पिछले कुछ दशकों में अनेक किताबों पर कटु हमले हुए हैं और कई को प्रतिबंधित भी किया गया है। विभिन्न सामाजिक-राजनैतिक समूहों की इस असहिष्णुता के लिए कई अलग-अलग कारण गिनाए जाते हैं। सलमान रूश्दी की पुस्तक द सेनेटिक वर्सेस, तस्लीमा नसरीन की लज्जा, सोनिया गांधी पर आधारित रेड साड़ी व ए.के. रामानुजन लिखित थ्री हण्ड्रेड रामायणास असहिष्णुता की शिकार हुई पुस्तकों में से कुछ हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ‘दूसरों’ की भावनाआंे को चोट पहुंचाने के बीच बहुत हल्की विभाजक रेखा होती है। कुछ राजनैतिक दल व संगठन, इस रेखा को अपनी मनमर्जी से खिसकाते भी रहते हैं। उदाहरणार्थ, हिन्दू दक्षिणपंथी सलमान रूश्दी या तस्लीमा नसरीन के लिए तो अभिव्यक्ति की आजादी चाहते हैं परंतु वे रामानुजन को यही स्वतंत्रता नहीं देना चाहते। दूसरी ओर, मुस्लिम कट्टरपंथी बार-बार उनकी ‘‘धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचने’’ की बातें करते रहते हैं। वेंडी डोनीगर की पुस्तक द हिन्दूज: एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री के मामले में भी ऐसा ही कुछ हुआ है। हिन्दू दक्षिणपंथी चाहते हैं कि जो कुछ उनके राजनैतिक एजेन्डे में फिट नहीं बैठता, उसे धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला बताकर दबा दिया जाए। इस बढ़ती असहिष्णुता के कारण अभिव्यक्ति की आजादी तो सीमित हो ही रही है, इससे राजनैतिक-सामाजिक क्षेत्र में ‘तालिबानी’ तत्वों का प्रभाव भी बढ़ रहा है।
पेंग्विन ने अदालत के बाहर समझौता कर ‘द हिन्दूज...’ को बाजार में न लाने का निर्णय लिया है। यह देष के एक प्रतिष्ठित और षक्तिषाली प्रकाषक द्वारा उठाया गया निंदनीय कदम है। पेंग्विन के पास इतने
संसाधन हैं कि वह इस लड़ाई को देष के उच्चतम न्यायालय तक ले जा सकती थी और लेखक के अपने विचार अभिव्यक्त करने के अधिकार और पाठकों के उन विचारों को जानने के अधिकार की रक्षा कर सकती थी। पेंग्विन के निर्णय के विरोध में दो प्रतिष्ठित लेखकों, ज्योर्तिमय शर्मा व सिद्धार्थ वरदराजन ने पेंग्विन को उनके द्वारा लिखित पुस्तकें प्रकाशित न करने और उनके साथ हुए अनुबंध को रद्द करने के लिए कहा है। ‘द हिन्दूज...’ के विरूद्ध याचिका, दीनानाथ बतरा नामक व्यक्ति ने दायर की थी, जो कि ‘‘शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति’’ के मुखिया हैं। याचिका कहती है कि पुस्तक में ‘‘उथली और तोड़ी-मरोड़ी गई बातें कही गई हैं, उसमें तथ्यात्मक गलतियां हैं और वह सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है।’’ याचिका में यह भी कहा गया है कि डोनीगर, ‘‘ईसाई मिशनरी हैं और उनका असली एजेण्डा हिन्दुओं को अपमानित करना और उनके धर्म की छवि को बिगाड़ना है।’’ दिलचस्प बात यह है कि डोनीगर ईसाई हैं ही नहीं। वे यहूदी हैं। अपनी पुस्तक के प्राक्कथन में वे कहती हैं, ‘‘वैकल्पिक इतिहास लिखने के पीछे मेरा एक उद्देश्य यह बताना भी है कि महिलाओं व अछूत जैसे वर्गों-जिनके बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि वे दमित थे, उनकी आवाज नहीं सुनी जाती थी और उन्होंने धार्मिक परंपराओं के विकास में कोई भूमिका अदा नहीं की-का असल में हिन्दू धर्म के विकास में महत्वपूर्ण योगदान था। मैं हिन्दू धर्म के उस पक्ष पर रोशनी डालना चाहती हूं, जिसे दबा दिया गया और जिसका मीडिया और पाठ्यपुस्तकों में कोई उल्लेख नहीं मिलता...यह पुस्तक दर्शन के बारे में नहीं है, यह ध्यान के बारे में नहीं है, यह कहानियों के बारे में है-जानवरों, अछूतों और महिलाओं की कहानियों के बारे में-जो यह बताती हैं कि हिन्दू धर्म ने बहुवाद को किस तरह नकारा।’’
