बुधवार, 11 जनवरी 2012

भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में उत्तर प्रदेश का योगदान -7


भगत सिंह से अजय की मुलाकात

अजय घोष की भगत सिंह से सब से पहले मुलाकात 1923 में कानपुर में हुई। दोनों को बटुकेश्वर दत्त ने मिलाया। उस समय दोनों ही लगभग एक ही उम्र यानी 15 वर्ष के थे। कुछ दिनों बाद फिर मुलाकात मंे दोनों के बीच लम्बी बातचीत हुई। उन दोनों के बीच फिर 1928 में मुलाकात हुई। उन्होंने एच0एस0आर00 में परिवर्तनों के बारे में विचार विमर्श किया। वे अब समाजवाद की ओर झुक रहे थे। अजय एच0एस0आर00 की बम बनाने वाली यूनिट के सदस्य थे। केन्द्रीय असेम्बली में भगत सिंह और बटुकेश्वर द्वारा बम गिराने के बाद अजय तथा अन्य साथी भी गिरफ्तार कर लिए गए। अजय लाहौर जेल में रखे गए। जेल में अजय, भगत सिंह, शिव वर्मा तथा अन्य कुछ साथियों ने तय किया कि बाहर निकलने के बाद वे सभी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो जाएँगे। दुर्भाग्य से भगत सिंह को फाँसी हो गई, लेकिन बाकी साथी सचमुच कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए।

अजय कम्युनिज्म की ओर -

अजय को कांग्रेस के कराँची अधिवेशन में भाग लेने का मौका मिला, वहाँ से वापस आने पर यू0पी0 में उन्हें कई कम्युनिस्टों से मिलने का मौका मिला, इनमें एच0जी0 सरदेसाई प्रमुख थे। वापस कानपुर आकर अजय ने मजदूरों के बीच काम किया। उन्होंने मजदूर किसान पार्टी का गठन किया और कई स्टडीसर्किल चलाए। अजय को 1932 के आरम्भ में फिर गिरफ्तार किया गया और कानपुर जेल में एक साल रखा गया, बाद में फैजाबाद जेल में लगभग 6 महीने रखा गया। कानपुर जेल में उनकी मुलाकात एस0जी0 सर देसाई से हुई, दोनांे एक ही बैरक में रखे गए थे, सर देसाई के साथ बातचीत के फलस्वरूप कई बातें साफ र्हुइं। इस प्रकार जब अजय जेल से निकले तो वे कम्युनिस्ट बन चुके थे, जेल में दोनों ने माक्र्स की पूँजी साथ पढ़ी, फैजाबाद जेल में अजय की मुलाकात रुस्तम सैटिन से हुई, जेल से निकलने के बाद अजय कानपुर में मजदूरों के बीच काम करने लगे। इस बीच मेरठ षड्यंत्र मुकदमा चला, जिसका काफी गहरा असर अजय पर पड़ा। अजय लाहौर षड्यंत्र केस में गिरफ्तार थे, दोनों मुकदमे साथ साथ ही चल रहे थे। कम्युनिज्म की ओर झुकाव से अजय की दिलचस्पी मेरठ केस में होना स्वाभाविक था। अजय को कम्युनिस्टों के विचार अधिक गहराई से जानने का अवसर मिला। अजय घोष उसी वर्ष पार्टी में भरती हुए जिस वर्ष जोशी मेरठ जेल से रिहा किए गए। अजय ने तिलक राष्ट्रीय विद्यालय में नौकरी कर ली, जहाँ उनकी मुलाकात रमेश सिन्हा से हुई। 1934 में अजय ने बम्बई में अखिल भारतीय कपड़ा मजदूरों के सम्मेलन में कानपुर के प्रतिनिधि की हैसियत से हिस्सा लिया और अजय पार्टी ग्रुप में शामिल कर लिए गए। 1935 की सी0सी0 बैठक में अजय को देश के पश्चिमी हिस्से,भारद्वाज को उत्तरी और एस0वी0 घाटे को दक्षिणी भाग का इन्चार्ज बनाया गया। इस प्रकार इन तीनांे नेताओं को भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के पुनर्गठन और विस्तार का काम सौंपा गया और जैसा कि हमनें देखा ये तीनों ही यू0पी0 से थे, इनमें जोशी पार्टी के महामंत्री बनाए गए।
जोशी को सी0सी0 की ओर से यू0पी0 का आर्गनाइजर भी बनाया गया था, वे अजय से कानपुर में मिले, साथ ही अन्य साथियों से भी। जोशी ने अजय का नाम कानपुर की जिला कम्युनिस्ट की संगठन समिति के आर्गनाइजर के रूप में प्रस्तावित किया और वे इस पद पर नियुक्त भी किए गए। कुछसमय में अजय को यू0पी0 पार्टी की प्रथम संगठन समिति का सचिव भी बनाया गया। यह प्रस्ताव भी जोशी का ही था। 1934 में अजय सी0पी0आई0 की सी0सी0 में और 1936 में पोलित ब्यूरों में लिए गए। दोनांे ही अवसरों पर उनका नाम जोशी ने प्रस्तावित किया। आगे अजय यू0पी0, फिर केन्द्र, फिर अहमदाबाद, बम्बई इत्यादि स्थानों पर पार्टी और टी0यू0 कामों के लिए, लगाए गए। लगातार अण्डर ग्राउंड काम करने और कठिन तथा विपरीत परिस्थितियों में काम करने से अजय का स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया, वे एक हट्टे-कट्टे नौजवान थे, लेकिन जल्द ही उन्हें टी0बी0 ने घेर लिया। इसका कारण जेलों में निरंतर भूख हड़तालें भी थीं।
1938 में अजय घोष को बम्बई में पार्टी के केन्द्रीय मुख्य पत्र नेशनल फ्रण्ट की देख भाल का जिम्मा दिया गया। वैसे जोशी उसके सम्पादक थे लेकिन अमल में लगभग सारा ही काम अजय देखा करते। साथ ही वे 1940 के दशक के आरम्भ में अंग्रेजी मासिक कम्युनिस्ट निकालने के जिम्मेदार भी थे। अजय घोष और आर0डी0 भारद्वाज ने दिल्ली में सी0पी0 की यूनिट बनाने में अहम भूमिका अदा की। उन दिनों एम0 फारूकी तथा अन्य नेताओं को गाइड किया और पार्टी तथा जनसंगठनों को खड़ा करने में अत्यन्त ही प्रभावशाली रोल अदा किया। सी0एस0पी0 या कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का दूसरा अखिल भारतीय सम्मेलन मेरठ में 1936 में हुआ, डेलीगेशन की लिस्ट में अजय का भी नाम था लेकिन उनके नाम को लेकर कुछ समाजवादियों को आपत्ति थी इसका कारण था कि वे छिपे कम्युनिस्ट थे। इस विवाद के कारण अजय घोष ने सम्मेलन में भाग नहीं लेने का निर्णय लिया। वे एक गैर प्रतिनिधि के रूप में मेरठ की एक धर्मशाला में ठहरे रहे। साथ ही वे उन मीटिंगों में शामिल होते रहे जो गैर डेलीगेट्स के लिए खुले थे। इस समय 0एम0एस0 नाम्बूदरीपाद एक सोशलिस्ट थे। अजय ने उन्हें कम्युनिस्ट बनने में मदद की। इसी आन्दोलन में सुप्रसिद्ध मेरठ थीसिस पास किया गया जिससे सभी समाजवादी शक्तियों को एक होने में मदद मिली।
सुप्रसिद्ध कानपुर मजदूर हड़ताल 1938 1938 में कानपुर के मिल मजदूरांे की एतिहासिक प्रसिद्ध हड़ताल हुई जो 50 दिनों तक चली। इसमें 50 हजार मजदूरों ने भाग लिया। यह भारत के मजदूर आन्दोलन में एक शानदार अध्याय है, कानपुर के मिल मालिकों ने राजेन्द्र प्रसाद कमेटी के सुझावों को लागू करने से इंकार कर दिया था। मजदूरों की माँग थी कि न्यूनतम वेतन दिया जाए, किसी भी मजदूर को मनमाने तरीके से काम से बाहर नहीं किया जाए। कानपुर की मजदूर सभा को मान्यता दी जाए इत्यादि। हड़ताल का नेतृत्व आर0डी0 भारद्वाज बालकृष्ण शर्मा, राजाराम शास्त्री, हरिहरन तथा कई अन्य नेताओं ने किया। इनमें बाल कृष्ण शर्मा कांग्रेस के लीडर थे लेकिन उन्होंने मजदूरों का सक्रिय साथ दिया। पहले तो मिल मालिकों ने राजेन्द्र प्रसाद समिति के सुझावों को मानने से इंकार कर दिया था। समिति ने 15 रूपयों की वृद्धि की सिफारिश की थी। इसे आंशिक रूप से स्वीकार किया गया और इसके लिए एक बोर्ड बना दिया गया।
उत्तर प्रदेश की कांग्रेस सरकार को इस आन्दोलन के सामने झुकना पड़ा। पहले उसने आनाकानी की लेकिन मजदूरों के बढ़ते संघर्ष और स्वमं कांग्रेसियों द्वारा विरोध के कारण उसे पीछे हटना पड़ा।
आरम्भ में हड़ताल में 15 हजार ही मजदूर शामिल हुए थे। लेकिन दो दिनों के अंदर हड़तालियों की संख्या 35 हजार हो गई। कपड़ा मजदूरों के अलावा अन्य उद्योगों के मजदूर भी शामिल होते गए। प्रत्येक मिल से 10 प्रतिनिधियों को लेकर एक हड़ताल समिति का गठन किया गया। वालेन्टियरों को संगठित किया जाने लगा। यह वह समय था जब उद्योगों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी और वे मजदूरों को ज्यादा वेतन इत्यादि देने की स्थिति में थे।
प्रांत सरकार ने एक बयान के जरिए सभी पक्षों से समिति की रिपोर्ट लागू करने का अनुरोध किया। जहाँ ट्रेड यूनियन संगठनों ने इसे लागू किया, मालिकों ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। मजदूर यूनियन ने इसके सुझावों के अनुसार अपने संविधान में आवश्यक सुधार किया।

