विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता की सीढिया चढ़ रहे बच्चो के प्रति उनके अभिभावकों और शुभचिंतको का खुश होना एक दम स्वाभाविक है | सफलता की खुशियों में घर परिवार से लेकर मित्रो परिचितों आदि की किसी न किसी रूप में भागीदारी भी जरुर होती है | यह सब स्वाभाविक रूप से पहले भी चलता रहा है और अब भी चल रहा है | हां इन खुशियों का आज जैसा प्रचार माधय्मी प्रदर्शन पहले एक दम नही था |क्योंकि आज से 20 -- 25 साल पहले तक न ही ऐसे प्रचार माध्यम थे और न ही उन सफलताओं का श्रेय अपने कोंचिंग सेंटर या संस्थान को दिलाने लोग थे | बताने की जरूरत नही की ये लोग घर परिवार या मित्र मण्डली से अलग होते हुए भी ऐसे प्रदर्शनों में सबसे आगे रहते है ताकि प्रतिभागियों की सफलता का इस्तेमाल अपने कोचिंग विजनेस के विकास विस्तार में कर सके | इसके अलावा अब सफलता की खुशियों के आयोजनों में एक नए चलन की भी शुरुआत हो गयी है | विभिन्न जातीय संगठनों और उनके पदाधिकारियों द्वारा अपनी जाति के सफल युवको \ युवतियों को सामाजिक रूप से सम्मानित करने की नयी परम्परा चलने लग गयी है परिवारजनों के साथ कोंचिंग सेंटर के टीचर आदि का ऐसे अवसरों पर शामिल होना तो फिर भी किसी बच्चे की सफलता में उनके योगदान का एक परिलक्षण होता है | इसे सफलता प्राप्त किए बच्चे अक्सर अपने माता -- पिता व टीचरों के योगदान के रूप में कबूलते है | पर विभिन्न जातियों के जातीय संगठनों द्वारा अपनी जाति के सफल प्रतिभागियों के सम्मानित किए जाने वाले आयोजनों का कोई औचित्य नही है | अगर कोई औचित्य है तो , शुद्ध रूप से इस्तेमाली है | वह जातीय संगठनों को बढावा देने के लिए इन प्रतिभागियों और उनकी सफलताओं का इस्तेमाल मात्र है | सच्चाई यह है की किसी सफल प्रतिभागी को सफलता की उंचाइयो पर पहुचाने में केवल उसी के धर्म या जाति के लोगो का उसी जाति के टीचरों का या फिर प्रतिभागियों को विभिन्न रूप में मिले अन्य सेवाओं में उसी धर्म जाति के लोगो का हाथ नही होता है | वर्तमान दौर में तो ऐसा कदापि संभव नही है | किसी को सफलता दिलाने में बहुतेरे ज्ञात , अज्ञात लोगो का नीचे से उपर तक के लोगो का हाथ होता है | इसका सम्बन्ध उसके धर्म व जाति या आगे बढकर कहे तो उसके क्षेत्र व राष्ट्र के लोगो तक सीमित नही रहता | उदाहरण आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान का लगभग समूचा ज्ञान मुख्यत: यूरोपीय वैज्ञानिकों , विद्वानों खोजकर्ताओं की देन है | इसे हम नकार नही सकते है | इसी तरह से प्रत्यक्ष रूप में परिवार के लोगो , शुभचिंतको टीचरों के योगदान को भी नही नकार सकते लेकिन किसी धर्म जाति विशेष के धार्मिक या जातीयता संगठन के योगदान को जरुर नकारा जा सकता है क्योंकि वह कोई ऐसा योगदान है ही नही | अगर किसी जाति विशेष के साथ उदाहरण दलित जातियों के साथ किसी हद तक ऐसा कुछ रहा भी है तो अब वह उस रूप में बहुत कम है और वह लगातार घटता जा रहा है | इसके वावजूद सफल प्रतिभागियों को लेकर अपने जातीय गौरव , जातीय कल्याण उथान का प्रदर्शन करने में मंचो पर विभिन्न जातियों के अनपढ़ या कम शिक्षित लोग मौजूद रहते है | ऐसे में लोग स्वंय भी जातीय संगठनों द्वारा बन्दन, अभिनन्दन हासिल किए रहते है | यही काम अब जातीय संगठनों के मंचो से स्वतंत्रता आन्दोलन के शहीदों , क्रान्तिकारियो के साथ किया जाने लगा है | जाति के नाम पर उनकी स्मृतिया मनाने का काम किया जा रहा है | इसके जरिये उन्हें अपनी जाति के ( न की समूचे राष्ट्र व समाज के ) क्रांतिकारी नेता के रूप में परिलक्षित करने का काम किया जा रहा है | यह क्रान्तिकारियो को याद करना तथा उनका अभिनन्दन करना नही है | उनके कद को बढाना भी नही है | बल्कि उन्हें जातीयता के खांचे में डालकर उनके राष्ट्रीय कद को छोटा या संकुचित कर देना है | आखिरकार उनके त्याग , बलिदान विशिष्ट जातीय हितो के दायरे में कदापि सीमित नही होते | वे व्यापक होते है | राष्ट्र व व्यापक समाज के हित में होते है |
सफल प्रतिभागियों के बारे में भी यह बात इस रूप में कही जा सकती है की वे किसी जाति या धर्म के सदस्य के रूप में सफलताए नही अर्जित करते | बल्कि समाज की व्यापक उपलब्धियों के आधार पर तथा विभिन्न धर्म व जाति के लोगो के शाह्ता सहयोग से सफलता पाते रहते है | अत: उन्हें अपने धर्म जाति के रूप में गौरवान्वित करने की चल रही यह परम्परा कत्तई ठीक नही है | बल्कि सफल प्रतिभागियों के या किन्ही क्षेत्र में सफलता अर्जित किए व्यक्तियों के स्वस्थ व जनतांत्रिक विकास की विरोधी है और उसे ग्रसित करने वाली भी है |
-सुनील दत्ता ...........
1 टिप्पणी:
अधिक नहीं जानता सुमन जी, लेकिन जाति आज भी व्यक्ति के मुकबले अधिक पक्की पहचान मानी जाती है. काश हम इससे उबर सकें.
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