आम आदमी अपने को वोट की भागीदारी या इससे ज्यादा पार्टियों के नेताओं के
समर्थन या विरोध की चर्चा तक ही अपने आप को सीमित रखता है | आम आदमी स्वंय
राजनीति करने व्यवस्था में शासक -- संचालक बनने के लिए आगे नही आ रहा है |
ऐसा करने में अक्षम समझता है आम आदमी समाज राष्ट्र व समाज का बहुसंख्यक
हिस्सा है | इनके जीवन का प्रमुख उद्देश्य शारीरिक
एवं मानसिक मेहनत के जरिये अपने परिवार का भरण -- पोषण ही उसका लक्ष्य
होता है | इसको वह अपना कर्तव्य समझता है और जीवन पर्यन्त इसी में संघर्षरत
रहता है | आम समाज अपने में एक जैसा यू कह सकते है कि एक रूपता का समाज
नही है बल्कि वह विभिन्न धर्म , सम्प्रदाय जाति इलाके व नस्ल भाषा की पहचान
के साथ -- साथ भिन्न -- भिन्न आर्थिक , सामाजिक स्तरों पर विभाजित समाज है
| इस समाज में सीमान्त लघु एवं मध्यम जोत वाले किसानो , तिहाड़ी मजदूर ,
बुनकरों दस्तकारो के साथ ही छोटे ठेले - गुमटी वालो के साथ साधारण शिक्षा
पाए कामगारों से लेकर चिकित्सा , शिक्षा न्याय से जुड़े बहुत से पेशो में
बहुसंख्यक लोग जुड़े हुए है | इनके दरम्यान अंतर -- भेदों के वावजूद ये लोग
आम समाज के हिस्से है | आम समाज के सभी हिस्से आमतौर पर अपने जीवन में
नैतिक मूल्यों का वहन करने में लगे रहते है | इनमे से एक बहुत छोटा हिस्सा
ही उच्च मध्यम उच्च हिस्सा बन पाने में सफल रहता है | उसके बाद वह इस समाज
का हिस्सा नही रह जाता है | धनाढ्य वर्गो व कम्पनियों की तरह ये न तो देश
के संसाधनों के बड़े मालिक है और न ही देश की अर्थव्यवस्था -- अर्थात
उत्पादन व्यापार और उपभोग को प्रभावित करने या उसे बदल देने की क्षमता ही
रखते है | अगर हम देखे तो पायेगे सैकड़ो की संख्या में अरबपति व खरबपति ही
इस देश के संसाधनों के 75 % हिस्से पर प्रत्यक्षय -- परोक्ष रूप से
मालिकाना हक़ रखते है और संचालन करते है | 75 % आबादी वाले देश के बाकी के
25 % संसाधनों की अत्यंत छोटे व मझोले मालिक है | अपने इस छोटे -- मझोले
मालिकाने के या कमाई के अवसरों के संचालक नियंत्रक भी नही है | खासकर पिछले
25 वर्षो में व्यापक जनसाधारण के इन छोटे -- मोटे संसाधनों को जमीन , काम
धंधो व रोजगार के भिन्न -- भिन्न साधनों के अवसरों को उनसे लगातार छिना जा
रहा है | जिसके चलते आम समाज के हिस्से महगाई , बेरोजगारी की गंम्भीर
समस्या सामने खड़ी होती जा रही है | आम समाज इस माने में भी एक जैसा है कि
वह राष्ट्र -- समाज का शासक नियंत्रक हिस्सा नही है अपितु वह राष्ट्र का
शासित संचालित हिस्सा है | सत्ता सरकारों की योजनाए नीतियों कानूनों को
बनाने व लागू करने में आम समाज की कोई भूमिका नही होती है -- जब कि इन
नीतियों कानूनों के सभी प्रकार के दुष्परिणाम समाज के इसी तबके पर असर
डालते है | इसके सभी सुपरिणाम --- समाज के धनाढ्य व उच्च वर्ग को ही मिलते
है | इसका प्रत्यक्ष लाभ सामने देखने को मिल रहा है | पिछले 25 सालो से
अमलीजामा पहनाकर लागू की गयी आर्थिक , कुटनीतिक , सांस्कृतिक नीतियों के
दुष्परिणाम -- बढ़ते सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं संकटों के रूप में आम
जनसाधारण के व्यापक हिस्सों पर पड़ते जा रहे है | बल्कि इसका एक छोटा पार्ट
