गत 11 जुलाई को गुजरात के ऊना शहर में ‘मानव भक्षकों’ व ज़बरिया वसूली करने वालों के गिरोह ने-जो स्वयं को गौरक्षक बता रहे थे-एक दलित परिवार के सात सदस्यों की क्रूरतापूर्वक पिटाई की। उन्हें मोटा समधियाला गांव में एक मरी हुई गाय की खाल उतारने के लिए लोहे की छड़ों, लाठियों और चाकू से मारा गया। उसके बाद उनके कपड़े उतारकर उन्हें सार्वजनिक रूप से मारते हुए थाने ले जाया गया। इस भयावह व दिल हिला देने वाली हिंसा से दलितों के प्रति गुजरात में व्याप्त पूर्वाग्रहों और घृणा का पता चलता है। इस बर्बर घटना पर उतनी ही तीव्र प्रतिक्रिया हुई। दलित लेखक अमृतलाल मकवाना ने उन्हें मिला ‘जीवन श्रेष्ठ साहित्य कृति’ पुरस्कार लौटा दिया। गुजरात के दलित युवा सड़कों पर उतर आए और उन्होंने अपना विरोध व्यक्त करने के लिए कई बसों को आग के हवाले कर दिया और सड़कों व राजमार्गों को जाम किया। बनासकांठा जिले के करीब एक हजार दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाने की इच्छा व्यक्त की। सुरेन्द्र नगर में दलितों ने मृत गायों को ठिकाने लगाने से इंकार कर दिया।
पुलिस का रवैया ढीलाढाला था। पुलिस आसानी से दलितों की सार्वजनिक रूप से पिटाई को रोक सकती थी। पुलिस ने एफआईआर कायम करने में बहुत देरी लगाई। इससे भी बुरी बात यह थी कि एफआईआर, पीड़ितों के खिलाफ ही दर्ज की गई-जैसा कि मोहम्मद अख़लाक के मामले में हुआ था। मानव भक्षकों के खिलाफ एफआईआर तभी दर्ज की गई जब दलितों की पिटाई का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और दलितों ने विरोध प्रदर्षन किए। पुलिस की लेतलाली सामने आने के बाद, ऊना थाने के पुलिस इंस्पेक्टर और एक असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर को निलंबित कर दिया गया। घटना के नौ दिन बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल पीड़ितों से मिलने के लिए समय निकाल सकीं और वह भी तब, जब इस घटना से पूरा देश आहत हो चुका था और दलितों के विरोध प्रदर्षनों से कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ रही थी। उत्तरप्रदेश चुनाव में भाजपा को इस घटना का खामियाजा न भुगतना पड़े, यह भी आनंदी बेन की यात्रा का एक उद्देष्य था।
भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का दलितों के प्रति दृष्टिकोण जगजाहिर है। सन 2015 में फरीदाबाद में दलित बच्चों की हत्याओं के बारे मंे पूछे जाने पर केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह ने दलितों की तुलना कुत्तों से करते हुए कहा था, ‘‘अगर कोई एक कुत्ते को पत्थर मार दे तो क्या उसके लिए सरकार ज़िम्मेदार है?’’ हाल में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने दलितों पर हमले को ‘सामाजिक बुराई’ बताया। स्पष्टतः, वे दलितों पर अत्याचार को रोकने में राज्य की असफलता का बचाव कर रहे थे। राजनाथ सिंह ने यह भी कहा कि ‘‘गुजरात में कांग्रेस शासन के दौरान दलितों पर अत्याचार की घटनाओं की संख्या कहीं ज़्यादा थी। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से इन घटनाओं में तेज़ी से कमी आई है।’’ आंकड़े राजनाथ सिंह के इस दावे से मेल नहीं खाते। मई 2015 के बाद से दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में 19 प्रतिषत की वृद्धि हुई है।
इस संदर्भ में भाजपा के नेता केवल प्रतिकात्मक बातों और खोखले दावों से दलितों को संतुष्ट करना चाहते हैं। भाजपा के मुखिया अमित षाह ने कुुंभ में दलित साधुओं के साथ क्षिप्रा नदी में डुबकी लगाई। इस अवसर पर उन्होंने कहा ‘‘भाजपा एकमात्र ऐसी पार्टी है जो भारतीय संस्कृति को मज़बूत करने में विष्वास रखती है और यह मानती है कि पूरा विष्व एक परिवार है।’’ हम उनकी बातों पर कैसे भरोसा करें, जबकि उनके गृह राज्य गुजरात में छुआछूत की अमानवीय प्रथा का व्यापक प्रचलन है। गुजरात के दलित, भेदभाव और छुआछूत का दंष झेलने को मजबूर हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार,