पुस्तक के दो केन्द्रीय तत्व हैं। पहला है सेक्स से जुड़े तथ्यों का प्रस्तुतिकरण, जिन पर चर्चा को हिन्दू धर्म के स्व-घोषित ठेकेदारों ने वर्जित घोषित कर दिया है। हम जानते हैं कि खजुराहो और कोणार्क जैसी महान कृतियां, सेक्स से जुड़े मसलों पर केंद्रित हैं और जब तक हमारे समाज ने पाखंड का लबादा ओढ़कर इन कृतियों के असली चरित्र को नकारना षुरू नहीं किया था, तब तक उन्हें इसी रूप में देखा और स्वीकार किया जाता था। कालिदास की महान कृति ‘कुमारसंभवम्’ में शंकर-पार्वती की प्रणयक्रीडा का कामोत्तेजक वर्णन किया गया है। इसी तरह, आदि शंकराचार्य की ‘सौंदर्य लहरी‘, में देवी के सौंदर्य का विशद वर्णन है।
जहां तक डोनीगर की पुस्तक पर हमले का सवाल है, यह विहिप, बजरंगदल, शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े अन्य संगठनों द्वारा, लंबे समय से की जा रही ऐसी ही हरकतों की ताजा कड़ी है। ये संगठन 1980 के दषक के बाद से अत्यंत आक्रामक हो गए हैं। इस दौरान धर्म से जुड़ी बातों के संबंध में आमजन भी अत्यंत संवेदनशील हो गए और अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने की प्रवृत्ति बढ़ी। यह दिलचस्प है कि एम.एफ. हुसैन द्वारा 1960 और 1970 के दशक में बनाए गए चित्रों पर हमले, 1980 के दशक में शुरू हुए, जब राममंदिर मुद्दे को लेकर आक्रामक हिन्दुत्व का उदय हुआ।
इस पुस्तक के विरूद्ध याचिका दायर करने वाले बतरा, आरएसएस की शैक्षणिक शाखा ‘विद्या भारती‘ के ‘अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान‘ के अध्यक्ष हैं। इसके पहले जिस पुस्तक पर संघ परिवार ने हल्ला बोला था वह थी ए. के. रामानुजन की थ्री हंडरेड रामायणास जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। इस छोटी सी पुस्तक में यह बताया गया है कि भगवान राम की कथा के कितने विभिन्न स्वरूप हैं। जाहिर है कि रामकथा के कई स्वरूपों के अस्तित्व को स्वीकार करने से राम मंदिर आंदोलन के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लग जाता। उसके भी पहले, आरएसएस के समर्थकों ने रामकथा के विभिन्न स्वरूपों पर ‘सहमत‘ द्वारा लगाई गई प्रदर्शनी पर हमला किया था। इसी तर्ज पर, संघ की राजनैतिक शाखा भाजपा की गठबंधन साथी शिवसेना ने अम्बेडकर की पुस्तक रिडल्स आॅफ राम एण्ड कृष्ण के प्रकाशन का भी विरोध किया था। इस पुस्तक में अम्बेडकर ने लिखा है कि वे राम और कृष्ण को भगवान नहीं मानते और उनकी पूजा नहीं करेंगे।
डोनीगर, लंदन विश्वविद्यालय में प्राच्य एवं अफ्रीकी अध्ययन की प्राध्यापक रही हैं। उन्होंने संस्कृत एवं भारतीय अध्ययन में डाक्टरेट की दो उपाधियां हासिल की हैं और हिन्दू धर्म पर कई विद्वतापूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। उनका कहना है कि देशज भाषाओं के धार्मिक साहित्य मंे समाज के वंचित वर्गों, महिलाओं व अछूतों के प्रति सहानुभूति व करूणा झलकती है। वे मनुस्मृति की कटु आलोचक हैं क्योंकि वह महिलाओं को दोयम दर्जा देती है। साथ ही वे वात्सायन के कामसूत्र की सराहना करती हैं, क्योंकि उसमें महिलाआंे का चित्रण संवेदनशीलता से किया गया है।
