गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

टूटते किसान- आत्महत्या कराती सरकार


डंकल -प्रस्ताव काल बनकर टूटा किसानो पर ............................
खेती के बढ़ते संकटों के साथ किसानो की बढती आत्महत्याओं पर खुद किसानो का चुप रहना आत्मघाती हैं |बढती आत्महत्याओं के कारणों व् कारको को समझने के लिए सत्ता - सरकारों के किसान विरोधी चरित्र को अब किसानो को ही समझना होगा
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वर्ष - 1995---- 10,720 किसान ,1996 में ----13,729 किसान ,1997 --- 13,622 , 1998 ----16,105 किसान , 1999 ---16,082 किसान ,2000 ---- 16,603 किसान , 2001-----16,415 किसान , 2002----- 17,791 किसान , 2003 ----17,164 किसान , 2004---- 18,२४१ किसान , 2005--- 17,131 किसान , 2006---- 17,062 किसान 2007---16,632 किसान ,2008 -----16,968 किसान , 2009 ----17,368 किसान , 2010---15,964 किसान वर्ष का योग 16 वर्ष किसानो का योग 2,56,913 किसान

अंग्रेजी दैनिक "दि हिन्दू 'में पिछले 16 सालो में किसानो की आत्महत्याओं की अधिकाधिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है | यह रिपोर्ट " नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो 'द्वारा दीये गये आकड़ो और तथ्यों की सूचना और संक्षिप्त विवेचना के साथ प्रकाशित की गयी हैं | आधिकारिक आंकड़ो में 1995 से लेकर 2010 तक आत्महत्या करने वाले कुल किसानो की संख्या 2 लाख 56 हजार 9 सौ 13 बताई गयी है | फिर 1995 से लेकर 2010 तक के सालो में इसकी निम्नलिखित संख्याये भी दी गयी हैं | इन 16 वर्षो में किसानो के आत्महत्याओं की कुल संख्या से अकेले महाराष्ट्र में 50 हजार किसानो द्वारा की गयी आत्महत्याओं की रिपोर्ट है | वैसे कुल संख्या का दो तिहाई हिस्सा 5 राज्यों के किसानो का है |ये राज्य हैं - महाराष्ट्र , कर्नाटक , आंध्रप्रदेश , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ | 16 सालो के इन आंकड़ो से यह बात स्पष्ट है कि 1995 से लेकर 2002 तक कुल के कुल 8 सालो की तुलना में 2003 से लेकर 2010 तक के बाद के 8 सालो में आत्महत्याओं कि संख्या कही ज्यादा हैं | वह 121157 कि संख्या से बढकर बाद के सालो में 135756 हो गयी |कभी किसी साल में उसमे कमी आई भी तो अगले सालो में उससे बड़ी संख्या में आत्महत्या का मामला दर्ज़ हो गया | किसानो की बढती आत्महत्याओं का सिलसिला खासकर महाराष्ट्र , कर्नाटक व् आंध्र प्रदेश में कपास व अन्य गैर खाद्यान्न कि फसलो के उत्पादन से जुड़े किसानो तेज़ी से बढ़ता जा रहा हैं | काबिले गौर बात है कि किसानो को उनके अपने विकास के लिए पिछले 10 - 15 सालो से परम्परागत खाद्यान्नो के उत्पादन को छोडकर कपास जैसे पुराने और मेन्था ( पिपरमिन्ट ) जैसे आधुनिक गैर - खाद्यान्न उत्पादनों के लिए विशेष रूप से प्रोत्साहित किया जाता रहा है |इन उत्पादनों को उनके सामने नकदी आय बढाने और सुखी सम्पन्न बनने के कारगर उपाय के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है | आधुनिक खेती के साथ नकदी और गैर खाद्यान्न फसलो का उत्पादन करने वाले किसानो को ही सर्वाधिक विकसित किसानो के रूपलेकिन कृषि में बढती लागत और बाज़ार में कम मूल्य भाव की कही कम बढत या गिरावट की आम समस्या से जूझते किसानो के लिए , खासकर गैर खाद्यान्न फसलो मूल्य में भारी चढाव - उतार ने उन्हें और ज्यादा संकटों में फसने और फिर सरकारी एवं गैर - सरकारी कर्जो में फंसकर आत्महत्या तक कर लेने को मजबूर करता गया | इसके अलावा अन्य प्रान्तों में खाद्यान्नो के उत्पादन में लगे किसान भी खेती - किसानी के बढ़ते संकटों के चलते कर्ज़ - संकट में फंसकर टूटते और निराश व् हताश होकर आत्महत्याए करने के लिए बाध्य होते जा रहे है | 1995 से पहले किसानो के आत्महत्याओं का कोई ऐसा सिलसिला नही था | छिटपुट की घटनाओं ने कभी सैकड़ा - हजारो की संख्या पार नही किया था | लेकिन 1991 में वैश्वीकरणवादी नीतियों के लागू किए जाने के बाद और 1995 में डंकल प्रस्ताव स्वीकार किए जाने के बाद से आत्महत्याओं का यह सिलसिला चलता - बढ़ता जा रहा है | सैकड़ो से हजारो की संख्या में पहुचने लगा | क्योंकि बढती कृषि लागत , कटते अनुदान और घटती छूटो के मुकाबले बाज़ार भाव में कही कम वृद्धि के चलते किसानो पर चढ़ता कर्ज़ और उसका भुगतान न कर पाने का संकट निरन्तर बढ़ता रहा |
केन्द्रीय सरकार द्वारा 2007 - 08 में किसानो की बकाये की रकम की कर्जमाफी के लिए 70 हजार करोड़ का धन दिया जाना भी इसी संकट का एक सबूत था | लेकिन कर्ज़ माफ़ी के नाम के इस राहत पॅकेज से किसानो की आत्महत्याओं का सिलसिला रुकने वाला नही था और न ही रुका |फिर बढती संख्या में किसानो की आत्महत्याओं के अलावा किसानो के बढ़ते संकटों का एक दुसरा तथ्य भी आत्महत्याओं के इन आंकड़ो के साथ प्रकाशित हुआ हैं |समाचार - पत्र में यह सूचित किया गया है की 1991 की जनगणना की तुलना में 2001 की जनगणना में 70 लाख किसानो की संख्या घटी है | अर्थात उन 10 सालो में देश की बढती आबादी के वावजूद किसानो की आबादी के वावजूद किसानो की आबादी घटी हैं | क्योंकि 70 लाख किसानो ने खेती करना छोड़ दिया हैं |क्या किसी दूसरे पेशे के चलते या खेती के झंझटो के चलते ? नही ! ऐसा काम बहुत कम लोगो के साथ हुआ हैं | ज्यादातर किसानो के खेती से हटने का वास्तविक कारण खेती के बढ़ते संकटों के चलते उनके जीविकोपार्जन का न चल पाना ही रहा हैं | इसमें भूमि अधिग्रहण द्वारा भूमिहीन किए गये किसानो की संख्या भी शामिल हैं |लेकिन वह भी किसानो के उपर घहराने वाला एक दुसरा संकट हैं | लेकिन इन संकटों पर सत्ता - सरकारों और प्रचार माध्यमी विद्वानों ने वर्षो से चुप्पी साध रखी है | कभी - कभार उसके आंकड़े प्रकाशित किए जाने या कभी कभार की कर्जमाफी जैसी राहत पॅकेज दीये जाने के अलावा उस पर कही कोई गम्भीर चिन्ता - चर्चा नही चली और न ही उसके समाधान का कोई स्थायी व गम्भीर प्रयास ही किया गया | जबकि 2008 के बहुप्रचारित विश्वव्यापी वित्तीय - संकट और यूरोप व अमेरिका में बढ़ रहे कर्ज़ संकट के लिए तथा देश में संभावित निर्यात संकट के लिए और देश के धनाढ्य औद्योगिक व्यापारिक कम्पनियों को होने वाले बहुप्रचारित संकटों आदि के लिए देश की सत्ता - सरकारे सदैव तत्पर रहती हैं | उनके समाधान के लिए सरकारी खजाने का मुँह खोले रहती हैं | यह है देश की सत्ता सरकारों का धनाढ्य कम्पनियों के प्रति हितैषी और आम किसानो के प्रति विरोधी चरित्र | लेकिन खेती के बढ़ते संकटों के साथ किसानो की बढती आत्महत्याओं पर खुद किसानो का चुप रहना आत्मघाती हैं |बढती आत्महत्याओं के कारणों व कारको को समझने के लिए तथा सत्ता -सरकारों के किसान विरोधी चरित्र को अब किसानो को ही समझना पड़ेगा |फिर उनके समाधान के लिए संगठित प्रयास करना भी अब आम किसानो का ही दायित्व हैं और उसके लिए उन्ही को खड़ा होना पडेगा | जागो किसानो अब जागो अपने हक के लिए !
सरकार और धनाढ्य अपनी शिकारी नजर गाड़े है इस देश के आम किसानो को बर्बाद करने पर -फिर भी किसानो में हिम्मत है उनसे लड़ने की .........नचिकेता की यह लाइने बहुत कुछ कह जाती हैं ..............शिकारी की नज़र..........................

दुनिया को
निरखो न शिकारी की नज़रों से

वैसे तो दुनिया में ढेरों
रंग भरे हैं
यहाँ खेत
खलिहान, नदी, पर्वत, दर्रे हैं
इन्हें बचाना होगा ज़ालिम
राहबरों से

यहाँ महकते फूल
चमकते मुक्त पखेरू
दूध-भरे थन चूस रहे हैं
भूखे लेरू
इन्हें नहीं डर है
आने वाले ख़तरों से

जीना मुश्किल है
फिर भी दुनिया सुन्दर है
रूप, गंध, स्पर्श, ध्वनि
रस का आकर है
मत नोंचो
परवाज़ स्वप्न के
खुले परों से ।
में बताया व प्रचारित भी किया जाता रहा है |
..सुनील दत्ता .पत्रकार ,

1 टिप्पणी:

जयंत साहू [ charichugli ] ने कहा…

बहुत ही सुंदर पोस्ट, सरकारे तो किसानो को खेती के लिए कृषि योग्य भुमि देने के बजाय भुमि अधिग्रहण में लिप्त है। जमीन और भुमि के अर्थ को समझे सरकार।

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