गत 28 फरवरी 2014 को लोकतांत्रिक जनता पार्टी (एल.जे.पी.) के अध्यक्ष रामविलास पासवान अपनी पार्टी सहित, एनडीए गठबंधन में शामिल हो गए। ये वही पासवान हैं, जो 12 साल पहले, गुजरात में कत्ल-ओ-गारत शुरू होते ही एनडीए गठबंधन से यह कहते हुए बाहर हो गए थे कि गुजरात में हो रही हिंसा वे बर्दाश्त नहीं कर सकते। ताकि ऐसा न लगे कि वे थूक कर चाट रहे हैं इसलिए उनके पुत्र ने यह कहा कि नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों के मामले में क्लीनचिट मिल गर्इ है और इसलिए एनडीए में शामिल होने में कुछ भी गलत नहीं है। कुछ दिन पहले, एक अन्य दलित नेता उदित राज भी भाजपा में शामिल हो गए थे। उन्होंने इस आश्वासन पर भाजपा की सदस्यता ली कि उन्हें लोकसभा का टिकिट दिया जाएगा। महाराष्ट्र में रिपबिलकन पार्टी आफ इणिडया के रामदास अठावले एनडीए का हिस्सा बन गए और उन्हें राज्यसभा के टिकिट से नवाजा गया। ऐसे कर्इ अन्य दलित नेता हैं जो या तो भाजपा के सदस्य हैं या उन दलों से जुड़े हुए हैं, जो कि एनडीए गठबंधन में शामिल हैं। इन सभी नेताओं का यह दावा रहा है कि वे डाक्टर बी.आर. अंबेडकर के अनुयायी हैं। अंबेडकर जाति के उन्मूलन के हामी थे और वे उस हिन्दू राष्ट्रवाद के कड़े विरोधी थे, जिसकी अवधारणा भाजपा-आरएसएस ने दी है।
भारत के स्वाधीनता संग्राम के समय देश में तीन तरह के राष्ट्रवाद असितत्व में थे : भारतीय राष्ट्रवाद, मुसिलम राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद। भारत के अधिकांश लोग भारतीय राष्ट्रवाद के समर्थक और अनुयायी थे। अधिकांश हिन्दू और अधिकांश मुसलमान, दोनों ही भारतीय राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे। सामाजिक फिज़ा में सांप्रदायिकता घोलने का काम श्रेष्ठी वर्ग ने किया, जिसमें शामिल थे राजे-रजवाड़े, जमींदार और दोनों धर्मों की ऊँची जातियों के समृद्ध लोग। अंग्रेजों ने बड़ी कुटिलता से धार्मिक राष्ट्रवाद की आग को जलाए रखा। मुसिलम राष्ट्रवादियों ने अलगाववाद की राह पकड़ ली और पाकिस्तान का निर्माण उनकी प्रमुख मांग बन गर्इ। हिन्दू राष्ट्रवादी, धार्मिक राष्ट्रवाद के तो समर्थक थे परंतु पाकिस्तान उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उनका कहना था कि भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र रहा है। असल में इस दावे में कोर्इ दम नहीं है क्योंकि प्राचीनकाल में राष्ट्र की अवधारणा ही नहीं थी। राष्ट्र-राज्य की अवधारणा आधुनिक है।शायद इसलिए अपनी पुस्तक ''पार्टिशन आफ इणिडया के संशोधित संस्करण में, अंबेडकर ने पाकिस्तान के निर्माण का इस आधार पर पुरजोर विरोध किया कि उससे हिन्दू राज की स्थापना की राह प्रशस्त हो सकती है। उन्होंने लिखा, ''अगर हिन्दू राज स्थापित होता है तो वह इस देश के लिए एक बहुत बड़ा संकट होगा। हिन्दू चाहे जो भी कहें इससे कोर्इ फर्क नहीं पड़ता परंतु यह एक तथ्य है कि हिन्दू धर्म, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है। वह प्रजातंत्र का दुश्मन है। हमें हिन्दू राज को रोकने के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए''। (पाकिस्तान आर पार्टिशन आफ इणिडया, पृष्ठ 358)। यहां अंबेडकर जिस हिन्दू धर्म की बात कर रहे हैं, वह ब्राह्राणवादी हिन्दू धर्म है जो कि संघ परिवार के हिन्दुत्व का वैचारिक आधार है।