संघ और उससे जुड़े संगठनों का हिन्दू धर्म और उसके मूर्तिषास्त्र के विभिन्न संस्करणों का विरोध करना स्वाभाविक है। यह उनके राजनैतिक एजेन्डे का हिस्सा है। उनका जोर केवल हिन्दू धर्म के ब्राहम्णवादी संस्करण पर है और नाथ, तंत्र, भक्ति, षैव, सिद्ध आदि जैसी अन्य हिन्दू परंपराओं को वे नकारते हंै। आरएसएस-छाप हिन्दू धर्म का निर्माण, संघ के हिन्दुत्व प्रोजेक्ट का भाग है, जिसकी षुरूआत बिटिश काल में हुई थी। हिन्दुत्व, संघ की राजनैतिक विचारधारा है। हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म व परंपराओं की यूरोपीय प्राच्य विशेषज्ञों द्वारा की गई व्याख्या पर आधारित है। यूरोपीय प्राच्य विशेषज्ञ, एकेश्वरवादी थे और उनके एकेश्वरवाद की ओर झुकाव ने हिन्दू धर्म की उनकी व्याख्या को प्रभावित किया। वे हिन्दू धर्म की समृद्ध दार्षनिक, आध्यात्मिक व धार्मिक विविधता को समझ ही नहीं सके। उनकी धर्म की समझ एक पैगंबर के आसपास घूमती थी। इसके विपरीत, हिन्दू धर्म अनेक परंपराओं का मिश्रण था और ये सारी परंपराएं उसमें एक साथ जीवित थीं। ब्राहम्णवाद उनमें से केवल एक परंपरा थी। ब्रिटिश काल में प्राच्य विद्वानों और ब्रिटिश शासकों ने केवल ब्राहम्णवादी धार्मिक साहित्य और मूल्यों को महत्व दिया। इससे जातिगत व लैंगिक भेदभाव को मजबूती मिली व ब्राहम्णवाद को हिन्दू धर्म का पर्याय मान लिया गया। इसी के चलते, अम्बेडकर ने कहा कि ‘हिन्दू धर्म ब्राहम्णवादी धर्मशास्त्र है‘। वे हिन्दू धर्म के नाम पर प्रचलित सामाजिक असमानता की निंदा कर रहे थे। हिन्दू धर्म की ब्राहम्णवादी धारा के धुर विपरीत थी श्रमणिक धारा, जो पषिचिमी विद्वानों और ब्रिटिश नीति निर्माताओं के ज्ञान के क्षितिज पर कहीं थी ही नहीं।
शनैः-शनैः बेदम हो रहे हिन्दू जमींदारों और उच्च जातियों ने हिन्दुत्व की राजनीति शु रू कर दी। उन्होंने गौरवषाली हिन्दू परंपराओं के नाम पर जातिगत और लैंगिक यथास्थितिवाद को बनाए रखने का उपक्रम किया ताकि सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में उनका प्रभुत्व कायम रहे। स्वाधीनता संग्राम और उसके नेता महात्मा गांधी का हिन्दू धर्म, ब्राहम्णवादी-हिन्दुत्ववादी धारा से एकदम अलग था। वे उदारवादी श्रमणिक परंपरा के अधिक नजदीक थे। यह वह हिन्दू धर्म था, जिससे हिन्दुओं का बड़ा तबका जुड़ा हुआ था।
हिन्दू महासभा और आरएसएस का हिन्दुत्व चन्द तबकों तक सीमित था और इनमें मुख्य थे श्रेष्ठि वर्ग के ब्राहम्ण्वादी। इनका जोर उन मूल्यों पर था जो महिलाओं और दलितों को गरिमापूर्ण जीवन से वंचित करते थे। यही कारण है कि आरएसएस और उसका समर्थक श्रेष्ठि वर्ग, जाति और लिंग से जुड़े सामाजिक परिवर्तनों से दूर रहे और हिन्दू धर्म की उनकी संकीर्ण व्याख्या के अनुरूप, हिन्दू राष्ट्र के निर्माण पर जोर देते रहे। आरएसएस ने अपने एजेन्डे के परिपालन में ‘शिक्षा बचाओ अभियान समिति‘ का गठन किया। यही संस्था एनडीए के शासनकाल में पुस्तकों के साम्प्रदायिकीकरण क लिए जिम्मेदार थी। यही वह संस्था है