सवर्ण उग्र हिंदुत्व के सत्ता में आने के पश्चात ही पिछले एक साल से देश में नाटकीय माहौल देखने को मिल रहा है। यह महज संयोग नहीं है कि जिस दिन जाति-जनगणना के आँकड़ों की माँग के लिए बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ‘बिहार बंद’ का आह्वान करते हैं उसी दिन सुबह तड़के ही पंजाब के गुरुदासपुर में आतंकी हमला हो जाता है। मीडिया के लिए सामाजिक न्याय से कहीं
अधिक महत्वपूर्ण उग्र हिंदुत्व की मुसलमान विरोधी भावना को कवरेज देना है इसलिए ‘बिहार बंद’ की उपेक्षा करके गुरुदासपुर आतंकी हमले और याकूब मेमन की फाँसी की खबर को पचा दिया गया। उन्हीं दिनों इस समय की भाजपा के मूल राज्य और जनपद, गुजरात के महेसाणा में पटेल जाति के युवकों ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में अपने लिए आरक्षण की माँग की। वे जुलाई माह के शुरुआती दिनों से ही अपने आंदोलन को आकार देने लगे थे। महेसाणा के विसनगर में पटेल जाति के इन युवकों का विरोध-प्रदर्शन उग्र हो गया और पुलिस तथा प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसक झड़प भी हो गई। प्रदर्शनकारियों ने पुलिस की कई गाडि़यों में आग लगा दी। कुछ पत्रकार घायल हुए और पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ शांति-भंग का मुकदमा भी दर्ज किया। अब प्रश्न यह उठता है कि गुजरात में सुदृढ़ सामाजिक-आर्थिक स्थिति में होने के बावजूद पटेल या पाटीदार जाति के लोग आरक्षण क्यों माँग रहे हैं?
पटेल या पाटीदारों को उत्तर भारत की कुर्मी जाति के समकक्ष रखा जाता है क्योंकि इनकी वास्तविक अस्मिता मेहनतकश किसानों की ही है। ध्यातव्य है कि उत्तर भारत के पटेलों को अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षित किया गया है। यद्यपि इनमें सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक स्तर पर भिन्नता है। गुजरात के कुछ पटेलों के पास बड़े आर्थिक उत्पादन के स्रोतों पर अधिकार हैं। उनके पास बड़ी खेतिहर भूमि या जोत है। संभव है कि यह केवल कुछ पटेलों के पास ही हों और इनकी बहुत बड़ी संख्या में निर्धनता व्याप्त हो, लेकिन गुजरात में पटेलों की स्थिति देखकर तनिक भी अनुभव नहीं होता कि इन्हें किसी प्रकार के आरक्षण की आवश्यकता है। लेकिन यह भी चैंकाने वाला सत्य है कि केंद्र सरकार की सरकारी नौकरियों में गुजराती पटेलों का प्रतिनिधित्व लगभग शून्य है। गुजरात की आबादी लगभग 6 करोड़ है जिसका बीस प्रतिशत पटेल या पाटीदार हैं। गुजरात में पटेलों की दो उपजातियाँ पाई जाती हैं एक ‘लेवा’ और दूसरी ‘कड़वा’। दोनों में वर्चस्व की पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता भी है किन्तु आरक्षण की माँग के मुद्दे पर दोनों में जबरदस्त एकता देखी जा रही है। इससे पहले पटेलों ने आरक्षण की माँग दो दशकों पहले कांग्रेस की सरकार में की थी। लेकिन तब भी इन्हें टाल दिया गया था। सच तो यह है कि भारत की सभी ओबीसी जातियों को आरक्षण के नाम पर छलावा ही मिला है। गुजरात के पटेलों का मामला दूसरा है। क्योंकि वे अपनी सामाजिक, आर्थिक स्थिति से परेशान नहीं हैं बल्कि शिक्षा और सरकारी नौकरियों में अपने पिछड़े होने के आधार पर आरक्षण की माँग कर रहे हैं। मूल रूप से काँग्रेसी चेतना