विश्व स्तर पर प्रमुख आर्थिक एवं कार्पोरेट घरानों ने, जिन्हें उमड़ते हुए जन सैलाब का भय सता रहा है जैसा कि ग्रीस में देखा गया है, यह फैसला किया है कि वे लोगों के संवैधानिक अधिकारों को समाप्त करेंगे, हालाँकि इन घरानों के प्रमुख वक्ताओं ने अपने आधिकारिक वक्तव्यों में प्रजातंत्र एवं मानवाधिकारों का झूठा ढिंडोरा पीटा है। अधिकतर देशों में जहाँ कि अर्थव्यवस्था प्रबल है वहाँ की सरकारें चाहे वे सत्ता पक्ष की हों या विपक्ष की हों, उन्होंने मजदूर वर्ग एवं मध्यम वर्ग की आवाजों को दबाने का कार्य किया है। उन्होंने उचित एवं शांतिमय प्रतिरोधों को, भाषण एवं संगठन की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार के बावजूद, पूरी तरह से कुचल दिया है। राजनैतिक आन्दोलनों में धन लगाने वाले यह सुनिश्चित करते हैं कि यदि कही गंभीर प्रतिरोध की आवाज उठे तो उसको कभी भी गंभीरता से न सुना जाए। एक कारपोरेट मीडिया उस आन्दोलन को या तो दबा देती है या उसको तोड़ मरोड़ कर पेश करती है या ध्यान को दूसरी तरफ केन्द्रित कर देती हैं या गैर सरकारी संगठन (एन0जी0ओ0) जो कारपोरेट घरानों से धन प्राप्त करते हैं उनको इस मीडिया के माध्यम से विशेष रूप से प्रसारित किया जाता है। यह मीडिया थोड़ा बहुत प्रतिरोध या (फर्जी) प्रतिरोध को उभरने देता है ताकि असहमति की आवाजंे विस्फोटक न बनने पाएँ। कारपोरेट घरानों से धन प्राप्त कर रहे गैर सरकारी संगठनों को एक विशेष कार्य परिक्षेत्र आवंटित किया जाता है जैसे कि मानवाधिकार, पर्यावरण, भ्रष्टाचार एवं सार्वजनिक हितों वाले मुद्दे (पी.आई.एल.) और जब पूँजीपति एवं कारपोरेट घराने वालों का आर्थिक एवं राजनैतिक रास्ता दुष्कर हो जाता है तो वे राजनैतिक विकल्प के रूप में अराजकता वादी समूहों को बढ़ावा देते हैं जो कि आपराधिक एवं छिपे तरीकों से नियंत्रण करने की कोशिश करते हैं।
इन्हीं क्षणों में धन प्राप्त करने वाले गैर सरकारी संगठन (फर्जी) विरोधी दलों के साथ मिलकर सत्ता से अपदस्थ किए जाने वाली पार्टी के खिलाफ षड्यंत्र रचते हैं। सामाजिक समझौता जो पश्चिमी समाज के देशों के संगठित वेतनभोगी अथवा श्रमिक वर्ग एवं मध्य आय वर्ग के समूहों के साथ हुआ, वह पूर्व यू0एस0एस0आर0 एवं अन्य समाजवादी देशों की राजनैतिक समाप्ति के पश्चात धीरे-धीरे लुप्त होता गया। इन देशों को यह भय था कि कोई वैकल्पिक एवं आर्थिक व्यवस्था इसके स्थान पर आ जाएगी। इस राजनैतिक व्यवस्था के स्थान पर अब इन देशों में पुलिस राज्य स्थापित हो गया। संवैधानिक अधिकारों के ह्रास के सबसे प्रमुख उदाहरण संयुक्त राज्य अमरीका एवं ब्रिटेन हैं जहाँ भाषण देने की स्वतंत्रता का अधिकार, गोपनीयता का अधिकार, अनचाही गिरफ्तारी से स्वतंत्रता का अधिकार एवं दूसरे अधिकार जो केवल मध्यम एवं उच्च वर्ग एवं नस्ल विशेष को ही प्राप्त हैं, इनके ऊपर पिछले दो दशकों से बहुत ही व्यापक एवं गूढ़ निगरानी की जा रही है। विभिन्न वर्गों के बीच धन की विषमताएँ इतनी ज्यादा गहन है कि उन्हें भयावह की संज्ञा दी जा सकती है।
अभी हाल के दिनों मंे ब्रिटेन में जब पुलिस हत्याओं के विरोध में स्वाभाविक आंदोलन छिड़ा जिसके बाद गिरती हुई सामाजिक परिस्थितियों, बढ़ती हुई बेरोजगारी एवं गरीबी के फलस्वरूप दंगा भी हुआ। विरोधों का बर्बरता पूर्वक दमन कर दिया गया एवं रात को मजिस्टेªट नियुक्त किए गए जिन्होंने प्रथम बार के किशोर आरोपियों को भी जमानत नहीं दी, एवं उनके परिवारों को यह धमकी दी गई कि उनको सरकार द्वारा प्राप्त आवास से बेदखल कर दिया जाएगा। अमरीका में वकील एवं मुअक्किल के दरमियान पेशे वराना सम्बन्ध जो पहले बहुत पवित्र समझा जाता था, उस पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है। उन्हें सम्पर्क की गोपनीयता से अब वंचित कर दिया गया है। जिन राष्ट्रांे में नाटों शक्तियों एवं उनके सहयोगियों ने अधिग्रहण कर रखा है वे अब प्रजातांत्रिक देश नहीं रहें। उन्हें छावनियों में तब्दील कर दिया गया है ताकि वहाँ वे अधिक उत्पादों पर कब्जा जमा सकें। इन देशों में व्यक्तिगत एवं सामूहिक हत्याएँ आम हो गई हैं। आए दिन बम विस्फोट होते रहते हैं जैसा कि अफगानिस्तान एवं ईराक के उदाहरण से स्पष्ट हैं। ये सारी घटनाएँ नाटो शक्तियों अथवा उनकी सहयोगी सरकारों के द्वारा कराई जाती हैं, तथा इनकी कोई वैधानिक जिम्मेदारी भी नही .
-नीलोफर भागवत
अनुवादक: मो0 एहरार एवं मु0 इमरान उस्मानी
क्रमश:
इन्हीं क्षणों में धन प्राप्त करने वाले गैर सरकारी संगठन (फर्जी) विरोधी दलों के साथ मिलकर सत्ता से अपदस्थ किए जाने वाली पार्टी के खिलाफ षड्यंत्र रचते हैं। सामाजिक समझौता जो पश्चिमी समाज के देशों के संगठित वेतनभोगी अथवा श्रमिक वर्ग एवं मध्य आय वर्ग के समूहों के साथ हुआ, वह पूर्व यू0एस0एस0आर0 एवं अन्य समाजवादी देशों की राजनैतिक समाप्ति के पश्चात धीरे-धीरे लुप्त होता गया। इन देशों को यह भय था कि कोई वैकल्पिक एवं आर्थिक व्यवस्था इसके स्थान पर आ जाएगी। इस राजनैतिक व्यवस्था के स्थान पर अब इन देशों में पुलिस राज्य स्थापित हो गया। संवैधानिक अधिकारों के ह्रास के सबसे प्रमुख उदाहरण संयुक्त राज्य अमरीका एवं ब्रिटेन हैं जहाँ भाषण देने की स्वतंत्रता का अधिकार, गोपनीयता का अधिकार, अनचाही गिरफ्तारी से स्वतंत्रता का अधिकार एवं दूसरे अधिकार जो केवल मध्यम एवं उच्च वर्ग एवं नस्ल विशेष को ही प्राप्त हैं, इनके ऊपर पिछले दो दशकों से बहुत ही व्यापक एवं गूढ़ निगरानी की जा रही है। विभिन्न वर्गों के बीच धन की विषमताएँ इतनी ज्यादा गहन है कि उन्हें भयावह की संज्ञा दी जा सकती है।
अभी हाल के दिनों मंे ब्रिटेन में जब पुलिस हत्याओं के विरोध में स्वाभाविक आंदोलन छिड़ा जिसके बाद गिरती हुई सामाजिक परिस्थितियों, बढ़ती हुई बेरोजगारी एवं गरीबी के फलस्वरूप दंगा भी हुआ। विरोधों का बर्बरता पूर्वक दमन कर दिया गया एवं रात को मजिस्टेªट नियुक्त किए गए जिन्होंने प्रथम बार के किशोर आरोपियों को भी जमानत नहीं दी, एवं उनके परिवारों को यह धमकी दी गई कि उनको सरकार द्वारा प्राप्त आवास से बेदखल कर दिया जाएगा। अमरीका में वकील एवं मुअक्किल के दरमियान पेशे वराना सम्बन्ध जो पहले बहुत पवित्र समझा जाता था, उस पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है। उन्हें सम्पर्क की गोपनीयता से अब वंचित कर दिया गया है। जिन राष्ट्रांे में नाटों शक्तियों एवं उनके सहयोगियों ने अधिग्रहण कर रखा है वे अब प्रजातांत्रिक देश नहीं रहें। उन्हें छावनियों में तब्दील कर दिया गया है ताकि वहाँ वे अधिक उत्पादों पर कब्जा जमा सकें। इन देशों में व्यक्तिगत एवं सामूहिक हत्याएँ आम हो गई हैं। आए दिन बम विस्फोट होते रहते हैं जैसा कि अफगानिस्तान एवं ईराक के उदाहरण से स्पष्ट हैं। ये सारी घटनाएँ नाटो शक्तियों अथवा उनकी सहयोगी सरकारों के द्वारा कराई जाती हैं, तथा इनकी कोई वैधानिक जिम्मेदारी भी नही .
-नीलोफर भागवत
अनुवादक: मो0 एहरार एवं मु0 इमरान उस्मानी
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