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घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है,
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी,
ये सुबहे फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।
और
सुरा और सुंदरी के शौक में डूबे हुए रहबर,
दिल्ली को रंगीलेशाह का हम्माम कर देंगे।
दिल्ली हमारी राजनैतिक, प्रशासनिक गतिविधियों का केंद्र है जिसे रंगीलेशाह प्रतीक से भोग-विलास में डूबी हुई बताया गया है। रजनीश या ‘ओशो’ जो कि भारत के आध्यात्मिक गुरुओं में शुमार होते हैं। उनके आश्रम में ‘भोग से योग तक’ के पर्दे में होने वाले व्यभिचार को अदम ने अपने कई शेरों में निशाना बनाया है-
डाल पर मजहब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल,
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनकाब।
अथवा,
‘प्रेमचंद’ की रचनाओं को, एक सिरे से खारिज करके,
ये ओशो के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष्य लिखेंगे।
दोस्तों अब और क्या तौहीन होगी रीश की।
ब्रेसरी के हुक पे ठहरी चेतना रजनीश की।।
मोहतरम यूँ पाँव लटकाए हुए हैं कब्र में।
चाहिए लड़की कोई सोलह कोई उन्नीस की।।
कहा जाता है अदम ‘ओशो’ का आश्रम अपनी आँखों से देखकर आए थे। अदम उसी प्रकार ‘पीड़ा से परिहास’ करते हैं जिस प्रकार ग़ालिब जैसे उर्दू के बड़े शायरों ने अपनी शायरी में किया है। भूख अदम के यहाँ सबसे बड़ा सच है। भूख तमाम ज्ञान की जननी है। बुद्ध को भी ज्ञान भूख से मिला। भूख उनकी हर ग़्ाज़ल में आई है, अपने उसी भयानक रूप में जिस रूप में वह भारत की सत्तर फीसदी आबादी का सत्य रही है। शायद इसीलिए अदम के बहुत से शेरों में भूख बार-बार चीखती है:-
इन्द्रधनुष के पुल से गुजरकर उस बस्ती तक आए हैं।
जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिंदास भी है।।
कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद,
जो है संगीन के साए की चर्चा इश्तहारों में,
जुल्फ, अँगड़ाई, तबस्सुम, चाँद, आईना, गुलाब,
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब।
भुखमरी की जद में है या दार के साये में है,
अहले हिंदुस्तान अब तलवार के साए में है।
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को।
भूख क्रांति का कारण बनेगी यह विश्वास भी शायर को है-
सत्ता के जनाजे़ को ले जाएँगे मरघट तक।
जो लोग भुखमरी के आगोश में आए हैं
इसीलिए वे भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलने की बात करते हैं-
भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो।
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो।
इसीलिए उन्हें गर्म रोटी की महक पागल कर देती है। गंध की कितनी मादक अनुभूति है, ऐसी भी प्रगतिशील कविता कहीं होगी क्या?
