जैसे फसलों का मौसम होता है.खरीफ, रबी। वैसे ही ट्रांसफरों का भी मौसम होता है। ट्रांसफरों के मौसम की विशेषता यह है कि इस मौसम में कुछ भी बोना नहीं पड़ता, सिर्फ काटना पड़ता है। उसी प्रकार जैसे अनेक प्रकार के उद्योग होते हैं जैसे कुटीर उद्योग, लघु उद्योग आदिए इसी तरह ट्रांसफर उद्योग है। अन्य उद्योगों की तरह ट्रांसफर उद्योग में किसी भी प्रकार की नगद पूंजी नहीं लगाना पड़ती।
कुछ वर्ष पहले तक ट्रांसफर के मौसम का समय तय था परंतु अब ऐसा नहीं है। अब ट्रांसफर का मौसम कभी भी हो सकता है। पहले साधारणतः ट्रांसफर का मौसम परीक्षाएं शुरू होने से प्रारंभ हो जाता था और नए शिक्षासत्र के प्रारंभ होने के पूर्व समाप्त हो जाता था। बताया जाता है कि अंग्रेज़ों के राज में संबंधित अधिकारी से पूछा जाता था कि वे किस स्थान पर नई पोस्टिंग चाहेंगे। उससे तीन.चार स्थानों की सूची मांगी जाती थी। इस समय मौसम का चक्र बदल रहा है वैसे ही ट्रांसफर का मौसम भी बदल रहा है। जैसे अभी हाल में हुए ट्रांसफरों को लें। इन ट्रांसफरों के आदेश ऐसे समय पर हुए जब पूरे प्रदेश में इतिहास की सबसे लंबी और भारी बरसात हो रही है। उस दरम्यान अनेक उच्चाधिकारियों के ट्रांसफर हुए। जिनके ट्रांसफर हुए हैं उनमें कलेक्टर रैंक के अधिकारी भी शामिल हैं।
कलेक्टरों को सर्वशक्तिमान माना जाता है। परंतु सर्वशक्तिमानों की भी समस्याएं होती हैं। जैसे उनके बच्चे होते हैं और बच्चे किसी न किसी स्कूल में पढ़ते होंगे। आजकल अच्छे स्कूलों में प्रवेश पाना मुश्किल होता है। हां कलेक्टरों को तो दिक्कत नहीं होती होगी। जिले में किसकी हिम्मत हो सकती है कि वह कलेक्टर को 'नो' कह सके। परंतु उनके बच्चों को किताबें तो मुफ्त नहीं मिलतीं। आजकल स्कूलों की किताबें भी हजारों रूपए में मिलती हैं। अब किसी जिले के कलेक्टर का ट्रांसफर दूसरे स्थान में होता है तो उसे अपने बच्चे को नए स्थान में प्रवेश दिलाना होगा। हो सकता है कि अधिकारी यह तय करे कि 'मैं अकेले जाकर ज्वाइन कर लेता हूं पत्नी,बच्चे उसी शहर में रहेंगे जहां अभी उनकी पोस्टिंग है।' यदि बच्चे बड़े हैं और कालेज में पढ़ते हैं तो मुसीबत दुगनी हो जाती है। हो सकता है उनके बच्चे ने ऐसा विषय लिया हो जो पदस्थापना के नए शहर में पढ़ाया ही न जाता हो। ऐसे हालात में उस बड़े बच्चे को होस्टल में रखना होगा या मां के साथ उसे पूर्व पदस्थापना के स्थान पर छोड़ना होगा।
ऐसी स्थिति में उसे दो घर बसाने होंगे। दो घर बसाने मे खर्च भी बढ़ जाएगा। इस मंहगाई के ज़माने में दो घर बसाना कितना कठिन है। फिर नए स्थान पर कलेक्टर को या अन्य विभाग के उच्च अधिकारी को अकेले रहना होगा। इस दरम्यान उसे घर का खाना भी नहीं मिलेगा। पदस्थापना की नई जगह में शायद उसे सरकारी आवास न भी न मिले। क्योंकि वहां के कलेक्टर के बंगले में पूर्व में रह रहे कलेक्टर का परिवार रह रहा होगा। फिर कलेक्टर की जि़म्मेदारी ऐसी होती है कि वह प्रायः तनाव की स्थिति में रहता है। इस तनाव की स्थिति से वह उस समय मुक्त हो जाता है जब वह अपने घर जाता हैए जहां परिवार के सदस्य उसे प्रसन्न करने और तनाव से मुक्त करने का हर संभव प्रयास करते हैं। अपने बच्चे की मुस्कुराहट से जो राहत मिलती है वह अद्भुत होती है। परिवार से अलग हो जाने के कारण उसे इस तरह की मुस्कुराहट से वंचित रहना पड़ता है।
