मंगलवार, 21 मई 2013

डा. असगर अली इंजीनियर की विरासत



मेरे जीवन में मानो एक तूफान आया और सब कुछ खत्म हो गया। मुझे जो क्षति हुई हैए उससे मैं अब तक समझौता नहीं कर सका हूँ। तूफान की तरह, मौत भी ईश्वर के हाथों में होती है और तूफान की तरह, आप मौत के सामने भी असहाय होते हैं। मुझे जरा भी इल्म ना था कि मेरे अजीज पिता डाक्टर असगर अली इंजीनियर को मौत हमसे इतनी जल्दी छीन लेगी। मैं इतने बड़े धक्के के लिए कतई तैयार नहीं था। परंतु अब मुझे यह सोचना है कि मेरे पिता ने मुझे विरासत में क्या दिया। मेरी बहन सीमा ने एक संवाददाता से बिलकुल ठीक कहा कि मेरे पिता चाहते थे कि उनकी विरासत हम दोनों में बराबर.बराबर बांट दी जाये . उनकी शिक्षाओं की विरासत। मन कुछ शांत होने के बाद मैं यह सोचने की कोशिश कर रहा हूँ कि मेरे पिता ने मुझे विरासत में क्या दिया है।
मेरे पिता से मुझे विरासत में क्या मिला है?
 उनका अनुशासन और कठिन दिनचर्या।
वे अपनी निर्धारित दिनचर्या से कभी भी डिगते नहीं थे। इस दिनचर्या में शामिल थी सुबह की सैर, जिससे उनकी सेहत ठीक रह सके। वे सुबह आठ बजे से लेकर रात दस बजे तक काम करते थे। दोपहर में एक छोटी सी झपकी उनकी दिनचर्या का हिस्सा थी। गत 13 फरवरी को अस्पताल में दाखिल होने तक वे अपने दिनभर के काम को चार हिस्सों में बांटते थे.प्रशासनिक काम, पत्रों और ई.मेलों का उत्तर देनाए पढ़ना और लिखना। इस मामले में वे काफी सख्त थे और कार्यालय के कर्मचारियों को उनके इस कार्यक्रम में फेरबदल करने की इजाजत नहीं थी। शहर के बाहर के आगन्तुकों से वे इस निर्धारित दिनचर्या को तोड़कर भी मिल लेते थे परन्तु उनसे मिलने के इच्छुक मुंबईवासियों से यह अनुरोध किया जाता था कि वे समय लेकर आयें। फिर भी, अगर कोई दूर से आता था तो उसके मामले में वे कब.जब अपने कार्य विभाजन से समझौता भी कर लेते थे। रविवार और छुट्टी के दिनों में भी वे इस दिनचर्या का पालन करते थे, चाहे फिर उन्हें कार्यालय में अकेले ही क्यों ना बैठना पड़े। रविवार की शाम को कभी.कभी वे टहलने या कार से कुछ दूर घूमने चले जाया करते थे। वे अक्सर प्रवास पर रहते थे और इस कारण हम लोग . यानी उनके परिवारजन . उनके साथ से वंचित रहते थे। जो संगठनए समूह या व्यक्ति उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों के लिए आमंत्रित करते थे, उनके बीच वे कोई भेदभाव नहीं करते थे। एक बार वे किसी कार्यक्रम में पहुंचने की सहमति दे देते थे, उसके बाद वे अपने वायदे को निभाते थे, चाहे उसी तारीख में उन्हें कितनी ही महत्वपूर्ण संस्था से दूसरा निमंत्रण क्यों न प्राप्त हो जाये।  तबियत खराब होने पर भी वे अपनी यात्राएं स्थगित नहीं करते थे। उन्होंने शांति और विवादों के निपटारे पर कई कार्यशालाओं का संचालन उस स्थिति में भी किया जब वे बीमार थे। इस अनुशासन और कड़ी मेहनत के कारण ही वे दुनिया को इतना कुछ दे सके। परन्तु इस कारण ही उनका जीवन छोटा हो गया। हम अपने जीवन में कितना अनुशासन रख सकते हैं और कितने सुनियोजित ढंग से काम कर सकते हैं?
