शनिवार, 4 जनवरी 2014

मोदी दंगों की नैतिक और राजनीतिक जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते


नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि गुजरात के दंगों ने उनकी आत्मा को झकझोर दिया था। उन्होंने यह भी कहा कि उन पर हत्याएं करवाने का जो आरोप लगा था, उससे वे अंदर से चूर-चूर हो गए थे।
यह सब वैसा ही है जिसे अंग्रेजी में ‘‘डेविल कोटिंग स्क्रिपचर्स’’ (शेतान धर्मग्रन्थों की बात कर रहा है) कहा जाता है।

गुजरात दंगों के 11 साल बाद, अपने दुःख की अभिव्यक्ति मोदी ने उस समय की जब गुजरात की एक निचली अदालत ने उन्हें दंगों के संदर्भ में दोषमुक्त घोषित कर दिया। अदालत की नजर में व कानूनी बारीकियों के चलते, भले ही वे दोषमुक्त पाये गये हों परन्तु संवैधानिक और नैतिक मापदंडो से उन्हें किसी प्रकार भी निर्दोष नहीं माना जा सकता है।
जिस समय गुजरात में दंगे हुए थे, नरेन्द्र मोदी वहां के मुख्यमंत्री थे। उनके बारे में यह कहा जाता है कि वे एक सख्त राजनैतिक नेता व प्रशासक हैं। उनके मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए दंगे होना अपने आप में उन्हें दोषी करार देता है। जब दंगे हुए थे, मोदी ने यह कहा था कि यह क्रिया की प्रतिक्रिया है। उस दौरान मोदी समेत अनेक भाजपा नेता यह कहते थे कि यदि गोधरा स्टेशन पर 56 लोगों की आगजनी से मौत नहीं होती तो गुजरात के अन्य स्थानों पर दंगे नहीं होते।
क्या यह बात किसी से छिपी है कि गोधरा की घटना के बाद, गुजरात की सरकार ने एक भी प्रतिबंधात्मक कदम नहीं उठाया। इसके ठीक विपरीत, ऐसे कदम उठाए गए जिनसे साम्प्रदायिक हिंसा ने वीभत्स रूप ले लिया। इस तरह के आपत्तिजनक कदमों में शासन का वह निर्णय भी शामिल था, जिसके अंतर्गत जली हुई लाशों को जुलूस के रूप से अहमदाबाद  ले जाया गया व उनका  सार्वजनिक रूप से पोस्टमार्टम किया गया।
किसी भी मनुष्य की मुत्यु के बाद, जल्दी से जल्दी उसकी अंतिम क्रिया कर दी जाती है और अंतिम क्रिया करने का अधिकार मृतक के परिवार का होता है। इस तरह की मान्यता सभी धर्मों में है। लाशों  को तुरंत संबंधित रिष्तेदारों को नहीं सौंपना और उनका सार्वजनिक प्रदषरन क्या अपने आप मंे अपराध नहीं है? क्या इस अपराध के लिए मुख्यमंत्री को उत्तरदायी नहीं माना जाना चाहिए? फिर, गोधरा की जघन्य घटना के बाद, क्या ऐसे कदम नहीं उठाए जाने चाहिए थे, जिनसे संभावित हिंसा पर नियंत्रण पाया जा सके? क्या गोधरा के बाद संवेदनशील क्षेत्रों में कफ्र्यू नहीं लगाया जाना चाहिए था? क्या ऐसे आदेश जारी नहीं किए जाने थे कि जो भी कफ्र्यू का उल्लंघन करेगा, उसे देखते ही गोली मार दी जाएगी? ऐसा कुछ भी नहीं किया गया।  अधिकारियों ने ऐसे कदम नहीं उठाए और उल्टे हजारों दंगाईयों को खुले आम सड़कों पर घूमने दिया गया।
क्या सरकार के प्रमुख होने के नाते, इस प्रशासनिक चूक के लिए मोदी को दोषी नहीं माना जाना चाहिए? क्या मोदी ने मुख्यमंत्री की हैसियत से एक भी ऐसे अधिकारी को दंडित किया, जिसने हिंसा पर नियंत्रण पाने के लिए आवष्यक प्रशासनिक कदम नहीं उठाए? इसके विपरीत, ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब मोदी ने उन अधिकारियों को दंडित किया जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में हिंसा पर नियंत्रण पाने का प्रयास किया था। साधारणतः जिस जिले में साम्प्रदायिक हिंसा भड़कती है और उस पर शीघ्र नियंत्रण नहीं हो पाता है, उस जिले के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक को तुरंत  हटा दिया जाता है। याद नहीं पड़ता कि ऐसा कोई भी कदम मोदी ने उठाया था। क्या इस भूल के लिए मोदी को दोषी नहीं माना जाना चाहिए?
गुजरात के दंगे इतने गंभीर थे कि प्रभावित क्षेत्रों के अधिकारियों के साथ-साथ स्वयं मोदी को भी मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया जाना चाहिए था। 1992 में बंबई में दंगों के समय सुधाकर नाईक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। कांग्रेस के नेतृत्व ने नाईक को हटाकर शरद पवार को मुख्यमंत्री बनाया था।
भाजपा के नेतृत्व ने मोदी के मामले में ऐसा नहीं किया। यद्यपि अब यह  सामने आया है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की राय थी कि नरेन्द्र मोदी को त्यागपत्र देने के लिए कहा जाना चाहिए। परन्तु  आडवाणी इसका विरोध कर रहे थे। वाजपेयी, मोदी का इस्तीफा चाहते थे, यह बात वाजपेयी के काफी नजदीक रहे सुधीन्द्र कुलकर्णी ने स्वीकार की है।
वह भाजपा, जो छोटे-छोटे मुद्दों को लेकर केन्द्रीय मंत्रियों का इस्तीफा मांगती है, उसे कम से कम मोदी को हटाकर उन्हें प्रतीकात्मक रूप से दंडित करना था। परन्तु इस मामले में वाजपेयी की नहीं चली।
वैसे, जिस अदालत के निर्णय से मोदी गदगद हैं वह सबसे निचली अदालत है। अभी तो मामला और ऊँची अदालतों में जाएगा। अदालत ने भी जो तथ्य उसके सामने थे, उन पर ही विचार किया है। अदालत ने वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचन्द्रन की टिप्पणी पर ध्यान नहीं दिया, जिन्होंने यह राय दी कि ऐसे बहुत से प्रमाण हैं जिनके आधार पर मोदी के विरूद्ध कार्यवाही की जा सकती है। राजू रामचन्द्रन को विशेष जांच दल के साथ सहयोग करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्त किया था। जांच टीम ने भी राजू रामचन्द्रन की राय की पूरी तरह उपेक्षा की। इसी आधार पर अदालत ने मोदी को निर्दोष घोषित किया है।
अदालत की राय कुछ भी हो परन्तु जनमानस उस राय को स्वीकार नहीं करेगा। यह बात जगजाहिर है कि मोदी के विरूद्ध एक नहीं सैंकड़ों ऐसे सबूत हैं जिनसे यह सिद्ध किया जा सकता है कि दंगों को भड़काने और दंगाईयों को संरक्षण देने में मोदी का न सिर्फ हाथ था वरन् वे उन्हें प्रोत्साहित भी कर रहे थे। इस बात का उल्लेख करते हुए ‘‘द हिन्दू’’ समाचार पत्र (दिनांक 28 दिसंबर 2013) ने लिखा है ‘‘कानूनी दृष्टिकोण के अलावा, मोदी नैतिक जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते हैं। राजनीतिक भारत को इस प्रष्न का उततर अवष्य खोजना होगा।’
-एल.एस. हरदेनिया

