रविवार, 23 जून 2019

किसान, मध्यवर्ग और मीडिया

           मध्यवर्ग और मीडिया के लिए किसानों की समस्याएँ आज भी देश की मुख्य समस्याओं में नहीं आतीं। मध्यवर्ग के लोग आमतौर पर किसानों के प्रति रोमांटिक और अनालोचनात्मक ढंग से सोचते हैं। किसान के मनोविज्ञान की समाज ने कभी आलोचनात्मक समीक्षा नहीं की। किसान के साथ मध्यवर्ग का दर्शकीय संबंध है। हम नहीं जानते कि किसान कैसे रहता है? किस मनोदशा में रहता है? कैसे खाता-पीता है? खेतीबाड़ी में उसे किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है आदि समस्याओं के बारे में मध्यवर्ग और मीडिया की अनभिज्ञता ने बृहत्तर किसान समाज के साथ अलगाव पैदा किया है। वहीं दूसरी ओर किसान के बारे में सही चेतना पैदा करने वाले कम हैं और भ्रमित करने वाले ज्यादा हैं। पिछले एक दशक में हजारों किसानों की आत्महत्या पर तरह-तरह के लेख लिखे गए, अनेक लेखकों और पत्रकारों ने तो किसानों की आत्महत्या पर लिखते-लिखते देश-विदेश में खूब नाम कमा लिया। किसान को इस प्रक्रिया में हमने जाना कम और सनसनीखेज ज्यादा बनाया। ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया एक ऐसा मीडियम है जिसके जरिए हम किसानों के बारे में अपने इलाकों के अनुभवों और समस्याओं को उठा सकते हैं। किसान समस्या उठाते समय हमें उग्र क्रांतिकारी मनोभाव वाली राजनीति से भी लड़ना होगा।
भारत के किसान की आज केन्द्रीय समस्या क्रांति नहीं है। किसान की प्रधान समस्या कर्जा भी नहीं है। किसान की कई प्रधान समस्याएँ हैं, ये हैं, कृषि उपज के सही दाम, समय पर फसल की खरीद, विनिमय-वितरण की 
अत्याधुनिक व्यवस्था, गांवों में शिक्षा और बिजली की व्यवस्था, साथ ही भूमि के केन्द्रीकरण के खिलाफ सख्त कानून, वितरण और खरीद की व्यवस्था के साथ-साथ कृषि उपज के काम आने वाली वस्तुओं की सहज रूप में गाँव में बिक्री की व्यवस्था। जिन किसानों के पास पैसा नहीं है उनको सस्ती ब्याज पर बैंकों से कर्ज मुहैय्या कराने की व्यवस्था की जाए, बैंकों के कर्ज वसूली सिस्टम को सहज और जनहितकारी बनाया जाए। इसके अलावा किसानों के जीवन में व्याप्त भूख, गरीबी, खानपान और जीवनशैली के वैविध्य पर बहस होनी चाहिए। किसान को मिथकीय या रूढ़िबद्ध मान्यताओं के बाहर लाकर विश्लेषित किया जाना चाहिए। अखिल भारतीय किसान सभा के प्रथम अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती से हमारे किसान नेताओं को भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। किसान नेताओं का किसानों के साथ अनालोचनात्मक संबंध भी एक बड़ी समस्या है। जो लोग किसानों में काम करते हैं उनको अपने सामंती भावबोध और सामंती आचरण से निजी और सामाजिक तौर पर संघर्ष करने की जरूरत है। हमारे अनेक किसान नेता किसान के मनोविज्ञान की गहरी पकड़ से वंचित हैं। यह बात उनके लेखन और कर्म में आसानी से देखी जा सकती है। जो लोग किसानों में क्रांति का बिगुल बजाते रहते हैं वे कृपया किसानों में कुछ समय उनके मनोविज्ञान की मीमांसा पर भी खर्च करें तो बेहतर होगा। क्रांति और कर्ज की महत्ता पर लिखने के बजाए किसान खाएँ-पीएँ इस सवाल पर ध्यान दें तो बेहतर होगा। इस प्रसंग में स्वामी सहजानंद सरस्वती का प्रसिद्ध निबंध हैं ‘‘खाना-पीना सीखें‘‘। इस निबंध का बड़ा महत्व है।