इन्ही नीतियों कानूनों योजनाओं के चलते उच्च माध्यम से उच्च वर्ग बनता जा
रहा है | शासन -- प्रशासन व राजनितिक पार्टियों के नेतृत्व में पहुचकर
सत्ता सरकार में भागीदारी निभा रहा है और शासक वर्ग बनता जा रहा है | आम
समाज अपने चुनावी मताधिकार के जरिये शासक पार्टियों को शासन का अधिकार
प्रदान करते रहने का ही एक माध्यम बना हुआ है ठीक उसी तरह से जैसे वह अपने
श्रम - शक्ति से अपनी रोजी रोटी कमाने के साथ धनाढ्य मालिको के उत्पादन
बाजार को उनके लाभ -- मुनाफे को बढाते जाने का साधन मात्र बना हुआ है |
भिन्न -- भिन्न समुदाओ व विभिन्न आर्थिक , सामाजिक स्तरों में रह रहे
शिक्षित -- अशिक्षित आम आदमी में इन बातो में भी एक रूपता है कि वह
जनसाधारण के हित में समाज का शासक संचालक बनने की इच्छा तक नही रखता है |
उनके बारे में चिंतन नही करता | उसकी अपनी सोच -- विचार व क्रिया कलाप आम
तौर पर अपने व्यक्तिगत जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रयत्नशील रहता है | वह
मात्र जीविकोपार्जन के बेहतर साधनों के अवसरों को पाने के बारे में सोचता
है | उसके लिए वह धन -- सत्ता के मालिको का सेवक बनने तक ही वह अपने
विचारों व्यवहारों को सीमित रखना चाहता है | निजी जीवन की मजबूरियों और
अपने स्वार्थ में भी सत्ता सरकारों के प्रति उसमे गुलामो की भावना रहती है |
वह सत्ता सरकार तथा शासन -- प्रशासन के विरोध में अपना स्वर तभी निकालता
है जब कोई प्रभावशाली व्यक्ति व पार्टी उसे अपने साथ जोड़ लेती है | अपने
स्वार्थी सत्ता राजनीति को आगे बढाने की खातिर आम जनसाधारण या उसके किसी
हिस्से को आंदोलित करने के लिए लग जाती है | इसी का परिणाम कि जनसाधारण लोग
अपने को वोट की भागीदारी तक या उससे ज्यादा से ज्यादा पार्टियों के नेताओं
के समर्थन या उसके विरोध की चर्चा या बक -- बक तक ही सीमित रहते है | उसके
आगे स्वंय राजनीति करने समाज का शासक संचालक बनने के लिए आगे नही बढ़ते है |
वैसा करने में वह अपने को अक्षम मानते है | यही उनकी बुनियादी कमजोरी है
जो वर्तमान युग में भी बनी हुई है | जबकि वह स्वंय वोट देते है और वोट के
जरिये सरकार बनाने में सहयोग देते है | साठ वर्ष से उपर बीत चुका है सत्ता
शासन के खेल को देखते हुए ये सत्ता और शासन मिलकर इनके हर हक़ और हिस्से को
काट रहा है पर अब भी वो लोग खामोश है | वर्तमान दौर के राजनीतिक पार्टिया
उसकी केन्द्रीय व प्रांतीय सत्ता सरकारे शासन प्रशासन के उच्च स्तरीय लोभी
लोग उसके साथ प्रचार माध्यम विद्वान् व समाज के धनाढ्य के साथ उच्च हिस्से
आम आदमी में बढती महगाई बेकारी रोजी रोजगार में आ रही टूटन तथा शिक्षा
स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा आदि जैसी बढती जन समस्याओं के प्रति गंम्भीर
नही है न ही इसको कोई महत्व दे रही है | उसे घटाने का कोई प्रयास भी नही कर
रही है उल्टे उसे बढ़ाने में लगी है | देश दुनिया के धनाढ्य वर्गो और
कम्पनियों के साथ विभिन्न क्षेत्र के उच्च मध्यम तथा मध्यम वर्ग के एक
सुविधा प्राप्त छोटे से हिस्से की सेवा में लगी हुई है | धनाढ्य वर्ग को
समस्त छूटे प्रोत्साहन और अधिकार प्रदान किये जा रहे है | उसके लिए नई
अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों कानूनों को एक के बाद एक लागू करते जा रहे है उसे
और भी आगे बढाते जा रहे है | आम आदमी के आधुनिक युग के कम व पेशो को पहचान
को धुधला करके उसे धर्म , जाति इलाका भाषा के पहचानो पर बाटने तोड़ने में व
एक दूसरे के विरोध में खड़ा किया जा रहा है | उसके ट्रेड यूनियनों को या
किसानो , मजदूरो आदि के जन संगठनों को भी धर्म जाति के नाम पर बाटते जा रहे
| ताकि जनसाधारण अपनी समस्याओं व हितो के लिए कही एक जुट न हो जाए | कही
एक जुट होकर विद्रोह की भाषा न बोलने लग जाए | यह सारी परस्थितिया आम आदमी
को यह चेतावनी भी दे रहा है कि उसकी समस्याओं के लिए समाज का उपरी हिस्सा
उनके व्यापक हितो के लिए संघर्ष नही करने वाला है | कारण कि वर्तमान में
अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय परिस्थितियो में यह बात निश्चित हो चुकी है
कि धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों की निरंतर विकास आम आदमी के समाज को संकटग्रस्त
किये बिना उनका विकास और समृद्द होना मुमकिन नही है | देश की सता --
सरकारे देश की आम आदमी की साथ प्रतिशत जनसाधारण आबादी के सफाए की सुनिश्चित
रणनीती अपनाई हुई है | उसे गरीबी , अभाव , टूटन व असुरक्षा आपदा आदि के
संकटों में फंसकर मरने के लिए छोडती जा रही है | अब ऐसा वक्त है कि इस देश
की आवाम जो आम आदमी के लिए आवश्यक हो गया है कि विभिन्न समुदायों जनसाधारण
तथा विभिन्न आर्थिक जनसमुदाय के व्यापक हितो के लिए उसके रोजी रोजगार काम
काज शिक्षा सुरक्षा जैसे आवश्यक जरुरतो के लिए स्वंय चिंतन करे और संगठित
हो | इस देश में पिछले बीस सालो से लागू की जा रही जन विरोधी ही नही अपितु
जनसंहारक नीतियों के विरोध में संगठित होकर विद्रोह के स्वर फुकने होंगे |
अमेरिका ब्रिटेन जैसे विदेशी साम्राज्यी ताकतों व इस देश के धनाढ्य एवं
उच्च वर्गो को दी जा रही छुटो अधिकारों के खिलाफ संगठित होना है इसके लिए
स्वंय ही आम आदमी को सता शासन में भागीदारी के लिए तैयार होना पड़ेगा |
लेकिन एक बात को ध्यान में रखना होगा जनहित के लिए शासक वर्ग बनने के लिए
आवश्यक है कि वह धर्म , जाति , क्षेत्र के आपसी अन्तरविरोध को कमतर करने का
प्रयास करना होगा और यह कार्य हिन्दू , मुसलमान , सिक्ख , ईसाई व् बड़ी
-- छोटी दलित जाति के पहचान को भुलाना होगा इन सबसे उपर उठाना होगा \ तभी
हम ऐसे वक्त में इनसे मुकाबला कर सकते है | तुम्हें तो राज हमारे सरों से
मिलता है,
हमारे वोट हमारे जरों से मिलता है।
किसान कहके हिकारत से देखने वाले,
तुम्हें अनाज हमारे घरों से मिलता है।। ------
तुम्हारे अज़्म में नफरत की बू आती है,
नज़्म व नसक से दूर वहशत की बू आती है।
हाकिमे शहर तेरी तलवार की फलयों से,
किसी मज़लूम के खून की बू आती है।।
-सुनील दत्ता
स्वतंत्र पत्रकार , समीक्षक
हमारे वोट हमारे जरों से मिलता है।
किसान कहके हिकारत से देखने वाले,
तुम्हें अनाज हमारे घरों से मिलता है।। ------
तुम्हारे अज़्म में नफरत की बू आती है,
नज़्म व नसक से दूर वहशत की बू आती है।
हाकिमे शहर तेरी तलवार की फलयों से,
किसी मज़लूम के खून की बू आती है।।
-सुनील दत्ता
स्वतंत्र पत्रकार , समीक्षक
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें