सोवियत संघ के अस्तित्व तक अमरीका अपनी गतिविधियों के लिए उसे ज़िम्मेदार ठहराता था। अमरीका के अनुसार उसे सोवियत ख़तरे का सामना करने के लिए सारे विश्व में सैनिक अड्डे स्थापित करना तथा नएनए अत्याधुनिक हथियारों का उत्पादन करना और बेचना ज़रूरी था। सोवियत संघ के पतन के बाद इस तर्क का आधार ख़त्म हो गया और हथियारों की होड़ और सारी दुनिया में सैनिक अड्डे बनाने का कोई औचित्य नहीं रह गया। कई लोग यह आशा और अपेक्षा करने लगे कि कम से कम अब तो अमरीका युद्धों की तैयारियों और दूसरे देशों में अड्डे बनाने तथा उनमे सैनिक हस्तक्षेप करने या आक्रमण करने से बाज आएगा।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिछले दो दशकों के अनुभव बताते हैं कि इसके विपरीत अमरीका ने दुनिया में अपनी सैनिक गतिविधियाँ और भी अधिक ब़ाई हैं। यह समझा जाता है कि सोवियत पतन के बाद अब तो दुनिया उसके लिए खुला मैदान बन गई है जहाँ वह कुछ भी कर सकता है, कहीं भी अपनी फ़ौजें भेज सकता है, किसी को भी डराधमका सकता है और अन्य कई प्रकार से कमजोर देशों को दबा सकता है। उसे मालूम है कि अब सोवियत संघ के नहीं रहने से डरने वाली कोई बात नहीं रह गई और उसे अब कोई रोक नहीं सकता है। उसने एक ध्रुवीय दुनिया की घोषणा तक कर डाली अर्थात अब दुनिया में एक ही महाशक्ति रह गई है जिसके आगे सबको झुकना पड़ेगा। अब खुलकर हथियारों और युद्धों का खेल खेला जा सकता है। लेकिन उसकी सारी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी नहीं हुई हैं, यहाँ रुक कर हम कुछ बातों पर विचार करेंगे।
साम्राज्यवाद का चरित्र?
दुनिया तेज़ी से बदल रही है। इसे नहीं समझने का ख़ामियाजा सोवियत संघ तथा कुछ अन्य देशों को भुगतना पड़ा था। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि शक्तिशाली साम्राज्यवादी देश इस भ्रम से मुक्त हैं. वे भी बदलती दुनिया को नहीं समझ रहे हैं और अपनी पुरानी नीतियों पर ही चलने की कोशिश जारी रखे हुए हैं। हम यह कह सकते हैं की दुनिया बदल गई लेकिन साम्राज्यवादी सोच या दृष्टि नहीं बदली है।
किसी जमाने में अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी इत्यादि देश दूसरे देशों को गुलाम बनाए रखते थे और जब चाहे तब अपनी फ़ौजें उन देशों में भेज दिया करते थे। विश्व साम्राज्यवादी अर्थ व्यवस्था का जन्म हुआ और दुनिया के बहुत सारे देशों को गुलाम बना लिया गया।
आज दुनिया में बहुत सारे परिवर्तन हो गए हैं। ना सिर्फ़ सोवियत एवं कुछ अन्य देशों का पतन हो सकता है बल्कि एक वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति या एस0टी0आर0 चल रही है जो लोगों के सामने विकास की नई संभावनाएँ खोल दे रही है।
इसे सम्राज्यवाद नियंत्रित करना चाहता है और वह नहीं चाहता कि इसका फायदा आम लोगों और कमजोर देशों को मिले। इससे भी ब़कर वह अकूत तेल भंडारों, खनिज क्षेत्रों, हथियारों के बाज़ारों, तथा अन्य कई प्रकार के मुनाफ़े के स्रोतों का भरपूर लाभ उठना चाहता है। साम्राज्यवाद के कई स्वरूप ज़रूर बदले हैं लेकिन उसका मूल चरित्र नहीं बदला है। दुनिया के तेल भंडारों पर कब्जा करने के लिए उसने अपनी सेनाओं को लामबंद किया है और उन्हें अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया है। इराक़ में जिस तरह उसने दखलंदाजी की और फिर बड़े पैमाने पर हमला किया उससे उसका साम्राज्यवादी चरित्र ही उजागर होता है।