स्वामी सहजानंद सरस्वती ने लिखा है ‘‘हमने देखा है कि किसानों को दिन-रात इस बात की फिक्र रहती है कि मालिक (जमींदार) का हक नहीं दिया गया, दिया जाना चाहिए, साहू-महाजन का पावना पड़ा हुआ है उसे किसी प्रकार चुकाना होगा, चौकीदारी टैक्स बाकी ही है, उसे चुकता करना है, बनिए का बकिऔता अदा करना है आदि-आदि। उन्हें यह भी चिन्ता बनी रहती है कि तीर्थ-व्रत नहीं किया, गंगा स्नान न हो सका, कथा वार्ता न करवा सके, पितरों का श्राद्ध तर्पण पड़ा ही है, साधु-फकीरों को कुछ देना ही होगा, देवताओं और भगवान को पत्र-पुष्प यथाशक्ति समर्पण करना ही पड़ेगा। वे मन्दिर-मस्जिद बनाने और अनेक प्रकार के धर्म दिखाने में भी कुछ न कुछ देना जरूरी समझते हैं। यहाँ तक कि ओझा-सोखा और डीह-डाबर की पूजा में भी उनके पैसे खामख्वाह खर्च हो ही जाते हैं। चूहे, पंछी, पशु, चोर-बदमाश और राह चलते लोग भी उनकी कमाई का कुछ न कुछ अंश खा जाते हैं। सो भी प्रायः अच्छी चीजें ही। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बहुत ही हिफाजत से रखने पर भी बिल्ली उनका दूध-दही उड़ा जाती है। कौवों का दाँव भी लग ही जाता है। कीड़े-मकोड़े और घुन भी नहीं चूकते वे भी कुछ लेही जाते हैं.’’
‘‘ सारांश यह कि संसार के सभी अच्छे-बुरे जीव उनकी कमाई की चीजों के हिस्सेदार बनते हैं। किसान भी खुद यही मानते हैं कि उन सबों का भी हक उनकी कमाई में है, लेकिन क्या वे कभी यह भी सोचते हैं कि हमें और हमारे बाल-बच्चों को भी खाने का हक है? जरा इस प्रश्न की तह में जाकर देखना चाहिए।’’
स्वामी जी ने एक और बड़ी समस्या को उठाया है और वह है क्या किसान सब कुछ पेट की खातिर कर रहा है? इसका उत्तर खोजते हुए लिखा है ‘‘यह माना जाता है कि पेट के लिए ही सबकुछ किया जाता है। लेकिन क्या सचमुच यही बात है? यदि हाँ तो फिर किसान अपनी गाय-भैंस का दूध दुह के स्वयं पी क्यों नहीं लेता और बाल-बच्चों को पिला क्यों नहीं देता। उसे रोकता कौन है, यदि पेट के ही लिए सभी काम सचमुच करता है? पीने से जो बचे उसका दही बना के क्यों खा-खिला नहीं डालता? दही के बाद भी बच जाए तो घी निकाल के खाने में क्या रुकावटें हैं? दुहने के बाद फौरन खा-पी जाने में तो खैरियत है। घर जाने पर तो न जाने कौन-कौन से दावेदार खड़े हो जाएँ।’’