और सरदार वल्लभ भाई पटेल के अनुयायी पटेलों को भाजपा ने जातिवादी कार्ड खेलकर लुभा लिया और गुजरात में अभूतपूर्व राजनैतिक सफलता प्राप्त की। पटेलों की धर्म-निरपेक्ष भावना को कट्टरपंथी हिन्दुत्व में परिवर्तित कर भाजपा उन पर शासन करती रही। अभी भी कर रही है और उनकी यही सफलता पिछले आम चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर भी देखी गई। एकाएक राज्य व्यापी ‘पाटीदार अनामत आंदोलन’ (पटेल आरक्षण आंदोलन) को देखकर गुजरात सरकार के हाथ-पाँव फूल गए। विडम्बना यह है कि सरकार में भी पटेलों का ही दबदबा है। गुजरात की मुख्यमंत्री और राज्य भाजपा अध्यक्ष रणछोड़ दास फाल्दू दोनों ही पटेल हैं। इसके अलावा गुजरात सरकार के सात राज्यमंत्री और विधानसभा के कुल 182 में से 44 विधायक पटेल हैं। आंदोलन को मिलती सफलता देखकर सरकार ने इसे दबाने की भी कोशिश की लेकिन असफल रही। ‘पाटीदार अनामत समिति’ के बैनर तले लाखों पटेल जुट गए और अपने-अपने क्षेत्र में आंदोलन को दिशा देने लगे। राजधानी गांधीनगर में भी पटेल प्रदर्शन कर चुके हैं। गुजरात के बड़े क्षेत्रों मसलन वड़ोदरा, सूरत, हिम्मत नगर, राजकोट और सौराष्ट्र में भी आंदोलन ने अपने पाँव पसार लिए हैं। आंदोलन कारियों में बड़ी भागीदारी युवाओं की हैं। आंदोलन का नेतृत्व ही इक्कीस वर्षीय युवा नेता हार्दिक पटेल कर रहे हैं। उन्हें डराने,
धमकाने का भी प्रयास किया गया लेकिन अब सबकुछ इसलिए व्यर्थ है क्योंकि आंदोलन गति पकड़ चुका है और गुजरात भाजपा की मुश्किलें बढ़ा रहा है। आंदोलनकारियों का स्पष्ट संकल्प है कि वे 2017 तक अन्य पिछड़ा वर्ग में अपने आप को दर्ज कराके रहेंगे। इस पर स्वयं को आंदोलन का नेता घोषित करने वाले हार्दिक पटेल का कहना है कि वे अभी महात्मा गांधी और सरदार पटेल के मार्ग पर चल रहे हैं, किन्तु आवश्यकता पड़ी तो भगत सिंह का रास्ता भी अख्तियार करेंगे।
धर्म और जाति की राजनीति करने का भाजपा का इतिहास रहा है। मण्डल कमीशन का प्रभाव कम करने के लिए भाजपा ने अपने आका, पुरुष सवर्ण हिंदुओं के कट्टरपंथी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सहायता से बाबरी विध्वंस कराने में सफल रही थी और उस समय धार्मिक भावनाओं को भड़का कर जनता का ध्यान भटकाने की उसकी मंशा पूरी हुई थी। 2014 के आम चुनावों में भी कट्टरपंथी सवर्ण हिन्दुत्व का फेमस चेहरा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं को ओबीसी और ‘नीच जात’ का बताते नहीं थके। बिहार में भी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह मोदी को ओबीसी प्रचारित करते फिर रहे हैं। लेकिन जाति जनगणना के आँकड़ों को सार्वजनिक करने में इनकी कोई रुचि नहीं दिखाई पड़ी। ओबीसी की अनुमानित साठ फीसदी आबादी का कुछ ज्ञान इन्हें अवश्य है। इसीलिए ये बार-बार ओबीसी का पत्ता फेंकते रहते हैं। बहर हाल पटेल आरक्षण आंदोलन भाजपा की जड़ों में मट्ठा डाल सकता है क्योंकि आंदोलन भी उसी स्थान से उठा है जहाँ वर्तमान भाजपा की जड़ें स्थित हैं। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीनों ही गुजरात के महेसाणा जिले के हैं और पटेल आरक्षण आंदोलन भी महेसाणा से उठा जो अब पूरे गुजरात में व्यापक हो गया है। फौरी तौर पर पटेल आरक्षण आंदोलन को गुजरात-भाजपा को तोड़ने की कांग्रेस द्वारा की गई साजिश बताया गया लेकिन नाटकीयता तब और बढ़ गयी जब राज्य सरकार के मंत्री नानूभाई वणानी के पुत्र विपुल को भी आंदोलन में शामिल पाया गया। नानूभाई के पुत्र ने अपनी फेसबुक वाल पर ‘पाटीदार अनामत आंदोलन’ का बैनर पोस्ट किया था और मीडिया द्वारा पूछने पर स्वीकार किया कि वह इस आंदोलन में शामिल हैं। विपुल ने मीडिया से यह भी कहा कि वह पटेल जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षित करने का पूरी तरह से समर्थन करता है। क्षतिपूर्ति के नाम पर पाटीदारों की दोनों उपजातियों, लेवा और कड़वा की धार्मिक गद्दियों, ‘माँ उमिया माताजी संस्थान’ और ‘श्री खोढाल धाम’ के मठाधीशों से मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और गुजरात के भाजपा अध्यक्ष ने भेंट की और आंदोलन पर अपनी चिंता जाहिर की। उन्हें पता है कि पाटीदारों की दोनों उपजातियों को अपने धार्मिक स्थलों पर असीम श्रद्धा है और उनकी राजनैतिक, सामाजिक दिशा को वही तय करते हैं। अंततः थक-हारकर गुजरात सरकार ने पटेल आरक्षण आंदोलन की समस्या को सुलझाने के लिए सात सदस्यीय एक पैनल बनाया है। इसकी अध्यक्षता गुजरात के स्वास्थ्य मंत्री और सरकार के प्रवक्ता नितिन पटेल करेंगे।
गुजरात में पटेलों की संख्या लगभग डेढ़ करोड़ है। भाजपा ने जातिवादी राजनीति के बल पर ही पटेलों की बहुसंख्यक जनता को सत्ता पाने के लिए इस्तेमाल किया। ‘पटेल आरक्षण आन्दोलन’ के खड़े होने से कई प्रश्न खड़े होते हैं। क्या भाजपा ने कुछ पटेलों को सत्ता में शामिल कर पटेलों की बड़ी संख्या को हाशिए पर कर दिया है? क्या पटेल अपनी बहुसंख्यक राजनैतिक शक्ति को पहचान गए हैं? यदि राज्य में उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षित कर दिया गया (जिसकी संभावनाएँ बन सकती हैं क्योंकि ऐसा न करने पर गुजरात की भाजपा सरकार को खतरा उत्पन्न हो सकता है) तो वे केंद्र में भी आरक्षण माँग सकते हैं। अगर वे केंद्र में भी आरक्षण की माँग करते हैं तो अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षित अन्य जातियाँ इसका विरोध नहीं करेंगी क्या? जाति जनगणना के आँकड़ों को लेकर पिछड़े वर्ग के नेताओं और जनता में पहले से ही आक्रोश व्याप्त है। दूसरी तरफ सवर्ण सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग की जतियों के बढ़ते वर्चस्व से अलग हलकान हैं। धीरे-धीरे ही सही लेकिन पिछड़े वर्ग की जातियाँ शैक्षिक और सार्वजनिक क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं। उत्तर-प्रदेश में पिछले दिनों ऐसे कई अवसर आए हैं जब सामान्य और पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों में संघर्ष हुए हैं। हालात ये हैं कि अन्य पिछड़े वर्ग में सामान्य श्रेणी से अधिक प्रतिस्पर्धा है क्योंकि उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण नहीं दिया गया है। इसलिए सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रावधानों को दृष्टि में रखकर सरकार को जाति जनगणना के आँकड़ें जारी करने चाहिए और ओबीसी को उसकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देना चाहिए। हर जाति को ओबीसी में लाकर जोड़ देना भी सही नीति नहीं है। यदि सरकार गुजरात के पटेलों को आरक्षण देना चाहती है (जो अनुचित नहीं है) तो वह उसी अनुपात में ओबीसी की आरक्षण सीमा भी बढ़ाएँ।
