शनिवार, 19 जुलाई 2014

मोदी की 2014 विजय: भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बदलाव


सामाजिक आंदोलनों के लिए आगे का रास्ता
सन् 2014 के आम चुनाव, इसके पहले के चुनावों से कई मामलों में भिन्न थे। मोदी की दिल्ली की गद्दी की ओर की यात्रा के हर कदम के पहले भारी प्रचार हुआ। जब वे भाजपा की चुनाव प्रचार अभियान समिति के प्रमुख बने तब इसका जमकर ढिंढोरा पीटा गया। वही सब कुछ तब हुआ जब वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए गए। चुनाव प्रचार अभियान भी जबरदस्त था। मोदी ने अपने प्रचार में सोशल मीडिया का जमकर उपयोग किया। सैंकड़ों लोगों ने दिन-रात सोशल मीडिया में उनकी ओर से मोर्चा संभाला। उन्होंने अपनी छवि के निर्माण के लिए अमरीकी एजेंसी एप्को की सेवाएं हासिल कीं1। औपचारिक रूप से चुनाव प्रचार शुरू होने के बहुत पहले से ही मोदी का अभियान शुरू हो गया था। उन्हें जनता के सामने ‘विकास’ के पर्यायवाची के रूप में प्रस्तुत किया गया। गुजरात के सन् 2002 के कत्लेआम में उनकी भूमिका को ‘क्लीन चिट’ के नाम पर दबा दिया गया। इस बार आरएसएस, खुलकर मोदी के समर्थन में सामने आया और पोलिंग बूथ से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक उसके स्वयंसेवक सक्रिय हो गए। ‘‘इस बार, 2014 के चुनाव में, राष्ट्रवादी संगठन ने अपने सभी कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों-जिनकी संख्या 10 लाख से ज्यादा है-अपनी 40 हजार से अधिक स्थानीय इकाईयों, जिन्हें शाखा कहा जाता है, के अतिरिक्त, अपनी विचारधारा से सहानुभूति रखने वालों और समान विचारधारा वाले लोगों को भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के समर्थन में मिशनरी भाव से जुट जाने को कहा।’’इस चुनाव में पहली बार संघ परिवार की एक सदस्य भाजपा अपने बल पर बहुमत हासिल कर सत्ता में आ सकी। यह आरएसएस के लिए एक बड़ी सफलता है जो अलग-अलग रास्तों से हिन्दू राष्ट्र के अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए सन् 1925 से काम कर रहा है।

पृष्ठभूमि
मोदी एक प्रशिक्षित आरएसएस प्रचारक हैं और हिन्दू राष्ट्रवाद के रास्ते हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के प्रति प्रतिबद्ध हैं।3 सन् 1980 के दशक से कई वैष्विक व स्थानीय कारकों के चलते, दकियानूसी मध्यमवर्ग, छोटे उद्योगपतियों, समृद्ध किसानों और धनी पेशेवरों के वर्गों का उदय हुआ। ये सभी वर्ग यथास्थितिवाद की राजनीति के हामी थे। इसी दौरान वैष्विकरण का जाल फैल रहा था और श्रमिक आंदोलनों पर हमले बढ़ रहे थे। इसी दौर में आरएसएस व विहिप ने धार्मिकता का झंडा उठा लिया।शाहबानो के बहाने आरएसएस ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के खिलाफ तीखा संघर्ष प्रारंभ कर दिया। वह छद्म धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण जैसी शब्दावली का इस्तेमाल करने लगा। इस सब के बीच शुरू हुई आडवाणी की रथयात्रा।4 यही वह समय था जब देश, अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण व श्रमिकों के अधिकारों जैसे मुद्दों में उलझा हुआ था। महिलाओं और आदिवासियों के अधिकारों की चर्चा भी हो रही थी। जिस देश के लोगों की मूलभूत
आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो रही थीं और जहां कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों की रक्षा एक कठिन कार्य बना हुआ था; वहां संघ परिवार ने हिन्दुओं के एक तबके की पहचान से जुड़े मुद्दों को समाज के लिए सबसे महत्वपूर्ण बनाने का षड़यंत्र शुरू कर दिया। इसके साथ ही, धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध दुष्प्रचार शुरू हुआ, इतिहास का तोड़ा-मरोड़ा गया संस्करण जनता के सामने परोसा जाने लगा और पीडि़तों को दोषी बताया जाने लगा। आडवाणी की रथयात्रा ने अल्पसंख्यकों के विरूद्ध नफरत को और बढ़ावा दिया और हिंसा की कई घटनाएं हुईं।
राममंदिर अभियान का एक प्रमुख नतीजा यह हुआ कि मानवाधिकारों से जुड़े मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गए। रोटी, कपड़ा और मकान के मसले गौण हो गए व सामाजिक-राजनीतिक एजेण्डा के केन्द्र में आ गए पहचान से जुड़े मुद्दे। आरएसएस ने अपनी सांप्रदायिक राजनीति को जमकर हवा देनी शुरू की और इसी के हिस्से के रूप में आदिवासी क्षेत्रों में ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा में तेजी से बढ़ोतरी हुई। यह मात्र संयोग नहीं है कि यह वही क्षेत्र हैं जहां बड़े औद्योगिक घराने अपने उद्योग स्थापित करना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें आदिवासियों की जमीनों पर कब्जा करने या प्राकृतिक संसाधनों को लूटने में कोई संकोच नहीं है। 
संघ परिवार और हिन्दू राष्ट्रवाद का एजेण्डा