‘‘ मगर क्यों यह बात नहीं की जाती यही तो विचारणीय है। यदि कहा जाए कि सरकारी कर, जमींदारी लगान और साहूकार के पावने का खयाल और भय उसे ऐसा नहीं करने देता तो फिर पेट के ही लिए सब कुछ करते हैं यह कहाँ रहा? दिमाग में तो दूसरा भूत बैठा है। पेट की बात तो यों ही बकी जाती है। पुरानी पोथियों में मिलता है कि भूखे होने से विश्वामित्र ने कुत्तों का जंघा खा डाला। अजीगर्त वगैरह ने भी ऐसा ही निन्दित और धर्मवर्जित मांस खा लिया हालाँकि वे लोग पक्के ऋषि और धर्मभीरु थे। मगर पेट के सामने धर्म की भावना कुछ न कर सकी तो क्या सरकारी और जमींदारी पावने की भावना और धारणा, धर्म भावना से भी ज्यादा बलवती है? जो लोग ऐसा समझते हैं वह भूलते हैं। हो सकता है, समाज का रूप बदले और भविष्य में इस धार्मिक भावना का स्थान भौतिक भावना ले ले। मगर आज तो धर्म भावना सौभाग्य या दुर्भाग्य से सर्वोपरि है। धर्म के नाम पर किसान सबकुछ गवाँ देने को तैयार हो जाते हैं।’’
स्वामी जी ने आगे लिखा है कि ‘‘जरा और सोचें। कल्पना करें कि एक आदमी बहुत ही ज्यादा भगवान का भक्त है। भगवान का उसे दर्शन भी हो जाता है। वह नरसी मेहता या सूरदास के टक्कर का है। उसने भोजन बनाया और कई दिनों का भूखा होने के कारण जल्द खाना भी चाहता है। पेट में आग जो लगी है। मगर भगवान का भोग तो लगाएगा ही। भक्त जो ठहरा। अब अगर उसके साक्षात भगवान या गुरु महाराज उसकी परोसी- परोसाई समूची थाली उठा ले जाएँ, तो क्या होगा। दोबारा बनाने की कोशिश करेगा। लेकिन यदि थाल छीनने की यही प्रतिक्रिया बराबर जारी रही, तो क्या यों ही बर्दाश्त करता जाएगा? खुद छेड़खानी न करेगा? वह तो असम्भव है। दो-चार बार शायद बर्दाश्त करे। मगर अन्त में तो अपने भगवान या गुरु महाराज से भी उठा-पटक कुश्तम-कुश्ती करेगा ही। पकड़ के थाल भी छीन लेगा जरूर। आखिर कचहरियों में वेद, कुरान, बाइबिल और शालिग्राम की झूठी कसमें खाने का मतलब क्या है? क्या वह जर और जमीन के लिए ही भगवान का पछाड़ा जाना नहीं है? क्या कचहरियों में ऐसे ही मौकों पर बराबर यह भगवान इस प्रकार प्रत्यक्ष पछाड़ पर पछाड़ नहीं खाते हैं?’’
‘‘शायद कहा जाए कि जमींदार लूट लेंगे, सरकार छीन लेगी और उसे खाने न देगी। नहीं तो वह जरूर खा जाता। तो इसका सीधा उत्तर यही है कि जब छीना जाएगा तब देखा जाएगा। मगर जब तक छीनने वाले नहीं हैं तभी तक क्यों नहीं खा लेता? यदि छीनने का भय खाने नहीं देता तो क्या नर्क का भी ऐसा ही भय खाने से और चोरी-बदमाशी से रोक देता है? सभी जानते हैं, चोरी करने पर पकड़े जाएँगे और दुराचार-व्यभिचार करने पर थू-थू होगी। मगर क्या छोड़ देते हैं? और अगर सिर्फ खयाली और दिमागी भय ही उनके हाथ और मुँह को रोक देता है। तब तो मानना ही होगा कि असली चीज खाना नहीं। किन्तु पावना चुकाना ही है।’’
‘‘एक बात और कंजूसी के मारे जो न खाता और खिलाता है उसका क्या मतलब है? अगर वह मानता रहता कि असली काम खाना ही है और सबसे पहला है, तो ऐसा काम वह कभी नहीं करता। मगर उसके माथे में असली काम कुछ और ही है। फिर क्यों खाये-पीये? आखिर लक्ष्य से क्यों हटे?’’