अंबेडकर ने दलित आंदोलन की नींव रखी। उन्होंने अनुसूचित जाति फेडरेशन का निर्माण किया और उसके बाद रिपबिलकन पार्टी आफ इणिडया की आधारशिला रखी। सन 1952 के आम चुनाव, जिनमें पहली बार भारत के सभी वयस्क नागरिकों को वोट देने का अधिकार मिलने वाला था, के पहले, अनुसूचित जाति फेडरेशन ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से गठबंधन कर लिया। अनुसूचित जाति फेडरेशन के घोषणापत्र में ''किसी भी प्रतिक्रियावादी पार्टी जैसे हिन्दू महासभा या जनसंघ के साथ गठबंधन की संभावना को सिरे से नकारा गया था (अंबेडकर के गायकवाड़ को पत्र, पृष्ठ 280-296, गोपाल गुरू द्वारा इकोनामिक एण्ड पालिटिकल वीकली, दिनांक 16 फरवरी 1991 में उद्धृत)। अंबेडकर यह अच्छी तरह समझते थे कि जनसंघ-हिन्दू महासभा का अंतिम और दूरगामी एजेण्डा हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है और यह भी कि हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना, धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक भारत के विरूद्ध है। अंबेडकर का दलितों के लिए मंत्र था ''शिक्षा प्राप्त करो, संगठित होे और संघर्ष करो। वे जाति के उन्मूलन के हामी थे और स्वंतत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों के समर्थक। वे इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि केवल प्रजातांत्रिक व्यवस्था में ही शिक्षा प्राप्त करना, संगठित होना और संघर्ष करना संभव हो सकता है। इसलिए उन्होंने हिन्दुत्ववादी राजनैतिक दलों से किसी भी प्रकार के समझौते की बात कभी सोची ही नहीं।
अब क्या हो रहा है? पिछले कुछ सालों में देश में एक नया दलित नेतृत्व उभरा है जो एक ओर अंबेडकर से विचारधारा के स्तर पर जुड़ा रहना चाहता है तो दूसरी ओर, अपनी और अपने परिवार की चुनावी महत्वाकांक्षाओं को भी पूरा करना चाहता है। इसलिए ये नेता बिना किसी संकोच के सांप्रदायिक पार्टियों की गोदी में बैठ रहे हैं। महान कवि नामदेव ढसाल ने शिवसेना की सदस्यता ले ली थी, जिसने अंबेडकर की पुस्तक ''रिडल्स आफ हिन्दुइज्म के प्रकाशन पर भारी हंगामा मचाया था। रामदेव अठावले भी सांप्रदायिक ताकतों के साथ हैं, जिन्होंने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता दिलवार्इ है। उदित राज ने भी हिन्दू राज की पार्टी को गले लगा लिया है और रामविलास पासवान ने बेशर्मी से भाजपा के साथ जुुड़ने का निर्णय लिया है। जाहिर है कि उनके इस निर्णय के पीछे दबे-कुचलों की भलार्इ का उददेश्य नहीं है। उन्होंने स्वयं की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यह निर्णय लिया है। सांप्रदायिक दलों के साथ जुड़ने से दलित नेताओं को भले ही कुछ समय के लिए फायदा हो जाए परंतु ऐसा करके वे हिन्दुत्व-हिन्दू राज की राजनीति को मजबूती देंगे। यह वह राजनीति है जो जाति और लिंग के पदानुक्रम में विश्वास करती है।
