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सोमवार, 21 सितंबर 2015

सोशल मीडिया पर पहली बार कार्यशाला

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सोशल मीडिया पर पहली बार कार्यशाला आयोजित की गई। इस कार्यशाला का उद्घाटन डॉ गिरीश द्वारा किया गया और अरविन्द राज स्वरूप ने कार्यक्रम का संचालन किया।
कार्यशाला में सोशल मीडिया पर प्रभावी उपस्थिति और सोशल नेटवर्किंग को अधिक प्रभावी बनाने के तरीकों पर विचार विमर्श किया गया जिससे कि पार्टी के विचारों का लोगों में सार्थक एवं अधिकाधिक प्रसार किया जा सके। रवीन्द्र प्रभात एवं रणधीर सिंह सुमन ने लोगों को इस दिशा में कैसे काम किया जाए यह समझाने में मदद की। सभी कामरेड्स ने अपने विचार साझा किए कि इस दिशा में कैसे आगे बढ़ना है।
एक नई पहल करते हुए 
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश ईकाई ने अपनी सोशल मीडिया यूनिट का गठन भी किया। देश में सीपीआई की यह पहली सोशल मीडिया सेल होगी और पार्टी के विचारों से लोगों को जोड़ने की दिशा में काम करेगी। वहाँ उपस्थित सभी प्रबुद्ध जनों ने इस कदम का स्वागत किया और हरसंभव योगदान का संकल्प लिया।
कार्यक्रम के समापन समय पर पुन: इस कार्यशाला के और बड़े स्तर पर करने का संकल्प भी पार्टी पदाधिकारियों ने लिया। सभी साथियों ने माना कि यह सोशल मीडिया की पहल उत्तर प्रदेश में पार्टी की जड़ें मजबूत करने की दिशा में मील का पत्थर साबित होगी।
सोशल मीडिया सेल की औपचारिक जिम्मेदारी निम्नलिखित लोगों को दी गई :
संयोजक -रणधीर सिंह सुमन सहसंयोजक. जितेन्द्र हरि पाण्डेय
सहसंयोजक - मयंक चक्रवर्ती सदस्य - . मसीरउद्दीन संजरी
सदस्य - प्रभात त्रिपाठी सदस्य -  अमित यादव