अमरीका तेल की राजनीति कुछ उसी तरह चला रहा है जैसे औपनिवेशिक साम्राज्यवादी युग में, खास तौर पर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के युग में साम्राज्यवादी चलाया करते थे। पहले यह देश किसी ना किसी बहाने अपनी सेना अरब और एशिया के देशों में भेज कर उन देशों और उनके तेल भंडारों पर कब्जा कर लेते थे और फिर वहाँ पर उनकी कठपुतली या सीधी खुद की सरकारें स्थापित कर दी जाती थीं।
हाल में अमरीका ऐसे ही तरीके अपनाने की कोशिश कर रहा है। उसने इराक़ में 2003 में पूर्व नियोजित तरीके से अपनी फौजें भेजीं। उसने बहाने पहले से तैयार करके रखे, यह जानते हुए कि इनका कोई आधार नहीं और ये पूरी तरह झूठ है। उसने चारो ओर यह ढिंोरा पीटा कि इराक़ बड़े पैमानें पर अत्याधुनिक न्यूक्लियर हथियार या डब्लू.एम.डी. बना रहा है जिसकी जानकारी उसे सी.आई.ए. से मिली, ऐसा बताया। वास्तव में सी.आई.ए. और अन्य को ऐसी झूठी तथा फर्जी रिपोर्टें तैयार करने को कहा गया। प्रेस और टी.वी तथा सारी दुनिया में उच्च दबाव का प्रचार चलाया गया। यू.एन. जाँच कमीशन ने बारबार कहा कि वह जाँच कर रहा है और उसे इसके कोई सबूत अभी नहीं मिले हैं, और यह कि अभी वार्ता के ज़रिए समस्या का हल निकाला जाना चाहिए, सैनिक हस्तक्षेप सही नहीं होगा।
ज्यादातर विश्व जनमत और सरकारों के मत भी इराक़ में सैनिक आक्रमण के विरोध में थे। खुद कई पिश्चमी देशों की सरकारें इस अमरीकी रुख़ के विरोध में और शांतिपूर्ण वार्तालाप तथा अधिक से अधिक आर्थिक नाकेबंदी के हक में थीं। इनमें से एक फ्रांस था जिसने अंत तक अमरीकी कार्रवाई का तीखा विरोध किया था। विकासमान देशों की सरकारें और जनता तो विरोध में थी ही। लेकिन अमरीका ने पहले ही मन बना लिया था और उसी के अनुसार सैनिक तैयारियाँ भी कर रहा था। उसे तो सिर्फ़ कोई बहाना चाहिए था और बहाना नहीं मिलने पर खुद ही कुछ बना लेता। उसे इराक़ में डाका डालने की जल्दी थी और सारे विश्व जनमत तथा स्वयं यू.एन. के नियम क़ानूनों और विश्व संबंधों को नियंत्रित करने वाले तौर तरीकों और क़ानूनों का खुलकर उल्लंघन करते हुए उसने बड़े पैमाने पर इराक़ की जनता और उसकी आज़ादी पर हमला बोल दिया। उस समय की घटनाओं को यदि हम याद करें तो स्मरण होगा कि लगभग सभी चाहते थे अमरीका की हार हो और इराक़ी जनता जीते। मीडिया भी इसी विचार का था। लेकिन कई कारणों से इराक की हार हो गई, जिसमें अमरीका के अत्याधुनिक हथियार और इराक़ के राजनैतिक ढांचे का तानाशाही चरित्र मुख्य कारणों में शामिल था।
-अनिल राजिमवाले
क्रमश:
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिछले दो दशकों के अनुभव बताते हैं कि इसके विपरीत अमरीका ने दुनिया में अपनी सैनिक गतिविधियाँ और भी अधिक ब़ाई हैं। यह समझा जाता है कि सोवियत पतन के बाद अब तो दुनिया उसके लिए खुला मैदान बन गई है जहाँ वह कुछ भी कर सकता है, कहीं भी अपनी फ़ौजें भेज सकता है, किसी को भी डराधमका सकता है और अन्य कई प्रकार से कमजोर देशों को दबा सकता है। उसे मालूम है कि अब सोवियत संघ के नहीं रहने से डरने वाली कोई बात नहीं रह गई और उसे अब कोई रोक नहीं सकता है। उसने एक ध्रुवीय दुनिया की घोषणा तक कर डाली अर्थात अब दुनिया में एक ही महाशक्ति रह गई है जिसके आगे सबको झुकना पड़ेगा। अब खुलकर हथियारों और युद्धों का खेल खेला जा सकता है। लेकिन उसकी सारी महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ पूरी नहीं हुई हैं, यहाँ रुक कर हम कुछ बातों पर विचार करेंगे।
साम्राज्यवाद का चरित्र?