;2द्ध उनके लिए न्यायए समानताए प्रेमए गरिमा और विविधता के मूल्यों के अतिरिक्त और कुछ भी पवित्र नहीं था . कोई कर्मकाण्ड नहींए कोई परंपरा नहीं और कोई संस्कृति नहीं। उनके लिए संस्कृति केवल वह माध्यम थी जिसके जरिये मनुष्य अपने आसपास की दुनिया को समझता है। और इसलिए उनका मत था कि सभी संस्कृतियां और सभी धर्म सम्मान के पात्र हैं। इन मूल्यों के अतिरिक्त, बाकी हर चीज में सुधार हो सकता था, उनकी पुनर्व्याख्या की जा सकती थी, उन्हें एक नये दृष्टिकोण से समझा जा सकता था, तार्किकता की कसौटी पर कसा जा सकता था और उनमें ऐसे बदलाव लाये जा सकते थेए जिससे वे इन पवित्र मूल्यों को बढ़ावा देने में मदद कर सके। सत्य की उनकी जीवनपर्यन्त खोज में कोई सीमायें नहीं थीं और वे किसी भी पवित्र प्रतीक, कर्मकाण्ड, परंपरा, भाषा या संस्कृति से बंधे हुये नहीं थे। सत्य को तभी हासिल किया जा सकता है जब कोई व्यक्ति इस दिशा में अनवरत और निर्भीक प्रयास करे। उनके लिए सत्य तक पहुंचने के लिए कोई भी कीमत अधिक नहीं थी। इसके लिए जरूरी था अपने अन्तःकरण को ईमानदारी से खंगालना और अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुरूप काम करना। सत्य की अपनी इस खोज की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। जब वे बंबई महानगर पालिका में सिविल इंजीनियर बतौर काम कर रहे थे तब उनकी ईमानदारी और इंजीनियरों के संघ का नेतृत्व करने के कारण उन्हें बार.बार यहां से वहां और वहां से यहां स्थानांतरित किया जाता रहा। उन्हें पदोन्नतियां भी नहीं मिलीं। अन्ततः उन्होंने यह तय किया कि वे अपना पूरा समय अपने सिद्धांतों और मूल्यों को बढ़ावा देने के काम में लगायेंगे।  आमदनी में भारी कमी होने के बावजूद उन्होंने महानगर पालिका से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। सैयदाना और उनके तंत्र ने डाक्टर इंजीनियर को बोहरा समाज से बहिष्कृत कर दिया। नतीजे में उनके अपनी मांए भाईए बहन और अन्य नातेदारों से रिश्ते खत्म हो गये। सन् 2000 के फरवरी माह में सैयदाना के जुनूनी अनुयायियों ने उनके कार्यालय और घर पर हमला किया और जमकर तोड़.फोड़ मचाई। उन पर सैयदाना के इशारे पर छः बार कातिलाना हमले हुये। उन्हें अक्सर धमकियों और बदसलूकी का शिकार बनना पड़ता था। परन्तु उन्होंने सत्य की खोज का अपना अभियान जारी रखा। कोई भी बलिदान इतना बड़ा नहीं था जो कि वे अपने सिद्धांतों के खातिर नहीं दे सकते थे। हम सत्य की खोज कितनी ईमानदारी से कर सकते हैं और क्या हम इस काम में अनवरत जुटे रह सकते हैं?