‘‘यह भी तो पक्का है कि जो चीजें खा-पी ली जाएँगी उन्हें कोई छीन नहीं सकता, ले नहीं सकता। पेट से तो निकालेगा नहीं। हाँ जो बचा रखी जाती हैं उन्हीं के दावेदार होते हैं, हो सकते हैं। ऐसी हालत में किसान अगर पैदा की हुई चीजें खाता-पीता जाए तो कोई क्या करेगा? आखिर पागल आदमी भी तो आदमी ही होता है। वह पशु या पत्थर तो हो जाता नहीं। मगर उसके ऊपर कोई कानून लागू क्यों नहीं होता? यही न, कि लोग ऐसा करना बेकार समझते हैं और मानते हैं कि नतीजा कुछ नहीं होगा? ठीक उसी प्रकार यदि कानूनों और कानूनी माँगों की परवाह न करके किसान भी अच्छी-अच्छी चीजें खा-पी जाया करे, तो क्या होगा? आखिर पागल को भी तो कानून की फिक्र नहीं होती। इसीलिए कानून भी उसकी फिक्र नहीं करता। फिर वही काम किसान क्यों न करे और कानून भी उसी प्रकार उसका पिण्ड क्यों न छोड़ देगा?’’
‘‘स्मरण रहे कि कानून सदा बनते-बिगड़ते रहते हैं। बहुमत ही उनके बदलने का कारण भी है। ऐसी दशा में तो किसान का यह काम अस्सी प्रतिशत का काम होगा। यह तो ‘कह सुनाऊँ या कर दिखाऊँ’ वाली बात होगी। वह तो कहने के बजाए कर डालेगा और उसका यह मत बड़ा ही पक्का होगा भी। इसे टालने की हिम्मत कोई भी सरकार या शक्ति कर नहीं सकती। फिर तो कानून खामख्वाह ऐसा ही बनेगा कि सबसे पहले किसान को ही खाना-पीना चाहिए। कानून का काम तो सिर्फ यही है कि जिसे हम सामूहिक रूप से करने लगें उसी पर मुहर लगा दे। कानून हमारे लिए हैं, न कि हमीं कानून के लिए हैं। यही सबसे पक्की बात है।’’
‘‘ किसान के पास बैल होता है, गाय, भैंसें होती हैं। उनकी क्या हालत है। बैल का पेट जब खाली होता है, खूब भरा नहीं होता, तो न तो ‘भूखे हैं, रोटी दो’ के नारे लगाता, न क्रान्ति और रेवोल्यूशन की बात ही करता और न भीख ही माँगता है। वह तो सत्याग्रह करता, हल और गाड़ी खींचने से साफ इनकार करता और चारों पाँव बैठ जाता है। वह तो अपने अमल से बता देता है कि हमारी जो खुराक है वही, न कि उलूल-जुलूल रद्दी चीजें, लाओ और पहले हमारा पेट भरो। उसके बाद ही हम हल या गाड़ी में जुटेंगे। वह तो दलील भी नहीं करता और वोट भी नहीं देता। मगर ऐसा करता है कि उसकी माँग उसकी इच्छा पूर्ण करनी ही होती है। तो क्या किसान अपने बैल से भी गया गुजरा है? जिसे अक्ल नहीं होती उसे बैल कहते हैं। मगर वह बैल तो अक्लवाले किसान से सौ दर्जे अच्छा है। यदि किसान को और कहीं अक्ल नहीं मिलती, तो अपने बैल से ही क्यों नहीं सीखता? बैल तो एक ही कानून जानता है और वह है पेट भरने का कानून। क्योंकि उसके बिना हल या गाड़ी खींचना गैर-मुमकिन है। यदि किसान भी वही एक कानून सीख ले तो क्या हो? आखिर उसे भी तो देह से कठिन श्रम करके खून को पानी करके ठीक बैल ही की तरह खटना तथा सभी पदार्थ पैदा करना पड़ता है जो अमीर और कानून बनाने वाले ही खाते-पीते हैं। कानून बनाने वालों को तो उस तरह खटना पड़ता नहीं। फिर वे क्या जानने गए कि पेट भरने पर काम हो सकता है या उसके बिना भी? और जब वे देखते हैं कि किसान तो काम किए चला जाता है, खेत जोतता, बोता और गेहूँ, बासमती, घी, दूध पैदा किये जा रहा है, तो फिर उसके पेट भरने की फिक्र क्यों करने लगे? उन्हें क्या गर्ज? यदि बैल बिना खाये-पीये ही गाड़ी और हल खींचे, खींचता रहे तो कौन किसान ऐसा बेवकूफ है कि उसे खिलाने की फिक्र करेगा ? ’’ सहजानन्द सरस्वती के इतने बड़े उद्धरण को पेश करने का आशय यह है कि हम किसान की मनोदशा को ठीक से समझें।