अधिक महत्वपूर्ण उग्र हिंदुत्व की मुसलमान विरोधी भावना को कवरेज देना है इसलिए ‘बिहार बंद’ की उपेक्षा करके गुरुदासपुर आतंकी हमले और याकूब मेमन की फाँसी की खबर को पचा दिया गया। उन्हीं दिनों इस समय की भाजपा के मूल राज्य और जनपद, गुजरात के महेसाणा में पटेल जाति के युवकों ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में अपने लिए आरक्षण की माँग की। वे जुलाई माह के शुरुआती दिनों से ही अपने आंदोलन को आकार देने लगे थे। महेसाणा के विसनगर में पटेल जाति के इन युवकों का विरोध-प्रदर्शन उग्र हो गया और पुलिस तथा प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसक झड़प भी हो गई। प्रदर्शनकारियों ने पुलिस की कई गाडि़यों में आग लगा दी। कुछ पत्रकार घायल हुए और पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ शांति-भंग का मुकदमा भी दर्ज किया। अब प्रश्न यह उठता है कि गुजरात में सुदृढ़ सामाजिक-आर्थिक स्थिति में होने के बावजूद पटेल या पाटीदार जाति के लोग आरक्षण क्यों माँग रहे हैं?
पटेल या पाटीदारों को उत्तर भारत की कुर्मी जाति के समकक्ष रखा जाता है क्योंकि इनकी वास्तविक अस्मिता मेहनतकश किसानों की ही है। ध्यातव्य है कि उत्तर भारत के पटेलों को अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षित किया गया है। यद्यपि इनमें सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक स्तर पर भिन्नता है। गुजरात के कुछ पटेलों के पास बड़े आर्थिक उत्पादन के स्रोतों पर अधिकार हैं। उनके पास बड़ी खेतिहर भूमि या जोत है। संभव है कि यह केवल कुछ पटेलों के पास ही हों और इनकी बहुत बड़ी संख्या में निर्धनता व्याप्त हो, लेकिन गुजरात में पटेलों की स्थिति देखकर तनिक भी अनुभव नहीं होता कि इन्हें किसी प्रकार के आरक्षण की आवश्यकता है। लेकिन यह भी चैंकाने वाला सत्य है कि केंद्र सरकार की सरकारी नौकरियों में गुजराती पटेलों का प्रतिनिधित्व लगभग शून्य है। गुजरात की आबादी लगभग 6 करोड़ है जिसका बीस प्रतिशत पटेल या पाटीदार हैं। गुजरात में पटेलों की दो उपजातियाँ पाई जाती हैं एक ‘लेवा’ और दूसरी ‘कड़वा’। दोनों में वर्चस्व की पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता भी है किन्तु आरक्षण की माँग के मुद्दे पर दोनों में जबरदस्त एकता देखी जा रही है। इससे पहले पटेलों ने आरक्षण की माँग दो दशकों पहले कांग्रेस की सरकार में की थी। लेकिन तब भी इन्हें टाल दिया गया था। सच तो यह है कि भारत की सभी ओबीसी जातियों को आरक्षण के नाम पर छलावा ही मिला है। गुजरात के पटेलों का मामला दूसरा है। क्योंकि वे अपनी सामाजिक, आर्थिक स्थिति से परेशान नहीं हैं बल्कि शिक्षा और सरकारी नौकरियों में अपने पिछड़े होने के आधार पर आरक्षण की माँग कर रहे हैं। मूल रूप से काँग्रेसी चेतना और सरदार वल्लभ भाई पटेल के अनुयायी पटेलों को भाजपा ने जातिवादी कार्ड खेलकर लुभा लिया और गुजरात में अभूतपूर्व राजनैतिक सफलता प्राप्त की। पटेलों की धर्म-निरपेक्ष भावना को कट्टरपंथी हिन्दुत्व में परिवर्तित कर भाजपा उन पर शासन करती रही। अभी भी कर रही है और