गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

प्रधानमंत्री द्वारा एक सच्चाई की स्वीकारोक्ति ----लेकिन किस लिए ?

16 नवम्बर के समाचार पत्रों में प्रधानमंत्री का एक बयान छपा है | उसमे उन्होंने देश में गरीबी , स्वास्थ्य , पर्यावरण की समस्याओं को दूर करने के लिए नयी सोच और नई कार्य -प्रणाली की जरूरत को उठाया है | इस संदर्भ में नये परिवर्तन के लिए बने 'इनोवेशन फण्ड (प्रवर्तन कोष ) की शुरुआत के लिए सरकार द्वारा 100 करोड़ रूपये देने की घोषणा भी की गयी है | यहा तक इस खबर में कोई ख़ास बात नही हैं |कयोंकि इसमें तमाम प्रोग्रामो की घोषणाये आये दिन होती रहती है | लेकिन उनका कोई उल्लेखनीय परिणाम आम समाज में आज तक दिखाई नही पड़ता | इस मौके पर प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में एक महत्वपूर्ण सच्चाई को भी स्वीकार किया |उसे आप भी सुनिए | पहले तो उन्होंने यह भी कहा कि अभी तक ' नई सोच ' का इस्तेमाल अमीरों की जरूरते पूरा करने के लिए हुआ हैं | लेकिन अब गरीबो के लिए कुछ करने की जरूरत है |फिर इस बात को और स्पष्ट करते हुए कहा कि 'हमने अन्तरिक्ष ,प्रैद्योगिकी , परमाणु उर्जा और वाहन जैसे क्षेत्रो में बहुत कुछ नया किया है |हमारे देश में यह नव प्रवर्तन ज्यादातर अमीरों की जरुरतो को ध्यान में रखकर किया गया है और गरीबो की समस्याओं को दूर करने पर पर्याप्त ध्यान नही दिया गया है |हम चाहते है कि इस दिशा में भी कुछ किया जाए | नव प्रवर्तन कि अवधारणा फण्ड एक बड़ा बदलाव लाने में कारगर साबित होगा |
यह देश का प्रधानमन्त्री कह रहा है कि अभी तक किया जाता रहा नव प्रवर्तन अमीरों की जरूरते पूरी करता रहा है और उसमे गरीबो की समस्याओं पर पर्याप्त ध्यान नही दिया गया है | इस सच्चाई और उसकी स्वीकारोक्ति के लिए प्रधामंत्री जी को गरीबो कि तरफ से धन्यवाद जरुर दिया जाना चाहिए | लेकिन साथ ही उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि आखिर उन्हें इसकी जानकारी कब हुई ? अगर यह जानकारी उन्हें पहले से ही थी तो वे देश के बहुमत गरीबो को अब तक उपेक्षित करके अमीरों के हितो के अनुसार नव प्रवर्तन का काम क्यों होने दीये ? उसे शुरू से ही देश के बहुसख्यक गरीबो के हित की दिशा में क्यों नही मोड़ा ?
लेकिन इससे अलग और ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि आखिर ऐसा हुआ कैसे ? अमीरों का भला और गरीबो कि उपेक्षा क्यों कर होती रही | 1991 के वित्त मंत्री और अब के प्रधानमन्त्री के रूप में वे स्वंय तथा अन्य कांग्रेसी व गैर कांग्रेसी नेतागण 20 साल से लागू की जाती रही नीतियों से देश के तीव्र आर्थिक विकास के साथ देश से गरीबी , बेकारी दूर करने की बाते कहते रहे है | वैश्वीकरण की ' नई सोच ' नये आधुनिकतम तकनीकी विकास के नव -प्रवर्तन के जरिये देश को 21 वी सदी में ले जाने तथा वैभव , शक्ति से सम्पन्न बनाने के बयानों प्रचारों को चलाते , चलवाते रहे है | क्या माना जाए कि तब हमारे नेतागण व् विद्वान् अर्थशास्त्री गण और इन दोनों के सिरमौर , वर्तमान अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री जी भी यह नही जानते थे कि इस नई सोच व नई तकनीकी विकास आदि के नव - प्रवर्तन के जरिये देश के गरीबो का नही बल्कि अमीरों का ही भला होना है ?यह बात कत्तई मानने लायक नही हैं | साफ़ बात है वे और अन्य उच्च स्तरीय नेतागण यह बात बखूबी जानते थे और जानते है कि देश दुनिया के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों को छूटे व अधिकार देते हुए देश के मेहनतकश व् गरीब जनसाधारण हिस्से की छूटो व् अधिकारों को काटा व् घटाया जाना जरूरी है | क्योंकि देश दुनिया को बढावा देने का कोई ' नया रास्ता ' ' नई तकनिकी ' न तो है और न ही हो सकती है | इसलिए आम किसानो , मजदूरों , दस्तकारो , छोटे उद्यमियों तथा साधारण पढ़े - लिखे नौजवानों की छूटो व अधिकारों , अवसरों तथा स्थायी साधनों की निरन्तर कटौती के रूप में यह काम किया भी जाता रहा | अब अगर गरीबो के लिए ' नई सोच ' नई तकनीक ' या नव प्रवर्तन के जरिये कुछ करना है तो उसका एक ही रास्ता है की अमीरों की बढती अमीरी पर सख्त रोक लगाई जाए | लेकिन यह काम वैश्वीकरणवादी , उदारीकरणवादी ,निजीकरणवादी नीतियों को वापस लिए बिना सम्भव नही है | या कहिये की इसकी शुरुआत ही अब यही से करनी पड़ेगी | लेकिन प्रधानमंत्री जी का मंत्रीपरिषद तो उन नीतियों को आगे बढाने में जुटा हुआ हैं | उसके लिए विधयेक पर विधयेक तैयार कर रहा है | फिर यही काम पिछले 15 सालो से सभी प्रमुख पार्टिया केन्द्रीय शासन - सत्ता में बैठकर करती रही है | ऐसी स्थितियों में प्रधानमन्त्री महोदय का या किसी अन्य राजनेता व विद्वान् का गरीबो की भलाई के लिए नई सोच व नई तरकीब के लिए प्रयास करने के बयान व चिंताए जनसाधारण गरीब जनता के लिए एक और झूठ व छलावा ही साबित होना हैं | प्रधानमंत्री के बयान को सुनकर मुझे नागार्जुन बाबा के यह शब्द याद आ गये

ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!

ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!

छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!

-सुनील दत्ता
पत्रकार

1 टिप्पणी:

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!

सही कहा बाबा ने। सब मालूम था इन्हें।

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