सोमवार, 21 नवंबर 2011

संसदीय समितियों का सच



1993 में वैश्वीकरणवादी नीतियों के भारी विरोध के दौर में सांसद निधि तथा संसदीय समितियों के निर्माण आदि ने विरोधी पार्टियों को इन नीतियों का विरोध छोडकर उनका समर्थक बनाने का काम किया था | संसद समितियों के बनने का प्रमुख कारण भी यही है |
विभिन्न मुद्दों , विवादों को लेकर संसदीय समितियाँ बारम्बार चर्चा में आने लगी हैं | अभी हाल में जन लोकपाल विधेयक पर भी संसदीय समिति पुन: चर्चा में आई है | सरकार ने सिविल सोसायटी के सामने जन लोकपाल के सुझाव को संसदीय समिति के पास भेजने का प्रस्ताव किया था |लेकिन अन्ना हजारे के नेतृत्त्व में सिविल सोसायटी के लोग इसे संसद की स्थायी समिति की जगह सीधे संसद में पेश करने की बात उठाते रहे थे | उस दौरान समाचार -पत्रों में ( दैनिक जागरण २८ अगस्त ) संसदीय समितियों के गठन और कार्य - प्रणाली की चर्चा के साथ यह बात भी कही गयी कि सरकार जिस बिल को लटकाना चाहती है , उसे उस मामले से सम्बन्धित समिति के पास भेज देती हैं और बहुतेरे विधेयको को संसदीय समिति में भेजे बगैर संसद से पास करवा लेती हैं | फिर संसदीय समिति के सुझाव को मानना सरकार व संसद के लिए बाध्यकारी भी नही हैं |
इस समय भी संसदीय समितियों के पास कई विधेयक काफी समय से लम्बित पड़े हुए हैं | फिर संसदीय समितियों के लिए किसी विधेयक पर अपना सुझाव व निर्णय देने कई कोई समय सीमा भी नही है | इन संसदीय समितियों के गठन का इतिहास महज 18 साल पुराना है | इसका गठन 1991 में अन्तराष्ट्रीय नयी आर्थिक नीतियों अर्थात उदारीकरणवादी , निजीकरणवादी , वैश्वीकरणवादी नीतियों को लागू किए जाने के दो साल बाद 1993 में किया गया था |इस समय विभिन्न मंत्रालयों और विभागों से सम्बन्धित 24 संसदीय समितिया मौजूद हैं |इन संसदीय समितियों में सभी दलो और पार्टियों का प्रतिनिधित्व है |कई संसदीय समितियों के अध्यक्ष , विरोधी पार्टियों के नेतागण है |संसदीय समितियों में ,संसद के विधेयको पर चर्चा सलाह के लिए चूकी सभी संसदीय पार्टियों का प्रतिनिधित्व रहता है , इसलिए इन समितियों को लघु - संसद भी कहा जाता जाता है | संसदीय समितियों का यह विशेषाधिकार है कि, ये जनता से , उसके विभिन्न हिस्सों से और सम्बन्धित विषय के जानकार विशेषज्ञों से किसी विचाराधीन मुद्दों पर राय ले सकती हैं | इस राय - मशविरे के बाद संसदीय समिति अपनी अंतिम रिपोर्ट संसद के सामने पेश करती हैं | संसदीय समितियों की रचना और कार्य प्रणाली से उपरोक्त सच्चाई यह बात स्पष्ट रूप से साबित करती है कि न तो सरकार हर विधेयक को या किसी विधेयक को संसदीय समितियों के पास भेजने के लिए बाध्य हैं और न ही किसी विधेयक पर संसदीय समितियों की किसी राय को मानने के लिए ही बाध्य है |लेकिन तब तो संसदीय समितियों का कोई उल्लेखनीय महत्व ही नही बनता |यह सही भी है | संसदीय विधेयको को दुरुस्त करने , परिपूर्ण करने और फिर उसे लागू करने और फिर उसे लागू करने या नकार देने के रूप में संसदीय समितियों की कोई अग्रणी आवश्यक अथवा अपरिहार्य भूमिका नही है |लेकिन किसी काम या विधेयक को लटकाने में संसदीय समितिया एक कारगर हथियार जरुर हैं | सरकार ऐसे विधेयको को सम्बन्धित संसदीय समिति को भेज देती हैं और फिर राय मशविरे के साथ संसद में पेश की जाने वाली अपनी रिपोर्ट को लम्बे समय के लिए लटका देती हैं |तब क्या संसदीय समितियों के नाम की लघु - संसद का निर्माण मुख्यत: विभिन्न मुद्दों या विधेयको को लटकाने के लिए ही किया हैं ? यह बात आधी - अधूरी ही सच है | क्योंकि असली सच्चाई तो 1993 के दौर से जुडी है |यह वह दौर था , जब 1991 में नयी आर्थिक नीतियों के लागू किए जाने के बाद उसको राष्ट्र विरोधी , जन विरोधी बताकर उसका संसद से सडक तक विरोध हो रहा था | इसके चलते उन नीतियों के अंतर्गत नये - नये विधेयको , कानूनों को संसद में पास करने में भारी अडचने आने लगी थी | इन्ही अडचनों को दूर करने के लिए दो - तीन प्रमुख काम किए गये | एक तो 1993 में ही अपने - अपने क्षेत्र के विकास के नाम पर ( सांसदों , विधायको में कमीशनखोरी के भ्रष्टाचार को बढावा देने वाली ) सांसद निधि दीये जाने कि घोषणा कर दी गयी | दूसरे , सांसदों के वेतन भत्तो आदि में वृद्धि कर दी गयी और की जाती रही है | तीसरे संसदीय समितिया बनाकर विरोधी पार्टियों के नेताओं को भी उसकी सदस्यता , अध्यक्षता दे दी गयी | इसके जरिये उनके संसदीय अधिकारों में वृद्धि कर दी गयी | इन व अन्य संसदीय बदलावों के फलस्वरूप भी जन विरोधी विदेशी आर्थिक नीतियों के प्रति 1991 से खड़ा हुआ संसदीय विरोध भी 1995 - 96 तक आते - आते दब गया | सभी संसदीय पार्टिया इन नीतियों को केंद्र से लेकर प्रान्तों तक लागू करने में जुट गयी | एक दूसरे के साथ केन्द्रीय शासन -सत्ता में मोर्चाबद्ध होकर नीतियों के अगले चरण से जुड़े विधेयको , कानूनों को पास कराती रही | ये थी संसदीय समितियों के बनने की परिस्थितिया और उसके कारण | इसलिए अब जबकि सभी संसदीय पार्टिया उन नीतियों और उससे जुड़े विधेयको कानूनों को आगे बढाने में जुट गयी है , तब संसदीय समितिया मुख्यत:किन्ही गैर जरूरी विधेयको को लटकाने के एक माध्यम के रूप में ही नजर आ रही है | लेकिन 1993 में गैर कांग्रेसी सांसदों को इन नीतियों का पक्षधर बनाने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही हैं , और वह आज भी जारी हैं|


-सुनील दत्ता
पत्रकार
09415370672

1 टिप्पणी:

संध्या आर्य ने कहा…

behad saarthak post ....ek bat hamesha se kahati aa rahi hu aaj vi duharaaungi ki jan jan tak bat pahuche aur jan chetana ka jyot jal paye ......aabhaar !

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