गुरुवार, 27 सितंबर 2012

समस्या देश में सूखे की ----- चर्चा उद्योग , व्यापार , बैंक , और विकास की ?

 वाह रे देश के नेता और हमारे प्रधानमन्त्री

  • कृषि 
सुखे की समस्या और उसके राहत व समाधान से ज्यादा चर्चा सूखे के पड़ने वालेदूसरे प्रभावों की हो रही है | कृषि पर सूखे के पड़ने वाले प्रभावों से कुछज्यादा ही हो रही है | इनमे एक चर्चा तो सूखे के बढने के साथ ही खाद्यान्नव्यापारियों द्वारा खाद्यान्न का मूल्य अभी से तेज किए जाने के रूप में होरही है | दूसरे इसकी चर्चा किसानो द्वारा कृषि ऋण की अदायगी के संकट तथाबैंको के पैसे के वापस न मिल पाने के के संकट के रूप में हो रही है | इसीके साथ किसान व किसान परिवारों को कर्जा दी हुई माइक्रो फाइनेंस कम्पनियोंके पैसे समय से न वसूल हो पाने के संकटों की भी चर्चा हो रही है | तीसरीचर्चा उद्योगों के उपर सूखे से पड़ रहे और पड़ने वाले प्रभावों की हो रही है | 
बैंको के संकटों का ( न की किसानो के संकटों का ) आकलन करते हुए रिजर्व बैंक नेकिसान क्रेडिट कार्ड ( के . सी. सी . ) पर उठाये गये कर्ज को 12 महीन  में लौटाने की बाध्यता खत्म कर दी है | उसने यह निर्देश दिया है की बैंककिसानो की स्थितियों का आकलन करके अल्पावधि के इस कृषि ऋण की अवधि को बढासकते है | ताकि किसानो को कर्ज चुकाने का पर्याप्त समय मिल जाए | इसी केसाथ रिजर्व बैंक ने यह भी निर्देश भी दिया है की ( के. सी . सी . ) धारककिसानो को फसल बीमा उपलब्ध कराने में भी बैंको को मदद करनी चाहिए |अगर किसान इस के लिए तैयार हो तो बीमे की किस्त का भुगतान भी किसान क्रेडिट कार्ड के खाते से किया जा सकता है |
  • उद्योगों  पर पड़ने वाले प्रभावों में बताया जा रहा है की  औद्योगिक  सुस्ती और ऊँचीव्याज दर से परेशान उद्योग जगत पर अब सूखे के संकट से भी मार पड़ने वाली है |सूखे के प्रभावों का आकलन करके टूथपेस्ट , तेल , साबुन व अन्य प्रसाधन केसामान बनाने वाली कम्पनिया ( फास्ट मूविंग कन्जूमर गुड्स की कम्पनिया ) तथाऑटो मोबाइल व इलेक्ट्रानिक उपकरण बनाने वाली कम्पनिया ख़ास तौर से परेशानहै | क्योंकि तेल साबुन आदि तथा प्रसाधन के सामानों के कुल बिक्री मेंग्रामीण क्षेत्र का हिस्सा लगभग 40% है | कृषि सूखे से उनके इस बिक्रीबाजारका भी सुखना निश्चित है | इसी तरह से ग्रामीण इलाको में फ्रीज, टीवी . वअन्य इलेक्ट्रानिक सामानों के ग्रामीण बिक्री बाजार को भी सूखे के चलतेप्रभावित होना पड रहा है | साथ ही साथ दुपहिये वाहन कम्पनियों पर भी इससूखे का गम्भीर प्रभाव जरुर पढ़ना है क्योंकि इन दुपहिया वाहनों की बिक्रीका 35% हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र से आता है |योजना आयोग भी सूखे को लेकरचिन्तित है | उसकी चिन्ता भी बैंको व औद्योगिक   कम्पनियों की तरह खेती --किसानी के सूखने की नही है , बल्कि सूखे के बढ़ते प्रभाव के कारण मालो वसामानों की बिक्री के घटने से विकास दर में कमी आने से है | इसके फलस्वरूपदेश में विदेशी निवेश के माहौल और निवेश में कमी आने की आशंका भी योजनाआयोग की चिन्ता का विषय है | इसे सुधारने के लिए योजना आयोग की सलाहकारसमिति ने आर्थिक सुधारों को आगे बढाने की चेतावनी भी दी है |इनसूचनाओं , चर्चाओं निवेशो से कोई भी आदमी दो बाते बखूबी समझ सकता है | पहलातो यह की उद्योगों , बैंको समेत योजना आयोग की तथा प्रचार माध्यमी जगत कीमुख्य चिन्ता सूखे को लेके कत्तई नही है | दुसरा की इनकी सारी या प्रमुखचिन्ता अपने बैंक उद्योग व्यापार की कमाई धमाई  में बढ़ोत्तरी की तथाआर्थिक वृद्धि दर को बढाने की ही है | बैंको एवं उद्योगों की बैंको एवउद्योगों की बात को दरकिनार कर देखे तो यह अजीब बात है की राष्ट्र का योजनाआयोग कृषि के सूखे पर चिन्तित नही है | उसके लिए किसी तात्कालिक सुधार काया दूरगामी योजना का निर्देश की सलाह भी नही दे रहा है | बल्कि उसकीसलाहकार