दुनिया तेज़ी से बदल रही है। इसे नहीं समझने का ख़ामियाजा सोवियत संघ तथा कुछ अन्य देशों को भुगतना पड़ा था। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि शक्तिशाली साम्राज्यवादी देश इस भ्रम से मुक्त हैं. वे भी बदलती दुनिया को नहीं समझ रहे हैं और अपनी पुरानी नीतियों पर ही चलने की कोशिश जारी रखे हुए हैं। हम यह कह सकते हैं की दुनिया बदल गई लेकिन साम्राज्यवादी सोच या दृष्टि नहीं बदली है।
किसी जमाने में अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी इत्यादि देश दूसरे देशों को गुलाम बनाए रखते थे और जब चाहे तब अपनी फ़ौजें उन देशों में भेज दिया करते थे। विश्व साम्राज्यवादी अर्थ व्यवस्था का जन्म हुआ और दुनिया के बहुत सारे देशों को गुलाम बना लिया गया।
आज दुनिया में बहुत सारे परिवर्तन हो गए हैं। ना सिर्फ़ सोवियत एवं कुछ अन्य देशों का पतन हो सकता है बल्कि एक वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति या एस0टी0आर0 चल रही है जो लोगों के सामने विकास की नई संभावनाएँ खोल दे रही है।
इसे सम्राज्यवाद नियंत्रित करना चाहता है और वह नहीं चाहता कि इसका फायदा आम लोगों और कमजोर देशों को मिले। इससे भी ब़कर वह अकूत तेल भंडारों, खनिज क्षेत्रों, हथियारों के बाज़ारों, तथा अन्य कई प्रकार के मुनाफ़े के स्रोतों का भरपूर लाभ उठना चाहता है। साम्राज्यवाद के कई स्वरूप ज़रूर बदले हैं लेकिन उसका मूल चरित्र नहीं बदला है। दुनिया के तेल भंडारों पर कब्जा करने के लिए उसने अपनी सेनाओं को लामबंद किया है और उन्हें अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया है। इराक़ में जिस तरह उसने दखलंदाजी की और फिर बड़े पैमाने पर हमला किया उससे उसका साम्राज्यवादी चरित्र ही उजागर होता है।
अमरीका तेल की राजनीति कुछ उसी तरह चला रहा है जैसे औपनिवेशिक साम्राज्यवादी युग में, खास तौर पर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के युग में साम्राज्यवादी चलाया करते थे। पहले यह देश किसी ना किसी बहाने अपनी सेना अरब और एशिया के देशों में भेज कर उन देशों और उनके तेल भंडारों पर कब्जा कर लेते थे और फिर वहाँ पर उनकी कठपुतली या सीधी खुद की सरकारें स्थापित कर दी जाती थीं।
हाल में अमरीका ऐसे ही तरीके अपनाने की कोशिश कर रहा है। उसने इराक़ में 2003 में पूर्व नियोजित तरीके से अपनी फौजें भेजीं। उसने बहाने पहले से तैयार करके रखे, यह जानते हुए कि इनका कोई आधार नहीं और ये पूरी तरह झूठ है। उसने चारो ओर यह ढिंोरा पीटा कि इराक़ बड़े पैमानें पर अत्याधुनिक न्यूक्लियर हथियार या डब्लू.एम.डी. बना रहा है जिसकी जानकारी उसे सी.आई.ए. से मिली, ऐसा बताया। वास्तव में सी.आई.ए. और अन्य को ऐसी झूठी तथा फर्जी रिपोर्टें तैयार करने को कहा गया। प्रेस और टी.वी तथा सारी दुनिया में उच्च दबाव का प्रचार चलाया गया। यू.एन. जाँच कमीशन ने बारबार कहा कि वह जाँच कर रहा है और उसे इसके कोई सबूत अभी नहीं मिले हैं, और यह कि अभी वार्ता के ज़रिए समस्या का हल निकाला जाना चाहिए, सैनिक हस्तक्षेप सही नहीं होगा।
ज्यादातर विश्व जनमत और सरकारों के मत भी इराक़ में सैनिक आक्रमण के विरोध में थे। खुद कई पिश्चमी देशों की सरकारें इस अमरीकी रुख़ के विरोध में और शांतिपूर्ण वार्तालाप तथा अधिक से अधिक आर्थिक नाकेबंदी के हक में थीं। इनमें से एक फ्रांस था जिसने अंत तक अमरीकी कार्रवाई का तीखा विरोध किया था। विकासमान देशों की सरकारें और जनता तो विरोध में थी ही। लेकिन अमरीका ने पहले ही मन बना लिया था और उसी के अनुसार सैनिक तैयारियाँ भी कर रहा था। उसे तो सिर्फ़ कोई बहाना चाहिए था और बहाना नहीं मिलने पर खुद ही कुछ बना लेता। उसे इराक़ में डाका डालने की जल्दी थी और सारे विश्व जनमत तथा स्वयं यू.एन. के नियम क़ानूनों और विश्व संबंधों को नियंत्रित करने वाले तौर तरीकों और क़ानूनों का खुलकर उल्लंघन करते हुए उसने बड़े पैमाने पर इराक़ की जनता और उसकी आज़ादी पर हमला बोल दिया। उस समय की घटनाओं को यदि हम याद करें तो स्मरण होगा कि लगभग सभी चाहते थे अमरीका की हार हो और इराक़ी जनता जीते। मीडिया भी इसी विचार का था। लेकिन कई कारणों से इराक की हार हो गई, जिसमें अमरीका के अत्याधुनिक हथियार और इराक़ के राजनैतिक ढांचे का तानाशाही चरित्र मुख्य कारणों में शामिल था।
-अनिल राजिमवाले
क्रमश:
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