इस पर भी विडंबना यह है कि मानवाधिकार उत्पीड़न के मामलों में विभिन्न सरकारों, राजनेताओं और उच्च प्रशासनिकअधिकारियों का रवैया काफी नकारात्मक रहा है। कई बार ऐसा भी होता है कि स्वयं नेता, मन्त्री या अफसर उत्पीड़न का कारण बनते हैं या फिर उत्पीड़न करने वालों का बचाव करने की भूमिका में नजर आते हैं। यदि किसी व्यक्ति का नाम आतंकवाद या माओवाद से जोड़ दिया जाय तो आरोप लगते ही सारे नियम कानून ताक पर रखकर यह मान लिया जाता है कि अब मानव होने की हैसियत से उसके जो भी अधिकार हैं सब समाप्त हो गए। यहाँ तक कि पुलिस व विशेष पुलिस बल की दमनात्मक एवं संविधान और कानून विरोधी कार्रवाइयों से लेकर फर्जी मुठभेड़ों में की जाने वाली हत्याओं तक को तर्क संगत और सही ठहराए जाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जाती। विगत में यदि कुछ फर्जी मुठभेड़ों का खुलासा हुआ भी है तो उसका कारण संयोग से एस0पी0 तमंग जैसा कोई ईमानदार मजिस्ट्रेट भी रहा है परन्तु ज्यादातर मामलों में बदकिस्मती से विशेष पुलिस बलों की आपसी प्रतिद्वंद्विता या राजनैतिक प्रतिस्पर्धा के कारण ही ऐसा सम्भव हो पाया है। यदि ऐसा न होकर ये खुलासे संविधान और कानून की हुक्मरानी को स्थापित करने हेतु उठाए गए किसी कदम की वजह से हुए होते तो इससे पुलिस बलों को सकारात्मक संदेश जाता जिससे भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति पर अंकुश लगाने में मदद मिलती परन्तु ऐसा नही हुआ।
फर्जी मुठभेड़ों की घटनाएँ हों या उनके खुलासे की दिशा में प्रगति का मामला पहले से कुछ बेहतरी जरूर आई है परन्तु अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। खास तौर से माओवाद के नाम पर होने वाली ज्यादतियों के मामलों में। यह भी सही है कि इस छोटी सी कामयाबी के पीछे भी वही कारक हैं जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। अगर हम गुजरात में होने वाले इनकाउन्टरों का ही उदाहरण लें तो अंदाजा होता है कि ज्यादा तर मामलों में मोदी के तानाशाही रवैये को लेकर क्षुब्ध कुछ प्रशासनिक अधिकारियों के सहयोग से ही इस दिशा में प्रगति हो पाई। बाद में गुजरात उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से कुछ और इनकाउन्टरों की जाँच का मार्ग प्रशस्त हुआ। यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि यदि राजनैतिक स्तर पर कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका न निभाई होती तो शायद गुजरात के वह प्रशासनिक अधिकारी भी सहयोग करने की हिम्मत न जुटा पाते। फिर भी हम यह मानते है कि ऐसे मामलों में भंडाफोड़ के कारणों की जितनी अहमियत है उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है उसका परिणाम। हम साफ तौर पर यह महसूस कर सकते हैं कि जब से इशरत जहाँ, सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति आदि की फर्जी मुठभेड़ों के नायक कानून के शिकंजे में फँस कर सलाखों के पीछे पहुँचे हैं न सिर्फ मुठभेड़ों में कमी आई है बल्कि मोदी, अडवाणी, राहुल गांधी और मायावती जैसे नेताओं को मारने के लिए आने वाले कथित आतंकियों के आने की खबरों में भी कमी आगई है। हालाँकि इन बहादुरों की अनुपस्थिति में आतंकियों का मनोबल और बढ़ जाना चाहिए था। परन्तु देश के अन्य भागों मे होने वाली संदिग्ध मुठभेड़ों के मामले में गुजरात के इन्हीं कारकों का व्यवहार कुछ अलग तरह का रहा। बटला हाउस मामले में कांग्रेस सरकार को घेरने के लिए भाजपा आगे नहीं आई। शायद संघ की मुस्लिम विरोधी नीतियाँ उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं दे रही थीं। माननीय उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय ने भी गुजरात सरकार व पुलिस की तुलना में दिल्ली सरकार (केन्द्र व राज्य) और उसकी स्पेशल सेल की थ्योरी को ज्यादा विश्वसनीय माना। कांग्रेस बटला हाउस इनकाउन्टर के सही या गलत होने के मुद्दे पर बँटी दिखाई पड़ती है। कई अन्य राजनैतिक दल इसे संदिग्ध मानते हैं। देश के प्रतिष्ठित मानवाधिकार संगठन इसे फर्जी मानते हैं और लगातार इसकी जाँच की माँग कर रहे हैं। उनके द्वारा उठाए गए सवालों का सरकार और पुलिस के पास कोई सन्तोषजनक उत्तर भी नहीं है। कुल मिलाकर इन्सपेक्टर मोहनचन्द्र शर्मा की मौत को ही इन्काउन्टर के सही होने के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। स्वयं शर्मा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट से कई प्रकार के सवाल पैदा होते हैं। करकरे की जैकेट की तरह ही इन्सपेक्टर शर्मा के कपड़े भी गायब हैं। खुद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पहले इनकाउन्टर को सही ठहराया था परन्तु बाद में उसे फर्जी मुठभेड़ों की सूची में डाल दिया। कुल मिलाकर हर स्तर पर इतना विरोधाभास मौजूद है कि अपने आप में यह स्वयं किसी निस्पक्ष जाँच के लिए मज़बूत आधार है परन्तु इसके बावजूद सरकार अडि़यल रवैया अपनाए हुए है। यही हाल दिल्ली और उत्तर प्रदेश में आतंकवाद के नाम पर होने वाले दर्जनों इनकाउन्टरों का भी है। संदिग्ध इसलिए कि जैसे ही गुजरात इनकाउन्टरों के सूरमा सलाखों के पीछे गए देश के अन्य भागों में होने वाले इनकाउन्टरों की संख्या में भी भारी कमी आई है। अब यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि यदि फर्जी मुठभेड़ों मे मारे गए निर्दोषों को जल्दी न्याय मिला होता तो कुछ बेकसूरों की जान बचाई जा सकती थी।