किसान का नाम आते ही राजनीति का रोमांस गायब हो जाता है। किसान के सवाल आते ही राजनीति की वर्गीय बुनावट खुलने लगती है। लोकतंत्र के विभ्रम टूटने लगते हैं। किसानों का नंदीग्राम प्रतिवाद हाल के वर्षों का ऐसा आंदोलन रहा है जिसने मनमोहन सरकार को पुराना भूमि-अधिग्रहण कानून बदलने के लिए मजबूर किया था, जबकि पुराने कानून के तहत सारे देश में तकरीबन दस लाख एकड़ जमीन विभिन्न सरकारें किसानों से छीनकर कार्पारेट घरानों को सौंप चुकी थीं। नंदीग्राम आंदोलन ने वाम राजनीति को शिखर से लेकर नीचे तक बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया। उस आंदोलन के बाद मनमोहन सरकार ने नया भूमि अधिग्रहण कानून बनाया, जिसे संसद पास कर चुकी है, मोदी सरकार को उसे लागू करना था, लेकिन सन् 2014 में बनी मोदी सरकार ने उसे लागू करने के पहले ही खत्म कर दिया और नया भूमि अधिग्रहण अध्यादेश जारी कर दिया, यह अध्यादेश क्या है इसके परिणाम क्या होंगे इस पर मीडिया में बहुत सार्थक और सटीक सामग्री और सूचनाएं नहीं आ रही हैं।
उल्लेखनीय है कि मनमोहन सरकार में निर्मित भूमि अधिग्रहण कानून को भाजपा ने पूर्ण समर्थन दिया था, यहाँ तक कि संपूर्ण विपक्ष ने समर्थन दिया था, वह कानून संसद की आम सहमति से बना था, मोदी सरकार ने बिना किसी कारण के उस कानून को लागू करने के पहले ही खत्म करके नया अध्यादेश जारी करके संसद का अपमान किया, राजनैतिक सहमति को तोड़ा है और इससे भी बड़ी बात यह है कि यह मसला भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में नहीं था। जो मसला चुनाव घोषणापत्र में नहीं है उसे मोदी सरकार जोर-जबर्दस्ती से पास करना चाहती है। यदि यह कानून इतना ही जरुरी था तो भाजपा ने अपने घोषणापत्र में इसका जिक्र क्यों नहीं किया? मोदी ने अपने भाषणों में इस तरह का कानून लाने की मंशा जाहिर क्यों नहीं की?
सवाल यह है मोदी सरकार इतने उतावलेपन से कानून क्यों बदलना चाहती है? क्या देश के कारपोरेट घराने देश में पैसा निवेश करने के लिए इतने बेचैन हैं कि उनको रातों-रात देश की जमीन कौड़ियों के भाव पर सब कानून तोड़कर दे दी जाए? हम जानना चाहते हैं कि भारत के कारपोरेट घरानों को विगत मनमोहन सरकार ने जो जमीन आवंटित की थी क्या उस पर कारखाने लगाए गए हैं? क्या जो जमीन भारत सरकार ने विकास के नाम पर किसानों से ली है उस पर काम हो रहा है? यदि पुरानी जमीन खाली पड़ी है और कारपोरेट घराने वायदा नहीं निभा पाए हैं तो फिर नई जमीन हासिल करने के लिए वे बेचैन क्यों हैं? हमारे देश में लाखों बीमार-बंद कारखाने हैं पहले उनको चंगा करने की ओर कारपोरेट घराने ध्यान क्यों नहीं देते? वे नई जमीनें क्यों हड़पना चाहते हैं? जमीनें खरीद लेने भर से विकास होता है? हाउसिंग सोसायटियों के बनाने से देश का विकास होगा? क्या इससे देश की उत्पादन क्षमता बढ़ेगी? किसान और मजदूरों की उत्पादकता में बढोतरी होगी?
