राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन दो की सरकार ने अपने पहले बजट के समर्थन में एक बेबाक सच का सहारा लिया है। डंके की चोट पर कहा है कि ‘प्रो. बिजनेस’ यानी व्यवसाय और व्यवसायी पक्षीय और उनके प्रति सकारात्मक समर्थक-सहायक नीतियों का पालन करके वे गरीबों के पक्ष के, उनके लिए हितकर नतीजे दे सकते हैं। वर्तमान भारत की स्थिति के संदर्भ में उनके इस विचार के समर्थन में हम प्रतिष्ठित, नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के विचार का भी हवाला दे सकते हैं। अभी कुछ अरसे पहले जयपुर की एक ‘साहित्यकार’ की सभा में कहा था कि 16वीं लोकसभा में वे एक व्यवसाय व्यवसायी (प्रो. बिजनेस) समर्थक, किन्तु पंथ निरपेक्ष शासकदल को देखना चाहेंगे। पंथ-निरपेक्षता के प्रमाण खोजने के लिए तो सरकार का सालाना बजट शायद उपयुक्त मंच नहीं हो, किन्तु व्यवसायी व्यवसाय पोषक तत्वों से सन् 2014-15 का केन्द्रीय बजट लबालब भरा हुआ है। ठीक यूपीए दो की नीतियों की तरह ही, ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है: यह एक निरन्तर जारी प्रतिबद्धता की नवीनतम कड़ी भर है। किन्तु फिर भी स्पष्ट नजर आता है कि सोच, प्रतिबद्धता और राजनैतिक, सामाजिक रणनीति का खुल्लमखुला बयान, इसको किसी झाँसेबाजी के शब्दजाल से मुक्त रखना, अपने आप में उल्लेखनीय ही नहीं, प्रसंशनीय भी है। जनता को सच्चाई जानकर निर्णय करने का मौका मिल रहा है। लम्बे अरसे से जीडीपी वृद्धि, निवेश-प्रोत्साहन आदि को भारत के आर्थिक विकास का, यहाँ तक कि सामाजिक समावेशक विकास का जरिया भी बताया जाता रहा है, बिना यह बताए कि यह मूलरूप से व्यवसायों और व्यवसायियों के हितों, उद्देश्यों और स्वार्थों-हितों को बढ़ाने का रास्ता है। गैर बराबरी और व्यापक वंचना की जमीन पर व्यवसाय की आजादी गैर बराबरी के वटवृक्ष को और सींचेगी। अचंभे की बात है कि इसके संभावित अधोगामी प्रभावों द्वारा गरीबों की हित साधना अपेक्षित मानी गयी है बिना व्यवसाय व्यवसायी पक्षधर नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं के अनिवार्य रूप से ऊर्द्ध प्रवाहमान (गशिंग-अप) केन्द्रीयकृत प्रभावों से कोई छेड़छाड़ या उन पर अंकुश लगाए। आखिर छुई-मुई जैसी व्यवसायी, निवेशक, धनीमानी तबकों की अति संवेदी उद्यमिता को अक्षुण्ण रखे बिना जीडीपी यानी बाजाराधारित राष्ट्रीय उत्पादन और उसकी अनिवार्य शर्त बढ़ते निवेश को लगातार बढ़ाये रखना (जो कि प्रत्यक्ष और मूल घोषित उद्देश्य है) संभव नहीं माना गया है। विषमता वर्द्धन, धनियों को और ज्यादा धनी बनाने और राज्य द्वारा इस प्रक्रिया को सबल बनाने की जगह सीधे-सीधे, बड़ी और पहली प्राथमिकता की तरह सबको पर्याप्त, पुख्ता और सम्मानजनक रूप मंे आजीविका की गारन्टी आदि को राजग दो की व्यवसाय और व्यवसायी मित्रता में जगह नहीं मिल पाती है। इन नीतियों में टैक्स कटौती का स्व-घोषित तड़का राज्य की वित्तीय क्षमता को कड़ी संकीर्ण सीमाओं में बांध देती है, खासकर राज्य द्वारा मौद्रिक प्रसार की कड़ी सीमा में बांधने को अपनी पीठ आप ठोकने का कारण मानने के चलते। जाहिर है राज्य अपनी बिना पर सामाजिक सुरक्षा, जन कल्याण तथा और व्यवसायी वर्गों के लिये जीवन की सुख सुविधाएँ और गुणवत्ता सुधारने और उनकी उत्पादन क्षमता स्थापित करने और बढ़ाने के लिए मात्र क्षमता स्थापित करने और बढ़ाने के लिए मात्र सांकेतिक खर्च कार्यक्रम ही अपने हाथों में ले पाती है। मुख्यतः चलते आ रहे कार्यक्रमों की लकीर पीटते रहने और उन्हें घोषित रूप से घटाने हटाने का साहस नहीं जुटा सकने के कारण हमने ईमानदारी से अपनी नीतियों का रूप खुलकर सार्वजनिक करने के राजग दो के वक्तव्य की प्रशंसा से इस लेख की शुरूआत की थी किन्तु भूलना नहीं चाहिए कि राजनैतिक ईमानदारी की सीमाएँ लांघना भी एक हद तक ही देखा गया है। अनेक बड़े छलावों भुलावों की नींव पर ही तो सोलहवीं लोकसभा का चुनाव लड़ा गया था। अब किस्तों में हमें उनके पीछे छिपे सचों को उजागर होने की प्रतीक्षा करनी होगी।
