‘‘हमने ‘गार’ के भूत का दफना दिया है। अब पूंजी निवेशकों को डरने की जरुरत नहीं है। हमने खुदरा व्यापार मंे विदेशी पूंजी को इजाजत देने और ईंधन कीमतों मंे बढ़ोत्तरी के फैसले लिए हैं, जिनसे हमारी रेटिंग घटने का खतरा नहीं रहा। इन कदमों से अब निवेशक भारत में फिर से दिलचस्पी ले रहे हैं।’’
- वित्तमंत्री पी. चिदंबरम, 22 जनवरी 2013, हांगकांग
भारत के वित्तमंत्री का यह बयान कई मायनों मंे महत्वपूर्ण है और बहुत कुछ कहता है। हांगकांग में सिटी बैंक और बीएनपी नामक दो बहुराष्ट्रीय बैंकों द्वारा ‘निवेश के लिए भारत सम्मेलन’ का आयोजन किया गया था जिसमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों के 200 प्रतिनिधि शामिल हुए। इस मौके पर चिदंबरम के मुंह से यह उद्गार निकले। अगले दिन वे सिंगापुर मे इसी मिशन पर गए। उसके बाद यूरोप में इसी तरह अंतरराष्ट्रीय पूंजीपतियों की चिरौरी करने गए। इसी समय 23 से 27 जनवरी तक स्विट्जरलैण्ड के दावोस नगर मंे विश्व आर्थिक मंच की सालाना बैठक मे भारत के वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा और शहरी विकास मंत्री कमलनाथ निवेशकों को लुभाने गए। उसके बाद विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने यूरोप के दो देशों की यात्रा की तो उनके एजेण्डे मे भी भारत-यूरोप आर्थिक सहयोग प्रमुख रुप से शामिल था।
यह साफ है कि इसके पहले भारत सरकार ने जो कई बड़े-बड़े फैसले लिए, उनका मकसद विदेशी निवेशकों को खुश करना था। ये अंतरराष्ट्रीय पूंजीपति निवेश का फैसला करने के लिए अंतरराष्ट्रीय साख निर्धारण (रेटिंग) एजेंसियों की तरफ देखते हैं। स्टेण्डर्ड एण्ड पुअर, मूडीज, फिच जैसी ये एजेंसियां पूरी तरह नवउदारवादी-पूंजीवादी सोच पर चलती है और उनका एकमात्र मकसद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को बढ़ावा देना है। जिस फार्मूले से वे रेटिंग तय करती हैं, वह ब्याज दरों, शेयर बाजार, भुगतान संतुलन के ंचालू खाते के घाटे, सरकारी खर्च, विदेशी निवेशकों को रियायतों आदि पर आधारित होता है। अर्थव्यवस्थाओं के बारे मंे इनके अनुमान कई बार गलत निकले हैं। लेकिन भारत सरकार के लिए वही रेटिंग, शेयर सूचकांक, राष्ट्रीय आय वृद्धि दर जैसे ही मानक सर्वोपरि हो गए हैं।
यह ‘गार’ का भूत क्या है ? भारत सरकार की आमदनी और घाटे से चिंतित पिछले वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने पिछले साल के बजट मंे ‘गार’ का प्रावधान किया था। यह अंगरेजी के ‘जनरल एन्टी अवायडेन्स रुल्स’ का संक्षेप है जिसका मतलब है कर-वंचन रोकने के सामान्य नियम। आय कर कानून के तहत बनाए जा रहे इन नियमों का मकसद देशी-विदेशी कंपनियों द्वारा करों की चोरी या कर से बचने की कोशिशों पर लगाम लगाना था। यह भी प्रावधान किया जा रहा था कि यदि कोई कंपनी कोई भी कर नहीं दे रही है तो उस पर एक न्यूनतम कर लगेगा। इसी बीच नीदरलैण्ड की वोडाफोन कंपनी ने भारत में टेलीफोन व्यवसाय के अधिग्रहण का देश के बाहर सौदा करके टैक्स से बचने की कोशिश की थी। उसको रोकने के लिए प्रणव मुखर्जी ने ऐसे सौदों को भी कर-जाल के दायरे मे लाने और उसे पिछली अवधि से लागू करने की घोषण की थी। वोडाफोन कंपनी पर करीब 11,218 करोड़ रु. के टैक्स का दावा बनता था।