रविवार, 7 सितंबर 2014

फासिस्ट सरकार का भुतहा विकास माॅडल

    चावल का एक दाना मसलकर सारी बटलोई का हाल मालूम किया जा सकता है, फिर भी मैंने झाँककर, सूँघकर, कलही से खुदर-बुदर करके गुजरात के विकास माॅडल की बटलोई, जिसे लोकसभा चुनावों में तेज आँच पर चढ़ाया गया था, का हाल मालूम किया है। यह वही विकास माॅडल है जिसके बूते पर 2014 का कार्पोरेट प्रेरित प्रायोजित चुनावी महासमर छल और धूर्तता से विजय किया गया है। जिसमें सबसे अधिक नुकसान विरोधी पार्टियों का नहीं वरन् भारत की उस एक सौ तेरह करोड़ जनता का हुआ है जिसका इस चुनाव से किंचित सम्बंध नहीं है, क्योंकि इस सत्तारूढ़ पार्टी को देश भर से मात्र सत्रह करोड़ वोट मिले थे।
    यह वही विकास माॅडल है जिसकी भारतीय जनता को समाचार पत्रों, रेडियो, सोशल मीडिया से लेकर टी.वी. के सभी न्यूज चैनलों पर प्रत्येक पाँच-पाँच मिनट पर दुहाई दी जा रही थी। एक उभरा हुआ नेता बार-बार यह कह रहा था कि हम सारे देश को गुजरात जैसा बना देंगे। किन्तु यह विकास माॅडल जिसे एक तिलिस्म की तरह प्रयोग करके हम सबको अभिभूत किया जा रहा था इसमें एक हाॅरर है जो मुझे ही नहीं आप सभी को आतंकित करेगा और जो हर भुतही शय की भाँति बाहर और दूर से खूबसूरत लगता है। एक दिन जब मैं
गांधीनगर से अहमदाबाद जा रहा था उसी दिन चैबीस घण्टों में सात सेंटीमीटर वर्षा हुई और गुजरात का विकास माॅडल चीखने लगा। मैंने देखा कि सड़कंे नदियाँ बन गई हैं, आॅटो पानी में डूब गये हैं, कारें जहाँ की तहाँ पानी में तैरकर बन्द हो गई हैं। खैर! यह इस अन्ध विकासवाद के लिए एक स्वाभाविक बात है कोई बड़ी बात नहीं। यह विकास पानी और मनुष्य के निकलने  के सारे रास्ते बन्द कर देता है।
    सौभाग्य या दुर्भाग्य से मैं गांधीनगर जो कि गुजरात की राजधानी है, का प्रवासी हूँ। यह वही शहर है जहाँ तीन किलोमीटर का आॅटो का किराया सौ रुपये है, जहाँ चीनी पचास रुपये किग्रा0 और आलू अस्सी रुपये किग्रा0 बिकता है। जहाँ के निवासियों को कार्पोरेटी मुनाफाखोरी संस्कृति ने जानवर बना दिया है, जो सिर्फ मुनाफे की तलाश में रहते हैं और यू0पी0 बिहार के लोगों को गालियाँ देते हुए उन्हीं को ऊँची दरों पर अपने घरों का अधिकांश भाग किराये पर देते हैं। जहाँ के पुलिस और खुफिया हमेशा आतंकवादियों की तलाश में रहते हैं और न मिलने पर किसी निर्दोष मुस्लिम युवक को आतंकवादी बनाकर गायब कर देते हैं।
    चमाचम सड़कों, फुटपाथों, चैराहों और चैड़े ग्रीन मफलरों वाला यह नया-नया शहर प्रत्येक उस मध्यवर्गीय व्यक्ति को आकर्षित करता है जो सुविधा भोगी, स्वार्थी, उदरंभरि और दिखावेदार है। लेकिन इन चमाचम सड़कों और फुटपाथों के और पीछे, जहाँ ग्रीन मफलर हैं, उन्हीं से थोड़ा और आगे मफलरों के पीछे या उसी में भारत की वही राज्य दर राज्य विस्थापित की गई भोली और निर्दोष जनजातियाँ पत्ती और गत्तों के झोपड़ों में महानगरीय जीवन शैली को अपनी पीली और अतृप्त आँखों से निहारती हुई नारकीय जीवन जी रही हैं। ये शहर के हुस्न की बुनियाद है। ये जनजातियाँ जो अदृश्य मानव हंै जिन्हें कोई नहीं देख पाता या देखना नहीं चाहता, इस राज्य और देश के किसी भी विकास माॅडल का हिस्सा नहीं रही हंै। राष्ट्रवादी सरकार जिसने राष्ट्रवाद को फासीवाद का पर्याय बना रखा है। इन्हें अपने राज्य और राष्ट्र का हिस्सा नहीं मानती तथा अपने विकास माॅडल में इन्हें भागीदार नहीं बनाना चाहती क्योंकि गुजरात का विकास माॅडल सिर्फ और सिर्फ बिड़ला, अम्बानी और अडानी के लिए है। गांधीनगर की महँगाई से ऊबकर जब मैं किसी चायखाने पर चाय पीने के लिए जाता हूँ तो वहाँ खड़ा कोई सामान्य गुजराती मुझसे वार्तालाप में कह रहा होता है-मोदी जी ने हमारे वास्ते क्या किया? कुछ नई ये सब (गांधीनगर की महानगरीय व्यवस्था) तो आप लोग (बाहरी) का वास्ते हैं। बरोबर! यह सुनकर मैं मुस्कराता हूँ और चाय पीकर अपने महँगे अस्थायी आशियाने की ओर लौटता हूँ।
    मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा के बाद सबसे अधिक जनजातियाँ गुजरात में हैं। यानी गुजरात देश में चैथा सबसे बड़ा जनजातियों वाला राज्य है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन्हीं जनजातियों का सबसे अधिक विस्थापन, दमन और शोषण हो रहा है। इंडियन एक्सप्रेस का गुजरात संस्करण, चाय के साथ मेरे हाथ में है और यह लेख लिखने से पहले मैंने पढ़ा है कि किस प्रकार एक बिल्डर ने राजनैतिक कार्पोरेटी धन बल की सहायता से किसी आदिवासी नागरिक की करोड़ों रुपये मूल्य की जमीन फर्जी कागजों के सहारे छीन ली है और इस प्रक्रिया में राजस्व प्रशासन का भी सहयोग है। यहाँ के कार्पोरेटी औद्योगिक विकास में भी एक फासीवाद है क्योंकि अम्बानी और अडानी के अतिरिक्त यहाँ कोई एक आटा चक्की तक नहीं लगा सकता। पूरे भारत की तरह यहाँ भी केवल सवर्णों (प्रमुख रूप से पटेल और शाह) का ही कब्जा हर क्षेत्र में है। किसी भी कमजोर अथवा आर्थिक सामाजिक रूप से पिछड़ी जाति को उभरने का ये कोई भी मौका नहीं दे रहे हैं। दुःख की बात तो यह है कि इस राज्य की सरकार (जो अब पूरे देश की सरकार है) के पास इन लोगों के लिए कोई प्रभावी अथवा ठीक ठाक योजना नहीं है। विकास का दावा कर चुनाव जीतने वाली इस राज्य की सरकार में यहाँ के दलित और आदिवासी बच्चे चढ़ी हुई नदियांे में पिलकर अथवा रस्सियों के पुल पर अपनी जान जोखिम में डालकर स्कूल जाते हैं।
    मैंने गुजरात के विकास माॅडल को भुतहा विकास माॅडल इसलिए कहा है कि मुझे गांधी नगर की शान्त सड़कों और यहाँ के विकास से डर लगता है, या कुछ ऐसी ही अनुभूति होती है। चमाचम सड़कों पर मुझे गरीब जनजातियों के बच्चों, महिलाओं की आत्माएँ भटकती हुई दिखाई देती हैं जिनकी हत्याकर उनके कंकालों की नींव पर इस भुतहा विकास माॅडल का ढाँचा खड़ा किया गया है। कितना हास्यापद है। कितनी घृणा होती है यह देखकर कि चमाचम सड़कों के किनारे शानदार फुटपाथों पर सुबह सुबह आदिवासियों के बच्चे कतारबद्ध उकड़ू बैठकर अपनी हाज़्ात रफा कर रहे होते हैं। गुजरात के विकसित आदर्श विकास माॅडल (जो पूरे देश में लागू होने वाला है) के बीच में, खुले आसमान के नीचे तराशे गये पत्थरों से निर्मित फुटपाथ पर इन टट्टी करते हुए बच्चों के सामने से सड़क पर कोई महंगी विदेशी कार, भीतर का वातावरण वातानुकूलित करके स्पीड से गुजर जाती है और उस कार की पाॅलिशदार चमक में, उसके शीशों पर, टट्टी करते हुए बच्चों और उनके द्वारा त्याग किये गये मल का प्रतिबिम्ब पलभर के लिए ठहर जाता है। विकास की यह तस्वीर क्या डरावनी नहीं है?
    मैं कभी नहीं चाहूँगा कि मेरे राज्य उत्तर प्रदेश में जहाँ की जनता सिर्फ कृषि पर निर्भर है, ऐसा कोई भुतहा विकास माॅडल लागू हो जिसमें यहाँ की गरीब जनता हवन सामग्री बनाकर आहुति के रूप में उग्र हिन्दुत्व  के विकास यज्ञ में झोंक दी जाए।
कोई भी सरफिरा धमका के,
जब  चाहे  जिना  कर ले
हमारा  मुल्क  इस माने में
बुधुआ  की  लुगाई  है।
-अदम गोण्डवी

