रविवार, 18 दिसंबर 2011

जी20 सम्मेलन और यूरोज़ोन संकट भाग 1

यूरोज़ोन संकट के थपेड़े से जूझते यूरोप में इससे पार पाने की कवायदें पिछले कई महीनों से जारी हैं। हालात ये हैं कि यूरोपीय संघ के भीतर यूरोज़ोन को हने से बचाने की कोशिश करने वाले देशों की स्थिति भी ख़राब होती जा रही है। ग्रीस के बाद इटली की खस्ताहाली सिर्फ़ एक कैलेंडर वर्ष की आर्थिक नीतियों का न तो परिणाम है और न ही इससे कुछ महीनों में पार पाया जा सकता है। जब ग्रीस ने घोषित मोटे बेलआउट के बाद भी वहाँ की स्थिति में सुधार महसूस नहीं किया तो यह जाहिर हो गया कि जिस स्थिति की कल्पना की जा रही है वह उससे कहीं बदतर है। जी20 के लिए जब यूरोप के भीतर ऐसी आर्थिक और राजनैतिक पृष्ठभूमि मौजूद थी और यूरोज़ोन मामले में महीनों से सक्रिय रहने वाले फ्रांस को जब इसकी मेजबानी करनी थी, तो पहले से ही यह तक़रीबन स्पष्ट लग रहा था कि बातचीत का तानाबाना यूरोज़ोन संकट के इर्दगिर्द ही बुना जाएगा।
जी20 की स्थापना जब 1999 में की गई तो इसका एजेंडा था कि कैसे 1997 में पैदा हुए एशियाई आर्थिक संकट से निपटा जाए। इस तरह अपने स्थापना के समय से ही यह समूह आर्थिक संकटों के आसपास की बातचीत पर केंद्रित रहा है बल्कि यह कहना ज़्यादा मुनासिब होगा कि दुनिया के अलगअलग हिस्सों में तेजी से उभरने वाले आर्थिक संकटों की रोकथाम ही इसका उद्देश्य बन गया। दुनिया के 20 सबसे शक्तिशाली अर्थव्यवस्थाओं को एक मंच पर लाकर वैश्विक आर्थिक विकास का जो ख्वाब बुना गया था उसकी सारी ऊर्जा वैश्विक अर्थव्यवस्था को बचाने में खप रही है। इसलिए मौजूदा यूरोज़ोन संकट की बहस अपने चरित्र में जी20 के देशों के लिए नई नहीं है। 2008 के वाशिंगटन सम्मेलन, 2009 के लंदन और पीट्सबर्ग सम्मेलन और 2010 के टोरंटो और सियोल सम्मेलन का ज्यादातर हिस्सा तेजी से ब़ती आर्थिक मंदी पर खरचा गया।
हर साल इस समूह के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों की बैठक बुलाने के पीछे यह मक़सद काफ़ी मज़बूती के साथ नत्थी रहता है कि वैश्विक वित्तीय प्रवाह को बरक़रार रखने के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाएँ। फ्रांस में संपन्न हुई मौजूदा बैठक जी20 के राष्ट्रध्यक्षों की छठीं बैठक थी जोकि वित्तीय अर्थव्यवस्थाओं और आर्थिक संकटों की तात्कालिक वजहों के पड़ताल पर केंद्रित थी। ग्रीस के संकट की भयावहता उसके भूगोल से बाहर निकल आई है और यूरोपीय देशों के साथसाथ दुनिया के ज्यादातर शक्तिशाली अर्थव्यवस्थाओं की यह चिंता बन गई है कि मौजूदा वैश्विक आर्थिक ाँचे को किस तरह बचाया जाए। ॔वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करो’ की मुहिम दर्ज़नों देशों में फैल गई है। फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि वॉल स्ट्रीट की जगह पर स्थानीय आर्थिक प्रतीकों का इस्तेमाल हो रहा है।
जिस तरह वॉल स्ट्रीट आंदोलन को अमरीकी हुक्मरान छोटा करके दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं ठीक उसी तरह यूरोज़ोन संकट को भी यूरोपीय देश कमतर करके वैश्विक मंच पर पेश कर रहे हैं। लेकिन आपसी बातचीत और बैठक में यह सबसे महत्वपूर्ण बिंदु होता है। जी20 बैठक के दौरान प्रेस कांफ्रेंस में जब ग्रीस के
प्रधानमंत्री जॉर्ज पापेंड्रू और इटालवी प्रधानमंत्री बर्लुस्कोनी यह कह रहे थे कि वे अपनेअपने देश को इस संकट से उबारने में सफल होंगे तो शायद उन्हें यह पता नहीं था कि उनकी इस प्रचार सामग्री को उनके देश के लोग ही खारिज करने में जुट जाएँगे। जी20 को ख़त्म हुए हफ्ता भर भी नहीं हुआ है और यह चर्चा ज़ोरों पर है कि पापेंद्रू और बर्लुस्कोनी इस्तीफ़ा देने वाले हैं। अर्थव्यवस्था की चरमराहट की मिसाल यह है कि ग्रीस में पापेंद्रू की जगह प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर जिनका नाम सामने आ रहा है उनमें यूरोपीय केंद्रीय बैंक के पूर्व उपाध्यक्ष लुकास पापाडेमोस और वित्त मंत्री इवांजेलोस वेनीज सबसे प्रमुख हैं। बर्लुस्कोनी यह तो कह रहे हैं कि स्थिति ज़्यादा गंभीर नहीं है लेकिन इस्तीफे की ख़बर के बीच सफाई देने से नहीं चूक रहे हैं कि इससे इटली की प्रतिभूति बाज़ार भारी दबाव में आ गया है। यह विरोधाभासी वक्तव्य फिलवक्त यूरोज़ोन और बेलगाम वैश्विक वित्तीय अर्थव्यवस्था की विफलता को छुपाने और पूँजीवाद की नीति में आई बड़ी दरार को भरने की असफल कोशिश को दर्शा रहे हैं।

-दिलीप ख़ान
क्रमश:

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |