शनिवार, 31 मार्च 2012

पश्चिमी अर्थतंत्र का अन्तहीन पतन - 4

अन्तर्राष्ट्रीय वैधानिक व्यवस्था एवं संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा व्यवस्था का पतन एवं अन्तर्राष्ट्रीय विधिक न्यायालय एवं संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति की निष्क्रियता।
    संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर की प्र्रस्तावना में यह लिखा हुआ है कि हम ‘‘संयुक्त राष्ट्र संघ’’ के लोग आने वाली पीढि़यों को युद्ध की विभीषिका से बचाने के लिए कृत संकल्प हैं, जिसने कि मानवता को दो बार अनगिनत कष्टों में लिप्त किया है। इस घोषणा के बावजूद सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य जिन्होंने द्वितीय युद्ध के पश्चात व्याप्त भौगोलिक राजनैतिक, परिस्थिति के फलस्वरूप विशेष दर्जा प्राप्त किया। सहयोगी शक्तियों के राजनैतिक एवं सैनिक रूप से प्रबल होने के कारण स्थाई सदस्यों ने संयुक्त राष्ट्र संघ को निरन्तर एवं कभी न समाप्त होने वाले युद्धों की ओर ढकेला है, संयुक्त राष्ट्रों के आन्तरिक मामलों में सैनिक हस्तक्षेप किया है एवं छोटे देशों के खिलाफ आर्थिक रोक लगाई है ताकि वे उनके संसाधनों पर अनधिकृत कब्जा कर सकें। विश्व की नवीन राजनैतिक व्यवस्था जो कि मानवता के विपरीत है उस समय उत्पन्न हुई जब पूर्व सोवियत समाजवादी गणराज्य संगठन की पोलिट ब्यूरो 1991 में धराशायी हो गई। यह वह समय था जबकि विश्व के पश्चिमी देशों में अर्थ व्यवस्था मुसीबत से घिर चुकी थी, परन्तु लोगों की नजरों से यह बात छिपी हुई थी।
    चीन ने इन घटनाओं से पहले पश्चिमी संसार से यह समझौता किया था कि वह अपनी अर्थव्यवस्था और राजनीति को बदल देगा, यदि उसको सर्वाधिक प्रिय राष्ट्र का दर्जा प्रदान किया जाएगा।
    इसके बदले वह अमरीका तथा यूरोपियन कम्पनियों को एवं जी0 7 राष्ट्रों की अन्य कम्पनियों को चीन में व्यापार करने की अनुमति प्रदान करेगा तथा सभी प्रकार के व्यापारिक प्रतिबंधों को उठा लेगा। चीन इस बात पर सहमत हुआ कि वह विश्व के राजनैतिक एवं रणनीति सम्बंधी आदेशों को जिस पर अमरीका और उसके सहयोगी राष्ट्रों का पूरा दबदबा है, से पूरी तरह सहमत रहेगा। परिणाम स्वरूप चीन ने ईराक के विरुद्ध लगाए गए प्रतिबंधों पर अपने वीटों का प्रयोग नहीं किया। वह इस बात पर भी सहमत हुआ कि वह चीन का सस्ता लेबर बिना मोल भाव किए हुए प्रदान करेगा, बहुत से क्षेत्रों में राज्य द्वारा चलाई गई कम्पनियों को समाप्त कर देगा एवं इन कम्पनियों के मुनाफे को स्वदेश सुरक्षित भेज देगा एवं उत्पादन की कीमत को घटाएगा।
    सुरक्षा परिषद के द्वारा 1989 के पश्चात पारित किए गए अधिकतर प्रस्ताव अप्रजातांत्रिक हैं क्योंकि ये प्रस्ताव कमजोर राष्ट्रों को आर्थिक एवं सैनिक रूप से धमकाना चाहते हैं जो पहली दृष्टि में ही संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर का खुला हुआ अतिक्रमण है।
संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर, यदि व्याख्या सम्बंधी कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो वह सभी समझौतों से सर्वोपरि है। केवल कुछ उदाहरण ही पर्याप्त हैं इस बात को साबित करने के लिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा व्यवस्था पूरी तरह से धराशायी हो चुकी है एवं संयुक्त राष्ट्र संघ सैनिक रूप से कमजोर, छोटे सदस्यों के हितों को अब सुरक्षा प्रदान नहीं करता। सुरक्षा परिषद के अतिरिक्त संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा ने भी लीबिया के वर्तमान मामले में आश्चर्य जनक रूप से स्वेच्छाचारिता से काम लिया है। उसने संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार सभा एवं सुरक्षा परिषद की सिफारिश पर बगैर तथ्यों की जाँच किए हुए लीबिया को संयुक्त राष्ट्र संघ से निलम्बित कर दिया। कर्नल गद्दाफी पर यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 600 बगाज़ी नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ मंे भारत के स्थायी दूत श्री हरिदीप पुरी ने सुरक्षा परिषद द्वारा लीबिया के ऊपर पारित दो प्रस्तावों के संदर्भ में यह बात कही कि किसी विश्वसनीय जाँच का अभाव है। विडम्बना यह है कि नेशनल ट्रांजीशनल काउंसिल के नाटो के साथ सहयोग के बावजूद 60,000 लीबियाई नागरिकों की हत्या की गई, फिर भी सुरक्षा परिषद, महासभा एवं संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार सभा ने एन0टी0सी0 एवं नाटों शक्तियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की।
-नीलोफर भागवत
अनुवादक: मो0 एहरार एवं मु0 इमरान उस्मानी
क्रमश:

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