98.4 प्रतिषत गांवों में अंतर्जातीय विवाहों पर प्रतिबंध है और ऐसे विवाह करने वाले लोगों के खिलाफ हिंसा हुई और उन्हें अपने गांव छोड़कर जाना पड़ा है। 98.1 प्रतिषत गांवों में किसी दलित व्यक्ति को गैर-दलितों के मोहल्लों में मकान किराए से नहीं दिया जाता है और 97.6 प्रतिषत गांवों में यदि दलित, गैर-दलितों के पानी के पात्रों या अन्य बर्तनों को छू लें तो इससे वे बर्तन अपवित्र माने जाते हैं, 97.2 प्रतिषत गांवों में किसी दलित को गैर-दलित क्षेत्र में कोई धार्मिक अनुष्ठान आयोजित करने की इजाज़त नहीं है। ये सर्वेक्षण नवसर्जन संस्था ने गुजरात के 1,589 गांवों में किया था। क्या राज्य सरकार ने छुआछूत की इस क्रूर व अमानवीय प्रथा के खिलाफ कोई कार्यवाही की? उत्तर है, नहीं। दलितों को 77 गांवों में सामाजिक बहिष्कार के कारण अपने घर छोड़कर जाना पड़ा। इस मामले की जांच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने की और यह पाया कि इसके पीछे दलितों की शिकायतों का पुलिस द्वारा संज्ञान न लिया जाना, ऐसे मामलों में पुलिस द्वारा सही जांच और उपयुक्त कार्यवाही न की जाना और दलितों पर अत्याचार के प्रकरणों में दोषसिद्धी की दर अत्यंत कम होना है। राज्य ने इस मामले में उपयुक्त कार्यवाही करने की बजाए, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के निष्कर्षों को गलत ठहरा दिया।
भाजपा के दलितों के प्रति दृष्टिकोण और ऊना जैसी घटनाओं के पीछे, दरअसल, हिन्दुत्व की विचारधारा है। हिन्दुत्व की विचारधारा, ऊँचनीच की अवधारणा पर आधारित है और इसमें दलित, सामाजिक पदक्रम के सबसे निचले पायदान पर हैं। सामाजिक असमानता और ब्राह्मणों का प्रभुत्व, हिन्दुत्व की मूल अवधारणाओं में षामिल है। हिन्दुत्व की
विचारधारा, भाजपा की नीतियों का आधार है और यही कारण है कि ये नीतियां, दलितों को सांस्कृतिक, राजनैतिक व आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर करने वाली हैं। दलितों को कमज़ोर करने के लिए कई तरीके अपनाए जाते हैं। इनमें से एक है राष्ट्रवाद के प्रतीकों का निर्माण। इन प्रतीकों को पूरे समाज पर लादने की कोषिष की जाती है। ये प्रतीक ऊँची जातियों के विषेषाधिकारों को स्वीकृति देते हैं और जातिगत पदक्रम को औचित्यपूर्ण ठहराते हैं। गाय, सरस्वती वंदना और योग, धार्मिकता और राष्ट्रवाद के प्रतीक बना दिए गए हैं। हिन्दुत्व की विचारधारा, उन परंपराओं और नियमों को मान्यता देती है जो मूलतः ऊँची जातियों के हैं और दलितों सहित अन्य समुदायों की परंपराओं और आचरण को निचला दर्जा देती है। स्वयं को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए हर व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उच्च जातियों को स्वीकार्य परंपराओं और नियमों का पालन करे।
उदाहरणार्थ, हमेशा से दलितों को मृत मवेषियों को ठिकाने लगाने और उनके मांस को खाने के लिए मजबूर किया जाता रहा है। किसी मृत जानवर को छूना, ऊँची जातियों के सदस्यों को मंजूर नहीं था और यह काम केवल दलितों के लिए उचित माना जाता था। आज भी दलित मृत जानवरों को ठिकाने लगाने का काम करते हैं।
गुजरात में निजी निवेश, अधोसंरचनात्मक विकास और खेती के निगमीकरण पर ज़ोर ने सांठगांठ पर
