दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर/दानों को चुगने च़ा हुआ कोई भी कुक्कुट/कोई भी मुरगा/यदि बांग दे उठे जोरदार/बन जाए मसीहा’ ;मुक्तिबोध, अँधेरे में’
यह होना ही था कि टीम अन्ना के साथ जुटे गांधीवादी, समाजवादी, जनांदोलनकारी, बु(िजीवी, पत्राकार अन्ना और उनकी टीम के बचाव की हर चंद कोशिश करेंगे। वे सुनियोजित रणनीति के तहत अन्ना और उनकी टीम को गांधीवादी, लोकतांत्रिक, ध्र्मनिरपेक्ष, सामाजिक न्यायवादी आदि सि( करने में जुटे हैं। रालेगांव में अन्ना को महात्मा की उपाध्ि देने का प्रायोजन हुआ। ॔विनम्र’ अन्ना ने इनकार करते हुए डॉ. अंबेडकर और ज्योतिबा पफुले के नए नाम लिए। विस्थापितों के लिए काम करने वाले जनांदोलनकारी उनसे भूमि अध्गि्रहणऋ लोकतंत्रा संव(र्न का काम करने वाले चुनाव सुधरऋ राजनीति को बुरा बताने वाले राजनीति न करने आदि के ॔तीन वचन’ भरवाते रहते हैं। आंदोलन की ॔सपफलता’ पर गद्गद अन्ना और टीम को कोई भी वचन देने में पिफलहाल कोई हर्ज नहीं लगता। वचन लेने वाले भले मुगालते में हों, वचन देने वालों को कोई मुगालता नहीं है। वे जानते और मानते हैं कि आगे इन सभी समस्याओं के समाधन नवउदारवाद की संगति में होने हैं।
आरएसएस से सहयोग और संब(ता के चलते पैदा ध्र्मनिरपेक्षतावादियों की लज्जा को ंकने के लिए उन्हीं के कहने पर अन्ना आरएसएस के सहयोग से इनकार कर देते हैं। सभी जानते हैं आरएसएस खुद कितने ही कृत्यों से इनकार कर देता है, जो उसने सरओम किए होते हैं। अन्ना का इनकार भी वैसा ही है। इस मसले पर दूसरों को हलकान कर डालने में माहिर ध्र्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार अन्ना से पलट कर नहीं पूछते कि आरएसएस से कोई संबंध नहीं है तो भागवत का पत्रा लेने से उसी समय इनकार क्यों नहीं कर कर दिया? ध्र्मनिरपेक्षतावादी यह भी नहीं कहते कि सवाल सांप्रदायिक होने या नहीं होने का है। आरएसएस का सदस्य न होने पर भी कोई व्यक्ति सांप्रदायिक हो सकता है। देश में एक बड़ी आबादी है जो आरएसएस से संब( न होने पर भी सांप्रदायिक सोच वाली है। सभी ध्मोर्ं में सांप्रदायिक सोच वाले लोग और संगठन हैं। देश की शायद ही कोई चुनाव जीतने वाली पार्टी हो, जो सांप्रदायिक कार्ड न खेलती हो।
अन्ना हजारे सांप्रदायिक नहीं होते तो उनके प्रचारक अभी तक उनके 1984 के सिख विरोधी दंगों, 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस और 2002 के गुजरात दंगों पर दिए गए निंदा वक्तव्यों को सामने ले आते। ये सभी कांड अन्ना की सक्रियता के दौर के हैं। अगर उन्होंने इन घटनाओं की निंदा उसी समय नहीं की है और आज भी नहीं करते हैं, तो वे सांप्रदायिक हैं। इसमें ज्यादा गुणाभाग की जरूरत नहीं है। ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि आरएसएस औपचारिक रूप से सांप्रदायिक है, अन्ना हजारे अनौपचारिक रूप से। बेहतर हो कि अन्ना को ध्र्मनिरपेक्ष सि( करने में लगे उनके समर्थक बात को घुमानेपिफराने के बजाय सीध कहें कि उन्हें भ्रष्टाचार की खिलापफत और विकास तथा सुशासन करने वालों की सांप्रदायिकता से ऐतराज नहीं है। ऐसा मानने वाले नागरिक समाज में बहुतसे सज्जन हो गए हैं। वे नरेंद्र मोदी का गुणगान इसी आधर पर करते हैं। खुद टीम अन्ना में ऐसे सदस्यों की कमी नहीं है।
