संविधान बनाने वाले हमारे बुजुर्गों ने लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए संविधान में तीन स्तम्भ कायम किये जिसमें एक महत्वपूर्ण स्तम्भ ‘न्यायपालिका’ है। न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र का एक ऐसा स्तम्भ है, जिसकी ओर कहीं और से न्याय न मिलने पर जनता ताकती है। पुरानी कहावत है कि समय से न्याय न मिलने का मतलब न्याय देने से मुकरना है और आज देश की पूरी न्यायपालिका नीचे से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक देश की जनता को न्याय देने से मुकर रही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के दौर में शासक वर्गों को न्याय प्रणाली पर खर्च करना फिजूलखर्ची लग सकती है और अहलूवालिया एवं थरूर जैसे बददिमाग राजनीतिज्ञ न्यायपालिका को गैरजरूरी भी करार दे सकते हैं। ऐसे दौर में भारतीय न्यायपालिका की जिम्मेदारियां और बढ़ जाती हैं और उसे प्रोएक्टिव तरीके से न्याय मुहैया कराने की ओर बढ़ना चाहिए।
उत्तर प्रदेश में आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुसलमान युवकों को बिना मुकदमा चलाये जेल में रखने का जिक्र गाहे-बेगाहे हुआ करता है और इस मामले में गठित निमेष आयोग की रिपोर्ट में वर्णित कतिपय अन्य बातों का भी जिक्र होता है। ऐसे वाकये भी हैं जिसमें एक व्यक्ति को पिछले 10 सालों से विभिन्न जिलों में एक के बाद एक मुकदमें ठोके जा रहे हैं और वे लम्बे समय से जेलों में हैं। जिन मुकदमों में फैसला हो चुका है, उसमें वे बरी कर दिये गये हैं। चूंकि प्रदेश सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है, इसलिए उसके निष्कर्षों की अधिकारिक जानकारी नहीं हो सकती परन्तु बार-बार ऐसे नौजवानों की रिहाई की मांग उठती है और सत्तासीन सपा के नेतागण उस पर वायदे करते भी दिखाई देते हैं। अगर न्यायपालिका अपने कर्तव्यों को निभा रही होती तो क्या ऐसी नौबत नहीं आती?
दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्राविधानों के अनुसार किसी भी नागरिक को गिरफ्तार करने के 24 घंटों के अन्दर पुलिस को उसे न्यायालय के सामने पेश करना होता है। न्यायिक अभिरक्षा में किसी को जेल भेजने के 90 दिनों के अन्दर अदालत में आरोप पत्र न दाखिल होने पर उस व्यक्ति को जेल में नहीं रखा जा सकता। जिला न्यायाधीश, मुख्य न्यायिक/मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट जेलों का मुआईना करने के लिए अधिकृत होते हैं। जेलों के मुआइनों का मतलब जेल अधीक्षक के सामने बैठ कर चाय-नाश्ता करना नहीं होता। यह देखना होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोई व्यक्ति बिना आरोपपत्र के 90 दिनों से ज्यादा जेल में है अथवा कोई कैदी अपने अपराध के लिए नियत सजा से अधिक समय से बिना सजा पाये ही जेल में है। यह निरीक्षण अमूमन वार्षिक और मासिक आधार पर किये जाते हैं। इस व्यवस्था के विपरीत जब देश की विभिन्न जेलों में तमाम कैदी अनाधिकृत रूप से बन्द हों, तो इसे किसकी लापरवाही कहा जायेगा?