आधारित पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटालिज्म) को बढ़ावा दिया जा रहा है। सार्वजनिक संसाधनों, जो सबाल्टर्न समुदायों की आजीविका के आधार हैं, को उनसे छीनकर अदानी व अंबानी जैसे उद्योग समूहों के हवाले किया जा रहा है। इससे दलित आदिवासी, मछुआरे आदि बेरोज़गार हो रहे हैं और आर्थिक असमानता बढ़ रही है। राज्य सरकार द्वारा भले ही कुछ भी दावे किए जा रहे हों, सच यह है कि गुजरात में 2005 से 2010 के बीच निर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोज़गार में वृद्धि की दर नकारात्मक रही है। इससे दलितों की असंगठित क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ी है। शहरी क्षेत्रों में असमानता में वृद्धि की दर अपेक्षाकृत तेज़ है और दलित आदिवासी पहले से अधिक गरीब हुए हैं। यद्यपि अनुसूचित जाति उपयोजना के तहत हर राज्य को इस उपयोजना के लिए राज्य की अनुसूचित जातियों की आबादी के अनुपात में धनराषि आवंटित करनी चाहिए परंतु गुजरात सरकार ने पिछले दस वर्षों में एक बार भी इस उपयोजना के लिए राज्य के बजट का 7.09 प्रतिषत-जो कि गुजरात की आबादी में अनुसूचित जातियों का हिस्सा है-आवंटित नहीं किया। जुलाई 2015 की अपनी एक रपट में सरकार ने एक बहुत अजीब सा तर्क दिया, जो कि अनुसूचित जाति उपयोजना के दिषानिर्देषों का स्पष्ट उल्लंघन था। सरकार ने कहा कि ‘‘केवल अनुसूचित जातियों के लिए क्षेत्र-आधारित विकास की परियोजनाएं लागू करना बहुत कठिन है’’! मनरेगा-जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को रोज़गार उपलब्ध करवाने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है-के लिए बजट आवंटन में लगातार कमी की जा रही है और जिन ज़िलों में यह योजना लागू है, उनकी संख्या में लगातार कमी की जा रही है। इससे अनुसूचित जातियों और जनजातियों को बहुत नुकसान हुआ है। सन 2013-14 में मनरेगा के अंतर्गत 18 लाख अनुसूचित जाति व जनजाति के परिवारों को साल में 100 दिन का रोज़गार उपलब्ध हुआ। सन 2014-15 में यह आंकड़ा 7 लाख रह गया।
अहमदाबाद के ह्यूमन डेव्लपमेंट रिसर्च सेंटर (एचडीआरसी) ने अपने नोटिस बोर्ड पर सफाईकर्मियों के रूप में कार्य करने के लिए आवेदन पत्र आमंत्रित करते हुए एक विज्ञापन लगाया। इसमें कहा गया था कि सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारांे को नियुक्ति में प्राथमिकता दी जाएगी। इस विज्ञापन से हिन्दुत्व संगठन भड़क उठे। राजपूत षौर्य फाउंडेषन और युवा षक्ति संगठन के कार्यकर्ताओं ने एचडीआरसी के कार्यालय में जमकर तोड़फोड़ की। उन्होंने यह आरोप लगाया कि एचडीआरसी, समाज को विभाजित कर रही है और लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचा रही है। इस घटना से हिन्दुत्व संगठनों का दलितों के प्रति दृष्टिकोण ज़ाहिर होता है। उनका यह ख्याल है कि हाथ से मैला साफ करने और अन्य सफाई के कार्य केवल दलितों को ही करने चाहिए। यह विडंबनापूर्ण ही है कि जहां संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं, हाथ से मैला साफ करने की प्रथा के उन्मूलन की बात कर रही हैं वहीं गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सन 2007 में प्रकाषित अपनी पुस्तक ‘कर्मयोग’ में यह लिखा था कि वाल्मीकि समुदाय के सदस्य हाथ से मैला साफ करने का काम अपनी आजीविका कमाने के लिए नहीं वरन इसलिए करते हैं क्योंकि वह उनके लिए एक आध्यात्मिक अनुभव है। हम चकित हैं कि अगर हाथ से मैला साफ करने से व्यक्ति आध्यात्म की और प्रवृत्त होता है तो ऊँची जातियां इस मौके को क्यों खो रही हंै और क्यों सरकार सभी जातियों के लोगों को यह काम करने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर रही?