देवली सेन्ट्रल जेल में

यह जेल भारत के क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों को नजर बन्द रखने का बहुत बड़ा केन्द्र था। यह कान्शनटेªशन कैम्प या यातना शिविर भी कहलाता था। यहाँ अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में कैदियों को रखा जाता था। यह एक विशेष जेल थी। देवली जेल राजस्थान में थी। कैदियों को पहले कोटा तक रेलवे द्वारा और फिर 50-60 किमी. बस से कैम्प ले जाया जाता था। इसका निर्माण वास्तव में सन् 1857 के विद्रोह के दौरान हुआ था। जिसमें बागियों को रखा जाता था। 1857 की विफलता के बाद इसे बन्द कर दिया गया। यह 1880 तक बन्द रही। 1880 के बाद इसे फिर चालू किया गया। इसे पुनः 1940 में ज्यादा सक्रिय किया गया। 1940 में नजरबन्दों की टोलियाँ एक-एक करके देवली भेजी जाने लगीं। इनमें बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट थे। आबादी तो आप पास नहीं के बराबर थी। इक्के दुक्के गाँव ही थे। दूर-दूर तक गर्म रेगिस्तान था। कोई अगर भागना भी चाहता तो संभव भी नहीं था, क्योंकि वह रेतीले इलाके में ही दम तोड़ देता, पूरी जेल कँटीले तारों से घिरी हुई थी। कहीं-कहीं बिजली के तार भी लगे हुए थे। हर दो तीन सौ कदम पर निगरानी रखने के लिए टावर बने हुए थे। हथियार बन्द सैनिक चारों ओर निगरानी रखा करते थे। दूसरे विश्व युद्ध के आरम्भ होते ही देवली कैम्प में ज्यादातर कम्युनिस्ट कैदी ही रखे जाने लगे। इनमें उत्तर प्रदेश से शफीक नकवी, आर0डी0 भारद्वाज, अजय घोष, के0एम0 अशरफ, झारखण्डे राय, रमेश सिन्हा, हर्षदेव मालवीय, रुस्तम सैटिन, एम0एन0 टण्डन, अर्जुन अरोड़ा, सुशील दास गुप्ता तथा अन्य थे। अन्य सुप्रसिद्ध नेताओं में एस00 डांगे, मेराजकर, रणदिवे, सोहन सिंह जोश और कई अन्य थे। इन सब के अलावा कई दूसरे क्रांतिकारी जिनमें राष्ट्रवादी भी थे। जब जेड00 अहमद देवली पहुँचे तब वहाँ 66 कम्युनिस्ट पार्टी के, तीन सोशलिस्ट पार्टी के, आर0एस0पी0 के 11, एस0एच0आर0के0 5 कैदी 0 क्लास के थे। बी0 क्लास के 90 में से 70 सी0पी0आई0 के थे। कुछ ही महीनों में अन्य पार्टियों के कई लोगों ने सी0पी0आई0 की सदस्यता ले ली। देवली कैम्प की खास बात यह थी के उसे बाहर की दुनिया से लगभग पूरी तरह अलग रखा गया था, और बहुत ही कम लोगों को वहाँ आकर मिलने की इजाज़त थी। बिल्कुल नजदीकी खून के रिश्तों के लोग ही मिल पाते थे। देवली में कम्युनिस्टों ने कई बार अपनी माँगों के समर्थन में भूख हड़ताल भी की। वे भूख हड़तालंे बहुत लम्बी चला करती थीं, और अधिकारी निरुपाय होकर मात्र देखा करते थे। बाद में उन्होंने जबरन दूध या फलों का रस पिलाने और खाना खिलाने के तरीके अपनाने शुरू किए। एक भूख हड़ताल काफी लम्बी चली। इसमें अहमद और दूसरे कैदी काफी कमजोर हो गए। यहाँ तक कि उनमें उठकर खड़े होने या बैठने की भी ताकत नहीं रही। कांग्रेसियों समेत सभी ने इसमें हिस्सा लिया। भूख हड़ताल की जानकारी कैदी सिद्दीक हुसैन के भाई और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर महमूद हुसैन द्वारा लेबर पार्टी के सांसद एन0एम0 जोशी को पहुँचाई गई। उन्होंने संसद या असेम्बली में इस सवाल को उठाया। फिर चारो ओर काफी हो हल्ला हुआ और अखबारों में भी खबरें आईं। पहले से भी लोगों को धीरे धीरे पता चल रहा था। भूख हड़ताल के सातवें दिन महिलाओं का एक डेलीगेशन मैक्सवेल से मिला। वह गृह सचिव थे। इस डेलीगेशन का नेतृत्व कर रही थीं
हाजरा बेगम और इनके साथ कामरेड पी0पी0 बेदी की पत्नी फरीदा बेदी और मुहम्मद मुजफ्फर की पत्नी रसीद जहाँ थी। अखबारों में यह बात छप गई कि महिलाएँ भूख हड़ताल पर बैठेंगी और राष्ट्र व्यापी आंदोलन करेंगी। यहाँ तक कि हैदराबाद, बंगलौर और दूसरी जगहों में भी आन्दोलन छिड़ गया। ब्रिटिश सरकार को आखिरकार कैदियों की माँगे माननी पड़ीं। जनवरी 1942 के आरम्भ में देवली जेल बन्द करने का काम शुरू हो गया। कैदियों को मुख्यतः फतेहगढ़ और बरेली सेन्ट्रल जेल भेजा गया। ज्यादातर कम्युनिस्ट बरेली में थे।