लोकसभा चुनाव के कटु तथा अतिरंजित धुआंधार प्रचार में अर्थव्यवस्था की दयनीय स्थिति पेश की गई थी। इस साल की सरकारी आर्थिक समीक्षा में दिए गए नवीनतम आंकड़ों से इसकी पुष्टि भी होती है। अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए राजग दो सरकार के बजट को पहला बड़ा बहुमुखी प्रयास माना जा सकता है। देश की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक चुनौतियांे (महंगाई, बेरोजगारी, सामान्य सामाजिक सेवाओं तथा आधारभूत सुविधाओं की गहन अपर्याप्तता) को सभी रेंखांकित करते रहते हैं। इनके दुष्प्रभाव से आम जन दुखी है। आम आदमी की पक्षधर अर्थव्यवस्था की आस लोग दशकों से लगाए हुए हैं। ऐसा तो नहीं हो पाया किन्तु दो भिन्न दिशाओं में चल रही नावों की सवारी करने के लिए मूल स्वरूप राजकीय राजस्व की अपर्याप्तता, विदेशी लेन देन का बढ़ता घाटा, बैंक कर्जों का डूबते खाते में जाना, कर चोरी तथा देश से काले धन का पलायन ने अर्थव्यवस्था के रीढ़ को कमजोर अवश्य कर दिया है। इससे राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर मंे सुस्ती तो आई ही है, इसने अर्थव्यवस्था के प्रबंधन संचालन की विफलता और कमजोरी को भी प्रकट किया है।
पिछले, 23-24 सालों से चली आ रही नीतियों ने थोड़े अरसे के लिए अच्छी वृद्धि दर दी जरूर लेकिन फिर वे अनिवार्यतः अपनी मंथर गति और अघोषित गुप्त गतिविधियों में लिप्त हो गईं। बीते दो तीन दशकों में बड़ी कम्पनियांे को दिन दूना रात चैगुणा मुनाफा हुआ हैं परन्तु मजदूर और आम आदमी की स्थिति दयनीय हुई है। आंकड़ों पर गौर किया जाए तो पिछले तीन दशकों के फैक्टरी उत्पादन में मजदूरी वेतन आदि का अनुपात 40.6 प्रतिशत से घटकर 22 प्रतिशत के इर्द-गिर्द हो गया हैं 1980 के दशक के मुकाबले इस सदी के पहले दशक में मुनाफों का हिस्सा दो गुणा हो गया है। संगठित रोजगार की ओर किसी का ध्यान नहीं है। पक्के संगठित रोजगार की वृद्धि दर करीब 6 प्रतिशत वृद्धि दर के औसत के साथ मात्र 0.5 प्रतिशत रह गई है। देश में प्रति वर्ष सवा करोड़ युवाओं को रोजगार की आवश्यकता प्रो. ग्रोथ से प्रो. बिजनेस: बदले मुखौटों के पीछे वही ढाक के तीन पात
-कमल नयन काबरा
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन दो की सरकार ने अपने पहले बजट के समर्थन में एक बेबाक सच का सहारा लिया है। डंके की चोट पर कहा है कि ‘प्रो. बिजनेस’ यानी व्यवसाय और व्यवसायी पक्षीय और उनके प्रति सकारात्मक समर्थक-सहायक नीतियों का पालन करके वे गरीबों के पक्ष के, उनके लिए हितकर नतीजे दे सकते हैं। वर्तमान भारत की स्थिति के संदर्भ में उनके इस विचार के समर्थन में हम प्रतिष्ठित, नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमत्र्यसेन के विचार का भी हवाला दे सकते हैं। अभी कुछ अरसे पहले जयपुर की एक ‘साहित्यकार’ की सभा में कहा था कि 16वीं लोकसभा में वे एक व्यवसाय व्यवसायी (प्रो. बिजनेस) समर्थक, किन्तु पंथ निरपेक्ष शासकदल को देखना चाहेंगे। पंथ-निरपेक्षता के प्रमाण खोजने के लिए तो सरकार का सालाना बजट शायद उपयुक्त मंच नहीं हो, किन्तु व्यवसायी व्यवसाय पोषक तत्वों से सन् 2014-15 का केन्द्रीय बजट लबालब भरा हुआ है। ठीक यूपीए दो की नीतियों की तरह ही, ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है: यह एक निरन्तर जारी प्रतिबद्धता की नवीनतम कड़ी भर है। किन्तु फिर भी स्पष्ट नजर आता है कि सोच, प्रतिबद्धता और राजनैतिक, सामाजिक रणनीति का खुल्लमखुला बयान, इसको किसी झाँसेबाजी के शब्दजाल से मुक्त रखना, अपने आप में उल्लेखनीय ही नहीं, प्रसंशनीय भी है। जनता को सच्चाई जानकर निर्णय करने का मौका मिल रहा है। लम्बे अरसे से जीडीपी वृद्धि, निवेश-प्रोत्साहन आदि को भारत के आर्थिक विकास का, यहाँ तक कि सामाजिक समावेशक विकास का जरिया भी बताया जाता रहा है, बिना यह बताए कि यह मूलरूप से व्यवसायों और व्यवसायियों के हितों, उद्देश्यों और स्वार्थों-हितों को बढ़ाने का रास्ता है। गैर बराबरी और व्यापक वंचना की जमीन पर व्यवसाय की आजादी गैर बराबरी के वटवृक्ष को और सींचेगी। अचंभे की बात है कि इसके संभावित अधोगामी प्रभावों द्वारा गरीबों की हित साधना अपेक्षित मानी गयी है बिना व्यवसाय व्यवसायी पक्षधर नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं के अनिवार्य रूप से ऊर्द्ध प्रवाहमान (गशिंग-अप) केन्द्रीयकृत प्रभावों से कोई छेड़छाड़ या उन पर अंकुश लगाए। आखिर छुई-मुई जैसी व्यवसायी, निवेशक, धनीमानी तबकों की अति संवेदी उद्यमिता को अक्षुण्ण रखे बिना जीडीपी यानी बाजाराधारित राष्ट्रीय उत्पादन और उसकी अनिवार्य शर्त बढ़ते निवेश को लगातार बढ़ाये रखना (जो कि प्रत्यक्ष और मूल घोषित उद्देश्य है) संभव नहीं माना गया है। विषमता वर्द्धन, धनियों को और ज्यादा धनी बनाने और राज्य द्वारा इस प्रक्रिया को सबल बनाने की जगह सीधे-सीधे, बड़ी और पहली प्राथमिकता की तरह सबको पर्याप्त, पुख्ता और सम्मानजनक रूप मंे आजीविका की गारन्टी आदि को राजग दो की व्यवसाय और व्यवसायी मित्रता में जगह नहीं मिल पाती है। इन नीतियों में टैक्स कटौती का स्व-घोषित तड़का राज्य की वित्तीय क्षमता को कड़ी संकीर्ण सीमाओं में बांध देती है, खासकर राज्य द्वारा