जो दलित युवक भेदभाव के इस दुष्चक्र को तोड़ना चाहते हैं, वे बेहतर जिंदगी के लिए षिक्षा प्राप्त करने के मौके तलाष रहे हैं। परंतु उच्च षैक्षणिक संस्थानों में दलित विद्यार्थियों के साथ एबीव्हीपी जैसे दक्षिणपंथी विद्यार्थी संगठनों और प्रषासन द्वारा भेदभाव किया जाता है। और अगर वे इसका विरोध करते हैं तो उन्हें प्रताड़ित किया जाता है जैसा कि अंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल और रोहित वेमूला के मामलों से साफ है। इससे दलितों की आवाज़ और कमज़ोर हो रही है और दलित युवक अपने आप को असहाय अनुभव कर रहे हैं। असहमति की आवाज़ों को देषद्रोह बताकर क्रूरतापूर्वक कुचल दिया जाता है। इसी तरह, योग-जिसे राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया गया है-से भी दलित स्वयं को नहीं जोड़ पा रहे हैं। इसके कारण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक हैं। पहले से भूख और गरीबी से पीड़ित दलित, जो दिनभर कमरतोड़ षारीरिक श्रम करते हैं, में योग करने की ऊर्जा कहां से बची रहेगी। इसी तरह, दलितों से सरस्वती वंदना करने की अपेक्षा करना एक क्रूर मज़ाक है क्योंकि दलितों को कभी षिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं दिया गया। आज भी गुजरात के स्कूलों में दलित बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। इंडिया एक्सक्लूज़न रिपोर्ट 2014 के अनुसार राज्य के 32.4 प्रतिषत दलित बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं।
हिन्दू के रूप में स्वयं को स्वीकार्य बनाने के लिए और हिंदुत्व संगठनों से जुड़ने के लिए दलितों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्ववादी युद्ध में षिरकत करें। उनके मन में यह भ्रम पैदा किया जाता है कि वे हिन्दू समुदाय का हिस्सा बन गए हैं और उन्हें मुसलमानों से श्रेष्ठ बताकर, हिन्दू राष्ट्रवादी समूह मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने के लिए दलितों का इस्तेमाल कर रहे हैं। मुसलमानों को राष्ट्रविरोधी और सभी हिन्दुओं का षत्रु बताकर दलितों को उनके खिलाफ भड़काया जा रहा है। दलित सड़कों पर हिंसा करते हैं और बाद में आपराधिक न्याय प्रणाली की गिरफ्त में आसानी से आ जाते हैं।
दलितों को स्वयं को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए सभी हिन्दुत्ववादी नियमों का पालन व उसके प्रतीकों का सम्मान करना होता है ताकि उन्हें सत्ता और अवसरों के वे चंद टुकड़े मिल सकें, जिन्हें ऊँची जातियां उनकी और फेकेंगी। जहां तक चुनावों का सवाल है दलितों के सामने इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है कि वे भाजपा का साथ दें क्योंकि भाजपा उन्हें कुछ हद तक सुरक्षा उपलब्ध करवा सकती है। अगर दलित इन हिन्दुत्ववादियों की अपेक्षा के अनुरूप आचरण नहीं करते तो उनके साथ वही होता है जो ऊना में हुआ। दलितों के साथ हिंसा कर उन्हें दबाने का काम धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों के समूह करते हैं जिन्हें राज्य का संरक्षण प्राप्त होता है। इस कारण वे बिना किसी डर के खुलेआम हिंसा करते रहते हैं।
सन 2000 की षुरूआत में गुजरात की विभिन्न अदालतों में अनुसूचित जाति, जनजाति अधिनियम के तहत 13,293 प्रकरण लंबित थे। साल के अंत तक वे सभी प्रकरण लंबित बने हुए थे अर्थात एक भी प्रकरण में निर्णय नहीं हुआ था। इस साल अप्रैल तक प्रदेष में दलितों पर अत्याचार के 409 मामले दर्ज किए गए। राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार, गुजरात में सन 2001 से लेकर अब तक दलितों पर हमले के 14,500 मामले दर्ज किए गए अर्थात औसतन 1,000 प्रति वर्ष या तीन प्रतिदिन। दलित अधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि दलितों पर अत्याचार करने वाले इसलिए बेखौफ रहते हैं क्योंकि इस तरह के प्रकरणों में दोषसिद्धि की दर मात्र तीन से पांच प्रतिषत के बीच है।
