सोमवार, 14 अप्रैल 2014

कैसे किया एन.डी.ए. ने राष्ट्रीय सुरक्षा पर समझौता

  आज जब बी.जे.पी. के नेता राष्ट्रीय सुरक्षा पर घडि़याली आँसू बहाते हैं, हँसी नहीं आती, बल्कि चिंता होती है। चिंता इसलिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अहम मुद्दे पर भी वह दुष्प्रचार से बाज नहीं आते। देखते हैं ‘‘राॅ’’  के एक बड़े अधिकारी की गैरकांग्रेसी सरकारों के बारे में राय। ‘‘राॅ’’ के अतिरिक्त निदेशक बी. रमन ने रिटायरमेंट के बाद लिखा, ‘‘आतंकवादियों के सामने दयनीय आत्मसमर्पण के केवल दो उदाहरण हैं। एक 1989 में जब वी.पी. सिंह (इस सरकार का समर्थन भाजपा बाहर से कर रही थी) प्रधानमंत्री थे और मुफ्ती मुहम्मद सईद गृहमंत्री। दो, 1999 में जब भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार तीन आतंकवादियों की रिहाई के लिए सहमत हुई।’’
    रमन लिखते हैं, ‘‘भाजपा ने चुनाव से पहले वादा किया था कि आई.एस.आई. के प्रॉक्सी वार पर श्वेतपत्र जारी करेगी और पाकिस्तान को आतंकवाद का संचालक घोषित करवाएगी। दोनों वादों पर अमल में वह विफल रही। इससे भी ज्यादा यह हुआ कि इस सरकार ने प्रच्छन्न कार्रवाई की क्षमता समाप्त करने के गुजराल सरकार के फैसले को भी नहीं पलटा। इससे सुरक्षा तंत्र को बहुत आश्चर्य हुआ।
    इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरसिंह राव की, पाकिस्तान से पेश आने की नीति  में दृढ़ता की निरंतरता थी। वाजपेयी सरकार की नीति में इसका अभाव था। अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा या जनरल मुशर्रफ को शिखर वार्ता के लिए आगरा आमंत्रित करने से पहले खुफिया तंत्र से राय नहीं ली गई। नतीजा यह हुआ कि ये दोनों यात्राएँ विफल रहीं।’’
    प्रधानमंत्री वाजपेयी की सरकार  कश्मीरी अलगाववादियों और आतंकवादियों से बात करने की बहुत इच्छुक थी।  इस हद तक कि वाजपेयी ने कहा, ‘‘इंसानियत के दायरे में तो बात हो सकती है।’’ रमन इस बारे में हकीकत बयान करते हैं, ‘‘अटल सरकार 2001 में हिजबुल मुजाहिदीन के एक वर्ग की ओर से वार्ता के
संबंध में उचित कदम नहीं उठा सकी। इससे पाकिस्तान स्थित हिजबुल मुजाहिदीन के नेतृत्व को, इस वर्ग की पहचान करने और उसे खत्म कर देने में कामयाबी मिल गई।’’
    रमन ने इसका खुलासा नहीं किया है। लेकिन अंदर की कहानी यह है कि हिजबुल मुजाहिदीन के इस वर्ग से संपर्कों के दौरान सतर्कता नहीं बरती गई। इस अहम पहलू की अनदेखी कर दी गई कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. उग्रवादियों, अलगाववादियों के नरम पड़ रहे खेमे को सफल नहीं होने देगी। अगर उनकी सफलता की गुंजाइश रहे, तब तो कश्मीर में पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद के खत्म होने की भी संभावनाएँ पैदा हो जाएँगी। यहाँ यह सवाल उठता है कि राजनैतिक नेतृत्व ने भारत की खुफिया एजेंसियों को विश्वास में क्यों नहीं लिया? सम्भावित उत्तर यही हो सकता है कि आज भाजपा नेता जिस सरकार को एक आदर्श बताकर पेश कर रहे हैं, वह पाकिस्तान के फौजी जनरलों पर बहुत भरोसा करने लगी थी। कारगिल का विश्वासघात एक स्वाभाविक परिणाम था।
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका  चुनाव विशेषांक से

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (15-04-2014) को "हालात समझ जाओ" (चर्चा मंच-1583) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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