उनकी यही सफलता पिछले आम चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर भी देखी गई। एकाएक राज्य व्यापी ‘पाटीदार अनामत आंदोलन’ (पटेल आरक्षण आंदोलन) को देखकर गुजरात सरकार के हाथ-पाँव फूल गए। विडम्बना यह है कि सरकार में भी पटेलों का ही दबदबा है। गुजरात की मुख्यमंत्री और राज्य भाजपा अध्यक्ष रणछोड़ दास फाल्दू दोनों ही पटेल हैं। इसके अलावा गुजरात सरकार के सात राज्यमंत्री और विधानसभा के कुल 182 में से 44 विधायक पटेल हैं। आंदोलन को मिलती सफलता देखकर सरकार ने इसे दबाने की भी कोशिश की लेकिन असफल रही। ‘पाटीदार अनामत समिति’ के बैनर तले लाखों पटेल जुट गए और अपने-अपने क्षेत्र में आंदोलन को दिशा देने लगे। राजधानी गांधीनगर में भी पटेल प्रदर्शन कर चुके हैं। गुजरात के बड़े क्षेत्रों मसलन वड़ोदरा, सूरत, हिम्मत नगर, राजकोट और सौराष्ट्र में भी आंदोलन ने अपने पाँव पसार लिए हैं। आंदोलन कारियों में बड़ी भागीदारी युवाओं की हैं। आंदोलन का नेतृत्व ही इक्कीस वर्षीय युवा नेता हार्दिक पटेल कर रहे हैं। उन्हें डराने,
धमकाने का भी प्रयास किया गया लेकिन अब सबकुछ इसलिए व्यर्थ है क्योंकि आंदोलन गति पकड़ चुका है और गुजरात भाजपा की मुश्किलें बढ़ा रहा है। आंदोलनकारियों का स्पष्ट संकल्प है कि वे 2017 तक अन्य पिछड़ा वर्ग में अपने आप को दर्ज कराके रहेंगे। इस पर स्वयं को आंदोलन का नेता घोषित करने वाले हार्दिक पटेल का कहना है कि वे अभी महात्मा गांधी और सरदार पटेल के मार्ग पर चल रहे हैं, किन्तु आवश्यकता पड़ी तो भगत सिंह का रास्ता भी अख्तियार करेंगे।
धर्म और जाति की राजनीति करने का भाजपा का इतिहास रहा है। मण्डल कमीशन का प्रभाव कम करने के लिए भाजपा ने अपने आका, पुरुष सवर्ण हिंदुओं के कट्टरपंथी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सहायता से बाबरी विध्वंस कराने में सफल रही थी और उस समय धार्मिक भावनाओं को भड़का कर जनता का ध्यान भटकाने की उसकी मंशा पूरी हुई थी। 2014 के आम चुनावों में भी कट्टरपंथी सवर्ण हिन्दुत्व का फेमस चेहरा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं को ओबीसी और ‘नीच जात’ का बताते नहीं थके। बिहार में भी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह मोदी को ओबीसी प्रचारित करते फिर रहे हैं। लेकिन जाति जनगणना के आँकड़ों को सार्वजनिक करने में इनकी कोई रुचि नहीं दिखाई पड़ी। ओबीसी की अनुमानित साठ फीसदी आबादी का कुछ ज्ञान इन्हें अवश्य है। इसीलिए ये बार-बार ओबीसी का पत्ता फेंकते रहते हैं। बहर हाल पटेल आरक्षण आंदोलन भाजपा की जड़ों में मट्ठा डाल सकता है क्योंकि आंदोलन भी उसी स्थान से उठा है जहाँ वर्तमान भाजपा की जड़ें स्थित हैं। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीनों ही गुजरात के महेसाणा जिले के हैं और पटेल आरक्षण आंदोलन भी महेसाणा से उठा जो अब पूरे गुजरात में व्यापक हो गया है। फौरी तौर पर पटेल आरक्षण आंदोलन को गुजरात-भाजपा को तोड़ने की कांग्रेस द्वारा की गई साजिश बताया गया लेकिन नाटकीयता तब और बढ़ गयी जब राज्य सरकार के मंत्री नानूभाई वणानी के पुत्र विपुल को भी आंदोलन में शामिल पाया गया। नानूभाई के पुत्र ने अपनी फेसबुक वाल पर ‘पाटीदार अनामत आंदोलन’ का बैनर