क्या राज्य तंत्र द्वारा दलितों पर अत्याचारों को रोकने और दोषियों को सज़ा दिलवाने की ज़िम्मेदारी पूरी न करना स्वीकार्य हो सकता है? दलित समुदाय की बेहतरी और उसकी सुरक्षा की ओर जानबूझकर ध्यान नहीं दिया जाना हिन्दुत्व के असली चरित्र को दर्षाता है और भाजपा के इरादों का पर्दाफाष करता है। हिन्दुत्ववादी, दलितों का अपनी घृणा की राजनीति में इस्तेमाल तो करना चाहते हैं परंतु उन्हें बराबरी का दर्जा देना नहीं चाहते। दलितों को अपने निचले दर्जे को चुपचाप स्वीकार करना होगा ताकि स्थापित सामाजिक पदक्रम को कोई खतरा न हो। दलितों के साथ यदि भेदभाव होता है और उनके साथ हिंसा की जाती है तो इसके लिए जातिप्रथा ज़िम्मेदार नहीं है। यह तो एक ‘सामाजिक बुराई’ है।
भारत को आज एक षक्तिषाली दलित आंदोलन की आवष्यकता है। यह सही है कि धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों के समूह और सरकार व षासक दल का रवैया दलितों के सषक्तिकरण की राह में बड़ी बाधा है परंतु नागरिक समाज संगठनों को आगे बढ़कर दलितों को एक करना होगा और उन्हें उनके अधिकारों के लिए लड़ना सिखाना होगा। अछूत प्रथा के खिलाफ लगातार अभियान चलाए जाने की ज़रूरत है और विकास का एक नया माॅडल बनाने की भी।
-नेहा दाभाड़े
पुलिस का रवैया ढीलाढाला था। पुलिस आसानी से दलितों की सार्वजनिक रूप से पिटाई को रोक सकती थी। पुलिस ने एफआईआर कायम करने में बहुत देरी लगाई। इससे भी बुरी बात यह थी कि एफआईआर, पीड़ितों के खिलाफ ही दर्ज की गई-जैसा कि मोहम्मद अख़लाक के मामले में हुआ था। मानव भक्षकों के खिलाफ एफआईआर तभी दर्ज की गई जब दलितों की पिटाई का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और दलितों ने विरोध प्रदर्षन किए। पुलिस की लेतलाली सामने आने के बाद, ऊना थाने के पुलिस इंस्पेक्टर और एक असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर को निलंबित कर दिया गया। घटना के नौ दिन बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल पीड़ितों से मिलने के लिए समय निकाल सकीं और वह भी तब, जब इस घटना से पूरा देश आहत हो चुका था और दलितों के विरोध प्रदर्षनों से कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ रही थी। उत्तरप्रदेश चुनाव में भाजपा को इस घटना का खामियाजा न भुगतना पड़े, यह भी आनंदी बेन की यात्रा का एक उद्देष्य था।
भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का दलितों के प्रति दृष्टिकोण जगजाहिर है। सन 2015 में फरीदाबाद में दलित बच्चों की हत्याओं के बारे मंे पूछे जाने पर केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह ने दलितों की तुलना कुत्तों से करते हुए कहा था, ‘‘अगर कोई एक कुत्ते को पत्थर मार दे तो क्या उसके लिए सरकार ज़िम्मेदार है?’’ हाल में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने दलितों पर हमले को ‘सामाजिक बुराई’ बताया। स्पष्टतः, वे दलितों पर अत्याचार को रोकने में राज्य की असफलता का बचाव कर रहे थे। राजनाथ सिंह ने यह भी कहा कि ‘‘गुजरात में कांग्रेस शासन के दौरान दलितों पर अत्याचार की घटनाओं की संख्या कहीं ज़्यादा थी। भाजपा के सत्ता में आने के बाद से इन घटनाओं में तेज़ी से कमी आई है।’’ आंकड़े राजनाथ सिंह के इस दावे से मेल नहीं खाते। मई 2015 के बाद से दलितों पर अत्याचार की घटनाओं में 19 प्रतिषत की वृद्धि हुई है।
इस संदर्भ में भाजपा के नेता केवल प्रतिकात्मक बातों और खोखले दावों से दलितों को संतुष्ट करना चाहते हैं। भाजपा के मुखिया अमित षाह ने कुुंभ में दलित साधुओं के साथ क्षिप्रा नदी में डुबकी लगाई। इस अवसर पर उन्होंने कहा ‘‘भाजपा एकमात्र ऐसी पार्टी है जो भारतीय संस्कृति को मज़बूत करने में विष्वास रखती है और यह मानती है कि पूरा विष्व एक परिवार है।’’ हम उनकी बातों पर कैसे भरोसा करें, जबकि उनके गृह राज्य गुजरात में छुआछूत की अमानवीय प्रथा का व्यापक प्रचलन है। गुजरात के दलित, भेदभाव और छुआछूत का दंष झेलने को मजबूर हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार,