आरएसएस से जुड़ाव के मसले पर कांग्रेसी रोष को शांत करने के लिए अन्ना को सलाह दी जाती है कि वे मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, राहुल गांधी का स्मरण बीचबीच में करते रहें। अन्ना को खुद उनसे कोई शिकायत नहीं है। वे तो चंडाल चौकड़ी से खपफा हैं। हालांकि जिसे चंडाल चौकड़ी कह कर दुत्कारा जा रहा है, वह भी समग्र टीम का अविभाज्य हिस्सा है। अन्ना को सापफसपफेद मसीहा बनाने की मुहिम में बीचबीच में कुछ सयाने लोग ॔मित्रातापूर्ण आलोचना’ की अर्जी लगाते हैं, जो खारिज हो जाती है। अन्ना की शर्त है, झुक कर जो कहलवाना है कहलवा लो, तेजी बरदाश्त नहीं होगी। अलबत्ता कापफी तेजी दिखाने के आदी उनके आलोचक मित्रा डर भी जाते होंगेऋ कहीं भाजपा अगले चुनाव में जीत कर अन्ना को सचमुच राष्ट्रपति न बना दे! कहने की जरूरत नहीं कि अन्ना हजारे को बड़ा और उनकी टीम को छोटा मसीहा बना कर ध्र्मनिरपेक्षतावादी वास्तव में अपना बचाव कर रहे हैं।
दरअसल, आंदोलन में उमड़ी मध्यवर्गीय भीड़ को देख कर ये लोग इस कदर अभिभूत हो उठे कि अन्ना और आंदोलन की महिमा का गानबखान एकबारगी ही आसमान पर पहुंचा दिया। एक प्रहसन को महाकाव्य बताने में कलम और वाणी का ऐसा दुरुपयोग शायद ही कभी और कहीं हुआ हो। संघ के नेताओं ने राममंदिर आंदोलन को आजाद भारत का सबसे बड़ा जन आंदोलन प्रचारित किया था। निस्संदेह वह एक देशव्यापी आंदोलन था। लेकिन ध्र्मनिरपेक्षता के संवैधनिक मूल्य के प्रति निष्ठावान सचेत नागरिकों ने उस सांप्रदायिक आंदोलन का समर्थन नहीं किया। समाजवाद के संवैधनिक मूल्य में आस्था रखने वाला कोई सचेत नागरिक नवउदारवाद के हित में होने वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भी समर्थन नहीं कर सकता। जो यह कर रहे हैं, उन्हें एक के बाद एक अ(र्सत्यों का सहारा लेना पड़ रहा है।
हमारे मित्रा प्रेमपाल शर्मा बड़े संजीदा इंसान हैं। उनका मानना है कि हिंदी पट्टी का विकास वहां के निवासियों की काहिली और कूपमंडूकता के कारण रुका हुआ है। वे आंदोलन के पहले दिन से ही कह रहे हैं कि अन्ना गांधी का काम कर रहे हैं, इसलिए वे उनके समर्थक हैं। पीछे उन्होंने अपने समर्थन की यह कह कर ताईद की कि ॔पतन की पट्टी’ में पड़ा उनका गांव अन्ना के गांव जैसा आदर्श हो सकता था, लेकिन किसी ने अन्ना जैसा प्रयास नहीं किया। इसीलिए वे अन्ना का समर्थन करते हैं। शर्मा जी को देखना चाहिए कि विश्व बैंक या वैसी किसी आर्थिक संस्था के ध्न से एक गांव को ॔आदर्श’ बना लेना पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत आता है। यह काम अन्ना ही नहीं, सरकारें और नेता भी करते हैं। शर्मा जी के अपने प्रांत में अंबेडकर गांव हैं। अन्य राज्यों में भी इस तरह के विशेष गांव मिल जाएंगे। इस व्यवस्था