वैसे ट्रांसफरांे से सभी प्रकार के सरकारी सेवक प्रभावित होते हैं परंतु यहां मैं बार.बार कलेक्टर का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं क्योंकि जिलों का और अप्रत्यक्ष रूप से पूरे देश का प्रशासन उसके ऊपर निर्भर करता है। इसलिए उसे तनाव मुक्त रखना आवश्यक है।
वैसे आदर्श स्थिति यह होगी कि एक निश्चित अवधि के लिएए उच्च अधिकारी जिनमें कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक शामिल हैं,को एक ही स्थान पर रखा जाए। यह अवधि तीन साल की हो सकती है। यदि ट्रांसफरकी तलवार उसके ऊपर लटकी रहेगी तो वह कैसे प्रतिबद्धता और सुकून से अपना कर्तव्य निर्वहन कर सकेगा। परंतु विभिन्न कारणों से आजकल ट्रांसफर फटाफट होते हैं।
ट्रांसफरों का एक बड़ा आधार सत्ताधारी दल के नेताओं की शिकायत होती है। मुझे स्मरण है कुछ वर्ष पहले आधी रात को एक जिले के कलेक्टर के ट्रांसफर के आदेश हुए थे, क्योंकि किसी मुद्दे को लेकर उसी क्षेत्र के एक प्रभावशाली राजनेता उनसे नाराज़ हो गए थे।
आज़ादी के बाद अनेक वर्षों तक राजनेताओं की सनक के कारण ट्रांसफर नहीं हुए। उस दौरान कलेक्टरों की पोस्टिंग का आधार किसी जिले के संभालने में उसकी क्षमता के आधार पर होता था और इस बारे में अंतिम निर्णय मुख्यमंत्री का ही होता था। पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र,श्री पी.सी. सेठी, श्री वीरेन्द्र कुमार सकलेचा और श्री सुंदरलाल पटवा ऐसे मुख्यमंत्रियों में से थे जो उच्चाधिकारियों की पदस्थापना प्रशासन के हित को देखकर ही करते थे। मुझे याद है कि एक जिले के कांग्रेसी नेता पंडित मिश्र से एक अधिकारी का ट्रांसफर करवाने के लिए मिले। मिश्र जी ने नेता जी से पूछा कि आप उसका ट्रांसफर क्यों करवाना चाहते हैं? इस पर नेता जी ने कहा कि इस अधिकारी के रहते मैं चुनाव नहीं जीत पाउंगा। चुनाव नज़दीक थे। नेता जी की बात सुनने के बाद पंडित मिश्र ने कहा कि उस स्थिति में आपके क्षेत्र की टिकट किसी और को दे दूंगा। मिश्र जी की राय थी कि जो अफसरों के सहारे चुनाव जीतने की सोचता है उसे चुनाव नहीं लड़ना चाहिए।
परंतु अब परिस्थितियां बदल गई हैं। अब तो चुनाव की रणनीति बनाते समय इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि किस अधिकारी को पदस्थ करने से चुनाव जीतने की संभावना बढ़ेगी।
इस तरह एक प्रकार से नेताओं का वर्गीकरण कर लिया गया है। अब बहुसंख्यक अधिकारियों का परिचय उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता से होता है। अब प्रायः किसी अधिकारी का परिचय यह कहते हुए दिया जाता है कि वह कांग्रेसी अधिकारी है या वह भाजपाई अधिकारी है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारे संविधान निर्माताओं ने एक तटस्थ ब्यूरोक्रेसी की कल्पना की थी न कि राजनीतिक दलों से प्रतिबद्धता दिखाने वाली। राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ.साथ पैसे के लेनदेन की भी ट्रांसफरों में विशेष भूमिका हो गई है। अब राजनीतिक महफिलों में खुलेआम यह सुनने को मिलता है कि उस अधिकारी ने इतनी रकम देकर विशेष स्थान पर अपनी पदस्थापना करवाई है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है और इससे हमारी संसदीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को गंभीर खतरा है।
-एल.एस. हरदेनिया
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