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे।
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें
अदम गँवई-गँवार के अगुवा, अलमबरदार कवि हैं, इसलिए वे श्रम की महत्ता जानते हैं। उन्हें किसान के श्रम की फिक्र भी है और झोंपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार करने की कोशिश भी है। माक्र्सवादियों ने श्रम की गरिमा और महिमा बखान की है। “माक्र्स ने बताया कि जब श्रम अलगाव का रूप अख्तियार कर लेता है तब श्रमिक और श्रम के बीच एक विरोध की स्थिति ज़रूर बनती है। लेकिन ऐसा तब नहीं होता जब श्रम रचनात्मक होता है और जब उन वस्तुओं का उत्पादन करता है जिनमें मनुष्य अपने को वस्तुरूपांतरित और व्यक्त करता है। इसके अलावा मनुष्य कलाकृतियों में ही नहीं बल्कि श्रम में भी आनंद ले सकता है। पूँजी में माक्र्स ने श्रमिक के काम में मिलने वाले सुख के बारे में लिखते हुए कहा कि श्रम ‘ऐसी क्रिया है जो उसकी शारीरिक और मानसिक शक्तियों को खुलकर सक्रिय होने का अवसर देती है’।”6 दुनिया में जो कुछ भी सुंदर है वह श्रम से निर्मित हुआ है। किन्तु मेहनतकश को जब उसके श्रम के एवज में भुखमरी के सिवाय कुछ नहीं मिलता तो अदम की शायरी अपने चिर-परिचित अंदाज में कहती है-
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है।
उसी के दम से रौनक आपके बँगलों में आई है।
यहाँ तक सभ्यता का निर्माण भी घीसू के पसीने से ही हुआ है-
न महलों की बुलंदी से न लफ्जों के नगीने से।
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से
गाँव के अमानुषिक वातावरण, गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, शोषण, दमन सबको देखने की बारीक निगाह अदम में है इसीलिए वे जनकवि हैं। सरयू नदी की बाढ़ का कैसा जीवंत चित्र है, इस शेर में जो हश्र (प्रलय) का प्रभाव पैदा कर रहा है-
कितनी वहशतनाक है सरयू की पाकीजा कछार।
मीटरों लहरें उछलतीं हश्र का आभास है
गाँव के बारे में महानगरों में बैठकर आँकड़े जुटाने और बनाने वाले लोगों को यह खबर नहीं है कि कितने लोग गाँव छोड़कर शहरों की ओर कमाने निकल गए हैं। विस्थापन की यह पीड़ा और लाचारी कैसी होती है, यह महानगरीय अफसरशाही और मध्यवर्गीय हिप्पोक्रेसी की पहुँच से दूर की बात हैः-
तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है,
मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।
हमारे गाँव का ‘गोबर’ तुम्हारे लखनऊ में है,
जवाबी ख़त में लिखना किस मोहल्ले का निवासी है।
सिर्फ एक प्रतीक के रूप में प्रेमचंद के किसान जीवन पर लिखे गए महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘गोदान’ के पात्र ‘गोबर’ का प्रयोग करने मात्र से शेर कितना प्रभावी और वजनदार हो गया है। पूरे गोदान का सत्व ही इसमें निचुड़कर आ गया है। अपसंस्कृति, साहित्यकारों की खेमेबाजी और हवाई साहित्य, सांप्रदायिकता, लालफीताशाही, पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति आक्रोश, क्रांतिधर्मी चेतना और राजनैतिक अगुवाकारी की विफलता से जन-सामान्य में उपजा संत्रास अदम की ग़ज़लों का बीज-भाव है। सर्वत्र विद्रोह और नकार, प्रतिरोध और मुक्ति की कामना उनके शेर-शेर में व्यंजित होती है:-
जनता के पास एक ही चारा है बगावत।
ये बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।।
क्रांति की यह उद्दाम चाह जीवन में तमाम मानसिक और भावनात्मक यातनाओं से गुजरने के बाद पैदा होती है। यही हिन्दी ग़्ाज़ल का मिजाज भी रही है, दुष्यंत भी ‘यातनाओं’ के अँधेरे में सफर करते थे। यह अँधेरा अदम के यहाँ और स्पष्ट है लेकिन, प्रकाश के साथ अचेतन मन में प्रज्ञा कल्पना की लौ जलाती है। सहज अनुभूति के स्तर में कविता जन्म पाती है-
उठाता पाँव है विज्ञान संशय के अँधेरे में।
अचानक उस अँधेरे में ही बिजली कौंध जाती है