में देश के बाकी लाखों गांव ऊजड़ होते हैं या स्लम बन जाते हैं। गांधी की ग्राम स्वराज की अवधरणा सभी गांवों के लिए है। पूंजीवादी यथार्थ के चलते गांधीवादी आदर्श के लिए जगह नहीं बन सकती। देशीविदेशी पफंडिग से जो ॔गांधीवादी काम’ होते हैं, वे न ही हों तो बेहतर है। जिन अन्ना को गांधी बना कर पेश किया गया है, उनमें एक पूंजीवादी सामाज सुधरक के सभी गुण और अंतर्विरोध मौजूद हैं। वाजिब यही है कि अन्ना को अन्ना और गांधी को गांधी रहने दें।
ऊपर उ(ृत काव्य पंक्तियां कविता में मुक्तिबोध ने गांधी से कहलवाई हैं जो क्रांति के आकांक्षी मध्यवर्गीय काव्य नायक को संबोध्ति करते हैं। गांधी प्रचलित आधु्निक सभ्यता के मसीहाई अथवा महामानववादी दर्शन के बरक्स साधरणता की प्रतिष्ठा के चिंतक हैं। उनका चिंतन आधु्निकता के उस ओट कर दिए गए पक्ष को सामने लाता है, जिसमें साधरणता को मनुष्य की सार्थकता की कसौटी माना जाता है। अन्ना को मसीहा बना कर पेश करने वाला यह आंदोलन जो भी हो, गांधीवादी कतई नहीं है। अन्ना हजारे की सादगी अथवा ईमानदारी का तर्क नहीं चलेगा। इस मामले में मनमोहन सिंह का कोई जोड़ पूरी दुनिया में नहीं है। अन्ना ट्रस्ट के ध्न से दो लाख का बिना हिसाब खर्च कर सकते हैं, लेकिन मनमोहन सिंह पूरे देश के ॔ट्रस्टी’ होने के बावजूद दो पैसे का भी बेहिसाब खर्च शायद ही करें। आंदोलन की परिणति पर समर्थक कहते हैं कि अन्ना की प्रतिष्ठा का कुछ निहित स्वार्थी बेजा पफायदा उठा रहे हैं। इसमें अन्ना का कोई कसूर नहीं है। लेकिन ऐसा है नहीं। पफायदा उठाने का कारोबार दोतरपफा है। अन्ना को भी अपनी प्रतिष्ठा के लिए उन सबका साथ चाहिए। आंदोलन के नीचे से ध्न और उसके बल पर बने हैसियतमंदों के आधर को हटा दीजिए, अन्ना वही बचेंगे जो पहले थे।
जैसा कि हमने पहले भी कहा है, इस आंदोलन में सबसे ज्यादा भोंड़ा बर्ताव गांधी के साथ हुआ है। नब्बे के दशक में यही नागरिक समाज गांधी को अपनी पार्टियों के बाहर भिखमंगा बना कर खड़ा करता था। कुछ लोग गांधी बने बहरुपिये से शराब सर्व करवाते थे। हमने थोड़ा कड़ाई से कई जगह कहा और लिखा तो वह पफैशन बंद हुआ। नवउदारवाद के प्रभाव में हम धीधी अपने प्रतीकों के अर्थ और प्रेरणाएं खोते जा रहे हैं। यह अकेले गांधी के साथ नहीं हो रहा है। भारत में यह एक पूरी राम कहानी है जिसे यहां नहीं कहा जा सकता। प्रशांत भूषण पर हमला करने वाले राम और भगत सिंह से प्रेरित बताए गए हैं।
जो समाज अपने प्रतीकों के साथ गंभीरतापूर्वक निर्वाह नहीं करता, अपनी पहचान और स्वतंत्राता गंवा बैठता है। यह आंदोलन इस मायने में वाकई बड़ा और दूरगामी प्रभाव वाला कहा जाएगा कि नई और आने वाली पीयिं गांधी को अन्ना और उनकी टीम की छवि में देखेंगी। तब उन्हें यह सहज स्वीकार्य होगा कि सांप्रदायिक और तानाशाही पिफतरत का कोई व्यक्ति गांधी की खाल ओ़ कर मसीहा बन सकता है।
प्रेम सिंह
क्रमश:
