“अमरीका के सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस जैक्सन ने 1952 में टिप्पणी की कि “जो लोग कुर्सी पर पहुँच जाते हैं कभी-कभी घमंड, गुस्सेपन, तंग नजरी, हेकड़ी और हैरान करने वाली कमजोरियों जैसी उन कमजोरियों का परिचय देते हैं जो इंसानियत को विरासत में मिली हुई है। यह हैरानी की बात होगी, असल में चिंताजनक बात होगी कि जो प्रख्यात मस्तिष्क वाले लोग इंग्लैंड की न्यायपालिका में हैं वे अपने अवकाश, जो उन्हें विरले ही मिलता है, के दिनों में गैरन्यायिक तरीके से काम करें। हाल में लॉर्ड चांसलर हेल्शाम ने स्वीकार किया, उन्होंने कहा कि जो लोग जज की कुर्सी पर बैठते हैं कभी वे उस चीज का शिकार हो जाते हैं जिसे जजी का रोग कहते हैं अर्थात एक ऐसी हालत जिसके लक्षण हैं तड़क-भड़क, चिड़चिड़ापन, बातूनीपन, ऐसी बातें कहने की प्रवृत्ति जो मामले में फैसला करने में जरूरी नहीं होती और शार्टकट का रुझान।”
दुख की बात है कि कानून के अंदर महाभियोग-जो इस बीमारी को बढ़ने से रोकने के लिए एक राजनैतिक इलाज है- के अलावा इसका अन्य कोई इलाज नहीं। इन चिंताजनक बातों से भी बदतर बात है वह जो लार्ड एक्शन ने कही है- ”सत्ता भ्रष्ट बनाती है और चरम भ्रष्ट बनाती है।” लोकतंत्र में लोगों को न्यायपालिका की आलोचना करने का अधिकार है जिससे पारदर्शी, स्वतंत्र, अच्छे व्यवहार वाली, पक्षपात से दूर और हर किस्म की कमजोरियों से मुक्त होने की अपेक्षा की जाती है। कितना भी महत्वपूर्ण मामला क्यांे न हो हर विवाद मंे जज जो फैसला करते हैं वह उस संबंध में अंतिम फैसला होता है। अतः जजों का चयन जाँच-पड़ताल के बाद और उनकी वर्ग राजनीति और वर्ग पूर्वाग्रहों के समीक्षात्मक मूल्यांकन के बाद हद दर्जे की सावधानी के साथ किया जाना चाहिए। (देखिए, पोलिटिक्स ऑफ जुडिशयरी, लेखक प्रो. ग्रिफिथ)।
“जज लोग आप कहाँ निष्पक्ष हैं?” आप सभी कर्मचारियों की तरह उसी गोल चक्कर में चलते रहते हैं और नियोक्ता लोग जिन विचारों में शिक्षित हुए हैं और पले-बढ़े हैं आप लोग भी उन्हीं मंे शिक्षित हुए और पले-बढ़े हैं। किसी मजदूर या टेªड यूनियन कार्यकर्ता को इंसाफ कैसे मिल सकता है? जब विवाद का एक पक्ष आपके वर्ग का होता है और दूसरा आपके वर्ग का नहीं होता तो कभी-कभी यह सुनिश्चित करना बहुत मुश्किल हो जाता है कि आपने इन दो पक्षों के बीच स्वयं को पूरी तरह निष्पक्ष स्थिति में रखा है।”
- लॉर्ड जस्टिस स्क्रटून
न्याय और न्यायतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता और भाई-भतीजावाद। हाल के दिनों में न्यायापालिका में भ्रष्टाचार बहुत अधिक बढ़ा है यहाँ तक कि सर्वोच्च स्तर पर भी। गुनाहगार जजों पर संसद में महाभियोग का तरीका पूरी तरह नाकाफी और बेकार साबित हुआ है, इसका ज्वलंत उदाहरण है रामास्वामी का मामला। प्रशांत भूषण ने
न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार का जो आरोप लगाया है, और जिसका समर्थन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वर्मा ने किया है, क्या उसमें रत्तीभर भी अतिशयोक्ति है? जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप दिन दूना रात चैगुना बढ़ते ही जा रहे हैं। महाभियोग इनका कतई कोई समाधान नहीं है। अदालतों में बकाया पड़े-मुकदमों का अम्बार बढ़ता जा रहा है, पार्किन्सन्स कानून (संख्या बढ़ा दो) और पीटर प्रिंसिपल (अयोग्यता में वृद्धि)। कोई इलाज नहीं, इसका इलाज है नियुक्ति आयोग (अपॉइटमेंट कमीशन) और एक ऐसा कार्य निष्पादन आयोग (परफार्मेन्स कमीशन) जिनके पास काफी अधिक शक्तियाँ हों। नियुक्ति आयोग के पास यह शक्ति हो कि वह कार्य पालिका द्वारा नियुक्ति के लिए सुझाए गए नामों को खारिज कर सके और नियुक्ति से पहले उनके नाम सार्वजनिक कर सके। परफार्मेन्स कमीशन के पास जजों के दुराचार के खिलाफ जाँच करने की और दोषी पाए जाने पर उन्हें बर्खास्त करने की शक्तियाँ हों। ये चीजें संविधान में संशोधन कर न्यायिक आचरण संहिता का हिस्सा होना चाहिए। प्रस्तावित उम्मीदवार के बारे में कुछ कहने का अधिकार हर नागरिक को होना चाहिए। क्यों?
एक रोमन कहावत हैः जिस चीज का हम सब पर असर पड़ता है उसका फैसला सबके द्वारा होना चाहिए। हमारी न्यायापालिका अभी भी एक प्रतिष्ठित संस्था है। उनके नियतकालिक पाठ्यक्रम होने चाहिए ताकि वे अपने विषय में पूरी तरह पारंगत रहें।

-वी0आर0 कृष्णा अय्यर

1 टिप्पणी:

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

न्यायाधीश माने मिथ्याधीश है यहाँ, इनके कार्य, न्याय या और किसी पालिका होने से कुछ न हो सकेगा…

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