जो कई शैक्षणिक संस्थाओं, जिनमें सरस्वती शिशु मंदिर व एकल विद्यालय शामिल हैं, के जरिए इतिहास की संकीर्ण व विघटनकारी व्याख्या को विद्यार्थियों के मनोमस्तिष्क में बैठा रही है। आश्चर्य नहीं कि डोनीगर की पुस्तक देखते ही वे ऐसे भड़के जैसे लाल कपड़ा देखने पर सांड भड़कता है। यह पुस्तक हिन्दुओं की समृद्ध, विविधवर्णी परंपराओं की चर्चा करती है और सेक्स से जुड़े मुद्दों पर पर्दा डालने का प्रयास नहीं करती। डोनीगर उदारवादी हिन्दू धर्म की हामी हैं जबकि संघ चाहता है कि वह समाज पर अपना संकीर्ण हिन्दुत्व थोप दे। उदारवादी हिन्दू धर्म और संकीर्ण हिन्दुत्व के बीच संघर्ष ही इस पुस्तक के विषय में चल रही बहस के मूल में है।
-राम पुनियानी
पेंग्विन ने अदालत के बाहर समझौता कर ‘द हिन्दूज...’ को बाजार में न लाने का निर्णय लिया है। यह देष के एक प्रतिष्ठित और षक्तिषाली प्रकाषक द्वारा उठाया गया निंदनीय कदम है। पेंग्विन के पास इतने
संसाधन हैं कि वह इस लड़ाई को देष के उच्चतम न्यायालय तक ले जा सकती थी और लेखक के अपने विचार अभिव्यक्त करने के अधिकार और पाठकों के उन विचारों को जानने के अधिकार की रक्षा कर सकती थी। पेंग्विन के निर्णय के विरोध में दो प्रतिष्ठित लेखकों, ज्योर्तिमय शर्मा व सिद्धार्थ वरदराजन ने पेंग्विन को उनके द्वारा लिखित पुस्तकें प्रकाशित न करने और उनके साथ हुए अनुबंध को रद्द करने के लिए कहा है। ‘द हिन्दूज...’ के विरूद्ध याचिका, दीनानाथ बतरा नामक व्यक्ति ने दायर की थी, जो कि ‘‘शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति’’ के मुखिया हैं। याचिका कहती है कि पुस्तक में ‘‘उथली और तोड़ी-मरोड़ी गई बातें कही गई हैं, उसमें तथ्यात्मक गलतियां हैं और वह सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है।’’ याचिका में यह भी कहा गया है कि डोनीगर, ‘‘ईसाई मिशनरी हैं और उनका असली एजेण्डा हिन्दुओं को अपमानित करना और उनके धर्म की छवि को बिगाड़ना है।’’ दिलचस्प बात यह है कि डोनीगर ईसाई हैं ही नहीं। वे यहूदी हैं। अपनी पुस्तक के प्राक्कथन में वे कहती हैं, ‘‘वैकल्पिक इतिहास लिखने के पीछे मेरा एक उद्देश्य यह बताना भी है कि महिलाओं व अछूत जैसे वर्गों-जिनके बारे में आमतौर पर कहा जाता है कि वे दमित थे, उनकी आवाज नहीं सुनी जाती थी और उन्होंने धार्मिक परंपराओं के विकास में कोई भूमिका अदा नहीं की-का असल में हिन्दू धर्म के विकास में महत्वपूर्ण योगदान था। मैं हिन्दू धर्म के उस पक्ष पर रोशनी डालना चाहती हूं, जिसे दबा दिया गया और जिसका मीडिया और पाठ्यपुस्तकों में कोई उल्लेख नहीं मिलता...यह पुस्तक दर्शन के बारे में नहीं है, यह ध्यान के बारे में नहीं है, यह कहानियों के बारे में है-जानवरों, अछूतों और महिलाओं की कहानियों के बारे में-जो यह बताती हैं कि हिन्दू धर्म ने बहुवाद को किस तरह नकारा।’’
पुस्तक के दो केन्द्रीय तत्व हैं। पहला है सेक्स से जुड़े तथ्यों का प्रस्तुतिकरण, जिन पर चर्चा को हिन्दू धर्म के स्व-घोषित ठेकेदारों ने वर्जित घोषित कर दिया है। हम जानते हैं कि खजुराहो और कोणार्क जैसी महान कृतियां, सेक्स से जुड़े मसलों पर केंद्रित हैं और जब तक हमारे समाज ने पाखंड का लबादा ओढ़कर इन कृतियों के असली चरित्र को नकारना षुरू नहीं किया था, तब तक उन्हें इसी रूप में देखा और स्वीकार किया जाता था। कालिदास की महान कृति ‘कुमारसंभवम्’ में शंकर-पार्वती की प्रणयक्रीडा का कामोत्तेजक वर्णन किया गया है। इसी तरह, आदि शंकराचार्य की ‘सौंदर्य लहरी‘, में देवी के सौंदर्य का विशद वर्णन है।