यह होना ही था कि टीम अन्ना के साथ जुटे गांधीवादी, समाजवादी, जनांदोलनकारी, बु(िजीवी, पत्राकार अन्ना और उनकी टीम के बचाव की हर चंद कोशिश करेंगे। वे सुनियोजित रणनीति के तहत अन्ना और उनकी टीम को गांधीवादी, लोकतांत्रिक, ध्र्मनिरपेक्ष, सामाजिक न्यायवादी आदि सि( करने में जुटे हैं। रालेगांव में अन्ना को महात्मा की उपाध्ि देने का प्रायोजन हुआ। ॔विनम्र’ अन्ना ने इनकार करते हुए डॉ. अंबेडकर और ज्योतिबा पफुले के नए नाम लिए। विस्थापितों के लिए काम करने वाले जनांदोलनकारी उनसे भूमि अध्गि्रहणऋ लोकतंत्रा संव(र्न का काम करने वाले चुनाव सुधरऋ राजनीति को बुरा बताने वाले राजनीति न करने आदि के ॔तीन वचन’ भरवाते रहते हैं। आंदोलन की ॔सपफलता’ पर गद्गद अन्ना और टीम को कोई भी वचन देने में पिफलहाल कोई हर्ज नहीं लगता। वचन लेने वाले भले मुगालते में हों, वचन देने वालों को कोई मुगालता नहीं है। वे जानते और मानते हैं कि आगे इन सभी समस्याओं के समाधन नवउदारवाद की संगति में होने हैं।
आरएसएस से सहयोग और संब(ता के चलते पैदा ध्र्मनिरपेक्षतावादियों की लज्जा को ंकने के लिए उन्हीं के कहने पर अन्ना आरएसएस के सहयोग से इनकार कर देते हैं। सभी जानते हैं आरएसएस खुद कितने ही कृत्यों से इनकार कर देता है, जो उसने सरओम किए होते हैं। अन्ना का इनकार भी वैसा ही है। इस मसले पर दूसरों को हलकान कर डालने में माहिर ध्र्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार अन्ना से पलट कर नहीं पूछते कि आरएसएस से कोई संबंध नहीं है तो भागवत का पत्रा लेने से उसी समय इनकार क्यों नहीं कर कर दिया? ध्र्मनिरपेक्षतावादी यह भी नहीं कहते कि सवाल सांप्रदायिक होने या नहीं होने का है। आरएसएस का सदस्य न होने पर भी कोई व्यक्ति सांप्रदायिक हो सकता है। देश में एक बड़ी आबादी है जो आरएसएस से संब( न होने पर भी सांप्रदायिक सोच वाली है। सभी ध्मोर्ं में सांप्रदायिक सोच वाले लोग और संगठन हैं। देश की शायद ही कोई चुनाव जीतने वाली पार्टी हो, जो सांप्रदायिक कार्ड न खेलती हो।
अन्ना हजारे सांप्रदायिक नहीं होते तो उनके प्रचारक अभी तक उनके 1984 के सिख विरोधी दंगों, 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस और 2002 के गुजरात दंगों पर दिए गए निंदा वक्तव्यों को सामने ले आते। ये सभी कांड अन्ना की सक्रियता के दौर के हैं। अगर उन्होंने इन घटनाओं की निंदा उसी समय नहीं की है और आज भी नहीं करते हैं, तो वे सांप्रदायिक हैं। इसमें ज्यादा गुणाभाग की जरूरत नहीं है। ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि आरएसएस औपचारिक रूप से सांप्रदायिक है, अन्ना हजारे अनौपचारिक रूप से। बेहतर हो कि अन्ना को ध्र्मनिरपेक्ष सि( करने में लगे उनके समर्थक बात को घुमानेपिफराने के बजाय सीध कहें कि उन्हें भ्रष्टाचार की खिलापफत और विकास तथा सुशासन करने वालों की सांप्रदायिकता से ऐतराज नहीं है। ऐसा मानने वाले नागरिक समाज में बहुतसे सज्जन हो गए हैं। वे नरेंद्र मोदी का गुणगान इसी आधर पर करते हैं। खुद टीम अन्ना में ऐसे सदस्यों की कमी नहीं है।