आरएसएस की शुरूआत, आजादी के आंदोलन के दौरान एक ऐसे संगठन के रूप में हुई जो महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन के खिलाफ था, भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा का विरोधी था और प्राचीन हिन्दू राजाओं व पशुपालक आर्यों के युग और हिन्दू धर्मग्रन्थों के महिमामंडन में विष्वास रखता था। आरएसएस की स्थापना उन लोगों ने की जो दलितों के उनके भू-अधिकार हासिल करने के आंदोलन और ब्राह्मणवाद के खिलाफ समाज में उठ रहे स्वर को दबाना चाहते थे। गैर-ब्राह्मणों के आंदोलनों के प्रणेता थे जोतिबा फुले और डाक्टर अंबेडकर। जैसे-जैसे आम लोग स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ते गए, ऊँची जातियों के श्रेष्ठी वर्ग को यह आशंका होने लगी कि समाज पर उसका प्रभुत्व खतरे में है। अंततः, इन्हीं वर्गों ने आरएसएस की स्थापना की। इस संगठन ने अपनी शाखाएं आयोजित करनी शुरू कीं और अपना एक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम तैयार किया, जिसका मूलभाव यह था कि भारत अनादिकाल से हिन्दू राष्ट्र है। आरएसएस को स्वाधीनता आंदोलन में सभी धर्मों के लोगों की भागीदारी नहीं भाती थी। उन्होंने लड़कों और युवाओं को स्वयंसेवक के रूप में प्रशिक्षित करना शुरू किया। ये लोग यह शपथ लेते थे कि वे हिन्दू राष्ट्र के लिए काम करेंगे। वे स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सेदारी नहीं करते थे। आरएसएस की स्थापना चितपावन ब्राह्मणों ने की थी और वह केवल पुरूषों का संगठन है।
आरएसएस ने अपने अधीन कई संगठनों की स्थापना की। इनमें शामिल थी राष्ट्रसेविका समिति, जो कि महिलाओं के लिए है। ज्ञातव्य है कि इसके नाम में ‘स्वयं’ शब्द गायब है। आरएसएस, पुरूषों के प्रभुत्व वाला पितृसत्तात्मक संगठन है। उसकी यह मान्यता है कि महिलाओ का समाज में दोयम दर्जा है और उन्हें पुरूषों के अधीन ही रहना चाहिए। आगे चलकर आरएसएस ने अपनी छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का गठन किया। उसके बाद उसने हिन्दू महासभा के साथ मिलकर भारतीय जनसंघ बनाया, जो कि वर्तमान भाजपा का पूर्व अवतार है। उसने विश्व हिन्दू परिषद का निर्माण किया जिसका उद्देश्य हिन्दुओं के विभिन्न पंथों को आरएसएस के नियंत्रण में लाना था। उसने आदिवासियों का हिन्दूकरण करने के लिए वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की और सड़कों पर गुंडागर्दी के लिए बजरंग दल बनाया। इसी तरह, दुर्गावाहिनी आदि जैसे कई संगठन स्थापित किए गए।
इसी तरह आरएसएस ने अपने विचारों का प्रसार-प्रचार करने के लिए भी कई संस्थाएं और संगठन स्थापित किए। इनमें शामिल हैं साप्ताहिक पाञ्चजन्य व आर्गेनाइजर और आदिवासी क्षेत्रों में एकल विद्यालय व अन्य क्षेत्रों में सरस्वती शिशु मंदिर। संघ ने विभिन्न क्षेत्रों में ब्राह्मणवादी मूल्यों की स्थापना कर अपनी वैचारिकी को मजबूती दी। स्वयंसेवकों ने राज्य के तंत्र, पुलिस, सेना व नौकरशाही में गहरे तक घुसपैठ कर ली।
वैचारिक घुट्टी
अपनी शाखाओं के द्वारा संघ, अल्पसंख्यकों के विरूद्ध घृणा फैलाने लगा। उसने धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और भारतीय संविधान का भी विरोध करना शुरू  कर दिया। उसने संचार के लगभग हर माध्यम का प्रयोग किया। उसने ‘आईटी मिलन’ आयोजित कर सूचना प्रौद्योगिकी पेशेवरों में अपनी पैठ स्थापित कर ली। संघ परिवार ने सोशल मीडिया का भी अत्यंत प्रभावकारी ढंग से इस्तेमाल किया। इस सब का नतीजा यह हुआ कि समाज पर पुरातनपंथी और दकियानूसी सोच हावी हो गई। आरएसएस ने हिन्दुत्व शब्द को भी लोकप्रिय बनाया। हिन्दुत्व, दरअसल, जातिगत व लैंगिक पदानुक्रम के ब्राह्मणवादी मूल्यों पर आधारित राजनीति का नाम है। विभ्रम के शिकार कई लोग, हिन्दुत्व को ‘जीवन पद्धति’ बताते हैं।
सन् 1960 व 1970 के दशक में, देश में हिंसा की छुटपुट घटनाएं हुईं। इनके चलते धार्मिक समुदायों का ध्रुवीकरण हो गया और साम्प्रदायिक पार्टी की शक्ति में वृद्धि की जमीन तैयार हो गई। सन् 1980 के दशक में, जैसे-जैसे राममंदिर आंदोलन जोर पकड़ता गया वैसे-वैसे हिंसा बढ़ने लगी। उत्तर भारत के कई
शहरों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। परंतु बाबरी मस्जिद के ढहाये जाने के बाद हुई हिंसा अभूतपूर्व थी। मुंबई, भोपाल और सूरत जैसे शहरों में हुई हिंसा की भयावहता और क्रूरता को शब्दों में बयान करना मुश्किल है। गोधरा ट्रेन आगजनी के बहाने गुजरात में भड़काई गई हिंसा ने देश का सिर शर्म से झुका दिया।
मोदी, गुजरात हिंसा और उसके बाद