-संतोष अर्श  
मोबाइल: 09919988123
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित

बुधवार, 11 जून 2014

घृणाजन्य अपराध और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

मोदी सरकार को सत्ता संभाले तीन हफ्ते से ज्यादा हो गए हैं। एक ओर जहां समाज के कुछ तबकों को इस सरकार से ढेरों आशाएं हैं वहीं दूसरी ओर, इस सरकार के बारे में जो भय और आशंकाएं पहले से व्यक्त की जा रही थींए वे सच होती दिख रही हैं। बालठाकरे और शिवाजी के रूपांतरित चित्र, सोशल वेबसाईटों पर अपलोड होने के कुछ समय बाद ही पुणे में अल्पसंख्यकों पर योजनाबद्ध हमले शुरू हो गए। हिंसक भीड़ ने शहर को मानो अपने कब्जे में ले लिया। कई मस्जिदों को नुकसान पहुंचाया गया और कम से कम २०० सरकारी व निजी वाहनो को आग के हवाले कर दिया गया। इस हिंसा का सबसे भयावह पक्ष था मोहसिन शेख नाम के एक आईटी कंपनी में कार्यरत पेशेवर की सार्वजनिक रूप से हत्या। धनंजय देसाई के नेतृत्व में 'हिंदू राष्ट्र सेना'के कार्यकर्ताओं ने इस जघन्य कृत्य को अंजाम दिया। यह घटना बताती है कि नफरत हमें किस हद तक क्रूर और अमानवीय बना सकती है। जहाँ इस घटना से अल्पसंख्यक समुदाय सकते में हैं और कई नागरिक समूहों ने इसकी कड़ी निंदा की हैए वहीं भारत के प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर चुप हैं। महाराष्ट्र की सरकार इस घटना को एक सामान्य अपराध मान रही है। यह समझना कठिन है कि किसी व्यक्ति को केवल उसके धर्म के कारणए सड़क पर घेरकर, पीट.पीटकर मार डालने को केवल एक सामान्य हत्या कैसे समझा या बताया जा सकता है? वैसे भीए मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही अल्पसंख्यक समुदाय के लोग आशंकित और भयग्रस्त हैं। पुणे और आसपास के इलाकों में पिछले दो हफ्तों में अल्पसंख्यकों के घरों व उनके धर्मस्थलों पर अनेक हमले हुए हैं। भाजपा की विचारधारा में यकीन करने वालों की हिम्मत बहुत बढ़ गई है। पुणे के आईटी पेशेवर की हत्याए उन लोगों के लिए एक चेतावनी का संकेत है जो सांप्रदायिक सद्भाव व राष्ट्रीय एकता के लिए संघर्षरत हैं और जो इस बात के हामी हैं कि अल्पसंख्यकों को समाज में सम्मान के साथ जीने का और आगे बढ़ने के समान अवसर प्राप्त करने का हक है।
पुणे की घटना को हम उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर से जोड़कर भी देख सकते हैं। वहां भी चुनाव के पहले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए हिंसा भड़काई गई थी। यह मात्र संयोग नहीं है कि महाराष्ट्र में भी जल्द ही चुनाव होने वाले हैं। उत्तरप्रदेश में एक सड़क दुर्घटना के बाद हुई मारपीट को'हमारी महिलाओं की इज्जत से खिलवाड़' का स्वरूप दे दिया गया था। 'लव जिहाद' की चर्चा होने लगी और सांप्रदायिक खेमे के एक विधायक ने एक नकली वीडियो क्लिप अपलोड कर आग में घी डालने का काम किया। इस सबके बाद, पूरे इलाके में भयावह हिंसा हुई। हिंसा की कोख से जन्मा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और इसके बाद, उत्तरप्रदेश में भाजपा को भारी विजय हासिल हुई। उत्तरप्रदेश में भाजपा की जीत का श्रेय अमित शाह को दिया जा रहा है। वे ही अमित शाह अब महाराष्ट्र जा रहे हैं जहां वे आगामी चुनाव में भाजपा को जीत दिलवाने के लिए काम करेंगे। और इसके ठीक पहले,हिन्दू राष्ट्र सेना जैसी ताकतों ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा का तांडव शुरू कर दिया है।
हमारे देश में लंबे समय से सांप्रदायिक हिंसा और सांप्रदायिक अपराधों का इस्तेमाल धार्मिक ध्रुवीकरण करने के लिए  किया जाता रहा है। हालिया लोकसभा चुनाव में, सतही तौर पर देखने पर ऐसा लग सकता है कि मोदी को उनके विकास के एजेण्डे ने जीत दिलाई। परंतु सच यह है कि मोदी की जीत की पृष्ठभूमि में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही था। इसी ध्रुवीकरण की खातिर मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान अनुच्छेद ३७०, बांग्लादेशी घुसपैठियों और पिंक रिवोल्यूशन आदि की बातें कीं। नतीजे में हुए धार्मिक ध्रुवीकरण ने मोदी की जीत में कितनी भूमिका अदा कीए यह कहना मुश्किल है।