आरएसएस से जुड़ाव के मसले पर कांग्रेसी रोष को शांत करने के लिए अन्ना को सलाह दी जाती है कि वे मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, राहुल गांधी का स्मरण बीचबीच में करते रहें। अन्ना को खुद उनसे कोई शिकायत नहीं है। वे तो चंडाल चौकड़ी से खपफा हैं। हालांकि जिसे चंडाल चौकड़ी कह कर दुत्कारा जा रहा है, वह भी समग्र टीम का अविभाज्य हिस्सा है। अन्ना को सापफसपफेद मसीहा बनाने की मुहिम में बीचबीच में कुछ सयाने लोग ॔मित्रातापूर्ण आलोचना’ की अर्जी लगाते हैं, जो खारिज हो जाती है। अन्ना की शर्त है, झुक कर जो कहलवाना है कहलवा लो, तेजी बरदाश्त नहीं होगी। अलबत्ता कापफी तेजी दिखाने के आदी उनके आलोचक मित्रा डर भी जाते होंगेऋ कहीं भाजपा अगले चुनाव में जीत कर अन्ना को सचमुच राष्ट्रपति न बना दे! कहने की जरूरत नहीं कि अन्ना हजारे को बड़ा और उनकी टीम को छोटा मसीहा बना कर ध्र्मनिरपेक्षतावादी वास्तव में अपना बचाव कर रहे हैं।
दरअसल, आंदोलन में उमड़ी मध्यवर्गीय भीड़ को देख कर ये लोग इस कदर अभिभूत हो उठे कि अन्ना और आंदोलन की महिमा का गानबखान एकबारगी ही आसमान पर पहुंचा दिया। एक प्रहसन को महाकाव्य बताने में कलम और वाणी का ऐसा दुरुपयोग शायद ही कभी और कहीं हुआ हो। संघ के नेताओं ने राममंदिर आंदोलन को आजाद भारत का सबसे बड़ा जन आंदोलन प्रचारित किया था। निस्संदेह वह एक देशव्यापी आंदोलन था। लेकिन ध्र्मनिरपेक्षता के संवैधनिक मूल्य के प्रति निष्ठावान सचेत नागरिकों ने उस सांप्रदायिक आंदोलन का समर्थन नहीं किया। समाजवाद के संवैधनिक मूल्य में आस्था रखने वाला कोई सचेत नागरिक नवउदारवाद के हित में होने वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भी समर्थन नहीं कर सकता। जो यह कर रहे हैं, उन्हें एक के बाद एक अ(र्सत्यों का सहारा लेना पड़ रहा है।
हमारे मित्रा प्रेमपाल शर्मा बड़े संजीदा इंसान हैं। उनका मानना है कि हिंदी पट्टी का विकास वहां के निवासियों की काहिली और कूपमंडूकता के कारण रुका हुआ है। वे आंदोलन के पहले दिन से ही कह रहे हैं कि अन्ना गांधी का काम कर रहे हैं, इसलिए वे उनके समर्थक हैं। पीछे उन्होंने अपने समर्थन की यह कह कर ताईद की कि ॔पतन की पट्टी’ में पड़ा उनका गांव अन्ना के गांव जैसा आदर्श हो सकता था, लेकिन किसी ने अन्ना जैसा प्रयास नहीं किया। इसीलिए वे अन्ना का समर्थन करते हैं। शर्मा जी को देखना चाहिए कि विश्व बैंक या वैसी किसी आर्थिक संस्था के ध्न से एक गांव को ॔आदर्श’ बना लेना पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत आता है। यह काम अन्ना ही नहीं, सरकारें और नेता भी करते हैं। शर्मा जी के अपने प्रांत में अंबेडकर गांव हैं। अन्य राज्यों में भी इस तरह के विशेष गांव मिल जाएंगे। इस व्यवस्था में देश के बाकी लाखों गांव ऊजड़ होते हैं या स्लम बन जाते हैं। गांधी की ग्राम स्वराज की अवधरणा सभी गांवों के लिए है। पूंजीवादी यथार्थ के चलते गांधीवादी आदर्श के लिए जगह नहीं बन सकती। देशीविदेशी पफंडिग से जो ॔गांधीवादी काम’ होते हैं, वे न ही हों तो बेहतर है। जिन अन्ना को गांधी बना कर पेश किया गया है, उनमें एक पूंजीवादी सामाज सुधरक के सभी गुण और अंतर्विरोध मौजूद हैं। वाजिब यही है कि अन्ना को अन्ना और गांधी को गांधी रहने दें।