अब तक का अनुभव बताता है कि किसानों से विगत सरकारों के जरिए हथियाई गई दस लाख एकड़ से ज्यादा जमीन पाने के बावजूद देश की उत्पादकता में कोई इजाफा नहीं हुआ है। नए कारखाने बहुत कम इलाकों में खुले हैं, अधिकतर सेज के इलाके सूने पड़े हैं। मोदी सरकार कम से कम सीएजी की रिपोर्ट को ही गंभीरता से देख लेती तो उसे सेज प्रकल्पों की दशा का अंदाजा लग जाता, लेकिन मोदी सरकार ने तो तय कर लिया है हर हालत में राष्ट्रीय संपदा और संसाधनों को कारपोरेट घरानों के हाथों में सौंप देना है। इससे आरएसएस का हिन्दूमार्ग भी आसानी से समझ में आ सकता है। आरएसएस कहने के लिए राष्ट्रवादी होने का दावा करता है लेकिन उनका हिन्दू नायक जब पीएम बनता है तो खुलकर किसानों और गरीबों की संपदा पर डाकेजनी का कानून बनाता है। यह मजेदार तथ्य है कि आरएसएस के नियंत्रण में केन्द्र सरकार के आने के बाद से सबसे खुशहाल हैं कारपोरेट घराने। कारपोरेट घरानों को जितना फायदा मिला है और उनकी संपदा में जिस तेज गति से इजाफा हुआ है उसने संघ को कारपोरेट संघ में रूपान्तरित कर दिया है।
हमें किसानों के पक्ष में बिना किसी संशय के सोचना चाहिए। किसान के मसलों के लिए जो भी संगठन संघर्ष करें, जो भी नेता लड़ें, हमें उसका सहयोग करना चाहिए। किसान के सवाल और खासकर किसान की जमीन को विकास के नाम पर हथियाने के सभी प्रयासों को हर स्तर पर विफल करने की जरूरत है। मोदी सरकार का भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वस्तुतः किसान और विकास विरोधी है। यह देश के साथ भाजपा की गद्दारी का आदर्श प्रमाण है। यह आरएसएस के दुरंगेपन का आदर्श प्रमाण है। 
हाल के वर्षों में बंगाल के गाँवों में भाजपा के संगठनों का तेजी से प्रसार हुआ है। इस प्रसार के पीछे सबसे बड़ा कारण है बंगाल के किसानों और खेत मजदूरों की पामाली। ममता के भाषण में भावुकता होती है, गुस्सा होता है लेकिन सच नहीं होता। ममता ने जमीन बचाओ-किसान बचाओ का नारा देकर किसानों से व्यापक समर्थन हासिल किया, लेकिन वे यह भूल गयी हैं कि किसान को उसकी जमीन से बांधकर रखना संभव नहीं है, किसानी में पामाली बढ़ी है। पश्चिम बंगाल में खेती करने वाले किसानों की संख्या में गिरावट आई है। कृषि योग्य भूमि कम हुई है। यह वामपंथ के सभी सद्प्रयासों के बाद हुआ है। ममता यह देख ही नहीं पा रही हैं कि किसानों की पामाली क्यों बढ़ी है? किसान की मुख्य समस्या है पामाली। उसके बारे में ममता के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। आँकड़ों के अनुसार पश्चिम बंगाल में खेत मजदूरों की संख्या सन् 1987-88 में 39.6 प्रतिशत थी जो सन् 1993-94 में बढ़कर 41.6 प्रतिशत और सन् 1999-2000 में बढ़कर 49.8प्रतिशत हो गई। यह आँकड़ा तब का है जब राज्य सरकार ने कारखानों के लिए जमीन नहीं ली थी। ममता बनर्जी जमीन बचाओ की आड़ में असल में जमींदारों के राजनैतिक खेल का मोहरा बन गई हैं। पश्चिम बंगाल के किसान की समस्या है बैंक से सस्ती दर पर उन्हें कर्ज