कुल मिलाकर,सांप्रदायिक ध्रुवीकरणए सांप्रदायिक पार्टियों का एक प्रमुख हथियार है। गुजरात में हमने देखा कि किस तरह,गोधरा ट्रेन आगजनी के बाद हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने बड़े पैमाने पर हिंसा भड़कायी, जिसमें मारे जाने वालों में से ८० प्रतिशत मुसलमान थे। इस हिंसा ने ध्रुवीकरण को और गहरा किया और भाजपा सरकार, जो उस समय डगमगा रही थी, बहुमत से सत्ता में वापिस आ गई।
सांप्रदायिक हिंसा और ध्रुवीकरण के लिए जिन मुद्दों का इस्तेमाल किया जाता हैए वे समय के साथ बदलते रहे हैं। ब्रिटिश काल में मस्जिदों के सामने बैंड बजाना, मस्जिदों में सुअर का मांस और मंदिरों में गाय का मांस फेंकना, दंगे शुरू करवाने के पसंदीदा तरीके थे। गोधरा में मुसलमानों को हिंदू कारसेवकों को जिंदा जलाने का दोषी ठहराया गया तो मुंबई में बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने का उत्सव मनाकर अल्पसंख्यकों को भड़काया गया। जहां ये मुद्दे हिंसा शुरू करवाने में मदद करते हैं वहीं लोगों के दिमागों में जहर भरने का काम लगातार चलता रहता है। मुस्लिम राजाओं की क्रूरता के किस्से बयान किए जाते हैंए यह बताया जाता है कि किस तरह मुसलमान बादशाह, मंदिरों को जमींदोज किया करते थे और अपनी हिंदू प्रजा पर जजि़या थोपते थे। यह भी कहा जाता है कि इस्लाम को तलवार की नोंक पर भारत में फैलाया गया। इसके अलावाए धारा ३७० व मुसलमानों की'तेजी से बढ़ती' आबादी आदि जैसे मुद्दों पर भी भड़काऊ और झूठी बातें कही जाती हैं। इतिहासविद् व सामाजिक कार्यकर्ता चाहे लाख कहते रहें कि ये बातें सही नहीं हैं और सच कुछ और है तब भी उनकी कोई नहीं सुनता। केवल कुछ लोग, जो कि दूसरों की बातें आँख मूंदकर मानने में विश्वास नहीं रखते,तार्किकता और सत्य की आवाज को सुन पाते हैं। अधिकांश लोग आरएसएस के अतिप्रभावकारी व शक्तिशाली प्रचारतंत्र के जाल में फंस जाते हैं। आरएसएस ने पिछले कई दशकों से चले आ रहे अपने दुष्प्रचार के जरिये यह सुनिश्चित कर लिया है कि देश के अधिकांश हिंदू, मुसलमानों के बारे में गलत धारणाएं पाल लें। नोम चोमोस्की ने राज्य द्वारा 'सहमति के निर्माण' की बात कही थी। यहां, हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन,'सामाजिक मान्यताओं'का उत्पादन कर रहे हैं और इन मान्यताओं को आम लोगों के दिमागों में बिठा रहे हैं। इन मिथकों और गलत धारणाओं का इस्तेमाल, धार्मिक ध्रुवीकरण करने और सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिया किया जाता रहा है।
सांप्रदायिक ताकतों के हथियारों के जखीरे में सोशल मीडिया एक नए व अत्यंत पैने हथियार के रूप में उभरा है। इसकी पहुंच व्यापक है। जहां अखबार व पत्र.पत्रिकाएं अपने लेखन में कम से कम कुछ संतुलन व परिपक्वता रखते हैं वहीं सोशल मीडिया में कोई भी, कुछ भी लिख सकता है और उसे लाखों लोगों तक पहुंचा सकता है। मुजफ्फरनगर में हिंसा भड़काने के लिए मुसलमानों के पारंपरिक परिधान पहने हुए लोगों द्वारा, पाकिस्तान ने दो चोरों की पिटाई की वीडियो क्लिप का इस्तेमाल किया गया। ऐसा बताया गया कि यह मुसलमानों द्वारा हिंदू लड़कों को मारने के दृश्य हैं। बजरंग दल के कार्यकर्ता, हैदराबाद के मंदिरों में गौमांस फेंकते हुए और कर्नाटक में पाकिस्तान का झंडा फहराते हुए पकड़े जा चुके हैं। हिंदू राष्ट्र सेना जैसे संगठन सोशल मीडिया का इस्तेमाल समाज को बांटने के लिए कर रहे हैं। इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी,उनकी असली सोच व इरादे को जाहिर करती है। महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव आसन्न हैं और इस तरह की घटनाओं से भाजपा को वोटों की फसल काटने में मदद मिलेगी। यह आवश्यक है कि महाराष्ट्र सरकार चुनावी समीकरणों की परवाह करे बगैर विघटनकारी ताकतों को पूरी तरह से कुचल दे। इसके साथ हीए विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच आपसी प्रेम व सद्भाव को बढ़ावा देने की जरूरत भी है। अल्पसंख्यकों के बारे में गलत धारणाओं,मिथकों और पूर्वाग्रहों को दूर किया जाना भी उतना ही जरूरी है। यह भी उतना ही आवश्यक है कि हम आमजनों को यह समझाएं कि हमारे देश की विविधवर्णी संस्कृति और उसके बहुवाद का सम्मान करके ही हम आगे बढ़ सकते हैं।
-राम पुनियानी
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