ऊपर उ(ृत काव्य पंक्तियां कविता में मुक्तिबोध ने गांधी से कहलवाई हैं जो क्रांति के आकांक्षी मध्यवर्गीय काव्य नायक को संबोध्ति करते हैं। गांधी प्रचलित आधु्निक सभ्यता के मसीहाई अथवा महामानववादी दर्शन के बरक्स साधरणता की प्रतिष्ठा के चिंतक हैं। उनका चिंतन आधु्निकता के उस ओट कर दिए गए पक्ष को सामने लाता है, जिसमें साधरणता को मनुष्य की सार्थकता की कसौटी माना जाता है। अन्ना को मसीहा बना कर पेश करने वाला यह आंदोलन जो भी हो, गांधीवादी कतई नहीं है। अन्ना हजारे की सादगी अथवा ईमानदारी का तर्क नहीं चलेगा। इस मामले में मनमोहन सिंह का कोई जोड़ पूरी दुनिया में नहीं है। अन्ना ट्रस्ट के ध्न से दो लाख का बिना हिसाब खर्च कर सकते हैं, लेकिन मनमोहन सिंह पूरे देश के ॔ट्रस्टी’ होने के बावजूद दो पैसे का भी बेहिसाब खर्च शायद ही करें। आंदोलन की परिणति पर समर्थक कहते हैं कि अन्ना की प्रतिष्ठा का कुछ निहित स्वार्थी बेजा पफायदा उठा रहे हैं। इसमें अन्ना का कोई कसूर नहीं है। लेकिन ऐसा है नहीं। पफायदा उठाने का कारोबार दोतरपफा है। अन्ना को भी अपनी प्रतिष्ठा के लिए उन सबका साथ चाहिए। आंदोलन के नीचे से ध्न और उसके बल पर बने हैसियतमंदों के आधर को हटा दीजिए, अन्ना वही बचेंगे जो पहले थे।
जैसा कि हमने पहले भी कहा है, इस आंदोलन में सबसे ज्यादा भोंड़ा बर्ताव गांधी के साथ हुआ है। नब्बे के दशक में यही नागरिक समाज गांधी को अपनी पार्टियों के बाहर भिखमंगा बना कर खड़ा करता था। कुछ लोग गांधी बने बहरुपिये से शराब सर्व करवाते थे। हमने थोड़ा कड़ाई से कई जगह कहा और लिखा तो वह पफैशन बंद हुआ। नवउदारवाद के प्रभाव में हम धीधी अपने प्रतीकों के अर्थ और प्रेरणाएं खोते जा रहे हैं। यह अकेले गांधी के साथ नहीं हो रहा है। भारत में यह एक पूरी राम कहानी है जिसे यहां नहीं कहा जा सकता। प्रशांत भूषण पर हमला करने वाले राम और भगत सिंह से प्रेरित बताए गए हैं।
जो समाज अपने प्रतीकों के साथ गंभीरतापूर्वक निर्वाह नहीं करता, अपनी पहचान और स्वतंत्राता गंवा बैठता है। यह आंदोलन इस मायने में वाकई बड़ा और दूरगामी प्रभाव वाला कहा जाएगा कि नई और आने वाली पीयिं गांधी को अन्ना और उनकी टीम की छवि में देखेंगी। तब उन्हें यह सहज स्वीकार्य होगा कि सांप्रदायिक और तानाशाही पिफतरत का कोई व्यक्ति गांधी की खाल ओ़ कर मसीहा बन सकता है।
प्रेम सिंह
क्रमश:
2 टिप्पणियां:
इस सत्य और सामयिक लेख के लिए मैं आपको हार्दिक बधाई देना चाहता हूँ. एक प्रहसन को महाकाव्य बताकर जो लोग खुद को गफलत में रखे हुए है उनको इसके अंजाम तक पहुचाने से पहले ही बिखर जाने का ऐहसास जल्दी होने लगेगा.
इस बार भी काफी दिक्कतें आईं पढ़ने में…लगता है फोंट की समस्या है…यूनिकोड में नहीं था यह…वैसे लेख अच्छा जा रहा है…संघ वाली बातों को जाना कुछ…
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