-मसीहुद्दीन संजरी
क्रमश:
फर्जी मुठभेड़ों की घटनाएँ हों या उनके खुलासे की दिशा में प्रगति का मामला पहले से कुछ बेहतरी जरूर आई है परन्तु अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। खास तौर से माओवाद के नाम पर होने वाली ज्यादतियों के मामलों में। यह भी सही है कि इस छोटी सी कामयाबी के पीछे भी वही कारक हैं जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। अगर हम गुजरात में होने वाले इनकाउन्टरों का ही उदाहरण लें तो अंदाजा होता है कि ज्यादा तर मामलों में मोदी के तानाशाही रवैये को लेकर क्षुब्ध कुछ प्रशासनिक अधिकारियों के सहयोग से ही इस दिशा में प्रगति हो पाई। बाद में गुजरात उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से कुछ और इनकाउन्टरों की जाँच का मार्ग प्रशस्त हुआ। यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि यदि राजनैतिक स्तर पर कांग्रेस ने विपक्ष की भूमिका न निभाई होती तो शायद गुजरात के वह प्रशासनिक अधिकारी भी सहयोग करने की हिम्मत न जुटा पाते। फिर भी हम यह मानते है कि ऐसे मामलों में भंडाफोड़ के कारणों की जितनी अहमियत है उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है उसका परिणाम। हम साफ तौर पर यह महसूस कर सकते हैं कि जब से इशरत जहाँ, सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति आदि की फर्जी मुठभेड़ों के नायक कानून के शिकंजे में फँस कर सलाखों के पीछे पहुँचे हैं न सिर्फ मुठभेड़ों में कमी आई है बल्कि मोदी, अडवाणी, राहुल गांधी और मायावती जैसे नेताओं को मारने के लिए आने वाले कथित आतंकियों के आने की खबरों में भी कमी आगई है। हालाँकि इन बहादुरों की अनुपस्थिति में आतंकियों का मनोबल और बढ़ जाना चाहिए था। परन्तु देश के अन्य भागों मे होने वाली संदिग्ध मुठभेड़ों के मामले में गुजरात के इन्हीं कारकों का व्यवहार कुछ अलग तरह का रहा। बटला हाउस मामले में कांग्रेस सरकार को घेरने के लिए भाजपा आगे नहीं आई। शायद संघ की मुस्लिम विरोधी नीतियाँ उसे ऐसा करने की इजाज़त नहीं दे रही थीं। माननीय उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय ने भी गुजरात सरकार व पुलिस की तुलना में दिल्ली सरकार (केन्द्र व राज्य) और उसकी स्पेशल सेल की थ्योरी को ज्यादा विश्वसनीय माना। कांग्रेस बटला हाउस इनकाउन्टर के सही या गलत होने के मुद्दे पर बँटी दिखाई पड़ती है। कई अन्य राजनैतिक दल इसे संदिग्ध मानते हैं। देश के प्रतिष्ठित मानवाधिकार संगठन इसे फर्जी मानते हैं और लगातार इसकी जाँच की माँग कर रहे हैं। उनके द्वारा उठाए गए सवालों का सरकार और पुलिस के पास कोई सन्तोषजनक उत्तर भी नहीं है। कुल मिलाकर इन्सपेक्टर मोहनचन्द्र शर्मा की मौत को ही इन्काउन्टर के सही होने के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। स्वयं शर्मा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट से कई प्रकार के सवाल पैदा होते हैं। करकरे की जैकेट की तरह ही इन्सपेक्टर शर्मा के कपड़े भी गायब हैं। खुद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पहले इनकाउन्टर को सही ठहराया था परन्तु बाद में उसे फर्जी मुठभेड़ों की सूची में डाल दिया। कुल मिलाकर हर स्तर पर इतना विरोधाभास मौजूद है कि अपने आप में यह स्वयं किसी निस्पक्ष जाँच के लिए मज़बूत आधार है परन्तु इसके बावजूद सरकार अडि़यल रवैया अपनाए हुए है। यही हाल दिल्ली और उत्तर प्रदेश में आतंकवाद के नाम पर होने वाले दर्जनों इनकाउन्टरों का भी है। संदिग्ध इसलिए कि जैसे ही गुजरात इनकाउन्टरों के सूरमा सलाखों के पीछे गए देश के अन्य भागों में होने वाले इनकाउन्टरों की संख्या में भी भारी कमी आई है। अब यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि यदि फर्जी मुठभेड़ों मे मारे गए निर्दोषों को जल्दी न्याय मिला होता तो कुछ बेकसूरों की जान बचाई जा सकती थी।
-मसीहुद्दीन संजरी
क्रमश:
1 टिप्पणी:
आपकी पोस्ट चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
http://charchamanch.blogspot.in/2012/04/847.html
चर्चा - 847:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
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