भाजपा की दलितों से जुड़े मुददों पर क्या सोच है, इसे केवल एक उदाहरण से समझा जा सकता है। हाल में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी द्वारा लिखित पुस्तक ''कर्मयोग को वापस ले लिया गया। इस पुस्तक में मोदी ने लिखा है, ''मुझे यह विश्वास नहीं है कि वे (वाल्मीकि) इस काम को केवल अपनी आजीविका चलाने के लिए करते आए हैं। अगर ऐसा होता तो वे यह काम पीढी़ दर पीढी़ नहीं करते...किसी न किसी समय, किसी न किसी को यह ज्ञान प्राप्त हुआ होगा कि पूरे समाज व र्इश्वर की प्रसन्नता की खातिर यह काम करना उनका (वाल्मीकि) कर्तव्य है। यह काम उन्हें र्इश्वर द्वारा सौंपा गया है और सफार्इ का यह काम वे सदियों से एक आंतरिक आध्यातिमक गतिविधि के बतौर करते आ रहे हैं। यह पीढि़यों से चल रहा है। यह विश्वास करना असंभव है कि उनके पूर्वज कोर्इ अन्य काम या व्यवसाय शुरू नहीं कर सकते थे।
सफार्इ के कार्य के इसी मुददे को लेकर डा. अंबेडकर ने उस सामाजिक व्यवस्था की कड़ी आलोचना की जो किसी एक तबके के लोगों को ऐसे घिनौने व अपमानजनक काम करने पर मजबूर करती है। यधपि विकास और 'सभी समुदायों की फिक्र के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं परंतु सच यह है कि गुजरात में दलितों की हालत बहुत खराब है। कर्इ जगह उन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता है और उनके विरूद्ध हिंसा के मामलों में दोषसिद्धी की दर बहुत कम है। हाथों से मैले की सफार्इ का काम अभी भी जारी है और मोदी उसे महिमामंडित कर रहे हैं। दलितों को कर्इ स्थानों पर पानी के स्त्रोतों से पानी नहीं भरने दिया जाता है। गुजरात में कर्इ दलितों के बौद्ध धर्म अपनाने की खबरें भी आती रही हैं। ये तो हुर्इ हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला गुजरात की बात। परंतु हम उन दलित नेताओं के बारे में क्या कहें जो डा. अंबेडकर के मूल्यों से समझौता कर रहे हैं और राजनैतिक सत्ता हासिल करने की खातिर सामाजिक न्याय और जाति उन्मूलन के अपने दूरगामी लक्ष्य को भुला बैठे हैं। इन नेताओं को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। ऐसे नेताओं के अनुयायियों को भी यह विचार करना होगा कि वे आखिर कब तक इतने घोर अवसरवादी और सिद्धांतविहीन लोगों को अपना नेता मानते रहेंगे।
-राम पुनियानी
भारत के स्वाधीनता संग्राम के समय देश में तीन तरह के राष्ट्रवाद असितत्व में थे : भारतीय राष्ट्रवाद, मुसिलम राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद। भारत के अधिकांश लोग भारतीय राष्ट्रवाद के समर्थक और अनुयायी थे। अधिकांश हिन्दू और अधिकांश मुसलमान, दोनों ही भारतीय राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे। सामाजिक फिज़ा में सांप्रदायिकता घोलने का काम श्रेष्ठी वर्ग ने किया, जिसमें शामिल थे राजे-रजवाड़े, जमींदार और दोनों धर्मों की ऊँची जातियों के समृद्ध लोग। अंग्रेजों ने बड़ी कुटिलता से धार्मिक राष्ट्रवाद की आग को जलाए रखा। मुसिलम राष्ट्रवादियों ने अलगाववाद की राह पकड़ ली और पाकिस्तान का निर्माण उनकी प्रमुख मांग बन गर्इ। हिन्दू राष्ट्रवादी, धार्मिक राष्ट्रवाद के तो समर्थक थे परंतु पाकिस्तान उन्हें स्वीकार्य नहीं था। उनका कहना था कि भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र रहा है। असल में इस दावे में कोर्इ दम नहीं है क्योंकि प्राचीनकाल में राष्ट्र की अवधारणा ही नहीं थी। राष्ट्र-राज्य की अवधारणा आधुनिक है।