धर्म, इतिहास और शास्त्र का नकार बहुत कड़े शब्दों में है। शायद दलितों के हवाले से-
वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं,
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें।
लोकरंजन हो जहाँ शंबूक वध की आड़ में,
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें।
दलित-विमर्श पर संग्रह में एक अकेली लंबी नज़्म ‘चमारों की गली’ भी है, जिस पर आगे चर्चा होगी। कुछ ग़्ाज़लों के शेर भी दलित-चिंतन की ओर ले जाते हैं मसलन-
अंत्यज कोरी पासी हैं हम, क्यूँ कर भारतवासी हैं हम।
छाया भी छूना गर्हित है, ऐसे सत्यानासी हैं हम।
कुल मिलाकर अदम की ग़ज़लें उस हिंदुस्तान का साफ नफीस आईना हैं जहाँ रहकर उन्होंने अपनी ग़्ाज़ल को रवानी दी है और जिन पर मुख्तसर चर्चा पर्याप्त नहीं है। उनकी शायरी को कविता की मुख्य धारा की चर्चा में शामिल करना बहुत जरूरी है क्योंकि-
दिल लिए शीशे का देखो संग से टकरा गई।
बर्गे गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी ग़ज़ल
अदम की ग़ज़ल सम्पूर्ण मानवता की ग़ज़ल है।
कत्आत और नजमें
कत्आ हिन्दी में मुक्तक के आस-पास ठहरता है। “यह भी रुबाई की तरह चार मिसरों में होता है और इसके दूसरे और चैथे मिसरे समान रदीफ-काफिये के होते हैं। यह रुबाई से इस तरह भिन्न है कि ग़ज़ल की सभी बहरों में कहा जा सकता है। अगर क़ते का पहला शेर मतला बन जाए तो पहले दूसरे और चैथे मिसरे का रदीफ काफिया एक ही हो जाता है। कई बार कोई एक भाव दो मिसरों में न समा पाने पर उसे क़तेे में बखूबी व्यक्त किया जा सकता है। इसे ग़्ाज़ल के रंग में कहकर उसके साथ ही लिखा पढ़ा जा सकता है।”7 ‘समय से मुठभेड़ में चैदह क़ते हैं। इनमें भी सर्वहारा की हिमायत शायराना रंग-ढंग में मिलती है-
रोटी के लिए बिक गई धनिया की आबरू।
‘लमही’ में प्रेमचंद का ‘होरी’ उदास है।
शायर की जो ग़्ाज़लें गैर मुकम्मल रह जाती हैं वे कते की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं। लेकिन इनमें भी अदम का तेवर कमजोर नहीं पढ़ा है-
भुखमरी की रुत में नग्में लिख रहे हैं प्यार के,
आज के फनकार भी हैं दोगले किरदार के।
दोस्तों इस मुल्क में जम्हूरियत के नाम पर,
सिक्के कितने दिन चलेंगे एक ही परिवार के।।
नज़्मों में ‘चमारों की गली’ नज्म अधिक मजबूत है क्योंकि इसमें दलित-चिंतन के साथ एक कथानक भी है। ‘हथियार उठा लंे’ दस पदों की एक पोस्टर-छाप राजनैतिक रचना है। इसकी निस्बत ‘गाँव का परिवेश’ कहीं अच्छी रचना है।
‘चमारों की गली’ दलितों के शोषण और सामंती सवर्ण जातियों द्वारा उन पर ढाए गए जुल्मों का बयान करने वाली रचना है। पचपन पदों वाली इस रचना में कृष्णा नाम की एक दलित लड़की की करुण कहानी है जिसके साथ गाँव ही के ठाकुर ने बलात्कार किया है, और पुलिसिया दमन का सामना भी पीडि़त और उसके परिवार को करना पड़ रहा है। कहते हैं यह रचना अदम के गाँव में घटी एक घटना पर आधारित है जिस पर पुलिस, मीडिया और प्रशासन का ध्यान नहीं गया था। ठाकुरों की सामंती ठसक और पुलिस की नपुंसक, भ्रष्ट छवि को उजागर करती यह रचना अपनी भाषा, शैली और कथ्य में भी ठोस है। रचना के पहले ही बंद में एक विशिष्ट ओज है-
आइये महसूस करिए जिंदगी के ताप को।
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आप को।।
दलित लड़की कृष्णा के लिए उन्होंने यूरोपीय नवजागरण काल के प्रसिद्ध चित्रकार लिओनार्दो द विंची के प्रसिद्ध चित्र ‘मोनालिसा’ का बिम्ब प्रयोग किया है जो अपनी सादगी के बावजूद चित्रकला के इतिहास में कालजयी रचना है-
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा।
मैं इसे कहता हूँ सरयू पार की मोनालिसा।।
-संतोष अर्श
क्रमस:
लोकसंघर्ष पत्रिका के दिसम्बर 2014 के अंक में प्रकाशित
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