गोधरा के बाद हुई हिंसा इस बात का उदाहरण थी कि राज्य, किस प्रकार, सक्रिय रूप से हिंसा को प्रोत्साहन दे सकता है। उसके पहले तक देश में जब भी सांप्रदायिक हिंसा होती थी, पुलिस व राज्यतंत्र या तो मूकदर्शक  बना रहता था अथवा दंगाईयों का साथ देता था। परंतु गुजरात में मोदी के नेतृत्व में राज्यतंत्र ने हिंसा को खुलकर बढ़ावा दिया। यद्यपि यह दावा किया जाता है कि गुजरात दंगों की जांच के लिए नियुक्त विशेष  जांच दल ने मोदी को क्लीनचिट दे दी है तथापि उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त न्यायमित्र राजू रामचंद्रन ने यह मत व्यक्त किया है कि एसआईटी की रपट के आधार पर मोदी के विरूद्ध मुकदमा चलाया जा सकता है।हिंसा के बाद गुजरात सरकार ने पीडि़तों के पुनर्वास की अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया। धार्मिक अल्पसंख्यकों को समाज के हाषिए पर पटक दिया गया। अहमदाबाद में बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक अपने मोहल्लों में सिमटने पर मजबूर कर दिए गए, उनके नागरिक व राजनीतिक अधिकारों को कुचल दिया गया और वे दूसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गए। अक्सर यह प्रचार किया जाता है कि मोदी राज में गुजरात तेजी से विकसित हुआ।  तथ्य यह है कि गुजरात, हमेश से विकसित राज्य रहा है। वाइबे्रण्ट गुजरात शिखर बैठकों के जरिये, गुजरात में भारी भरकम निवेश  होने के दावों में कोई दम नहीं है। निवेश के वायदे तो बहुत हुए परंतु उनमें से कम ही जमीन पर उतर सके। गुजरात, सामाजिक विकास के मानकों में अन्य राज्यों से काफी पिछड़ा हुआ है। रोजगार सृजन की दर बहुत नीची है व प्रति व्यक्ति व्यय बहुत कम है। पिछले डेढ़ दशक में गुजरात में लैंगिक अनुपात तेजी से गिरा है और गर्भवती महिलाओं का हीमोग्लोबिन का स्तर बहुत नीचा है।
हिन्दुत्व: चुनावी रणनीति
आरएसएस, चुनाव मैदान में शनैः शनैः उतरा। सन् 1984 के चुनाव में उसने गांधीवादी समाजवाद का नारा दिया और उसे लोकसभा में केवल दो सदस्यों से संतोष करना पड़ा। वहां से शुरू कर, सन् 1996 के चुनाव में उसके 120 सांसद चुनकर आए और वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। परंतु कोई भी अन्य दल उसके साथ हाथ मिलाने को तैयार नहीं था और उसकी सरकार गिर गई। ‘तीसरा मोर्चा’ बनाने के कुछ असफल प्रयासों के बाद, भाजपा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) बनाने में सफल हो गई। परंतु बदले में उसे राममंदिर, संविधान के अनुच्छेद 370 की समाप्ति व समान नागरिक संहिता जैसे अपने मूल मुद्दे छोड़ने पड़े। परंतु यह रणनीति पार्टी के लिए उपयोगी सिद्ध हुई और एनडीए ने लगभग छह वर्षों तक शासन किया। इस दौरान उसने पाठ्यपुस्तकों का सांप्रदायिकीकरण कर दिया और आरएसएस के कार्यकर्ताओं को सरकारी सेवा में घुसपैठ करने की पूरी छूट मिल गई। संघ के एजेण्डे वाले कई एनजीओ को जमकर सरकारी सहायता उपलब्ध करवाई गई। इस सब से आरएसएस के प्रभावक्षेत्र में जबरदस्त वृद्धि हुई और जीवन के सभी क्षेत्रों में उसकी उपस्थिति स्पष्ट नजर आने लगी।चूंकि हिन्दुत्व परिवार यह जानता था कि वह अपने बल पर कभी सत्ता में नहीं आ सकता, इसलिए उसने ‘विकास के गुजरात माॅडल’ को सामने रखा और हिंदुत्व के एजेण्डे को पीछे।
 हिन्दू राष्ट्र का एजेण्डा
मोदी, हिन्दुत्व के एजेण्डे के आक्रामक चेहरे का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने खुलेआम यह कहा है कि वे हिन्दू राष्ट्रवाद में यकीन करते हैं। दरअसल, हिन्दू राष्ट्रवाद उस सांप्रदायिक फासीवाद का मुखौटा मात्र है जो आरएसएस और मोदी देश पर लादना चाहते हैं। आरएसएस और मोदी के समर्थक एक ओर कार्पोरेट सेक्टर व उसके मध्य स्तर के कर्मचारी हैं तो दूसरी ओर, सूचना प्रौद्योगिकी-एमबीए युवा वर्ग भी उनसे प्रभावित है। मोदी ने गुजरात में यह दिखा दिया है कि वे उद्योगपतियों के लिए सरकारी खजाने का मुंह खोल सकते हैं। इससे कार्पोरेट सेक्टर बहुत प्रभावित है और मोदी के नाम का जाप कर रहा है। कार्पोरेट मीडिया बिना कोई जांच पड़ताल केे उनके विकास के नारे का गुणगान कर रहा है। गुजरात में समाज कल्याण की योजनाओं को लगभग ठप्प कर दिया गया है, जिसके कारण समाज का गरीब तबका परेशान हाल है। जहां तक अल्पसंख्यकों का सवाल है, सच्चर कमेटी की सिफारिशों  के आधार पर शुरू की गईं केन्द्रीय योजनाओं को गुजरात में लागू नहीं किया जा रहा है। मुस्लिम विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा जो धनराशि  राज्य को भेजी जा रही है उसे साल-दर-साल वापस लौटाया जा रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि मोदी, धार्मिक अल्पसंख्यकों की भलाई के लिए किसी भी प्रकार की योजना लागू किए जाने के खिलाफ हैं।
वे कारपोरेट जगत, मध्यम वर्ग, व्यापारियों और आरएसएस समर्थकों की पसंद हैं। इनमें से हर एक वर्ग मोदी को अलग-अलग तरीके से देखता है और तीनों को वे उपयोगी नजर आते हैं। कारपोरेट जगत मानता है कि मोदी उन्हें देश के प्राकृतिक संसाधनों को खुलकर लूटने की इजाजत देंगे। मध्यम वर्ग को यह मालूम है कि मोदी का शासन इस बात की गारंटी है कि राज्य, वंचित वर्गों और धार्मिक अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए आवश्यक सामाजिक परिवर्तन नहीं होने देगा। आरएसएस ने आडवाणी को दो कारणों से त्याग दिया है। पहला, उनका यह वक्तव्य कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष नेता थे और दूसरा यह कि उनकी आयु बहुत अधिक हो गई है। भाजपा का असली नियंत्रक आरएसएस है और वह जानता है कि मोदी एक ऐसे स्वयंसेवक हैं जो निर्ममतापूर्वक देश में हिन्दू राष्ट्र ला सकते हैं।