1940 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी

उत्तर प्रदेश और समूचे भारत में पार्टी का यह दौर काफी सक्रिय घटनाओं से भरा पड़ा है, लेकिन हम उसके पूरे विस्तार में नहीं जा पाएँगे। उत्तर प्रदेश में किसानों तथा अन्य तबकों में अब तक पार्टी काफी मजबूत हो चुकी थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो ग्रामीण इलाकों में मजबूत आधार बन चुका था। सरजू पाण्डेय और झारखण्डे राय जैसे जनप्रिय नेता घर-घर में प्रसिद्ध होते चले गए, उन्होंने आजादी के बाद पार्टी बनाने में विशेष भूमिका अदा की।
इस दौर में किसान सभा का विशेष प्रसार-प्रचार हुआ। राहुल और स्वामी सहजानन्द सरस्वती जैसे नेता लोकप्रिय हो गए। अखिल भारतीय किसान सभा का दसवाँ अधिवेशन अलीगढ़ के सिकन्दरा राव में मई 1947 में हुआ था। यह उत्तर प्रदेश में संगठन की मजबूती का परिचायक था कि यह अखिल भारतीय सम्मेलन इतनी भयानक गरमी में यहाँ सम्पन्न हो गया। बड़ी संख्या में प्रतिनिधियों के ठहरने का इंतजाम किया गया। उत्तर प्रदेश में प्रभावशाली मजदूर, किसान, बुद्धिजीवी तथा अन्य प्रकार के आंदोलन और संगठन विकसित हुए। जनवरी 1941 में आर0डी0 भारद्वाज गिरफ्तार कर लिए गए। वे कानपुर में पकड़े गए। कानपुर एक अत्यन्त ही सक्रिय मजदूर और कम्युनिस्ट केन्द्र था। इसके बाद लगभग एक के बाद एक जेल में बन्द रहे। 1943 तक सुल्तानपुर, बरेली, देवली, आगरा वगैरह जेलों में उन्हें रखा गया। इससे उनके स्वास्थ्य पर बड़ा ही प्रतिकूल और नुकसान देह प्रभाव पड़ा। देवली और बरेली जेलों से बाकी सबको तो मई 1942 तक रिहा कर दिया गया, लेकिन भारद्वाज को नहीं। उनकी रिहाई का अनुरोध ब्रिटिश सरकार ने अस्वीकार कर दिया। भारद्वाज और रमेश सिन्हा ने मिलकर काफी काम किया था। गोविन्द विद्यार्थी के साथ मिलकर गुप्त प्रादेशिक दफ्तर बनाना, कानपुर तथा अन्य जगहों पर हड़तालंे, कानपुर से उन्नाव तक मजदूरों का पैदल मार्च इत्यादि कई काम होते थे। उन्नाव में पंडित विशम्भर दयाल त्रिपाठी के नेतृत्व में अच्छा काम हो रहा था।
भारद्वाज पार्टी के एक अच्छे राजनैतिक शिक्षक भी थे। उन्होंने रमेश सिन्हा को आगरा जेल में माक्र्स की पूँजी समझाई। बरेली में भी उन्होंने पढ़ाने का काम किया। उन्हें सुल्तानपुर जेल भेज दिया गया क्योंकि डाक्टरों ने कहा कि उनका इस प्रकार बच पाना मुश्किल है। सन 1943 में उन्हें रिहा कर देना पड़ा। फिर उन्हें भुवाली के टी0वी0 सैनीटोरियम में भर्ती कर दिया गया। जहाँ वे ठीक भी होने लगे थे। शिव कुमार मिश्रा के अनुसार पार्टी में भर्ती होने का उनका साथ और समझदारी काफी काम आई। भारद्वाज देर रात तक पार्टी क्लास लेकर कुछ आराम के बाद फिर काम में लग जाते थे। ऐसा कई मौकों पर हुआ। भारद्वाज अत्यन्त ही सरल और सीधे सादे जीवन के उदाहरण थे। शिव कुमार को आगे कई मौकों पर भारद्वाज के जीवन और कार्य को देखने का मौका मिला। कानपुर की हड़ताल के दौरान भी उन्होंने देखा कि उनका आम लोगों में कितना सम्मान था। शिव कुमार मिश्रा के मन से हिन्दू मुस्लिम की दीवार भी इन संघर्षों के दौरान हट गई, जब सभी एक साथ काम करते और रहते खाते थे।
यही शिव कुमार मिश्रा बाद में 1948 में उत्तर प्रदेश पार्टी के सचिव बने। भुवाली सैनीटोरियम से निकलने के बाद भारद्वाज के लिए फिर वही कठिन जिन्दगी शुरू हो गई। यह वह समय था जब पार्टी में जोशी युग का अन्त हो रहा था और बी0टी0 रणदिवे भी संकीर्ण और साथियों के प्रति केवल उदासीन ही नहीं थे बल्कि कामरेडों वाली भावनाआंे के विपरीत अमानवीय भावनाएँ फैला रहे थे। बहुमूल्य मानवीय और कम्युनिस्ट मान्यताएँ खत्म हो रही थीं। पार्टी लगभग गैर कानूनी करार दे दी गई थी। बेतहाशा गिरफ्तारियाँ और पार्टी से निकाला जाना चल रहा था। पार्टी के अन्दर दमन और आतंक का वातावरण व्याप्त हो रहा था। ऐसे में भारद्वाज देहरादून में मजबूरन विश्राम के लिए पड़े हुए थे। उनकी देखभाल की सुध बहुत कम साथियों को थी तभी उन्हें 4 अप्रैल 1948 को गिरफ्तार कर लिया गया जब उनको बुखार था। 8 अप्रैल 1948 को उनका देहान्त हो गया।
इस प्रकार एक अत्यन्त ही बहुमूल्य और मेधावी साथी नेता और संगठनकर्ता का नाहक ही बलिदान दे दिया गया। इससे कई सीखंे मिलती हंै बहुत ही कम उम्र में वे मृत्यु को प्राप्त हुए यदि कई दुस्साहसिक कार्य किए जाते तो उन्हें और उनके सरीखे कई सारे, साथियों को बचाया जा सकता था। ऐसे नेता नेहरू, गांधी, बोस और अन्य से किसी मायने में कम नहीं थे फिर भी पार्टी उनका पूरा इस्तेमाल नहीं कर सकी। बड़े ही दुख की बात है कि आज पार्टी में आर0डी0 भारद्वाज और उनके सरीखे अन्य महान कम्युनिस्टों के बारे में बहुत ही कम जानकारी है इस स्थिति को सुधारने की जरूरत है।

अनिल राजिमवाले
क्रमश:

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