98.4 प्रतिषत गांवों में अंतर्जातीय विवाहों पर प्रतिबंध है और ऐसे विवाह करने वाले लोगों के खिलाफ हिंसा हुई और उन्हें अपने गांव छोड़कर जाना पड़ा है। 98.1 प्रतिषत गांवों में किसी दलित व्यक्ति को गैर-दलितों के मोहल्लों में मकान किराए से नहीं दिया जाता है और 97.6 प्रतिषत गांवों में यदि दलित, गैर-दलितों के पानी के पात्रों या अन्य बर्तनों को छू लें तो इससे वे बर्तन अपवित्र माने जाते हैं, 97.2 प्रतिषत गांवों में किसी दलित को गैर-दलित क्षेत्र में कोई धार्मिक अनुष्ठान आयोजित करने की इजाज़त नहीं है। ये सर्वेक्षण नवसर्जन संस्था ने गुजरात के 1,589 गांवों में किया था। क्या राज्य सरकार ने छुआछूत की इस क्रूर व अमानवीय प्रथा के खिलाफ कोई कार्यवाही की? उत्तर है, नहीं। दलितों को 77 गांवों में सामाजिक बहिष्कार के कारण अपने घर छोड़कर जाना पड़ा। इस मामले की जांच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने की और यह पाया कि इसके पीछे दलितों की शिकायतों का पुलिस द्वारा संज्ञान न लिया जाना, ऐसे मामलों में पुलिस द्वारा सही जांच और उपयुक्त कार्यवाही न की जाना और दलितों पर अत्याचार के प्रकरणों में दोषसिद्धी की दर अत्यंत कम होना है। राज्य ने इस मामले में उपयुक्त कार्यवाही करने की बजाए, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के निष्कर्षों को गलत ठहरा दिया।
भाजपा के दलितों के प्रति दृष्टिकोण और ऊना जैसी घटनाओं के पीछे, दरअसल, हिन्दुत्व की विचारधारा है। हिन्दुत्व की विचारधारा, ऊँचनीच की अवधारणा पर आधारित है और इसमें दलित, सामाजिक पदक्रम के सबसे निचले पायदान पर हैं। सामाजिक असमानता और ब्राह्मणों का प्रभुत्व, हिन्दुत्व की मूल अवधारणाओं में षामिल है। हिन्दुत्व की
विचारधारा, भाजपा की नीतियों का आधार है और यही कारण है कि ये नीतियां, दलितों को सांस्कृतिक, राजनैतिक व आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर करने वाली हैं। दलितों को कमज़ोर करने के लिए कई तरीके अपनाए जाते हैं। इनमें से एक है राष्ट्रवाद के प्रतीकों का निर्माण। इन प्रतीकों को पूरे समाज पर लादने की कोषिष की जाती है। ये प्रतीक ऊँची जातियों के विषेषाधिकारों को स्वीकृति देते हैं और जातिगत पदक्रम को औचित्यपूर्ण ठहराते हैं। गाय, सरस्वती वंदना और योग, धार्मिकता और राष्ट्रवाद के प्रतीक बना दिए गए हैं। हिन्दुत्व की विचारधारा, उन परंपराओं और नियमों को मान्यता देती है जो मूलतः ऊँची जातियों के हैं और दलितों सहित अन्य समुदायों की परंपराओं और आचरण को निचला दर्जा देती है। स्वयं को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए हर व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उच्च जातियों को स्वीकार्य परंपराओं और नियमों का पालन करे।
उदाहरणार्थ, हमेशा से दलितों को मृत मवेषियों को ठिकाने लगाने और उनके मांस को खाने के लिए मजबूर किया जाता रहा है। किसी मृत जानवर को छूना, ऊँची जातियों के सदस्यों को मंजूर नहीं था और यह काम केवल दलितों के लिए उचित माना जाता था। आज भी दलित मृत जानवरों को ठिकाने लगाने का काम करते हैं।
गुजरात में निजी निवेश, अधोसंरचनात्मक विकास और खेती के निगमीकरण पर ज़ोर ने सांठगांठ पर
आधारित पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटालिज्म) को बढ़ावा दिया जा रहा है। सार्वजनिक संसाधनों, जो सबाल्टर्न समुदायों की आजीविका के आधार हैं, को उनसे छीनकर अदानी व अंबानी जैसे उद्योग समूहों के हवाले किया जा रहा है। इससे दलित आदिवासी, मछुआरे आदि बेरोज़गार हो रहे हैं और आर्थिक असमानता बढ़ रही है। राज्य सरकार द्वारा भले ही कुछ भी दावे किए जा रहे हों, सच यह है कि गुजरात में 2005 से 2010 के बीच निर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोज़गार में वृद्धि की दर नकारात्मक रही है। इससे दलितों की असंगठित क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ी है। शहरी क्षेत्रों में असमानता में वृद्धि की दर अपेक्षाकृत तेज़ है और दलित आदिवासी पहले से अधिक गरीब हुए हैं। यद्यपि अनुसूचित जाति