  कांग्रेश  शासित प्रदेशो  में अधिक हिंसा हुई है। यह भी कहा जाता है कि इससे यह सिद्ध होता है कि भाजपा, सांप्रदायिक नहीं है।कांग्रेश  शासनकाल में देश भर में अनेक दंगे हुए हैं। ये दंगे सांप्रदायिक संगठनों द्वारा भड़काए जाते हैं और कांग्रेस सरकारें निश्चित तौर पर इन दंगों को नियंत्रित न करने के लिए दोषी ठहरायी जा सकती हैं। अधिकांश  दंगा जांच आयोगों की रपटों से यह साफ है कि हिंसा की योजना बनाने से लेकर उसे अंजाम देने तक का काम सांप्रदायिक संगठन करते हैं और कांग्रेस का नेतृत्व या तो असहाय हो उन्हें देखता रहता है या अपरोक्ष रूप से उनकी मदद करता है। परंतु हमें यह याद रखना चाहिए कि एक पार्टी के बतौर भाजपा की किसी और पार्टी से तुलना न तो की जानी चाहिए और ना ही की जा सकती है। भाजपा केवल एक राजनीतिक दल नहीं है। वह आरएसएस की राजनैतिक शाखा है जिसका एजेण्डा धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक भारत के एजेण्डे के विरूद्ध है। यह भारतीय राष्ट्रवाद के विरूद्ध है, उन लोगों के सपनों के खिलाफ है जिन्होंने भारत को एक राष्ट्र का स्वरूप देने में भूमिका निभाई और गांधी, भगत सिंह व अंबेडकर की विचारधारा के भी विरूद्ध है। 
चुनाव 2014
हालिया आमचुनाव के नतीजे बहुत दिलचस्प हैं। लगभग 31 प्रतिशत वोट प्राप्त कर भाजपा-मोदी, 282 लोकसभा सीटें जीतने में सफल हो गए हैं। निःसंदेह, मोदी इस चुनाव के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व बनकर उभरे हैं। यह बार-बार कहा जा रहा है कि धर्म और जाति के बंधनों को तोड़कर, मतदाताओं ने उन्हें इसलिए समर्थन दिया क्योंकि वे ‘‘विकास के पुरोधा’’ हैं। यह दावा किस हद तक सही है? सबसे पहली बात तो यह है कि मोदी को बड़े उद्योगपतियों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त था। उनके चुनाव अभियान में पैसा, पानी की तरह बहाया गया। इसके अतिरिक्त, लाखों आरएसएस कार्यकर्ताओं ने भाजपा को जीत दिलाने के लिए जमीनी स्तर पर दिन-रात पसीना बहाया। इस तरह, मोदी की जीत के दो स्तंभ थेः पहला कारपोरेट घराने और व दूसरा आरएसएस। मोदी ने बार-बार दोहराया कि यद्यपि वे भारत की स्वतंत्रता के लिए अपनी जान न्योछावर नहीं कर सके परंतु वे स्वतंत्र भारत के लिए सब कुछ करेंगे। यह उन कई झूठों में से एक है जो उन्होंने अपनी छवि को चमकदार बनाने के लिए गढ़े थे।
हम सब जानते हैं कि वे आरएसएस-हिन्दुत्व की उस राजनैतिक विचारधारा के हामी हैं, जिसने भारत के
स्वाधीनता संग्राम में कभी हिस्सा नहीं लिया। संघ-भाजपा-हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद, स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रवाद से बिल्कुल भिन्न है।
गांधी और स्वाधीनता संग्राम का राष्ट्रवाद, भारतीय राष्ट्रवाद था जबकि मोदी परिवार का राष्ट्रवाद, हिन्दू राष्ट्रवाद है। यह जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्रवाद की तरह, एक प्रकार का धार्मिक राष्ट्रवाद है।  मुस्लिम लीग का मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू महासभा-आरएसएस का हिन्दू राष्ट्रवाद, परतंत्र भारत में दो समानांतर राजनैतिक धाराएं थीं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान संघ और उसके साथी, आजादी की लड़ाई की आलोचना किया करते थे क्योंकि वह समावेशी  भारतीय राष्ट्रवाद पर आधारित थी। इसलिए, मोदी और उनके जैसे लोगों का देश की स्वतंत्रता के लिए अपनी जान न्योछावर करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था।
मोदी की जीत के कई कारण हैं। इनमें शामिल हैं हमारी चुनाव प्रणाली, मोदी की आक्रामक शैली , कांग्रेस की कमजोरियों का लाभ उठाने में उनकी सफलता, जनता से संवाद स्थापित करने की उनकी असाधारण क्षमता और राष्ट्रपति प्रणाली की तर्ज पर चलाया गया चुनाव अभियान। इसके मुकाबले, कांग्रेस का प्रचार अभियान अत्यंत फीका था और यूपीए सरकार पर भ्रष्ट होने और अनिर्णय का शिकार होने के आरोप थे। कांग्रेस की साख को गिराने का काम अन्ना हजारे के आंदोलन से शुरू हुआ, जिसे आरएसएस का समर्थन प्राप्त था। इस आंदोलन को केजरीवाल आगे ले गए और उन्होंने कांग्रेस की जीत की संभावनाओं को धूमिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। केजरीवाल ने भाजपा के भ्रष्टाचार के बारे में काफी देर से बोलना शुरू किया और वह भी काफी हिचकिचाहट के साथ। ऐसा क्यों हुआ, यह कहना मुष्किल है। अन्ना, जिन्हें दूसरा गांधी बताया जा रहा था, मंच पर अपनी भूमिका निभाकर अदृष्य हो