लेकिन प्रणव मुखर्जी का इन मंशाओं के जाहिर होते ही विदेशी कंपनियों मे खलबली मच गई। उन्होंने हल्ला मचाना शुरु कर दिया और भारत से अपनी पूंजी वापस ले जाने की धमकियां देनी शुरु कर दी। मनमोहन सिंह दुविधा मे फंस गए। इस बीच भारत के राष्ट्रपति के चुनाव का एक अच्छा मौका मनमोहन सिंह के हाथ मे आया। प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाकर राह का रोड़ा हटाया गया। वित्तमंत्री का प्रभार लेते ही मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि ‘गार’ की समीक्षा की जाएगी। फिर मंत्रालय में चिदंबरम को लाया गया जिसकी कंपनी-भक्ति में कोई संदेह नहीं था। रंगराजन, कौशिक बसु, रघुराम राजन जैसे आर्थिक सलाहकार भी एक स्वर में अनुदानों को कम करने के साथ-साथ निवेशकों की आशंकाएं दूर करने का राग अलापने लगे। ऐसे ही एक अर्थशास्त्री पार्थसारथी शोम की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। उसने फटाफट अपनी रपट पेश कर दी। 14 जनवरी को सरकार ने घोषणा कर दी कि गार नियमों को तीन साल के लिए स्थगित किया जाता है और 1 अप्रैल 2016 से उन्हें लागू किया जाएगा। इस बीच वित्तमंत्री यह भी घोषणा कर चुके थे कि किसी भी कंपनी को पिछली तारीख से कर के दायरे मंे नहीं लाया जाएगा। इससे वोडाफोन कंपनी को एक खरब रुपए से ज्यादा का फायदा हो गया।
गार स्थगन की घोषणा के साथ ही विदेशी पूंजीपतियों मे खुशी की लहर दौड़ गई और दो दिन मे ही सेन्सेक्स 20,000 के ऊपर पहुंच गया, जो कि दो साल का सबसे ऊंचा स्तर था। इसी समय भारत सरकार ने डीजल की कीमतें क्रमिक रुप से बढ़ाने, बड़े उपभोक्ताओं को बाजार दर पर डीजल देने, धीरे-धीरे डीजल कीमतों को पूरी तरह नियंत्रणमुक्त करने और डीजल पर अनुदान समाप्त करने का फैसला कर दिया। इससे भारतीय जनता पर चाहे बोझ पड़ा हो और महंगाई का नया दौर शुरु होने की संभावना बनी हो, लेकिन रिलायन्स तथा एस्सार कंपनियों को काफी फायदा पहुंचने वाला है। इन कंपनियों के पास तेलशोधन की क्षमता है, लेकिन डीजल-पेट्रोल सस्ता होने के कारण वे अपने पेट्रोल पम्प नहीं चला पा रही थी। अब बाजार दरें लागू होने पर उनका धंधा चल निकलेगा। इसी तरह दुनिया की सबसे बड़ी और बदनाम तेल कंपनी शेल ने भी भारत पेट्रोल पम्पों के लाइसेन्स ले रखे हैं। उसकी भी कमाई के दरवाजे खुल जाएंगे। खुदरा व्यापार के दरवाजे भी प्रबल विरोध के बावजूद वालमार्ट जैसी विशाल कंपनियों के लिए खोले गए हैं। पिछले कुछ सालों मे दरअसल सरकार के ज्यादातर फैसले कंपनियों को खुश करने और फायदा पहुंचाने के लिए ही किए गए हैं।
यह एक विचित्र बात है कि जो सरकार बजट घाटे का रोना रोती रहती है और खर्च कम करने के लिए आम जनता को मिलने वाले अनुदानों व मदद को कम करने पर तुली हुई है, वही सरकार दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों से करों को वसूलने और कर-चोरी रोकने के उपायों को आसानी से छोड़ देती है। मारीशस मार्ग जैसी कर-चोरी को उसने पूरी तरह इजाजत दे रखी है। कंपनियों को दी जाने वाली कर-रियायतें तथा उनको अनुदान हर बजट मे विशाल मात्रा में बढ़ते जा रहे हैं। कारण यही है कि सरकार मे बैठे लोग किसी भी किसी भी कीमत पर विदेशी पूंजी को रिझाने, लुभाने, खुश करने और बुलाने के लिए बैचेन है। इसके लिए वे देशहित, जनहित, सरकारहित, नैतिकता, संप्रभुता सबको तिलांजलि देने के लिए तैयार है। विदेशी पूंजी की यह गुलामी अभूतपूर्व है। आधुनिक भारत के इतिहास का यह एक शर्मनाक अध्याय है।
दरअसल भूत ‘गार’ का नहीं है, विदेशी पूंजी का महाभूत है जो भारत सरकार पर पूरी तरह सवार हो गया है। सरकार होश खो बैठी है और यह भूत उसको चाहे जैसा नचा रहा है। लातों के भूत बातों से नहीं मानते। इस भूत को उतारने के लिए एक बड़ा जन-विद्रोह करने करने का वक्त आ गया है।
- सुनील
2 टिप्पणियां:
हमारे नेता मंत्री चाहे वह किसी भी दल के क्यों न हों
भूतों के नाथ प्रतीत होते हैं इनकी नीति, नीति न
होकर 'भूतों का पकवान' सिद्ध हो रही हैं यदि इन्हें
यूँहीं 'मत' मिलते रहे तो एक दिन ये देश को 'भूतखाना'
बना देंगे.....
भूतों के नाथ माने की भूतन के भी भूत.....
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