जहां तक डोनीगर की पुस्तक पर हमले का सवाल है, यह विहिप, बजरंगदल, शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े अन्य संगठनों द्वारा, लंबे समय से की जा रही ऐसी ही हरकतों की ताजा कड़ी है। ये संगठन 1980 के दषक के बाद से अत्यंत आक्रामक हो गए हैं। इस दौरान धर्म से जुड़ी बातों के संबंध में आमजन भी अत्यंत संवेदनशील हो गए और अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने की प्रवृत्ति बढ़ी। यह दिलचस्प है कि एम.एफ. हुसैन द्वारा 1960 और 1970 के दशक में बनाए गए चित्रों पर हमले, 1980 के दशक में शुरू हुए, जब राममंदिर मुद्दे को लेकर आक्रामक हिन्दुत्व का उदय हुआ।
इस पुस्तक के विरूद्ध याचिका दायर करने वाले बतरा, आरएसएस की शैक्षणिक शाखा ‘विद्या भारती‘ के ‘अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान‘ के अध्यक्ष हैं। इसके पहले जिस पुस्तक पर संघ परिवार ने हल्ला बोला था वह थी ए. के. रामानुजन की थ्री हंडरेड रामायणास जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम का हिस्सा थी। इस छोटी सी पुस्तक में यह बताया गया है कि भगवान राम की कथा के कितने विभिन्न स्वरूप हैं। जाहिर है कि रामकथा के कई स्वरूपों के अस्तित्व को स्वीकार करने से राम मंदिर आंदोलन के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लग जाता। उसके भी पहले, आरएसएस के समर्थकों ने रामकथा के विभिन्न स्वरूपों पर ‘सहमत‘ द्वारा लगाई गई प्रदर्शनी पर हमला किया था। इसी तर्ज पर, संघ की राजनैतिक शाखा भाजपा की गठबंधन साथी शिवसेना ने अम्बेडकर की पुस्तक रिडल्स आॅफ राम एण्ड कृष्ण के प्रकाशन का भी विरोध किया था। इस पुस्तक में अम्बेडकर ने लिखा है कि वे राम और कृष्ण को भगवान नहीं मानते और उनकी पूजा नहीं करेंगे।
डोनीगर, लंदन विश्वविद्यालय में प्राच्य एवं अफ्रीकी अध्ययन की प्राध्यापक रही हैं। उन्होंने संस्कृत एवं भारतीय अध्ययन में डाक्टरेट की दो उपाधियां हासिल की हैं और हिन्दू धर्म पर कई विद्वतापूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। उनका कहना है कि देशज भाषाओं के धार्मिक साहित्य मंे समाज के वंचित वर्गों, महिलाओं व अछूतों के प्रति सहानुभूति व करूणा झलकती है। वे मनुस्मृति की कटु आलोचक हैं क्योंकि वह महिलाओं को दोयम दर्जा देती है। साथ ही वे वात्सायन के कामसूत्र की सराहना करती हैं, क्योंकि उसमें महिलाआंे का चित्रण संवेदनशीलता से किया गया है।
संघ और उससे जुड़े संगठनों का हिन्दू धर्म और उसके मूर्तिषास्त्र के विभिन्न संस्करणों का विरोध करना स्वाभाविक है। यह उनके राजनैतिक एजेन्डे का हिस्सा है। उनका जोर केवल हिन्दू धर्म के ब्राहम्णवादी संस्करण पर है और नाथ, तंत्र, भक्ति, षैव, सिद्ध आदि जैसी अन्य हिन्दू परंपराओं को वे नकारते हंै। आरएसएस-छाप हिन्दू धर्म का निर्माण, संघ के हिन्दुत्व प्रोजेक्ट का भाग है, जिसकी षुरूआत बिटिश काल में हुई थी। हिन्दुत्व, संघ की राजनैतिक विचारधारा है। हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म व परंपराओं की यूरोपीय प्राच्य विशेषज्ञों द्वारा की गई व्याख्या पर आधारित है। यूरोपीय प्राच्य विशेषज्ञ, एकेश्वरवादी थे और उनके एकेश्वरवाद की ओर झुकाव ने हिन्दू धर्म की उनकी व्याख्या को प्रभावित किया। वे हिन्दू धर्म की समृद्ध दार्षनिक, आध्यात्मिक व धार्मिक विविधता को समझ ही नहीं सके। उनकी धर्म की समझ एक पैगंबर के आसपास घूमती थी। इसके विपरीत, हिन्दू धर्म अनेक परंपराओं का मिश्रण था और ये सारी परंपराएं उसमें एक साथ जीवित थीं। ब्राहम्णवाद उनमें से केवल एक परंपरा थी। ब्रिटिश काल में प्राच्य विद्वानों और ब्रिटिश शासकों ने केवल ब्राहम्णवादी धार्मिक साहित्य और मूल्यों को महत्व दिया। इससे जातिगत व लैंगिक भेदभाव को मजबूती मिली व ब्राहम्णवाद को हिन्दू धर्म का पर्याय मान लिया गया। इसी के चलते, अम्बेडकर ने कहा कि ‘हिन्दू धर्म ब्राहम्णवादी धर्मशास्त्र है‘। वे हिन्दू धर्म के नाम पर प्रचलित सामाजिक असमानता की निंदा कर रहे थे। हिन्दू धर्म की ब्राहम्णवादी धारा के धुर विपरीत थी श्रमणिक धारा, जो पषिचिमी विद्वानों और ब्रिटिश नीति निर्माताओं के ज्ञान के क्षितिज पर कहीं थी ही नहीं।
शनैः-शनैः बेदम हो रहे हिन्दू जमींदारों और उच्च जातियों ने हिन्दुत्व की राजनीति शु रू कर दी। उन्होंने गौरवषाली हिन्दू परंपराओं के नाम पर जातिगत और लैंगिक यथास्थितिवाद को बनाए रखने का उपक्रम किया ताकि सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में उनका प्रभुत्व कायम रहे। स्वाधीनता संग्राम और उसके नेता महात्मा गांधी का हिन्दू धर्म, ब्राहम्णवादी-हिन्दुत्ववादी धारा से एकदम अलग था। वे उदारवादी श्रमणिक परंपरा के अधिक नजदीक थे। यह वह हिन्दू धर्म था, जिससे हिन्दुओं का बड़ा तबका जुड़ा हुआ था।
हिन्दू महासभा और आरएसएस का हिन्दुत्व चन्द तबकों तक सीमित था और इनमें मुख्य थे श्रेष्ठि वर्ग के ब्राहम्ण्वादी। इनका जोर उन मूल्यों पर था जो महिलाओं और दलितों को गरिमापूर्ण जीवन से वंचित करते थे। यही कारण है कि आरएसएस और उसका समर्थक श्रेष्ठि वर्ग, जाति और लिंग से जुड़े सामाजिक परिवर्तनों से दूर रहे और हिन्दू धर्म की उनकी संकीर्ण व्याख्या के अनुरूप, हिन्दू राष्ट्र के निर्माण पर जोर देते रहे। आरएसएस ने अपने एजेन्डे के परिपालन में ‘शिक्षा बचाओ अभियान समिति‘ का गठन किया। यही संस्था एनडीए के शासनकाल में पुस्तकों के साम्प्रदायिकीकरण क लिए जिम्मेदार थी। यही वह संस्था है जो कई शैक्षणिक संस्थाओं, जिनमें सरस्वती शिशु मंदिर व एकल विद्यालय शामिल हैं, के जरिए इतिहास की संकीर्ण व विघटनकारी व्याख्या को विद्यार्थियों के मनोमस्तिष्क में बैठा रही है। आश्चर्य नहीं कि डोनीगर की पुस्तक देखते ही वे ऐसे भड़के जैसे लाल कपड़ा देखने पर सांड भड़कता है। यह पुस्तक हिन्दुओं की समृद्ध, विविधवर्णी परंपराओं की चर्चा करती है और सेक्स से जुड़े मुद्दों पर पर्दा डालने का प्रयास नहीं करती। डोनीगर उदारवादी हिन्दू धर्म की हामी हैं जबकि संघ चाहता है कि वह समाज पर अपना संकीर्ण हिन्दुत्व थोप दे। उदारवादी हिन्दू धर्म और संकीर्ण हिन्दुत्व के बीच संघर्ष ही इस पुस्तक के विषय में चल रही बहस के मूल में है।
-राम पुनियानी
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