बुधवार, 28 दिसंबर 2011

ममता, माओवाद और आतंक -1

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार को शासन में आए 6 माह हो चुके हैं। इन छह महीनों में अनेक चीजें बदली हैं। सामान्यतौर पर जिस लोकतांत्रिक माहौल के लौटकर आने की कल्पना की जा रही थी उसकी आशाएँ धूमिल हुई हैं। किसानों, मजदूरों, छात्रों और आदिवासियों पर राज्य सरकार, तृणमूल कांग्रेस और माओवादियों के हमलों में इजाफा हुआ है। साथ ही कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण छात्र विरोधी फैसला दिया है। इस फैसले के अनुसार कोई भी स्कूली छात्र, स्कूल समय में किसी भी किस्म की रैली-जुलूस आदि में भाग नहीं ले सकता। यदि वह ऐसा करता है तो यह अवैध होगा। जबकि पश्चिम बंगाल में उच्च माध्यमिक और माध्यमिक स्कूलों में लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुने हुए छात्रसंघ हैं और इनमें अधिकांश पर वाम छात्र संगठनों का कब्जा है।
ममता सरकार आने के बाद तकरीबन 50 हजार से ज्यादा वाम कार्यकर्ताओं को अपने इलाके छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है। विभिन्न जिलों में अब तक तीन करोड़ रूपये से ज्यादा का रंगदारी भत्ता तृणमूल कांग्रेस के गुण्डों ने वाम कार्यकर्ताओं और समर्थकों से जबरिया वसूला है। तृणमूल कांग्रेस के गुण्डों ने 150 से ज्यादा माकपा कार्यालयों, 450 से ज्यादा ट्रेड यूनियनों और जनसंगठनों के दफ्तरों पर अवैध कब्जा कर लिया है। तृणमूली गुण्डों के जरिए वाम दलों के सदस्यों-हमदर्दों को कहा जा रहा है कि वे यदि अपने घर या इलाके में रहना चाहते हैं तो अपनी राजनैतिक वफादारी बदलें वरना वे इलाके में नहीं रह पाएँगे। दूसरी ओर शहरी इलाकों में झुग्गी-झोपडि़यों में रहने वाले वाम समर्थकों पर बड़े पैमाने पर हमले हो रहे हैं और उनको वामदलों का साथ छोड़ने के लिए दबाव डाला जा रहा है।
राज्य में इस तरह का आतंकराज लोग पहली बार नहीं देख रहे हैं बल्कि इस तरह की घटनाएँ 1971-1977 के बीच में देख चुके हैं। आम लोगों में जो लोग 1977 के बाद जन्मे हैं उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि 71-77 के बीच का आतंकराज कैसा था? ममता बनर्जी की राजनैतिक शिक्षा उसी दौर में हुई है और उनको आतंक की राजनीति का गहरा अनुभव है।
आश्चर्य की बात है कि इस समय ममता बनर्जी के साथ माओवादियों की सहानुभूति और समर्थन है। जबकि 71-77 के बीच में कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के शासन में सैकड़ों नक्सली पुलिस की गोलियों के शिकार बने। लेकिन इसबार नक्सलियों और माओवादियों ने कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस के संयुक्त गठबंधन को जिताने के लिए काम किया और एक पूर्व नक्सल नेता को ममता सरकार में श्रममंत्री बनाया गया है। रोचक बात यह है कि ममता सरकार नव्य-उदारीकरण के पक्ष में है और माओवादी-नक्सल और तथाकथित वामपंथी बुद्धिजीवी महाश्वेता देवी के नेतृत्व में ममता सरकार की प्रत्येक नीति को समर्थन दे रहे हैं। नव्य-आर्थिक उदारीकरण के मार्ग पर जाने का विगत वाममोर्चा सरकार का फैसला मौजूदा सरकार ईमानदारी से लागू कर रही है।
पहले विभिन्न इलाकों में माकपा के आतंक की खबरें आ रही थीं लेकिन नई सरकार आने के बाद गुण्डों की टोलियों ने माकपा का साथ छोड़कर ममता बनर्जी की शरण ले ली है और राज्य के विभिन्न इलाकों में आतंक की घटनाएँ आम हो गई हैं। इस तरह की घटनाओं की खबर सुनकर किसी को आश्चर्य नहीं होता।
पश्चिम बंगाल में राजनैतिक आतंक एक आम फिनोमिना है। आम लोग राजनैतिक सत्ता परिवर्तन के बाद राजनैतिक आतंक को लेकर गुस्से में कम हैं, इसके विपरीत आतंक के प्रति सहिष्णुताभरा व्यवहार कर रहे हैं। आतंक देख रहे हैं, लेकिन चुप हैं। मीडिया भी आतंक देख रहा है लेकिन चुप है।
दूसरी बात यह कि ममता बनर्जी को राज्य सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं है और यह अनुभवहीनता उनके सभी फैसलों में साफ झलकती है। दूसरी सबसे बड़ी समस्या है विगत वाम मोर्चा सरकार से भिन्न किस्म की कार्यप्रणाली और नीतियों को पेश करने में वे अभी तक सफल नहीं रही हैं। विधानसभा चुनाव के समय वे वाममोर्चा से भिन्न लोकतांत्रिक शासन प्रणाली देने का वायदा करके जीती हैं। आम लोगों में उनकी जनप्रिय इमेज भी है लेकिन राज्य प्रशासन में दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर काम करने की जो बीमारी वाम शासन के दौरान घुस गई थी वह अभी तक बरकरार है। योग्यता, पेशेवर क्षमता, निष्पक्षता और सक्रियता के आधार पर फैसले कम और दलीय पक्षधरता के आधार पर फैसले ज्यादा लिए जा रहे हैं।
दूसरा एक बड़ा परिवर्तन यह आया है कि राज्य में बड़े किसान या पुराने जमींदार जो वाम शासन में हाशिए पर थे वे नए सिरे से आक्रामक हो उठे हैं, अपनी पुरानी जमीनों के स्वामित्व को जोर-जबरदस्ती और सरकारी मदद से हासिल करना चाहते हैं और गाँवों में बरगादार किसानों पर हमले तेज हो गए हैं। मीडिया और राज्य प्रशासन इस तरह के विवादों को जमीन हड़पने के मामले के बजाय माकपा बनाम तृणमूल की दलीय लड़ाई के रूप में पेश कर रहा है।
पश्चिम बंगाल में ममता सरकार आने के बाद से वामदलों और खासकर माकपा के कार्यकर्ताओं पर हमले तेज हुए हैं, तकरीबन 50 हजार लोग विस्थापित होकर अपने गाँव के बाहर अन्यत्र शिविरों में, मित्रों और रिश्तेदारों के यहाँ रह रहे हैं। सैंकड़ों कार्यकर्ताओं पर फर्जी मुकदमे दायर करके गिरफ्तार किया गया है। तकरीबन 1200 से ज्यादा माकपा कार्यकर्ताओं को राज्य प्रशासन विभिन्न किस्म के झूठे मुकदमों में फँसा चुका है। इस माहौल में वामदलों को अपनी एकजुटता का इजहार करके नए सिरे से उनका विश्वास जीतना होगा। इस प्रसंग में उत्तर चैबीस परगना के हरोआ इलाके की घटना का जिक्र करना बेहद जरूरी है। इस इलाके में जुलाई के प्रथम सप्ताह में तृणमूल कांग्रेस और भूस्वामियों ने स्थानीय प्रशासन की मदद से तकरीबन दस हजार किसानों को 7063 बीघा जमीन से बेदखल कर दिया (एक एकड़ में तीन बीघे होते हैं।)

-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मो. 09331762368
क्रमश:

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच-743:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

मन के - मनके ने कहा…

राजनीति की गहन जानकारी के लिए,सादर धन्यवाद.

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