मौद्रिक प्रसार की कड़ी सीमा में बांधने को अपनी पीठ आप ठोकने का कारण मानने के चलते। जाहिर है राज्य अपनी बिना पर सामाजिक सुरक्षा, जन कल्याण तथा और व्यवसायी वर्गों के लिये जीवन की सुख सुविधाएँ और गुणवत्ता सुधारने और उनकी उत्पादन क्षमता स्थापित करने और बढ़ाने के लिए मात्र क्षमता स्थापित करने और बढ़ाने के लिए मात्र सांकेतिक खर्च कार्यक्रम ही अपने हाथों में ले पाती है। मुख्यतः चलते आ रहे कार्यक्रमों की लकीर पीटते रहने और उन्हें घोषित रूप से घटाने हटाने का साहस नहीं जुटा सकने के कारण हमने ईमानदारी से अपनी नीतियों का रूप खुलकर सार्वजनिक करने के राजग दो के वक्तव्य की प्रशंसा से इस लेख की शुरूआत की थी किन्तु भूलना नहीं चाहिए कि राजनैतिक ईमानदारी की सीमाएँ लांघना भी एक हद तक ही देखा गया है। अनेक बड़े छलावों भुलावों की नींव पर ही तो सोलहवीं लोकसभा का चुनाव लड़ा गया था। अब किस्तों में हमें उनके पीछे छिपे सचों को उजागर होने की प्रतीक्षा करनी होगी।
लोकसभा चुनाव के कटु तथा अतिरंजित धुआंधार प्रचार में अर्थव्यवस्था की दयनीय स्थिति पेश की गई थी। इस साल की सरकारी आर्थिक समीक्षा में दिए गए नवीनतम आंकड़ों से इसकी पुष्टि भी होती है। अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए राजग दो सरकार के बजट को पहला बड़ा बहुमुखी प्रयास माना जा सकता है। देश की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक चुनौतियांे (महंगाई, बेरोजगारी, सामान्य सामाजिक सेवाओं तथा आधारभूत सुविधाओं की गहन अपर्याप्तता) को सभी रेंखांकित करते रहते हैं। इनके दुष्प्रभाव से आम जन दुखी है। आम आदमी की पक्षधर अर्थव्यवस्था की आस लोग दशकों से लगाए हुए हैं। ऐसा तो नहीं हो पाया किन्तु दो भिन्न दिशाओं में चल रही नावों की सवारी करने के लिए मूल स्वरूप राजकीय राजस्व की अपर्याप्तता, विदेशी लेन देन का बढ़ता घाटा, बैंक कर्जों का डूबते खाते में जाना, कर चोरी तथा देश से काले धन का पलायन ने अर्थव्यवस्था के रीढ़ को कमजोर अवश्य कर दिया है। इससे राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर मंे सुस्ती तो आई ही है, इसने अर्थव्यवस्था के प्रबंधन संचालन की विफलता और कमजोरी को भी प्रकट किया है।
पिछले, 23-24 सालों से चली आ रही नीतियों ने थोड़े अरसे के लिए अच्छी वृद्धि दर दी जरूर लेकिन फिर वे अनिवार्यतः अपनी मंथर गति और अघोषित गुप्त
गतिविधियों में लिप्त हो गईं। बीते दो तीन दशकों में बड़ी कम्पनियांे को दिन दूना रात चैगुणा मुनाफा हुआ हैं परन्तु मजदूर और आम आदमी की स्थिति दयनीय हुई है। आंकड़ों पर गौर किया जाए तो पिछले तीन दशकों के फैक्टरी उत्पादन में मजदूरी वेतन आदि का अनुपात 40.6 प्रतिशत से घटकर 22 प्रतिशत के इर्द-गिर्द हो गया हैं 1980 के दशक के मुकाबले इस सदी के पहले दशक में मुनाफों का हिस्सा दो गुणा हो गया है। संगठित रोजगार की ओर किसी का ध्यान नहीं है। पक्के संगठित रोजगार की वृद्धि दर करीब 6 प्रतिशत वृद्धि दर के औसत के साथ मात्र 0.5 प्रतिशत रह गई है। देश में प्रति वर्ष सवा करोड़ युवाओं को रोजगार की आवश्यकता होती है। परन्तु अवसर न मिलने के कारण इनमें से अधिकतर आजीविका विहीन और अभावग्रस्त करोड़ों लोगों की भीड़ में शामिल हो जाते हैं। दुखद है कि सरकार व अधिकारी आर्थिक सामाजिक तथ्यों की आधिकारिक जानकारी होते हुए भी कुछ ठोस सुधारात्मक, सकारात्मक ठोस कदम नहीं उठाते। भारत की सबसे गंभीर समस्या, गैर-बराबरी है। अमानवीय गैर बराबरी के कारण देश की युवा पीढ़ी, बालक एवं वृद्ध फटेहाल जीवन व्यतीत कर रहे हैं। देश इस बड़े मानव संसाधन के प्रयासों से संभावित राष्ट्रीय उपलब्धियों से भी वंचित हो रहा है। नेता शासक कम्पनियाँ मात्र राष्ट्रीय आय के कुल योग और औसत में राष्ट्रीय गौरव खोजने में लगे रहते हैं। अनेक समाज विज्ञानी उनके सुर में सुर मिलाते हैं। उन्हें इन करोड़ों नवयुवकों की ज्ञान क्षमता तथा अनुभव में संभावित योगदान दिखाई नहीं देता। नकली और थोथे राष्ट्रवाद में विषमताएँ भरी हुई हैं। उनके दुष्परिणामों की गणना तो दूर कभी उनकी फेहरिस्त भी नहीं बनाई गई। अधिकारी वर्ग किसी बीते जमाने की खुमारी में डूबे स्वप्नदर्शी स्वाभिमानी की तरह हो गए हैं। वे अपने परिवेश की वंचनाओं और कष्टों की घोर उपेक्षा कर रहे हैं।