गए। केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने सामाजिक आंदोलन को राजनैतिक दल की शक्ल दे दी। इससे सभी सामाजिक आंदोलनों की साख और उनके असली इरादों पर प्रश्नचिन्ह लगा। आप का भ्रष्टाचार विरोधी प्रचार, मुख्यतः कांग्रेस पर केन्द्रित था। आप ने इस तथ्य को नजरअंदाज किया  कि भ्रष्टाचार हमारी सामाजिक व्यवस्था में गहरे तक पैठी विकृतियों का नतीजा है। यह भी तथ्य है कि भ्रष्टाचार वही कर सकता है जो सत्ता में हो और समाज का वह वर्ग, जो जल्द से जल्द अमीर बन जाना चाहता है, भी भ्रष्टाचार के लिए उतना ही दोषी है जितना कि भ्रष्ट मंत्री या अधिकारी। आप ने 400 से अधिक उम्मीदवार खड़े किए, जिनमें से अधिकांष ने अपनी जमानतें गवां दीं। इनमें से कई उम्मीदवार ऐसे थे जिनकी जनता में बहुत उजली छवि थी और जिन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए अथक और कठिन संघर्ष किए थे। आप ने कांग्रेस की साख को गिराने में महती भूमिका निभाई। उसने भाजपा को भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने वाले दल के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने में मदद की। आप ने काफी बाद में भाजपा के भ्रष्टाचार के बारे में बात करनी शुरू की। 
जहां तक ‘विकास’ के एजेण्डे का सवाल है, मोदी ने गुजरात कत्लेआम में अपनी भूमिका निभाने के बाद, जल्दी ही गुजरात के विकास के नारे का दामन थाम लिया। गुजरात के विकास का मिथक, अरबपति उद्योगपतियों के प्रति राज्य सरकार की उदारता पर आधारित था। गुजरात सरकार से मिल रहे लाभों के बदले, उद्योगपतियांे ने 2007 से ही ‘‘मोदी को प्रधानमंत्री होना चाहिए’’ के मंत्र का अनवरत जाप शुरू कर दिया था। जहां गुजरात में धार्मिक अल्पसंख्यकों को समाज के हाशिए पर पटक दिया गया और उन्हें दूसरी श्रेणी का नागरिक बना दिया गया वहीं गुजरात के विकास के किस्से देशभर में गूंजने लगे। दूसरे राजनीतिक दलों और अध्येताओं ने लंबे समय तक इन दावों को चुनौती नहीं दी। जब गुजरात के समााजिक-आर्थिक सूचकांकों व अन्य आंकड़ों का आलोचनात्मक विष्लेषण किया गया तब गुजरात के विकास का सच सामने आया; परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इस सच को आमजनों तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त समय नहीं बचा था।
सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि मोदी का चुनाव अभियान केवल विकास के एजेण्डे पर आधारित था। परंतु यह सच नहीं है। मोदी ने सांप्रदायिकता और जाति के कार्ड को जमकर खेला। यह काम अत्यंत कुटिलता से किया गया। उन्होंने भारत से मांस के निर्यात की आलोचना की और उसे पिंक रेव्युलेशन बताया। इसका उद्देश्य मुस्लिम अल्पसंख्यकों को गौहत्या से जोड़ना था। इस तरह, उन्होंने एक आर्थिक मुद्दे को सांप्रदायिक मुद्दे मंे बदल दिया। मोदी बार-बार बांग्लाभाषी मुसलमानों के विरूद्ध बोलते रहे। उन्होंने अपनी अनेक जनसभाओं में कहा कि असम की सरकार एक सींग वाले गेंडे को मारकर, बांग्लादेशी घुसपैठियांे के लिए जगह बना रही है। उन्होंने यह भी कहा कि बांग्लादेशी  घुसपैठियों को 16 मई को अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर भारत से प्रस्थान करने के लिए तैयार रहना चाहिए। ये सारी बातें उनके चुनाव प्रचार के सांप्रदायिक चेहरे को उजागर करने के लिए काफी हैं। भाजपा के प्रवक्ता कई बार कह चुके हैं कि जहां बांग्लाभाषी हिन्दू शरणार्थी हैं, वहीं बांग्लाभाषी मुसलमान घुसपैठिए हैं। उनकी पार्टी के नेता अमित शाह ने मुजफ्फरनगर में ‘प्रतिशोध’ की बात कही और गिरीराज सिंह ने यह चेतावनी दी कि मोदी के विरोधियों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए।
अगर हम उन क्षेत्रों पर नजर डालें जहां भाजपा ने विजय प्राप्त की है तो अत्यंत चिंताजनक तथ्य सामने आता है। ऊपर से देखने पर तो प्रतीत होता है कि भाजपा की विजय के पीछे विकास का वायदा था परंतु इस जीत में धार्मिक धु्रवीकरण की भूमिका को नकारना बचपना होगा। भाजपा को उन्हीं क्षेत्रों में अधिक सफलता मिली है जहां सांप्रदायिक या आतंकवादी हिंसा के कारण, सांप्रदायिक धु्रवीकरण हुआ है। महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार व असम-इन सभी राज्यों में अलग-अलग समय पर व्यापक सांप्रदायिक हिंसा हुई है। इसके विपरीत, तमिलनाडु, बंगाल और केरल, जो सांप्रदायिक हिंसा से तुलनात्मक रूप से मुक्त रहे हैं, वहां भाजपा अधिक सफलता अर्जित नहीं कर सकी है। इस मामले में उड़ीसा एक अपवाद है, जहां ईसाई-विरोधी कंधमाल हिंसा के बावजूद, नवीन पटनायक की पार्टी ने अपनी पकड़ बनाए रखी है।