समिति आर्थिक वृद्धिदर में गिरावट का आकलन करके उसके लिए आर्थिक सुधारों की गति बढाने की चेतावनी पूर्ण सलाह दे रहा है | जबकि आर्थिकसुधारों के अंतर्गत कृषि सुधार या सूखे से निपटने का कोई मामला ही नही है |यह तो वर्तमान समय में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की पूरी छूट के साथबीमा बैंक आदि में पूरी छूट के सुधार एजेन्डा है |  कृषि भूमि के तीव्रएवं आसान अधिग्रहण आदि का एजेन्डा है | आर्थिक सुधार के यही एजेन्डे  बने हुएहै | इसके पास सूखे की स्थितियों में तात्कालिक एवं दूरगामी सुधार का कहीकोई एजेन्डा नही है |देश का प्रचार माध्यमी तंत्र बैंको की समस्या को गम्भीरता से उठा रहा है | माइक्रोफाइनेंस कम्पनियों तक की वसूली की समस्या को उठा रहा है | उसे प्रचारित भी कर रहा है |  साथ ही सूखे के फलस्वरूप उद्योगों के संकटों को पूरे विस्तार से उठा बता रहा है | पर किसानोकी खेती के सूखे के संकट को गम्भीरता से उठाने की जगह सूखे की सूचनाये दे रहा है | किसानो की खेती के सूखने का असर किसानो ग्रामीणों पर क्या पडेगा , इस पर कही कोई गम्भीर चर्चा नही हो रही है की सूखे से प्रभावित किसानो व ग्रामीणों पर औद्योगिक कम्पनियों , व्यापारियों , बैंको व फाइनेंस कम्पनियों द्वारा की जाती रही लूट का क्या प्रभाव पडेगा ? सूखे से प्रभावित किसान किस तरह से अपनी खेतियो का और अपना बचाव कर पायेंगे  ? ये और ऐसे ही अन्य सवाल इनकी चर्चाओं से बाहर है |यह है की सूखे के प्रभावों पर प्रचार माध्यमी चर्चाये | इन चर्चाओं में किसानो व अन्य ग्रामीण हिस्सों पर इसके पड़ने वाले प्रभावों को ही उपेक्षित नही किया जा रहा है बल्कि सूखे से निपटने के लिए आवश्यक तात्कालिक राहत कार्यो तक की उपेक्षा की जा रही है | जबकि 2009 में पड़े सूखे के दौरान विभिन्न प्रान्तों की सरकारों और प्रचारों के माध्यमो से पुराने सरकारी नलकूपों को ठीक करने , नहरों में भरपूर पानी सप्लाई का प्रबंध करने तथा स्थानीय स्तर पर सिंचाई व्यवस्था के इंतजाम करने आदि की घोषणाये व प्रचार चर्चा में आते रहे थे | इस बार के सूखे में ऐसे राहत कार्यक्रमों की घोषनाये व चर्चाये बहुत कम हो रही है अगर कहे तो एक दम नही हो रही है प्रदेश व केंद्र सरकारे कुम्भकर्णी नीद सो रही है |
ऐसे में मुझे धूमिल की कविता याद आरही है 
अकाल-दर्शन
-धूमिल



भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?

उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
'बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।

लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
'जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।

मैंने खुद को समझाया – यार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।

और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।

मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
'भारतवर्ष नदियों का देश है।'

बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।

मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी 'गाय' से
कभी 'हाथ' से

'यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ –
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।

ले चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :

कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति –
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी है।
-सुनील दत्ता  
09415370672

1 टिप्पणी:

रविकर ने कहा…

उद्योगों के दर्द की, जायज चिंता मित्र |
नहीं किन्तु हमदर्द ये, इनकी सोच विचित्र |
इनकी सोच विचित्र, मार सूखे की पड़ती |
है किसान हलकान, पड़ी पड़ती भू गड़ती |
सूखे में भी चाह, चलो टी वी फ्रिज भोगो |
सत्ता इनके संग, कमीशन दो उद्योगों ||

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