2 टिप्‍पणियां:

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

न्यायालय का हाथ बंधे होते है !उन्हें उपस्थित साक्ष्य के आधार पर निर्णय सुनाना होता है | जो साक्ष्य पेश किया गया उसके आधार पर न्यायालय ने निर्णय दिया ! अब मोदी या पार्टी कुछ भी कहते रहे जनता के नज़र में दंगा का दोषी नरेन्द्र मोदी हैं !
नया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |
नई पोस्ट विचित्र प्रकृति
नई पोस्ट नया वर्ष !

शकुन्‍तला शर्मा ने कहा…

नरेन्द्र मोदी एक आदर्श पुरुष हैं उनके लिए देश ही सर्वोपरि है । ईश्वर करे वे ही प्रधानमँत्री बनें ताकि भारतवर्ष पुनः विश्वगुरु के पद पर प्रतिष्ठित हो सके । कुछ लोग स्वार्थ-वश उन्हें बदनाम कर रहें हैं,यह बहुत ही दुर्भाग्य-पूर्ण है । मैं ऐसे लोगों से यह पूछना चाहती हूँ कि 84 के सिक्ख दंगों में आज तक कितने लोगों को सज़ा हुई है ? भोपाल गैस काण्ड में आज तक एक व्यक्ति को भी सज़ा नहीं हुई ,उल्टा उन्हें हमारे ही तथाकथित नेताओं ने सम्मान-सहित बाहर भिजवा दिया। आज भी हमारा देश उस कार्बाइड के कचरे में बैठा है । इनके अनगिन अपराध है जो कभी सिध्द नहीं होंगे क्योकि करे कोई भरे कोई ।

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