 अगर कोई व्यक्ति सत्य के किसी आयाम तक पहुँचता है तो उसे अपनी इस खोज को सभी के साथ बांटना चाहिएए बिना इस बात की परवाह किये कि उसके क्या नतीजे होंगे। और इसके लिए ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए जिसे सभी लोग आसानी से समझ सकें। वे अक्सर मुझसे कहा करते थे कि एक पैगम्बर और दार्शनिक के बीच यही अंतर होता है कि पैगम्बर अपनी बात ऐसी भाषा में कहता है जिसे लोग आसानी से समझ सकते हैं जबकि दार्शनिक की भाषा ऐसी होती है जिसे समझना केवल चन्द लोगों के बूते की बात होती है। दार्शनिक प्रसिद्धी हासिल करते हैंए पैगम्बर समाज को बदलते हैं और अपनी विरासत की गहरी छाप छोड़ जाते हैं। एक सामाजिक कार्यकर्ता व बुद्धिजीवी के तौर पर डाक्टर इंजीनियर लिखने और बोलने . दोनों में आसानी से समझ आने वाली भाषा का इस्तेमाल करते थे। शुरू में उनकी भाषा बहुत अकादमिक हुआ करती थी परन्तु शनैः शनैः उन्हें यह अहसास हुआ कि अगर सामाजिक परिवर्तन के अपने लक्ष्य को हासिल करना है तो उन्हें साधारण शब्दों और भाषा का इस्तेमाल करना होगा। क्या हम निष्ठापूर्वक सामाजिक परिवर्तन लाने के अपने लक्ष्य के लिए काम करने को तैयार हैं?
 डाक्टर इंजीनियर अक्सर कहा करते थे कि सच्ची स्वतंत्रता के लिए उपयुक्त वातावरण आवश्यक है। इसके लिए जरूरी है प्रजातंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी। वे प्रजातंत्र, संवाद और विविधता पर बहुत जोर देते थे। उनका कहना था कि इन तीनों के बगैर हम न तो एक दूसरे को समझ सकेंगे और ना ही उसकी सारी जटिलताओं के साथए सत्य के विभिन्न पहलुओं को। अगर हम सत्य को पाना चाहते हैं तो यह जरूरी है कि हम अपना दिमाग खुला रखें और दूसरों की बातों को धैर्यपूर्वक सुनें। दो व्यक्तियों या समूहों के बीच मतविभिन्नता को आपसी संवाद के जरिएए एक ऐसे सेतु में बदला जा सकता है जिस पर चलकर दोनों के ज्ञान में वृद्धि होगी और दोनों एक दूसरे को समझ सकेंगे। वे इस बात पर बहुत जोर देते थे कि जिनसे हमारी मतभिन्नता है, उनसे संवाद करने में हमें कभी संकोच नहीं करना चाहिए।
विविधता भी उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण थी क्योंकि विभिन्न संस्कृतियां, जीवन के बारे में अलग.अलग सोच को प्रतिबिम्बित करती हैं। चूंकि हर संस्कृति मानवीय क्षमताओं और भावनाओं के केवल एक हिस्से को उद्घाटित कर पाती है इसलिये मानव को पूरी तरह से समझने के लिए हर संस्कृति को दूसरी संस्कृतियों की मदद की आवष्यकता होती है। दूसरी संस्कृतियों को समझने से हमारे बौद्धिक और नैतिक क्षितिज का विस्तार होता है और हम आत्ममुग्ध होने से बचे रहते हैं। हम इस मिथ्या अभिमान से ग्रस्त नहीं हो पाते कि हमारी संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है। इसका यह अर्थ नहीं है कि हम हमारी संस्कृति के अंदर एक अच्छा जीवन नहीं बिता सकते। परन्तु इसका अर्थ केवल यह है कि अन्य चीजों के समान रहने परए जीवन जीने का हमारा तरीका अधिक समृद्ध होगा यदि हमें जीवन जीने के दूसरे तरीकों की भी समझ और जानकारी होगी। वैसे भी, आज की आधुनिक और आपसी निर्भरता वाली दुनिया में किसी भी व्यक्ति के लिए शायद ही यह संभव हो कि वह केवल अपनी संस्कृति की चहारदीवारी में बंद रह सके। कोई भी संस्कृति बिल्कुल बेकार नहीं होती। हर संस्कृति हमारे सम्मान की हकदार सिर्फ इसलिये बन जाती है क्योंकि वह उसके मानने वालों के लिए महत्वपूर्ण है और उसमें रचनात्मक ऊर्जा है। वे यह भी मानते थे कि कोई संस्कृति अपने आप में सम्पूर्ण नहीं होती और ना ही किसी एक संस्कृति को दूसरी संस्कृतियों पर लादा जाना चाहिये। संस्कृतियों में परिवर्तन उनके अंदर से आना चाहिये।
 जिस व्यक्ति ने सत्य को पा लिया है उसके लिये अतिआवश्यक है कि वह विनम्र हो। डाक्टर इंजीनियर अत्यंत विनम्र व्यक्ति थे। जिन दिनों वे कार्यालय से घर तक पैदल आया करते थेए अक्सर उन्हें सड़क पर कोई भी अजनबी रोक लेता था। वह कोई साधारण व्यक्ति ही होता था। वह डाक्टर इंजीनियर से किसी भी विषय पर चर्चा शुरू कर देता या अपने संदेहों का निवारण करता या कभी कभी उनसे बहस भी करता। वे उस अजनबी से घंटों तर्क.वितर्क करते रहते थे। मेरे पैर दुखने लगते थे परन्तु डाक्टर इंजीनियर तब तक चर्चा जारी रखते थे जब तक या तो वह व्यक्ति पूरी तरह संतुष्ट ना हो जाये या मैदान छोड़ने का निर्णय ना कर ले। जब मैं बाद में उनसे पूछता था कि उन्होंने अपना समय एक अजनबी पर क्यों बर्बाद किया तब उनका उत्तर रहता था कि दुनिया में हर व्यक्ति महत्वपूर्ण होता है। डाक्टर इंजीनियर अत्यंत सुलभ थे और कोई भी व्यक्तिए दिन हो या रातए अपने प्रश्नों या संदेहों के निवारण के लिए उनसे संपर्क कर सकता था। वे ऐसे ई.मेल संदेशों का भी जवाब देते थे जिनमें उन्हें गालियां दी जाती थीं। वे अपने हर विरोधी से अत्यंत धैर्यपूर्वक तर्क करने में सक्षम थे। उनकी विनम्रता के कारण कई कट्टर व्यक्ति भी उनसे बहुत प्रभावित थे। कट्टर विचारों वाले व्यक्तियों से तर्क करने और उन्हें समझाने की उनमें अद्भुत क्षमता और असीम धैर्य था। उनकी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसके विचारों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता हो। वे यह मानते थे कि हर व्यक्ति को सत्य से परिचित करवाकर उसे न्याय और शांति के लिए काम करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। विनम्रता उनका नैसर्गिक गुण था और वह सत्य के सिक्के का दूसरा पहलू भी था। परन्तु इसके साथ साथए वह उनके कट्टर विरोधियों का दिल जीतने का हथियार भी थी। उन्होंने कई मौकों पर अत्यंत चुनौतिपूर्ण परिस्थितियों में अपनी शांति कार्यशालाओं का संचालन किया था। कब.जब तो हालात इतने खराब होते थे और सुविधाएं इतनी कम कि कोई सभ्य व्यक्ति शायद ही वहां ठहरता। परन्तु वे ना केवल वहां रहते थे वरन् उत्साहपूर्वक काम भी करते थे। उनके लिए व्यक्ति महत्वपूर्ण थे ना कि सुख.सुविधाएं और आराम। वे आसानी से लोगों पर विश्वास कर लेते थेए विशेषकर जरूरतमंदों पर। उनके मन में जरूरतमंदों, अन्याय के शिकार व्यक्तियों और कष्ट भोग रहे लोगों के प्रति सहानुभूति और करूणा का गहरा भाव रहता था।
;6द्ध न्याय के साथ शांतिए एक अन्य मूल्य थाए जिसके प्रति डाक्टर इंजीनियर की पूर्ण प्रतिबद्धता थी। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि न्याय के बिना शांति की स्थापना नहीं हो सकती। और न्याय से उनका अर्थ मात्र यह नहीं था कि किसी व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले को सजा मिले और पीड़ित व्यक्ति को हुए नुकसान की प्रतिपूर्ति की जाये। उनके लिए न्याय का अर्थ यह भी था कि समाज में उपलब्ध संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण हो और वर्गीय असमानतायें ना रहें। शांति स्थापना के लिए अपने काम के दौरान उन्होंने साम्प्रदायिक विवादों और हिंसा का गहराई से अध्ययन किया और वे इस नतीजे पर पहुंचे कि साम्प्रदायिक हिंसा की जड़ में सामाजिकए आर्थिक व राजनैतिक असमानताएं हैं। उन्होंने साम्प्रदायिक हिंसा और विवादों पर बहुत कुछ लिखा। उनका हमेशा यह कहना रहता था कि यद्यपि साम्प्रदायिक हिंसा को भड़काने के लिए धर्म का इस्तेमाल एक हथियार बतौर किया जाता है परन्तु धर्मए साम्प्रदायिक हिंसा का मूल कारण नहीं है। साम्प्रदायिक संघर्ष का असली कारण है दोनों समुदायों के श्रेष्ठी वर्ग का राज्य सहित,  सामाजिक.आर्थिक संस्थाओं पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास। धर्म का इस्तेमाल तो केवल भोलेभाले लोगों को भड़काने के लिए किया जाता है। उनकी यह मान्यता थी कि अल्पसंख्यकों के विरूद्ध फैलाये गये पूर्वाग्रहों के बगैर साम्प्रदायिक हिंसा नहीं हो सकती। अल्पसंख्यकों के खिलाफ पूर्वाग्रह वह नींव है जिस पर साम्प्रदायिक दंगों की इमारत खड़ी की जाती है। डाक्टर इंजीनियर ने अत्यंत परिश्रम से ऐसी तथ्य व आंकड़े इकट्ठे किये जिनकी सहायता से अल्पसंख्यकों के संबंध में फैले या फैलाये गये पूर्वाग्रहों को दूर किया जा सके। कई लोगों ने मुझसे मिलकर या पत्राचार के जरिये मुझे यह बताया है कि किस तरह डाक्टर इंजीनियर की कार्यशालाओं में भाग लेने के बादए अल्पसंख्यकों के प्रति उनका रवैया बदल गया। हरियाणा के एक पुलिस अधिकारी मुझसे तब मिले जब डाक्टर इंजीनियर आई.सी.यू। में थे और उन्होंने मुझे बताया कि डाक्टर इंजीनियर की कार्यशाला में भाग लेने के बाद मुसलमानों के बारे में उनकी सोच पूरी तरह बदल गयी। उस दिन के बाद से उन्होंने मुसलमानों से घृणा करना छोड़ दिया। और इससे भी महत्वपूर्ण यह कि उन्होंने इस तरह के मूखर्तापूर्ण दुष्प्रचार पर विश्वास करना बंद कर दिया कि औरंगजेब तभी खाना खाता था जब उसके सामने जनेऊ पहने हुये बीस ब्राह्मणों की लाशें रख दी जाती थीं।
 अपने अनुसंधान और अध्ययन के आधार पर डाक्टर इंजीनियर इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे कि धर्म को मुल्ला.पंडितों के पंजों से मुक्त कर आम लोगों के हाथों में सौंपने से धर्म को नया जीवन मिलेगा। इससे आम लोग अपने.अपने धर्म के उन पक्षों के बारे में भी जान सकेंगे जिन्हें मौलवियों और पंडितों ने उनसे अब तक छुपा रखा था। तब धर्म एक ऐसी सच्ची नैतिक शक्ति बन सकेगा जिसका इस्तेमाल दमित वर्ग अन्याय से लड़ने और दमन के यथास्थितिवादी तंत्र को बदलने के लिये कर सकेंगे। उनके लिए ऐसा धर्म अर्थहीन था जो अपने अनुयायियों को यथास्थिति को चुनौती देने की प्रेरणा नहीं देता, जो उन्हें धार्मिक शिक्षाओं की पुनर्व्याख्या करने की इजाजत नहीं देता, जो उन्हें विद्रोह करने से रोकता है। उन्होंने वामपंथी विचारकों की इस मान्यता को भी चुनौती दी कि धर्म आम लोगों की अफीम है। उन्होंने मार्क्स को उद्वत करते हुये लिखा कि मार्क्स के लिये भी धर्म केवल अफीम नहीं थी। उनके लिए वह दमितों की आह भी थी।