मिले। खाद, बीज, बिजली, पानी, बाजार, उपज संरक्षण, कृषि उपज के सही दाम आदि मिलें। ममता बनर्जी ने इनमें से एक भी मसला नहीं उठाया है और इनमें से अधिकांश मसलों का सीधे संबंध केन्द्र सरकार की नव्य उदार नीतियों से है। ममता बनर्जी अच्छी तरह जानती हैं कि नव्य उदार आर्थिक नीतियों ने किसानों के जीवन में भयावह स्थिति पैदा की है। किसानों के सामने अस्तित्व रक्षा का संकट है। क्या ममता बनर्जी के पास किसान विरोधी नव्य उदार नीतियों का कोई विकल्प है? ममता की मुश्किल यह है कि वे किसान समस्या को महज माकपा की साजिश और लूट के रूप में देखती रही हैं? जबकि वास्तविकता यह नहीं है।
किसान के अस्तित्व के सवाल जमीन से आगे जाते हैं। किसान के हितों की रक्षा के सवालों पर वाम का रिकॉर्ड शानदार रहा है। पश्चिम बंगाल में सन् 2000 तक 95,000 एकड़ अधिग्रहीत की गई जिसमें से 94,000 एकड़ जमीन किसानों में वितरित की गई। इनमें अनुसूचित जाति के 37.1 प्रतिशत पट्टादार और 30.5 प्रतिशत बर्गादार किसानों को जमीन मिली। इसके साथ ही अनुसूचित जनजाति के 19.3 प्रतिशत पट्टादार और 11.0 प्रतिशत बर्गादारों को जमीन के पट्टे मिले। बाकी जमीन अन्य जाति के किसानों में वितरित की गई। यहाँ तक कि औरतों को भी संयुक्त और स्वतंत्र रूप से पट्टे दिए गए हैं। 10 प्रतिशत औरतों को संयुक्त और 6 प्रतिशत औरतों को अकेले जमीन के पट्टे दिए गए हैं और यह भारत के इतिहास की विरल घटना है। हाल के अध्ययन बताते हैं पामाली के कारण सन् 2001 तक 13 प्रतिशत पट्टादार अपनी जमीन से हाथ धो बैठे हैं। सब से कम मेदिनीपुर में 5.62 प्रतिशत और उत्तर दिनाजपुर में सबसे ज्यादा 22.35 प्रतिशत पट्टादारों के पास से जमीन चली गई है। किसानों को उनके अस्तित्व के वास्तविक कारणों का ज्ञान कराने के बजाय ममता ने फेक और असंभव कारणों को उछाला है, इससे ममता को राजनैतिक लाभ मिला, वह सन् 2011 में चुनाव जीत गइंर्, लेकिन किसान को कोई लाभ नहीं मिला। कालान्तर में इसके कारण गांवों में ममता और किसानों के बीच टकराव पैदा हुआ है। जिसका राजनैतिक लाभ भाजपा उठाने की कोशिश कर रही है। इससे गांव की शांति नष्ट हो रही है। इससे बड़े पैमाने पर खेती में गिरावट आएगी। उनकी उपज का उचित दाम मिलना मुश्किल हो जाएगा। गांवों में जमींदारों का नए सिरे से राजनैतिक दबदबा बढ़ेगा। किसानों का शोषण, दमन, उत्पीड़न और पामाली बढ़ेगी। अब संक्षेप में किसानों की टीवी पर प्रस्तुतियों पर विचार करें।
टेलीविजन विज्ञापनों में खाना खाता किसान नजर नहीं आता। आमतौर पर मध्यवर्ग के बच्चे, औरतें और पुरुष खाना खाते या पेय पदार्थ पीते नजर आते हैं। चॉकलेट खाते नजर आते हैं। मैगी खाते नजर आते हैं। मध्यवर्गीय सुंदर रसोई नजर आती है। होटल के कुक नजर आते हैं। मध्यवर्गीय औरतें खाना बनाने की विधियाँ बताती नजर आती हैं लेकिन किसान औरतों का चूल्हा और खाना बनाने की विधियाँ नजर नहीं आतीं।

      
-जगदीश्वर चतुर्वेदी 
मोबाइल : 8777425095

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