खैर, काफी अरसे बाद जनमत ने राजकीय सत्ता की वैधानिक दुर्बलता को दूर किया है। केन्द्र में एक सशक्त राज्य सत्ता की स्थापना हुई है। लोगों ने भाजपा में गहरा विश्वास और अपनी उम्मीदों की पूर्ति को दंाव पर लगाया है। इस परिप्रेक्ष्य मंे हमें 2014-15 के बजट के चरित्र, प्रावधानों और संभावित प्रभावों को देखना चाहिए। आज के परिवेश में गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई और विषमताएँ आपस मंे पूरी तरह गुत्थमगुत्थ हैं। साथ ही यह चतुष्कोण आर्थिक सांस्कृतिक और अन्तर्राष्ट्रीय पटल के सम्बंधों कार्य प्रणाली, शक्ति संतुलन तथा राजकीय नीतियाँ और सुविधाएँ तथा प्रकृति का दुष्परिणाम भी है। हर साल राजकोषीय वित्तीय आवंटन में पुरानी लीक पीटा जाता है। इस वर्ष भी केवल सीमांत, मामूली रद्दोबदल ही किए गए हैं। राजग दो सरकार ने जो बजट पेश किया हैं, उसे देखकर वर्षों से आलोचना और खंडन मंडन में निरंतर, केन्द्रीय सत्ता संचालन के पुराने अनुभवी, अनेक राज्यों की लम्बे समय तक बागडोर सँभालने वाले तथा अपनी स्पष्ट आर्थिक सामाजिक प्रतिबद्धताओं की ताल ठोकने वाले लोग आश्चर्यचकित हैं। उनका कहना है कि बजट से नई सरकार ने अपनी कोई छाप नहीं छोड़ी। वे ऐसा कह रहे हैं तो कोई कारण भी होगा। कारण खोजने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। वर्ष 1970 के बाद से ही देश में असंतुलन अपना पैर फैलाने लगा था। बड़ी राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी परस्त बाजार यानी निजी लाभ प्रेरित नीतियाँ मामूली फेरबदल के साथ लगातार अपनी पैठ जमाती गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में गैर बराबरी नीति असंतुलित, अनैतिक और अलोकतांत्रिक होने के साथ साथ दीर्घकालीन जनहितों की बलि भी लेता रहा। भारत सरकार ने वित्तीय और विदेशी क्षेत्र को अत्यधिक महत्व दिया, जिससे कृषि और ग्रामीण जीवन की न्यूनतम जरूरतों की घोर उपेक्षा हुई।
बाजारोन्मुखी नीतियों को लागू करने के बावजूद विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की स्थिति निरंतर कमजोर हो रही है। प्रभावी माँग एवं उत्पादन के स्वरूप के बीच असमान्य समीकरण होने की वजह से कीमतों में लगातार इजाफा हो रहा है। बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के तमाम दावे खोखले साबित हो रहे हैं। देश में भ्रष्टाचार, काला धन, मानवीय मूल्यों की हत्या, जघन्य अपराधों का तांडव चल रहा है। राजनीति मूल्यहीन घटिया व्यवसाय फरेबी हो गई है। सालाना बजटों की तरह इस साल का बजट भी पिछली नीतियों को ही आगे बढ़ाता है। वर्ष 2014-15 के बजट में सार्वजनिक व्यय को महज 14 प्रतिशत तक रखा गया। जिसमें करीब दस प्रतिशत
कराधान तथा शेष बजट घाटे का है। यह अनुपात कुछ वर्षों पहले करीब 17 प्रतिशत हो चला था। इसे बढ़ाने के बदले घटाया गया है। इसे पूरा करने के लिए भी विनिवेश (यानी सामाजिक सम्पत्ति कर निजी हाथों में हस्तांतरण तथा दीर्घ स्थायी परिसम्पत्तियों को बेचकर उससे चालू खर्चों पर लगाना यानी असामाजिकता और अदूरदर्शिता का कष्टकर संयोग) द्वारा करीब 435 अरब रूपये की उगाही की तजबीज है। कुल राजस्व में 17.7 प्रतिशत वृद्धि की आशा महंगाई की बढ़ी दर पर टिकी है। जिस पर सरकार नियंत्रण करने में विफल हो रही हैं।
ये सब कदम है व्यवसाय और व्यवसायिक यानी बिजनेस परस्ती या मित्रता के। ये व्यवसायी, खास तौर पर कारपोरेट व्यवसायी बमुश्किल देश के सर्वोच्च आय और सम्पत्ति तथा शासन पर हावी लोग हमारी जनशक्ति, हमारे जन मन गण के एक प्रतिशत के करीब होंगे। इनकी वर्तमान स्थिति को लगातार मजबूती देते कहकर यह परिकल्पना करना कि 99 प्रतिशत लोगों खास तौर पर करीब तीन चैथाई लोगों का सापेक्ष और निरपेक्ष विकास, सामाजिक समावेशन और शक्तिकरण हो जाएगा बालू का भुतहा महल बनाने जैसा शेख चिल्लीपन है।
लगता है राजग दो सरकार भी निजी सार्वजनिक साझीदारी (पीपीपी) के जरिए अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के ख्वाब देख रही है। यहाँ तक कि चालू सरकारी स्कूलों तक को व्यापारी वर्ग को सौंपने की तैयारी हो रही है। राज्य के साथ मिलकर अब बड़ी-बड़ी विशाल पूँजी तथा वित्त जुटाने में समर्थ तबके आर्थिक और सामाजिक भूमिका के केन्द्र में हांेगे। परन्तु सरकार भूल रही है कि पीपीपी की बेहिसाब बढ़ोत्तरी ने आय और सम्पत्ति के केन्द्रीयकरण रूपी कुप्रभावों को बढ़ाया है। इससे सामाजिक राजनैतिक शक्ति के वितरण में भी विषमता का दंश बढ़ा है। गृहस्थ, बैंक तथा वित्तीय क्षेत्र की बचत को उधार लेकर बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ राज्य के अधिकारों पर काबिज होती हैं। सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात संचार आदि सार्वजनिक सेवाओं को पूर्णतः निजी हाथों में दे दिया है। इस तरह की निजी दुकानों ने सामाजिक समस्याओं की जड़ों को पहले ही अतिरिक्त मजबूती दे दी है। शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के साम्यकारी रूप से अर्द्धशिक्षित, निजी शिक्षक और व्यापारी कुलपति अपने पैरों तले कुचल रहे हैं। चिकित्सा के नाम पर निर्धन की सम्पत्तियों की कुर्की हो रही है। सरकार ने अपने बजट में इन असमानताओं को दूर करने के कोई प्रयास नहीं किए हैं, बल्कि इन्हें प्रोत्साहित ही किया है।
लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार भी पूँजीपतियों के हाथों का खिलौना प्रतीत होती है। सारे विकल्प नागनाथ और साँपनाथ के बीच चयन तक सिमट जाते हैं। गैर बराबरीमय भूमंडलीकरण इन असमानताओं को आगे बढ़ाता है।
सामाजिक सुरक्षा के लिए बीमा व्यवसाय में भी तेज मुनाफे खोजे जा रहे हैं। इसके लिए हवा के झोंकों की तरह इधर उधर भागती सट्टोरी विदेशी वित्तीय पूँजी को बड़ी भूमिका दी जा रही है। कराधान, कर कानूनों में छिद्र, उनकी उपेक्षा तथा कर कानून और प्रशासन में रिश्वतखोरी से पूँजीपतियों को बच निकलने के कई रास्ते मिल जाते हैं। इन मुट्ठी भर लोगों का राष्ट्रीय आय, सम्पत्ति और सुविधाओं के अकल्पनीय बड़े भाग (लगभग 60 से 70 प्रतिशत तक) पर कब्जा सा हो गया हैं। हमारे आर्थिक वित्तीय नीतिगत सोच पर पश्चिमी देश और उनके द्वारा चयनित स्थानीय पंडितों ने पूरी तरह कब्जा कर रखा है। हम भूल गए हैं कि वर्ष 2008 में धनी पश्चिमी देशों की आर्थिकी कैसे धाराधायी हुई थी। फिर जन धन की बलि चढ़ाकर उसे उबारा गया था। अफसोस कि पिछले 67 सालों से हर बजट की प्रकृति विषमता वर्धक रही है। लोकतांत्रिक शासक बदल रहे हैं। शासक वर्ग का ब्राण्डनेम बदल रहा है लेकिन असमानता बदस्तूर जारी है। नई सरकार यदि शिक्षा, स्वास्थ्य, सही खान पान, पर्यावरण तथा छोटे उद्योगों के संरक्षण पर ध्यान दे, गरीबों की जमीन को पूँजीपतियों के हाथों से बचाए तो उनके जीवन के कष्ट कम हो सकते हैं। सबके विकास से ही मजबूत अर्थव्यवस्था की परिकल्पना की जा सकती है।
-कमल नयन काबरा
मोबाइल: 09013504389
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित
लोकसभा चुनाव के कटु तथा अतिरंजित धुआंधार प्रचार में अर्थव्यवस्था की दयनीय स्थिति पेश की गई थी। इस साल की सरकारी आर्थिक समीक्षा में दिए गए नवीनतम आंकड़ों से इसकी पुष्टि भी होती है। अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए राजग दो सरकार के बजट को पहला बड़ा बहुमुखी प्रयास माना जा सकता है। देश की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक चुनौतियांे (महंगाई, बेरोजगारी, सामान्य सामाजिक सेवाओं तथा आधारभूत सुविधाओं की गहन अपर्याप्तता) को सभी रेंखांकित करते रहते हैं। इनके दुष्प्रभाव से आम जन दुखी है। आम आदमी की पक्षधर अर्थव्यवस्था की आस लोग दशकों से लगाए हुए हैं। ऐसा तो नहीं हो पाया किन्तु दो भिन्न दिशाओं में चल रही नावों की सवारी करने के लिए मूल स्वरूप राजकीय राजस्व की अपर्याप्तता, विदेशी लेन देन का बढ़ता घाटा, बैंक कर्जों का डूबते खाते में जाना, कर चोरी तथा देश से काले धन का पलायन ने अर्थव्यवस्था के रीढ़ को कमजोर अवश्य कर दिया है। इससे राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर मंे सुस्ती तो आई ही है, इसने अर्थव्यवस्था के प्रबंधन संचालन की विफलता और कमजोरी को भी प्रकट किया है।
पिछले, 23-24 सालों से चली आ रही नीतियों ने थोड़े अरसे के लिए अच्छी वृद्धि दर दी जरूर लेकिन फिर वे अनिवार्यतः अपनी मंथर गति और अघोषित गुप्त गतिविधियों में लिप्त हो गईं। बीते दो तीन दशकों में बड़ी कम्पनियांे को दिन दूना रात चैगुणा मुनाफा हुआ हैं परन्तु मजदूर और आम आदमी की स्थिति दयनीय हुई है। आंकड़ों पर गौर किया जाए तो पिछले तीन दशकों के फैक्टरी उत्पादन में मजदूरी वेतन आदि का अनुपात 40.6 प्रतिशत से घटकर 22 प्रतिशत के इर्द-गिर्द हो गया हैं 1980 के दशक के मुकाबले इस सदी के पहले दशक में मुनाफों का हिस्सा दो गुणा हो गया है। संगठित रोजगार की ओर किसी का ध्यान नहीं है। पक्के संगठित रोजगार की वृद्धि दर करीब 6 प्रतिशत वृद्धि दर के औसत के साथ मात्र 0.5 प्रतिशत रह गई है। देश में प्रति वर्ष सवा करोड़ युवाओं को रोजगार की आवश्यकता प्रो. ग्रोथ से प्रो. बिजनेस: बदले मुखौटों के पीछे वही ढाक के तीन पात
-कमल नयन काबरा