पोस्ट किया था और मीडिया द्वारा पूछने पर स्वीकार किया कि वह इस आंदोलन में शामिल हैं। विपुल ने मीडिया से यह भी कहा कि वह पटेल जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षित करने का पूरी तरह से समर्थन करता है। क्षतिपूर्ति के नाम पर पाटीदारों की दोनों उपजातियों, लेवा और कड़वा की धार्मिक गद्दियों, ‘माँ उमिया माताजी संस्थान’ और ‘श्री खोढाल धाम’ के मठाधीशों से मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल और गुजरात के भाजपा अध्यक्ष ने भेंट की और आंदोलन पर अपनी चिंता जाहिर की। उन्हें पता है कि पाटीदारों की दोनों उपजातियों को अपने धार्मिक स्थलों पर असीम श्रद्धा है और उनकी राजनैतिक, सामाजिक दिशा को वही तय करते हैं। अंततः थक-हारकर गुजरात सरकार ने पटेल आरक्षण आंदोलन की समस्या को सुलझाने के लिए सात सदस्यीय एक पैनल बनाया है। इसकी अध्यक्षता गुजरात के स्वास्थ्य मंत्री और सरकार के प्रवक्ता नितिन पटेल करेंगे।
गुजरात में पटेलों की संख्या लगभग डेढ़ करोड़ है। भाजपा ने जातिवादी राजनीति के बल पर ही पटेलों की बहुसंख्यक जनता को सत्ता पाने के लिए इस्तेमाल किया। ‘पटेल आरक्षण आन्दोलन’ के खड़े होने से कई प्रश्न खड़े होते हैं। क्या भाजपा ने कुछ पटेलों को सत्ता में शामिल कर पटेलों की बड़ी संख्या को हाशिए पर कर दिया है? क्या पटेल अपनी बहुसंख्यक राजनैतिक शक्ति को पहचान गए हैं? यदि राज्य में उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षित कर दिया गया (जिसकी संभावनाएँ बन सकती हैं क्योंकि ऐसा न करने पर गुजरात की भाजपा सरकार को खतरा उत्पन्न हो सकता है) तो वे केंद्र में भी आरक्षण माँग सकते हैं। अगर वे केंद्र में भी आरक्षण की माँग करते हैं तो अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षित अन्य जातियाँ इसका विरोध नहीं करेंगी क्या? जाति जनगणना के आँकड़ों को लेकर पिछड़े वर्ग के नेताओं और जनता में पहले से ही आक्रोश व्याप्त है। दूसरी तरफ सवर्ण सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग की जतियों के बढ़ते वर्चस्व से अलग हलकान हैं। धीरे-धीरे ही सही लेकिन पिछड़े वर्ग की जातियाँ शैक्षिक और सार्वजनिक क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं। उत्तर-प्रदेश में पिछले दिनों ऐसे कई अवसर आए हैं जब सामान्य और पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों में संघर्ष हुए हैं। हालात ये हैं कि अन्य पिछड़े वर्ग में सामान्य श्रेणी से अधिक प्रतिस्पर्धा है क्योंकि उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण नहीं दिया गया है। इसलिए सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रावधानों को दृष्टि में रखकर सरकार को जाति जनगणना के आँकड़ें जारी करने चाहिए और ओबीसी को उसकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देना चाहिए। हर जाति को ओबीसी में लाकर जोड़ देना भी सही नीति नहीं है। यदि सरकार गुजरात के पटेलों को आरक्षण देना चाहती है (जो अनुचित नहीं है) तो वह उसी अनुपात में ओबीसी की आरक्षण सीमा भी बढ़ाएँ।
-संतोष अर्श
मोबाइल: 09919988123
लोकसंघर्ष पत्रिका के सितम्बर 2015 अंक में प्रकाशित
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