शायद इसलिए अपनी पुस्तक ''पार्टिशन आफ इणिडया के संशोधित संस्करण में, अंबेडकर ने पाकिस्तान के निर्माण का इस आधार पर पुरजोर विरोध किया कि उससे हिन्दू राज की स्थापना की राह प्रशस्त हो सकती है। उन्होंने लिखा, ''अगर हिन्दू राज स्थापित होता है तो वह इस देश के लिए एक बहुत बड़ा संकट होगा। हिन्दू चाहे जो भी कहें इससे कोर्इ फर्क नहीं पड़ता परंतु यह एक तथ्य है कि हिन्दू धर्म, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए खतरा है। वह प्रजातंत्र का दुश्मन है। हमें हिन्दू राज को रोकने के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए''। (पाकिस्तान आर पार्टिशन आफ इणिडया, पृष्ठ 358)। यहां अंबेडकर जिस हिन्दू धर्म की बात कर रहे हैं, वह ब्राह्राणवादी हिन्दू धर्म है जो कि संघ परिवार के हिन्दुत्व का वैचारिक आधार है।
अंबेडकर ने दलित आंदोलन की नींव रखी। उन्होंने अनुसूचित जाति फेडरेशन का निर्माण किया और उसके बाद रिपबिलकन पार्टी आफ इणिडया की आधारशिला रखी। सन 1952 के आम चुनाव, जिनमें पहली बार भारत के सभी वयस्क नागरिकों को वोट देने का अधिकार मिलने वाला था, के पहले, अनुसूचित जाति फेडरेशन ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से गठबंधन कर लिया। अनुसूचित जाति फेडरेशन के घोषणापत्र में ''किसी भी प्रतिक्रियावादी पार्टी जैसे हिन्दू महासभा या जनसंघ के साथ गठबंधन की संभावना को सिरे से नकारा गया था (अंबेडकर के गायकवाड़ को पत्र, पृष्ठ 280-296, गोपाल गुरू द्वारा इकोनामिक एण्ड पालिटिकल वीकली, दिनांक 16 फरवरी 1991 में उद्धृत)। अंबेडकर यह अच्छी तरह समझते थे कि जनसंघ-हिन्दू महासभा का अंतिम और दूरगामी एजेण्डा हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है और यह भी कि हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना, धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक भारत के विरूद्ध है। अंबेडकर का दलितों के लिए मंत्र था ''शिक्षा प्राप्त करो, संगठित होे और संघर्ष करो। वे जाति के उन्मूलन के हामी थे और स्वंतत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों के समर्थक। वे इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि केवल प्रजातांत्रिक व्यवस्था में ही शिक्षा प्राप्त करना, संगठित होना और संघर्ष करना संभव हो सकता है। इसलिए उन्होंने हिन्दुत्ववादी राजनैतिक दलों से किसी भी प्रकार के समझौते की बात कभी सोची ही नहीं।
अब क्या हो रहा है? पिछले कुछ सालों में देश में एक नया दलित नेतृत्व उभरा है जो एक ओर अंबेडकर से विचारधारा के स्तर पर जुड़ा रहना चाहता है तो दूसरी ओर, अपनी और अपने परिवार की चुनावी महत्वाकांक्षाओं को भी पूरा करना चाहता है। इसलिए ये नेता बिना किसी संकोच के सांप्रदायिक पार्टियों की गोदी में बैठ रहे हैं। महान कवि नामदेव ढसाल ने शिवसेना की सदस्यता ले ली थी, जिसने अंबेडकर की पुस्तक ''रिडल्स आफ हिन्दुइज्म के प्रकाशन पर भारी हंगामा मचाया था। रामदेव अठावले भी सांप्रदायिक