उपयोजना के तहत हर राज्य को इस उपयोजना के लिए राज्य की अनुसूचित जातियों की आबादी के अनुपात में धनराषि आवंटित करनी चाहिए परंतु गुजरात सरकार ने पिछले दस वर्षों में एक बार भी इस उपयोजना के लिए राज्य के बजट का 7.09 प्रतिषत-जो कि गुजरात की आबादी में अनुसूचित जातियों का हिस्सा है-आवंटित नहीं किया। जुलाई 2015 की अपनी एक रपट में सरकार ने एक बहुत अजीब सा तर्क दिया, जो कि अनुसूचित जाति उपयोजना के दिषानिर्देषों का स्पष्ट उल्लंघन था। सरकार ने कहा कि ‘‘केवल अनुसूचित जातियों के लिए क्षेत्र-आधारित विकास की परियोजनाएं लागू करना बहुत कठिन है’’! मनरेगा-जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों को रोज़गार उपलब्ध करवाने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है-के लिए बजट आवंटन में लगातार कमी की जा रही है और जिन ज़िलों में यह योजना लागू है, उनकी संख्या में लगातार कमी की जा रही है। इससे अनुसूचित जातियों और जनजातियों को बहुत नुकसान हुआ है। सन 2013-14 में मनरेगा के अंतर्गत 18 लाख अनुसूचित जाति व जनजाति के परिवारों को साल में 100 दिन का रोज़गार उपलब्ध हुआ। सन 2014-15 में यह आंकड़ा 7 लाख रह गया।
अहमदाबाद के ह्यूमन डेव्लपमेंट रिसर्च सेंटर (एचडीआरसी) ने अपने नोटिस बोर्ड पर सफाईकर्मियों के रूप में कार्य करने के लिए आवेदन पत्र आमंत्रित करते हुए एक विज्ञापन लगाया। इसमें कहा गया था कि सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारांे को नियुक्ति में प्राथमिकता दी जाएगी। इस विज्ञापन से हिन्दुत्व संगठन भड़क उठे। राजपूत षौर्य फाउंडेषन और युवा षक्ति संगठन के कार्यकर्ताओं ने एचडीआरसी के कार्यालय में जमकर तोड़फोड़ की। उन्होंने यह आरोप लगाया कि एचडीआरसी, समाज को विभाजित कर रही है और लोगों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचा रही है। इस घटना से हिन्दुत्व संगठनों का दलितों के प्रति दृष्टिकोण ज़ाहिर होता है। उनका यह ख्याल है कि हाथ से मैला साफ करने और अन्य सफाई के कार्य केवल दलितों को ही करने चाहिए। यह विडंबनापूर्ण ही है कि जहां संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं, हाथ से मैला साफ करने की प्रथा के उन्मूलन की बात कर रही हैं वहीं गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सन 2007 में प्रकाषित अपनी पुस्तक ‘कर्मयोग’ में यह लिखा था कि वाल्मीकि समुदाय के सदस्य हाथ से मैला साफ करने का काम अपनी आजीविका कमाने के लिए नहीं वरन इसलिए करते हैं क्योंकि वह उनके लिए एक आध्यात्मिक अनुभव है। हम चकित हैं कि अगर हाथ से मैला साफ करने से व्यक्ति आध्यात्म की और प्रवृत्त होता है तो ऊँची जातियां इस मौके को क्यों खो रही हंै और क्यों सरकार सभी जातियों के लोगों को यह काम करने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर रही?
जो दलित युवक भेदभाव के इस दुष्चक्र को तोड़ना चाहते हैं, वे बेहतर जिंदगी के लिए षिक्षा प्राप्त करने के मौके तलाष रहे हैं। परंतु उच्च षैक्षणिक संस्थानों में दलित विद्यार्थियों के साथ एबीव्हीपी जैसे दक्षिणपंथी विद्यार्थी संगठनों और प्रषासन द्वारा भेदभाव किया जाता है। और अगर वे इसका विरोध करते हैं तो उन्हें प्रताड़ित किया जाता है जैसा कि अंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल और रोहित वेमूला के मामलों से साफ है। इससे दलितों की आवाज़ और कमज़ोर हो रही है और दलित युवक अपने आप को असहाय अनुभव कर रहे हैं। असहमति की आवाज़ों को देषद्रोह बताकर क्रूरतापूर्वक कुचल दिया जाता है। इसी तरह, योग-जिसे राष्ट्रवाद का प्रतीक बना दिया गया है-से भी दलित स्वयं को नहीं जोड़ पा रहे हैं। इसके कारण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक हैं। पहले से भूख और गरीबी से पीड़ित दलित, जो दिनभर कमरतोड़ षारीरिक श्रम करते हैं, में योग करने की ऊर्जा कहां से बची रहेगी। इसी तरह, दलितों से सरस्वती वंदना करने की अपेक्षा करना एक क्रूर मज़ाक है क्योंकि दलितों को कभी षिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं दिया गया। आज भी गुजरात के स्कूलों में दलित बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। इंडिया एक्सक्लूज़न रिपोर्ट 2014 के अनुसार राज्य के 32.4 प्रतिषत दलित बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं।