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन दो की सरकार ने अपने पहले बजट के समर्थन में एक बेबाक सच का सहारा लिया है। डंके की चोट पर कहा है कि ‘प्रो. बिजनेस’ यानी व्यवसाय और व्यवसायी पक्षीय और उनके प्रति सकारात्मक समर्थक-सहायक नीतियों का पालन करके वे गरीबों के पक्ष के, उनके लिए हितकर नतीजे दे सकते हैं। वर्तमान भारत की स्थिति के संदर्भ में उनके इस विचार के समर्थन में हम प्रतिष्ठित, नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमत्र्यसेन के विचार का भी हवाला दे सकते हैं। अभी कुछ अरसे पहले जयपुर की एक ‘साहित्यकार’ की सभा में कहा था कि 16वीं लोकसभा में वे एक व्यवसाय व्यवसायी (प्रो. बिजनेस) समर्थक, किन्तु पंथ निरपेक्ष शासकदल को देखना चाहेंगे। पंथ-निरपेक्षता के प्रमाण खोजने के लिए तो सरकार का सालाना बजट शायद उपयुक्त मंच नहीं हो, किन्तु व्यवसायी व्यवसाय पोषक तत्वों से सन् 2014-15 का केन्द्रीय बजट लबालब भरा हुआ है। ठीक यूपीए दो की नीतियों की तरह ही, ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है: यह एक निरन्तर जारी प्रतिबद्धता की नवीनतम कड़ी भर है। किन्तु फिर भी स्पष्ट नजर आता है कि सोच, प्रतिबद्धता और राजनैतिक, सामाजिक रणनीति का खुल्लमखुला बयान, इसको किसी झाँसेबाजी के शब्दजाल से मुक्त रखना, अपने आप में उल्लेखनीय ही नहीं, प्रसंशनीय भी है। जनता को सच्चाई जानकर निर्णय करने का मौका मिल रहा है। लम्बे अरसे से जीडीपी वृद्धि, निवेश-प्रोत्साहन आदि को भारत के आर्थिक विकास का, यहाँ तक कि सामाजिक समावेशक विकास का जरिया भी बताया जाता रहा है, बिना यह बताए कि यह मूलरूप से व्यवसायों और व्यवसायियों के हितों, उद्देश्यों और स्वार्थों-हितों को बढ़ाने का रास्ता है। गैर बराबरी और व्यापक वंचना की जमीन पर व्यवसाय की आजादी गैर बराबरी के वटवृक्ष को और सींचेगी। अचंभे की बात है कि इसके संभावित अधोगामी प्रभावों द्वारा गरीबों की हित साधना अपेक्षित मानी गयी है बिना व्यवसाय व्यवसायी पक्षधर नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं के अनिवार्य रूप से ऊर्द्ध प्रवाहमान (गशिंग-अप) केन्द्रीयकृत प्रभावों से कोई छेड़छाड़ या उन पर अंकुश लगाए। आखिर छुई-मुई जैसी व्यवसायी, निवेशक, धनीमानी तबकों की अति संवेदी उद्यमिता को अक्षुण्ण रखे बिना जीडीपी यानी बाजाराधारित राष्ट्रीय उत्पादन और उसकी अनिवार्य शर्त बढ़ते निवेश को लगातार बढ़ाये रखना (जो कि प्रत्यक्ष और मूल घोषित उद्देश्य है) संभव नहीं माना गया है। विषमता वर्द्धन, धनियों को और ज्यादा धनी बनाने और राज्य द्वारा इस प्रक्रिया को सबल बनाने की जगह सीधे-सीधे, बड़ी और पहली प्राथमिकता की तरह सबको पर्याप्त, पुख्ता और सम्मानजनक रूप मंे आजीविका की गारन्टी आदि को राजग दो की व्यवसाय और व्यवसायी मित्रता में जगह नहीं मिल पाती है। इन नीतियों में टैक्स कटौती का स्व-घोषित तड़का राज्य की वित्तीय क्षमता को कड़ी संकीर्ण सीमाओं में बांध देती है, खासकर राज्य द्वारा मौद्रिक प्रसार की कड़ी सीमा में बांधने को अपनी पीठ आप ठोकने का कारण मानने के चलते। जाहिर है राज्य अपनी बिना पर सामाजिक सुरक्षा, जन कल्याण तथा और व्यवसायी वर्गों के लिये जीवन की सुख सुविधाएँ और गुणवत्ता सुधारने और उनकी उत्पादन क्षमता स्थापित करने और बढ़ाने के लिए मात्र क्षमता स्थापित करने और बढ़ाने के लिए मात्र सांकेतिक खर्च कार्यक्रम ही अपने हाथों में ले पाती है। मुख्यतः चलते आ रहे कार्यक्रमों की लकीर पीटते रहने और उन्हें घोषित रूप से घटाने हटाने का साहस नहीं जुटा सकने के कारण हमने ईमानदारी से अपनी नीतियों का रूप खुलकर सार्वजनिक करने के राजग दो के वक्तव्य की प्रशंसा से इस लेख की शुरूआत की थी किन्तु भूलना नहीं चाहिए कि राजनैतिक ईमानदारी की सीमाएँ लांघना भी एक हद तक ही देखा गया है। अनेक बड़े छलावों भुलावों की नींव पर ही तो सोलहवीं लोकसभा का चुनाव लड़ा गया था। अब किस्तों में हमें उनके पीछे छिपे सचों को उजागर होने की प्रतीक्षा करनी होगी।
लोकसभा चुनाव के कटु तथा अतिरंजित धुआंधार प्रचार में अर्थव्यवस्था की दयनीय स्थिति पेश की गई थी। इस साल की सरकारी आर्थिक समीक्षा में दिए गए नवीनतम आंकड़ों से इसकी पुष्टि भी होती है। अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए राजग दो सरकार के बजट को पहला बड़ा बहुमुखी प्रयास माना जा सकता है। देश की तात्कालिक तथा दीर्घकालिक चुनौतियांे (महंगाई, बेरोजगारी, सामान्य सामाजिक सेवाओं तथा आधारभूत सुविधाओं की गहन अपर्याप्तता) को सभी रेंखांकित करते रहते हैं। इनके दुष्प्रभाव से आम जन दुखी है। आम आदमी की पक्षधर अर्थव्यवस्था की आस लोग दशकों से लगाए हुए हैं। ऐसा तो नहीं हो पाया किन्तु दो भिन्न दिशाओं में चल रही नावों की सवारी करने के लिए मूल स्वरूप राजकीय राजस्व की अपर्याप्तता, विदेशी लेन देन का बढ़ता घाटा, बैंक कर्जों का डूबते खाते में जाना, कर चोरी तथा देश से काले धन का पलायन ने अर्थव्यवस्था के रीढ़ को कमजोर अवश्य कर दिया है। इससे राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर मंे सुस्ती तो आई ही है, इसने अर्थव्यवस्था के प्रबंधन संचालन की विफलता और कमजोरी को भी प्रकट किया है।