ताकतों के साथ हैं, जिन्होंने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता दिलवार्इ है। उदित राज ने भी हिन्दू राज की पार्टी को गले लगा लिया है और रामविलास पासवान ने बेशर्मी से भाजपा के साथ जुुड़ने का निर्णय लिया है। जाहिर है कि उनके इस निर्णय के पीछे दबे-कुचलों की भलार्इ का उददेश्य नहीं है। उन्होंने स्वयं की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यह निर्णय लिया है। सांप्रदायिक दलों के साथ जुड़ने से दलित नेताओं को भले ही कुछ समय के लिए फायदा हो जाए परंतु ऐसा करके वे हिन्दुत्व-हिन्दू राज की राजनीति को मजबूती देंगे। यह वह राजनीति है जो जाति और लिंग के पदानुक्रम में विश्वास करती है।
भाजपा की दलितों से जुड़े मुददों पर क्या सोच है, इसे केवल एक उदाहरण से समझा जा सकता है। हाल में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी द्वारा लिखित पुस्तक ''कर्मयोग को वापस ले लिया गया। इस पुस्तक में मोदी ने लिखा है, ''मुझे यह विश्वास नहीं है कि वे (वाल्मीकि) इस काम को केवल अपनी आजीविका चलाने के लिए करते आए हैं। अगर ऐसा होता तो वे यह काम पीढी़ दर पीढी़ नहीं करते...किसी न किसी समय, किसी न किसी को यह ज्ञान प्राप्त हुआ होगा कि पूरे समाज व र्इश्वर की प्रसन्नता की खातिर यह काम करना उनका (वाल्मीकि) कर्तव्य है। यह काम उन्हें र्इश्वर द्वारा सौंपा गया है और सफार्इ का यह काम वे सदियों से एक आंतरिक आध्यातिमक गतिविधि के बतौर करते आ रहे हैं। यह पीढि़यों से चल रहा है। यह विश्वास करना असंभव है कि उनके पूर्वज कोर्इ अन्य काम या व्यवसाय शुरू नहीं कर सकते थे।
सफार्इ के कार्य के इसी मुददे को लेकर डा. अंबेडकर ने उस सामाजिक व्यवस्था की कड़ी आलोचना की जो किसी एक तबके के लोगों को ऐसे घिनौने व अपमानजनक काम करने पर मजबूर करती है। यधपि विकास और 'सभी समुदायों की फिक्र के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं परंतु सच यह है कि गुजरात में दलितों की हालत बहुत खराब है। कर्इ जगह उन्हें मंदिरों में प्रवेश नहीं दिया जाता है और उनके विरूद्ध हिंसा के मामलों में दोषसिद्धी की दर बहुत कम है। हाथों से मैले की सफार्इ का काम अभी भी जारी है और मोदी उसे महिमामंडित कर रहे हैं। दलितों को कर्इ स्थानों पर पानी के स्त्रोतों से पानी नहीं भरने दिया जाता है। गुजरात में कर्इ दलितों के बौद्ध धर्म अपनाने की खबरें भी आती रही हैं। ये तो हुर्इ हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला गुजरात की बात। परंतु हम उन दलित नेताओं के बारे में क्या कहें जो डा. अंबेडकर के मूल्यों से समझौता कर रहे हैं और राजनैतिक सत्ता हासिल करने की खातिर सामाजिक न्याय और जाति उन्मूलन के अपने दूरगामी लक्ष्य को भुला बैठे हैं। इन नेताओं को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है। ऐसे नेताओं के अनुयायियों को भी यह विचार करना होगा कि वे आखिर कब तक इतने घोर अवसरवादी और सिद्धांतविहीन लोगों को अपना नेता मानते रहेंगे।
-राम पुनियानी
1 टिप्पणी:
कल 06/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
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