सांप्रदायिक हिंसा व आरएसएस-भाजपा-मोदी की जीत के अंतर्संबंध का गहन अध्ययन आवश्यक है। इसी तरह, सांप्रदायिक व आतंकवादी हिंसा के कारण होने वाले सांप्रदायिक धु्रवीकरण का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। यह मात्र संयोग नहीं है कि विकास के मिथक से देश के केवल उन हिस्सों के मतदाता प्रभावित हुए जहां पिछले कुछ वर्षों में हिंसा हुई थी। सांप्रदायिक हिंसा की जांच करने वाले अधिकांश आयोगों ने दंगों के लिए संघ की मशीनरी को जिम्मेदार ठहराया है।यद्यपि मोदी ने खुलकर जाति का कार्ड नहीं खेला परंतु उन्होंने प्रियंका गांधी के ‘नीच राजनीति’ के आरोप को तोडमरोड़ कर, ‘नीच जाति’ में परिवर्तित कर अपनी जाति का ढिंढोरा पीटने का अवसर ढंूढ लिया। उन्होंने अपनी जाति घांची का बार-बार नाम लिया ताकि वे नीची जातियों के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकें।
मोदी की जीत के क्या मायने हैं? मुंबई, गुजरात, मुजफ्फरनगर और ढेर सारी अन्य जगहों में हुए सांप्रदायिक दंगों ने हमारे समाज के एक हिस्से में गहरे तक असुरक्षा का भाव भर दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के कठिन संघर्ष के बावजूद, हमारी न्यायिक प्रणाली बहुत धीमी गति से काम कर रही है और पीडि़तों को न्याय नहीं मिल सका है।
अपराधी यह दावा करते घूम रहे हैं कि वे निर्दोष हैं और उन्हें क्लीन चिट मिल गई है। मोदी की इस जीत में कई चीजें पहली बार हुई हैं। यह भी पहली बार हुआ है कि एक ऐसा व्यक्ति, जिसपर कत्लेआम में भागीदारी का आरोप है, देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठेगा। ऐसे में भारतीय प्रजातंत्र का क्या भविष्य है? भारतीय संविधान के मूल्य कितने सुरक्षित रह सकेंगे? क्या मोदी, हिन्दू राष्ट्रवाद के अपने मूल एजेण्डे को त्यागेंगे? क्या वे उस विचारधारा से अपने को अलग करंेगे, जो उनकी राजनीति का आधार है? या वे अपने आकाओं को हिन्दू राष्ट्र भेंट में देंगे? इन प्रष्नों का सही उत्तर देने के लिए कोई ईनाम नहीं है।  
मोदी का व्यक्तित्व: एकाधिकार-फासीवादी
आमचुनाव में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से उनकी तुलना एक ओर रिचर्ड निक्सन, मार्गरेट थैचर व रोनाल्ड रीगन से की जा रही है तो दूसरी ओर हिटलर से। हिटलर से उनकी तुलना की कई विष्लेषकों ने कड़े शब्दों में निंदा की है। उनका कहना है कि न तो मोदी, हिटलर हैं और ना ही 2014 का भारत, 1930 का जर्मनी है। इन विष्लेषकों का कहना है कि प्रथम विश्वयुद्ध में हार के बाद, जर्मनी एक बहुत कठिन दौर से गुजर रहा था। सन् 1920 के दषक के अंत में आई  विश्वव्यापी मंदी ने जर्मनी में हालात को बद से बदतर बना दिया था। यही वे परिस्थितियां थीं, जिनमें हिटलर और उसकी नरसंहार की राजनीति का उदय हुआ। हिटलर के उदय के पीछे एक कारक यह भी था कि जर्मनी में प्रजातंत्र कमजोर था व केवल 30 प्रतिशत मत हासिल कर नाजी वहां सत्ता में आ गए थे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि दो अलग-अलग कालों में, दो अलग-अलग देशों की राजनैतिक परिस्थितियां कभी एकदम एक-सी नहीं हो सकतीं। परंतु यह भी सच है कि कभी-कभी उनमें अंतर बहुत सतही होते हैं जबकि समानताएं मूलभूत होती हैं। यह सही है कि भारत को उस तरह का अपमान बर्दाश्त नहीं करना पड़ा है जैसा कि जर्मनी को प्रथम  विश्वयुद्ध में करना पड़ा था। परंतु यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में अन्ना हजारे के आंदोलन से शुरू कर, अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी आदि ने देश  की जनता में राजनैतिक व्यवस्था व शासक दल के प्रति गहरे अविष्वास के भाव को जन्म दिया है। इस मोहभंग को अत्यंत योजनाबद्ध तरीके से उत्पन्न किया गया। अन्ना के आंदोलन के पीछे वही आरएसएस था, जो मोदी के उदय के पीछे है। निरंतर दुष्प्रचार और आम लोगों की भागीदारी से व्यापक आंदोलन चलाकर, अन्ना हजारे ने वर्तमान व्यवस्था के प्रति गंभीर अविष्वास व आक्रोष का माहौल पैदा किया। शासक दल की विष्वसनीयता को गहरी चोट पहुंचाई। केजरीवाल ने नागरिक समूहों की सहायता से शासक दल की विष्वसनीयता को और गिराया।
जहां तक प्रजातंत्र का सवाल है, भारत में प्रजातंत्र अभी भी विकास के दौर में है। वह पूरी तरह से परिपक्व नहीं हुआ है। एक ओर प्रजातंत्र के प्रति जागरूकता बढ़ रही है और लोग पहले से कहीं अधिक संख्या में मत दे रहे हैं-जो कि एक सकारात्मक परिवर्तन है-तो दूसरी ओर, शासन के वेस्टमिंसटर माॅडल ने भारतीय प्रजातंत्र के प्रातिनिधिक चरित्र को कमजोर किया है। जर्मनी में नाजी केवल 30 प्रतिषत वोट पाकर सत्ता में आ गए थे। सन् 2014 में भारत में भाजपा केवल 31 प्रतिषत वोट हासिल कर लोकसभा में बहुमत प्राप्त करने और अपनी सरकार बनाने में सफल हो गई है! भारतीय प्रजातंत्र को दूसरा खतरा जातिगत व लैंगिक पदानुक्रम से है। इस पदानुक्रम के चलते, महिलाओं और दलितों के साथ अन्याय हो रहा है परंतु समाज का इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं है। राज्यतंत्र का सांप्रदायिकीकरण भी भारतीय प्रजातंत्र के लिए खतरा है। इसके चलते, धार्मिक अल्पसंख्यक नियमित रूप से हिंसा के शिकार हो रहे हैं और उन्हें न्याय नहीं मिल रहा है। देश के विभिन्न इलाकों में हुए बम धमाकों के बाद, बड़ी संख्या में निर्दोष युवकों को गिरफ्तार कर उनकी जिंदगियां और कैरियर बर्बाद कर दिये गए। यद्यपि अदालतें उन्हें बरी कर रही हैं परंतु इस प्रक्रिया में लंबा समय लगता है और तब तक ऐसे युवकों का जीवन तबाह हो चुका होता है। इसके समानांतर, अल्पसख्यंकों के दानवीकरण की प्रक्रिया भी चल रही है और कुछ क्षेत्रों में उन्हें दूसरे दर्जे के नागरिक का जीवन बिताने पर मजबूर होना पड़ रहा है।