पिछले, 23-24 सालों से चली आ रही नीतियों ने थोड़े अरसे के लिए अच्छी वृद्धि दर दी जरूर लेकिन फिर वे अनिवार्यतः अपनी मंथर गति और अघोषित गुप्त
गतिविधियों में लिप्त हो गईं। बीते दो तीन दशकों में बड़ी कम्पनियांे को दिन दूना रात चैगुणा मुनाफा हुआ हैं परन्तु मजदूर और आम आदमी की स्थिति दयनीय हुई है। आंकड़ों पर गौर किया जाए तो पिछले तीन दशकों के फैक्टरी उत्पादन में मजदूरी वेतन आदि का अनुपात 40.6 प्रतिशत से घटकर 22 प्रतिशत के इर्द-गिर्द हो गया हैं 1980 के दशक के मुकाबले इस सदी के पहले दशक में मुनाफों का हिस्सा दो गुणा हो गया है। संगठित रोजगार की ओर किसी का ध्यान नहीं है। पक्के संगठित रोजगार की वृद्धि दर करीब 6 प्रतिशत वृद्धि दर के औसत के साथ मात्र 0.5 प्रतिशत रह गई है। देश में प्रति वर्ष सवा करोड़ युवाओं को रोजगार की आवश्यकता होती है। परन्तु अवसर न मिलने के कारण इनमें से अधिकतर आजीविका विहीन और अभावग्रस्त करोड़ों लोगों की भीड़ में शामिल हो जाते हैं। दुखद है कि सरकार व अधिकारी आर्थिक सामाजिक तथ्यों की आधिकारिक जानकारी होते हुए भी कुछ ठोस सुधारात्मक, सकारात्मक ठोस कदम नहीं उठाते। भारत की सबसे गंभीर समस्या, गैर-बराबरी है। अमानवीय गैर बराबरी के कारण देश की युवा पीढ़ी, बालक एवं वृद्ध फटेहाल जीवन व्यतीत कर रहे हैं। देश इस बड़े मानव संसाधन के प्रयासों से संभावित राष्ट्रीय उपलब्धियों से भी वंचित हो रहा है। नेता शासक कम्पनियाँ मात्र राष्ट्रीय आय के कुल योग और औसत में राष्ट्रीय गौरव खोजने में लगे रहते हैं। अनेक समाज विज्ञानी उनके सुर में सुर मिलाते हैं। उन्हें इन करोड़ों नवयुवकों की ज्ञान क्षमता तथा अनुभव में संभावित योगदान दिखाई नहीं देता। नकली और थोथे राष्ट्रवाद में विषमताएँ भरी हुई हैं। उनके दुष्परिणामों की गणना तो दूर कभी उनकी फेहरिस्त भी नहीं बनाई गई। अधिकारी वर्ग किसी बीते जमाने की खुमारी में डूबे स्वप्नदर्शी स्वाभिमानी की तरह हो गए हैं। वे अपने परिवेश की वंचनाओं और कष्टों की घोर उपेक्षा कर रहे हैं।
खैर, काफी अरसे बाद जनमत ने राजकीय सत्ता की वैधानिक दुर्बलता को दूर किया है। केन्द्र में एक सशक्त राज्य सत्ता की स्थापना हुई है। लोगों ने भाजपा में गहरा विश्वास और अपनी उम्मीदों की पूर्ति को दंाव पर लगाया है। इस परिप्रेक्ष्य मंे हमें 2014-15 के बजट के चरित्र, प्रावधानों और संभावित प्रभावों को देखना चाहिए। आज के परिवेश में गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई और विषमताएँ आपस मंे पूरी तरह गुत्थमगुत्थ हैं। साथ ही यह चतुष्कोण आर्थिक सांस्कृतिक और अन्तर्राष्ट्रीय पटल के सम्बंधों कार्य प्रणाली, शक्ति संतुलन तथा राजकीय नीतियाँ और सुविधाएँ तथा प्रकृति का दुष्परिणाम भी है। हर साल राजकोषीय वित्तीय आवंटन में पुरानी लीक पीटा जाता है। इस वर्ष भी केवल सीमांत, मामूली रद्दोबदल ही किए गए हैं। राजग दो सरकार ने जो बजट पेश किया हैं, उसे देखकर वर्षों से आलोचना और खंडन मंडन में निरंतर, केन्द्रीय सत्ता संचालन के पुराने अनुभवी, अनेक राज्यों की लम्बे समय तक बागडोर सँभालने वाले तथा अपनी स्पष्ट आर्थिक सामाजिक प्रतिबद्धताओं की ताल ठोकने वाले लोग आश्चर्यचकित हैं। उनका कहना है कि बजट से नई सरकार ने अपनी कोई छाप नहीं छोड़ी। वे ऐसा कह रहे हैं तो कोई कारण भी होगा। कारण खोजने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। वर्ष 1970 के बाद से ही देश में असंतुलन अपना पैर फैलाने लगा था। बड़ी राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी परस्त बाजार यानी निजी लाभ प्रेरित नीतियाँ मामूली फेरबदल के साथ लगातार अपनी पैठ जमाती गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में गैर बराबरी नीति असंतुलित, अनैतिक और अलोकतांत्रिक होने के साथ साथ दीर्घकालीन जनहितों की बलि भी लेता रहा। भारत सरकार ने वित्तीय और विदेशी क्षेत्र को अत्यधिक महत्व दिया, जिससे कृषि और ग्रामीण जीवन की न्यूनतम जरूरतों की घोर उपेक्षा हुई।
बाजारोन्मुखी नीतियों को लागू करने के बावजूद विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की स्थिति निरंतर कमजोर हो रही है। प्रभावी माँग एवं उत्पादन के स्वरूप के बीच असमान्य समीकरण होने की वजह से कीमतों में लगातार इजाफा हो रहा है। बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के तमाम दावे खोखले साबित हो रहे हैं। देश में भ्रष्टाचार, काला धन, मानवीय मूल्यों की हत्या, जघन्य अपराधों का तांडव चल रहा है। राजनीति मूल्यहीन घटिया व्यवसाय फरेबी हो गई है। सालाना बजटों की तरह इस साल का बजट भी पिछली नीतियों को ही आगे बढ़ाता है। वर्ष 2014-15 के बजट में सार्वजनिक व्यय को महज 14 प्रतिशत तक रखा गया। जिसमें करीब दस प्रतिशत
कराधान तथा शेष बजट घाटे का है। यह अनुपात कुछ वर्षों पहले करीब 17 प्रतिशत हो चला था। इसे बढ़ाने के बदले घटाया गया है। इसे पूरा करने के लिए भी विनिवेश (यानी सामाजिक सम्पत्ति कर निजी हाथों में हस्तांतरण तथा दीर्घ स्थायी परिसम्पत्तियों को बेचकर उससे चालू खर्चों पर लगाना यानी असामाजिकता और अदूरदर्शिता का कष्टकर संयोग) द्वारा करीब 435 अरब रूपये की उगाही की तजबीज है। कुल राजस्व में 17.7 प्रतिशत वृद्धि की आशा महंगाई की बढ़ी दर पर टिकी है। जिस पर सरकार नियंत्रण करने में विफल हो रही हैं।
ये सब कदम है व्यवसाय और व्यवसायिक यानी बिजनेस परस्ती या मित्रता के। ये व्यवसायी, खास तौर पर कारपोरेट व्यवसायी बमुश्किल देश के सर्वोच्च आय और सम्पत्ति तथा शासन पर हावी लोग हमारी जनशक्ति, हमारे जन मन गण के एक प्रतिशत के करीब होंगे। इनकी वर्तमान स्थिति को लगातार मजबूती देते कहकर यह परिकल्पना करना कि 99 प्रतिशत लोगों खास तौर पर करीब तीन चैथाई लोगों का सापेक्ष और निरपेक्ष विकास, सामाजिक समावेशन और शक्तिकरण हो जाएगा बालू का भुतहा महल बनाने जैसा शेख चिल्लीपन है।
लगता है राजग दो सरकार भी निजी सार्वजनिक साझीदारी (पीपीपी) के जरिए अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के ख्वाब देख रही है। यहाँ तक कि चालू सरकारी स्कूलों तक को व्यापारी वर्ग को सौंपने की तैयारी हो रही है। राज्य के साथ मिलकर अब बड़ी-बड़ी विशाल पूँजी तथा वित्त जुटाने में समर्थ तबके आर्थिक और सामाजिक भूमिका के केन्द्र में हांेगे। परन्तु सरकार भूल रही है कि पीपीपी की बेहिसाब बढ़ोत्तरी ने आय और सम्पत्ति के केन्द्रीयकरण रूपी कुप्रभावों को बढ़ाया है। इससे सामाजिक राजनैतिक शक्ति के वितरण में भी विषमता का दंश बढ़ा है। गृहस्थ, बैंक तथा वित्तीय क्षेत्र की बचत को उधार लेकर बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ राज्य के अधिकारों पर काबिज होती हैं। सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात संचार आदि सार्वजनिक सेवाओं को पूर्णतः निजी हाथों में दे दिया है। इस तरह की निजी दुकानों ने सामाजिक समस्याओं की जड़ों को पहले ही अतिरिक्त मजबूती दे दी है। शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के साम्यकारी रूप से अर्द्धशिक्षित, निजी शिक्षक और व्यापारी कुलपति अपने पैरों तले कुचल रहे हैं। चिकित्सा के नाम पर निर्धन की सम्पत्तियों की कुर्की हो रही है। सरकार ने अपने बजट में इन असमानताओं को दूर करने के कोई प्रयास नहीं किए हैं, बल्कि इन्हें प्रोत्साहित ही किया है।
लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार भी पूँजीपतियों के हाथों का खिलौना प्रतीत होती है। सारे विकल्प नागनाथ और साँपनाथ के बीच चयन तक सिमट जाते हैं। गैर बराबरीमय भूमंडलीकरण इन असमानताओं को आगे बढ़ाता है।
सामाजिक सुरक्षा के लिए बीमा व्यवसाय में भी तेज मुनाफे खोजे जा रहे हैं। इसके लिए हवा के झोंकों की तरह इधर उधर भागती सट्टोरी विदेशी वित्तीय पूँजी को बड़ी भूमिका दी जा रही है। कराधान, कर कानूनों में छिद्र, उनकी उपेक्षा तथा कर कानून और प्रशासन में रिश्वतखोरी से पूँजीपतियों को बच निकलने के कई रास्ते मिल जाते हैं। इन मुट्ठी भर लोगों का राष्ट्रीय आय, सम्पत्ति और सुविधाओं के अकल्पनीय बड़े भाग (लगभग 60 से 70 प्रतिशत तक) पर कब्जा सा हो गया हैं। हमारे आर्थिक वित्तीय नीतिगत सोच पर पश्चिमी देश और उनके द्वारा चयनित स्थानीय पंडितों ने पूरी तरह कब्जा कर रखा है। हम भूल गए हैं कि वर्ष 2008 में धनी पश्चिमी देशों की आर्थिकी कैसे धाराधायी हुई थी। फिर जन धन की बलि चढ़ाकर उसे उबारा गया था। अफसोस कि पिछले 67 सालों से हर बजट की प्रकृति विषमता वर्धक रही है। लोकतांत्रिक शासक बदल रहे हैं। शासक वर्ग का ब्राण्डनेम बदल रहा है लेकिन असमानता बदस्तूर जारी है। नई सरकार यदि शिक्षा, स्वास्थ्य, सही खान पान, पर्यावरण तथा छोटे उद्योगों के संरक्षण पर ध्यान दे, गरीबों की जमीन को पूँजीपतियों के हाथों से बचाए तो उनके जीवन के कष्ट कम हो सकते हैं। सबके विकास से ही मजबूत अर्थव्यवस्था की परिकल्पना की जा सकती है।
-कमल नयन काबरा
मोबाइल: 09013504389
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित
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