हिन्दू के रूप में स्वयं को स्वीकार्य बनाने के लिए और हिंदुत्व संगठनों से जुड़ने के लिए दलितों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मुसलमानों के खिलाफ हिंदुत्ववादी युद्ध में षिरकत करें। उनके मन में यह भ्रम पैदा किया जाता है कि वे हिन्दू समुदाय का हिस्सा बन गए हैं और उन्हें मुसलमानों से श्रेष्ठ बताकर, हिन्दू राष्ट्रवादी समूह मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने के लिए दलितों का इस्तेमाल कर रहे हैं। मुसलमानों को राष्ट्रविरोधी और सभी हिन्दुओं का षत्रु बताकर दलितों को उनके खिलाफ भड़काया जा रहा है। दलित सड़कों पर हिंसा करते हैं और बाद में आपराधिक न्याय प्रणाली की गिरफ्त में आसानी से आ जाते हैं।
दलितों को स्वयं को राष्ट्रवादी साबित करने के लिए सभी हिन्दुत्ववादी नियमों का पालन व उसके प्रतीकों का सम्मान करना होता है ताकि उन्हें सत्ता और अवसरों के वे चंद टुकड़े मिल सकें, जिन्हें ऊँची जातियां उनकी और फेकेंगी। जहां तक चुनावों का सवाल है दलितों के सामने इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है कि वे भाजपा का साथ दें क्योंकि भाजपा उन्हें कुछ हद तक सुरक्षा उपलब्ध करवा सकती है। अगर दलित इन हिन्दुत्ववादियों की अपेक्षा के अनुरूप आचरण नहीं करते तो उनके साथ वही होता है जो ऊना में हुआ। दलितों के साथ हिंसा कर उन्हें दबाने का काम धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों के समूह करते हैं जिन्हें राज्य का संरक्षण प्राप्त होता है। इस कारण वे बिना किसी डर के खुलेआम हिंसा करते रहते हैं।
सन 2000 की षुरूआत में गुजरात की विभिन्न अदालतों में अनुसूचित जाति, जनजाति अधिनियम के तहत 13,293 प्रकरण लंबित थे। साल के अंत तक वे सभी प्रकरण लंबित बने हुए थे अर्थात एक भी प्रकरण में निर्णय नहीं हुआ था। इस साल अप्रैल तक प्रदेष में दलितों पर अत्याचार के 409 मामले दर्ज किए गए। राज्य अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार, गुजरात में सन 2001 से लेकर अब तक दलितों पर हमले के 14,500 मामले दर्ज किए गए अर्थात औसतन 1,000 प्रति वर्ष या तीन प्रतिदिन। दलित अधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि दलितों पर अत्याचार करने वाले इसलिए बेखौफ रहते हैं क्योंकि इस तरह के प्रकरणों में दोषसिद्धि की दर मात्र तीन से पांच प्रतिषत के बीच है।
क्या राज्य तंत्र द्वारा दलितों पर अत्याचारों को रोकने और दोषियों को सज़ा दिलवाने की ज़िम्मेदारी पूरी न करना स्वीकार्य हो सकता है? दलित समुदाय की बेहतरी और उसकी सुरक्षा की ओर जानबूझकर ध्यान नहीं दिया जाना हिन्दुत्व के असली चरित्र को दर्षाता है और भाजपा के इरादों का पर्दाफाष करता है। हिन्दुत्ववादी, दलितों का अपनी घृणा की राजनीति में इस्तेमाल तो करना चाहते हैं परंतु उन्हें बराबरी का दर्जा देना नहीं चाहते। दलितों को अपने निचले दर्जे को चुपचाप स्वीकार करना होगा ताकि स्थापित सामाजिक पदक्रम को कोई खतरा न हो। दलितों के साथ यदि भेदभाव होता है और उनके साथ हिंसा की जाती है तो इसके लिए जातिप्रथा ज़िम्मेदार नहीं है। यह तो एक ‘सामाजिक बुराई’ है।
भारत को आज एक षक्तिषाली दलित आंदोलन की आवष्यकता है। यह सही है कि धर्म के स्वनियुक्त ठेकेदारों के समूह और सरकार व षासक दल का रवैया दलितों के सषक्तिकरण की राह में बड़ी बाधा है परंतु नागरिक समाज संगठनों को आगे बढ़कर दलितों को एक करना होगा और उन्हें उनके अधिकारों के लिए लड़ना सिखाना होगा। अछूत प्रथा के खिलाफ लगातार अभियान चलाए जाने की ज़रूरत है और विकास का एक नया माॅडल बनाने की भी।
-नेहा दाभाड़े
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