हिटलर, यहूदियों और संसदीय प्रजातंत्र के प्रति अपनी घृणा को सार्वजनिक व खुले रूप में व्यक्त करता था। मोदी यद्यपि ऐसा नहीं करते तथापि वे ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ के हामी हैं और हिन्दू राष्ट्रवाद की मूल अवधारणाओं में से एक यह है कि केवल हिन्दुओं को ही देश का नागरिक होने का हक है। ‘विदेशी  धर्मों’ जैसे इस्लाम व ईसाईयत के मानने वालों को हिंदू राष्ट्र के लिए खतरा समझा जाता है। आरएसएस के सबसे प्रसिद्ध विचारक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ए बंच आॅफ थाॅट्स मंे हिन्दू राष्ट्रवाद को परिभाषित किया है। मोदी इसी विचारधारा में यकीन करते हैं और यह विचारधारा, हिटलर की विचारधारा से काफी हद तक मिलती-जुलती है। हिटलर द्वारा यहूदियों के कत्लेआम को जायज व प्रशंसनीय ठहराते हुए, मोदी के वैचारिक गुरू, गोलवलकर लिखते हैं, ‘‘...अपने राष्ट्र और संस्कृति की शुद्धता को बनाये रखने के लिए जर्मनी ने अपने देश को यहूदियों से मुक्त कर दुनिया को चौका दिया। यह राष्ट्रीय गौरव का उच्चतम प्रकटीकरण था। जर्मनी ने यह दिखा दिया है कि जिन नस्लों व संस्कृतियों के बीच मूलभूत अंतर होते हैं, उन्हें एक राष्ट्र के रूप में संगठित करना संभव नहीं है। इससे हिन्दुस्तान बहुत कुछ सीख सकता है, लाभांवित हो सकता है’’।
मोदी ने ठीक यही गुजरात में किया, जहां करीब 2,000 लोगों को अत्यंत क्रूरता से मौत के घाट उतार दिया गया और मुसलमानों का एक बड़ा तबका अपमान और वंचना सहने पर मजबूर कर दिया गया। मुसलमानों को उनके मोहल्लों में कैद कर दिया गया है, जहां नागरिक सुविधाओं का नितान्त अभाव है। 
एक जर्मन प्रतिनिधिमंडल, जिसने अप्रैल 2010 में गुजरात की यात्रा की थी, के एक सदस्य ने कहा था कि उसे यह देखकर बहुत धक्का लगा कि हिटलर के राज में  जर्मनी और मोदी के राज में गुजरात में कितनी समानताएं हैं। यहां यह याद दिलाना समीचीन होगा कि गुजरात में स्कूली पाठ्यपुस्तकों में हिटलर का एक महान राष्ट्रवादी के रूप में महिमामंडन किया गया है। मोदी और हिटलर की समानताएं यहीं खत्म नहीं होतीं। हिटलर की तरह, मोदी को भी कारपोरेट धनकुबेरों का पूरा समर्थन प्राप्त है। हिटलर की तरह, मोदी भी धार्मिक अल्पसंख्यकों से घृणा करते हैं और उन्होंने यह स्वयं स्वीकार किया है कि वे हिन्दू राष्ट्रवाद में विश्वास रखते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति उनके रवैये व उनके व्यक्तित्व का अत्यंत सटीक वर्णन, मनोविश्लेशक आशीश  नंदी ने किया है। आशीश नंदी ने मोदी का साक्षात्कार, गुजरात कत्लेआम के काफी पहले लिया था। वे लिखते हैं ‘‘...मुझे मोदी का साक्षात्कार लेने का अवसर प्राप्त हुआ...उसके बाद मेरे मन में तनिक भी संदेह नहीं रह गया कि वे एक पक्के व विशुद्ध फासीवादी हैं। मैंने कभी ‘फासीवादी’ शब्द का प्रयोग गाली के रूप में नहीं किया। मेरे लिए वह एक बीमारी है जिसका संबंध व्यक्ति की विचारधारा के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व व उसके प्रेरणास्त्रोतों से भी है।’
जहां 1930 के जर्मनी और 2014 के भारत में बहुत अंतर हैं वहीं उनमें बहुत सी समानताएं भी हैं। हिटलर और मोदी की पृष्ठभूमि अलग-अलग है परंतु दोनों की राजनीति, सम्प्रदायवादी राष्ट्रवाद पर आधारित है। दोनों चमत्कारिक नेता हैं और दोनों ‘दूसरे’ का दानवीकरण करने में दक्ष हैं। दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र का भविष्य डावांडोल है। यदि हमें संभावित खतरों से बचना है तो हमें यह सुनिष्चित करना होगा कि देश  में कानून का राज हो, सबको न्याय मिले और प्रजातांत्रिक व मानवाधिकार आंदोलनों को मजबूत किया जाए। हमें ऐसे सामाजिक आंदोलनों को बढ़ावा देना है जो समावेशी  हों और स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों में न केवल दृढ़ विष्वास रखते हों बल्कि उनकी स्थापना के लिए संघर्ष करने को उद्यत भी हों।

मोदी के सत्ता में आने के बाद