डाक्टर इंजीनियर लैंगिक न्याय और समानता . विशेषकर मुस्लिम महिलाओं के मामले में . के जबरदस्त पैरोकार थे। उन्होंने इस्लामए कुरान, इस्लाम के इतिहास और इस्लामिक विधिशास्त्र के अपने गहन अध्ययन का इस्तेमाल, मुस्लिम महिलाओं की भलाई करने के लिए किया। उनके अनुसार कुरान की सूराइननिस्सा में केवल महिलाओं के अधिकारों की बात की गयी है, पुरूषों के अधिकारों की नहीं। जहां भी पुरूषों की बात की गयी है वह उनके कर्तव्यों के संदर्भ में है। कुरान की यह व्याख्या करने के पीछे उनका उद्देश्य उस सामाजिक असंतुलन को ठीक करना था जिसमें महिलाओं के हिस्से केवल कर्तव्य आये हैं, अधिकार नहीं। उनका तर्क यह था कि मध्यकाल में जब मुस्लिम शासक नये.नये इलाकों पर कब्जा कर अपना साम्राज्य फैला रहे थे, उस दौर में पितृसत्तामक संस्कृति ने महिलाओं से वे अधिकार छीन लिए जो कुरान ने उन्हें दिये थे। कुरान का उनका अध्ययन इतना गहन था कि मुस्लिम उलेमा शायद ही कभी तर्क में उन पर भारी पड़ पाते थे और इसलिए वे पितृसत्तामक सांस्कृतिक मूल्यों को नैतिक आधार पर उचित बताते थे। उन्होंने मुझे यह सख्त निर्देश दिया था कि उनकी मृत्यु के बाद मेरी बहन और उनकी पुत्री को उनकी सम्पत्ति में से बराबर हिस्सा दिया जाये। समानता का उनका संघर्ष केवल महिलाओं तक सीमित नहीं था। वे सभी वर्गों की समानता के हामी थे। उन्होंने मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का संघर्ष तब शुरू किया था जब हम सब मण्डल आयोग के बारे में कुछ जानते तक नहीं थे।
असगर अली इंजीनियर का मिषन था धर्म को धार्मिक संस्थागत ढांचे से मुक्ति दिलाकर उसे धार्मिक ग्रंथों की वर्तमान व्याख्या पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए इस्तेमाल करना। वे चाहते थे कि धर्म, सत्य तक पहुंचने की राह प्रशस्त करे, दमन पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को बदले, विविधता को स्वीकार करे और संवाद व लैंगिक समानता के जरिए एक ऐसे समाज का निर्माण करे, जिसमें विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों वाले लोग प्रेमपूर्वक मिलजुल कर रह सकें। उन्होंने हमारे ज्ञान के कैनवास को बड़ा किया और समानताए न्याय, शांति और गरिमा के मूल्यों को प्रोत्साहित करने का रास्ता दिखाया। असगर अली इंजीनियर व्यक्ति नहीं संस्था थे। क्या हम उनके मिषन को उसी अनुशासन व समर्पण के भाव से आगे ले जाना चाहते हैं, जिस अनुशासन व समर्पण से उन्होंने अपना काम किया? हम ऐसा करने का पूरा प्रयास करेंगे।

-इरफान इंजीनियर

1 टिप्पणी:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

अनुशासन व समर्पण के भाव ही आगे बढ़ने में सहायक होते है ,,,

बहुत सुंदर प्यारी रचना,,,

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