दिल्ली में एक बालक के साथ एक पुलिस कांस्टेबल द्वारा किये यौन अनाचार को पांच साल से अधिक हो चुके हैं। मामला अभी लम्बित है। उस बेचारे को गाहे-बगाहे बिहार से दिल्ली गवाही देने के लिए आना पड़ता है और बिना किसी कार्यवाही के वह वापस लौट जाता है। उस बालक की पीड़ा को समझने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है और कौन उसे इस पीड़ा से निजात दिला सकता है।
दिल्ली में ही एक 12 वर्ष की बालिका का पहले अपहरण और फिर उसके साथ बलात्कार होता है। उसे बेहद दर्दनाक स्थिति में पाया गया था। इस मामले को भी पांच साल हो रहे होंगे। मामला अदालत में अभी भी लम्बित है।
दिल्ली कोई अपवाद नहीं है। देश के हर कोने में इस तरह के मामले मिल जायेंगे। सत्र न्यायालयों में गवाही का काम शुरू होने पर लगातार चलता था। अब ऐसा देखा जा रहा है कि एक-एक या दो गवाहियां ही एक बार में होती हैं और फिर उसके बाद लम्बी तारीख लगा दी जाती है।
आज कल एक चुटकुला बहुत प्रचलित है। कहा जाता है कि अगर आप 40-45 साल की उम्र पार कर चुके हैं, कोई भी अपराध कीजिए, आपको इस जिन्दगी में सजा भुगतनी नहीं पड़ेगी। दस-बारह साल मुकदमा निचली अदालत में चलेगा, फिर 20 साल उच्च न्यायालय में और उसके बाद जब तक अपील की सुनवाई का वक्त सर्वोच्च न्यायालय में मुकर्रर होगा, आप गत हो चुके होंगे।
दीवानी मामलों में और श्रम मामलों में तो स्थिति और भी खराब है। अमूमन देखा जाता है कि गांवों में दबंग लोग गरीबों की परिसम्पत्तियों पर लाठी-गोली के बल पर कब्जा कर लेते हैं। पहली बात, अगर आप गरीब हैं तो मुकदमा का खर्च बर्दाश्त कर मुकदमा लड़ नहीं सकते और किसी तरह आपने अगर ऐसी जहमत उठा भी ली तो कई पीढ़ियां पार हो चुकी होंगी। श्रम कानूनों का उल्लंघन आम हो चुका है और न्यायालयों में बढ़ते मामलों की सुनवाई नहीं हो रही है। सरकार को तो निवेशकों की चिन्ता है, वह कोई कार्यवाही क्यों करेगी?
न्यायपालिका के लोग दलील दे सकते हैं कि मुकदमें बढ़ते जा रहे हैं, न्यायधीशों की संख्या बहुत कम है। संसाधन नहीं हैं। सरकार न्यायिक सुधार करना नहीं चाहती। आदि-आदि। यह बात भी ठीक है, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सरकार का यह रवैया हो सकता है लेकिन भारतीय संविधान न्यायपालिका को ऐसी मुरव्वत नहीं देता। याद आता है न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर, चंद्राचूड और पी.एन. भगवती का कार्यकाल जब सर्वोच्च न्यायालय में वकीलों को मोटी फीस न दे सकने वाले भी एक पोस्ट कार्ड लिख कर न्याय पा जाते थे। मिनटों में बड़े से बड़े मुद्दों पर खुली अदालत में निर्णय हो जाता था।
उदाहरण के तौर पर गाजीपुर जिला सहकारी बैंक ने सन 1957 में एक ड्राईवर रामेश्वर राय को बर्खास्त कर दिया था, वह श्रम न्यायालय से जीत गया तो बैंक ने उच्च न्यायालय में और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में अपीलें कीं। बैंक की आखिरी अपील 1962 में सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दी थी। 1962 से 1984 तक रामेश्वर राय बहाली और तनख्वाह के लिए दर-दर की ठोकरें खाता रहा। फिर आया वह वक्त जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव, श्रम सचिव, श्रमायुक्त तथा वाराणसी के सहायक श्रमायुक्त तथा गाजीपुर के जिलाधिकारी को सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे निर्देश जारी किये थे कि आदेश के 30 दिनों के अन्दर रामेश्वर राय न केवल बहाल हो गया था बल्कि उसे अपने पूरी पिछली मजदूरी का भी भुगतान मिल गया था।
यह उल्लेख जरूरी होगा कि अगर रामेश्वर राय सर्वोच्च न्यायालय में उस वक्त एक याचिका दाखिल भी करना चाहता तो उसे मिलने वाला पूरा एरियर पहले कहीं से कर्ज लेकर एडवोकेट को देना होता। फैसला जब आता तो मय ब्याज के इस पैसे को वह साहूकार को अदा नहीं कर सकता था। 27 साल की बेरोजगारी का दंश बहुत कष्टकर होता है। वह अपने परिवार के साथ दाने-दाने को मोहताज़ था। जब वह बहाल हुआ था, उसे सेवानिवृत्त होने में कुछ ही समय बचा था। आज का जमाना होता तो वह बिना न्याय पाये मर ही जाता।
विशेष परिस्थितियों में न्यायपालिका को कानून बनाने का भी अधिकार प्राप्त है और इस अधिकार का प्रयोग भारतीय न्यायपालिका ने किया भी है।
मी लार्ड! आप समर्थ हैं, लेकिन करेंगे तो तब जब करना चाहेंगे और आपके चाहने की प्रतीक्षा हिन्दुस्तान के तमाम दबे-कुचले पीड़ित नागरिक कर रहे हैं। उन्हें त्वरित न्याय चाहिए, जिसे आप उपलब्ध करा सकते हैं। कह नहीं सकते कि यह प्रतीक्षा कितनी लम्बी होगी.......
- प्रदीप तिवारी
1 टिप्पणी:
बहुत उम्दा .अर्थपूर्ण,सार्थक अभिव्यक्ति.
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