मोदी को प्रधानमंत्री की गद्दी संभाले अभी कुछ ही हफ्ते बीते हैं परंतु अभी से उनका असली एजेण्डा देश  के सामने आने लगा है। हिन्दू दक्षिणपंथी तत्व आक्रामक हो उठे हैं और खुलकर हिंसा कर रहे हैं। राज्यतंत्र अपने पूर्वाग्रह छिपाने का प्रयास तक नहीं कर रहा है। केरल के एक कालेज के प्राचार्य और छःह छात्रों को मोदी का चित्र, हिटलर और ओसामा के साथ लगाने के बाद, गिरफ्तार कर लिया गया है। गोवा में एक व्यक्ति को पुलिस ने मोदी के खिलाफ फेसबुक पर टिप्पणी करने के कारण हिरासत में ले लिया। मोदी की चुनावी विजय के बाद जो हिंसा हुई और हो रही है, वह आने वाले समय का संकेत है। बालठाकरे और शिवाजी के रूपांतरित चित्र, सोशल वेबसाईटों पर अपलोड होने के कुछ समय बाद ही पुणे में अल्पसंख्यकों पर योजनाबद्ध हमले शुरू हो गए (मई 2014) जिसके दौरान एक सूचना प्रौद्योगिकी पेशेवर को सिर्फ इसलिए जान से मार डाला गया क्योंकि उसकी दाढ़ी बड़ी हुई थी और वह पठानी सूट पहने था। संघ परिवार के सदस्यों ने अपने हिन्दुत्ववादी एजेण्डे को लागू करने के प्रयास शुरू कर दिए हैं। वे मांग कर रहे हैं कि धारा 370 समाप्त की जाए, समान नागरिक संहिता लागू हो और राममंदिर का निर्माण शुरू हो। नागरिक अधिकार संगठनों को कुचलने के प्रयास  शुरू हो गए हैं। उन संगठनों को निशाना बनाया जा रहा है जो पर्यावरणीय नियमों के उल्लंघन और आदिवासियों के अधिकारों के अतिक्रमण का विरोध कर रहे हैं। जो एनजीओ बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा स्थानीय रहवासियों को बेदखल करने और पर्यावरण को हानि पहुंचाने का विरोध कर रहे हैं, उन्हें निशाना बनाया जा रहा है। जिन एनजीओ पर पहले यह आरोप लगाया जाता था कि वे विदेशी कंपनियों के इशारे पर काम कर रहे हैं, उनके बारे में ही अब यह कहा जा रहा है कि वे इन कंपनियों द्वारा भारत में निवेश की राह में बाधक बन रहे हैं।
मोदी ने अपने हाथों में सत्ता का केन्द्रीकरण शुरू कर दिया है। भारत सरकार के सचिवों से कहा गया है कि वे सीधे मोदी को रिपोर्ट करें। केबिनेट व्यवस्था को कमजोर किया जा रहा है। हिन्दुत्ववादी अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया जा रहा है। कई पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है और आरएसएस का अनुशांगिक संगठन, शिक्षा बचाओ आंदोलन ने अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं। कई प्रकाशक इतने आतंकित हो गए हैं कि उन्होंने अपनी पूर्व में प्रकाशित  किताबों का पुनर्वालोकन शुरू कर दिया है। इनमें मेघा कुमार की पुस्तक ‘‘कम्युनलिज्म एण्ड जेंडर वायलेंसः अहमदाबाद सिन्स 1969’’ शामिल है।

नई सरकार और सामाजिक आंदोलन
चुनाव में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद, समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों के लिए संघर्षरत व्यक्तियों और संगठनों ने प्रजातांत्रिक अधिकारों और उदारवादी मूल्यों की रक्षा के लिए नई रणनीति बनाने पर विचार शु रू कर दिया है। एक एकाधिकारवादी शासक धीरे-धीरे देश पर हिन्दू राष्ट्र का एजेण्डा लाद सकता है, यह खतरा अब स्पष्ट नजर आ रहा है। मोदी सरकार के पहले महीने ने ही आने वाले दिनों के बारे में कई आशंकाओं को जन्म दिया है। ऐसा स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि यह सरकार प्रजातांत्रिक अधिकारों के लिए खतरा है। प्रजातांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करने के लिए कई नागरिक समाज समूह एक दूसरे से हाथ मिला रहे हैं। इस पर भी विचार किया जा रहा है कि किस तरह एक ऐसे ऐसे समाज के निर्माण के हमारे सपने को पूरा किया जा सकता है जिसमें अभिव्यक्ति व आस्था की स्वतत्रंता हो और हमारी विविधता का सम्मान भी। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत समूहों को एकजुट होना होगा।
सन् 1992-93 की मुंबई हिंसा से सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ संघर्ष की आवश्यकता रेखांकित हुई थी। सन् 2002 के गुजरात कत्तेलाम और 2008 के कंधमाल हिंसा ने यह स्पष्ट कर दिया कि सांप्रदायिक तत्वों के खिलाफ संघर्ष अनिवार्य व अपरिहार्य है। ये नागरिक समूह मिलकर उस धुरी की स्थापना कर सकते हैं जो समाज के कमजोर वर्गों के मानवाधिकारों की रक्षा का केन्द्र बन सके। सामाजिक संगठनों को एक मंच पर लाया जाना आवश्यक है। अगर संसद कोई  दमनकारी कानून बनाती है या राज्य तंत्र नागरिकों के किसी समूह के साथ भेदभाव करता है तो इसके विरोध में सड़कों पर उतरने से लेकर अदालतों के दरवाजे खटखटाने तक हर संभव उपाय करना होगा।
यह साफ है कि हम चाहे अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ रहे हों या फिर महिलाओं के अधिकारों के लिए पर्यावरण की रक्षा के लिए, या अल्पसंख्यकों के अधिकारों की खातिर-हम सब को एक होना होगा। और यह काम हर शहर, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए। वामपंथी पार्टियों को जनता से संबंधित मुद्दों को गंभीरता से लेना होगा और सामाजिक आंदोलनों को अपना समर्थन व सहयोग उपलब्ध करवाना होगा। तभी हम अपने प्रजातंत्र और प्रजातांत्रिक अधिकारों को सुरक्षित रख सकेंगे।
-राम पुनियानी
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