रविवार, 7 सितंबर 2014

फासिस्ट सरकार का भुतहा विकास माॅडल

    चावल का एक दाना मसलकर सारी बटलोई का हाल मालूम किया जा सकता है, फिर भी मैंने झाँककर, सूँघकर, कलही से खुदर-बुदर करके गुजरात के विकास माॅडल की बटलोई, जिसे लोकसभा चुनावों में तेज आँच पर चढ़ाया गया था, का हाल मालूम किया है। यह वही विकास माॅडल है जिसके बूते पर 2014 का कार्पोरेट प्रेरित प्रायोजित चुनावी महासमर छल और धूर्तता से विजय किया गया है। जिसमें सबसे अधिक नुकसान विरोधी पार्टियों का नहीं वरन् भारत की उस एक सौ तेरह करोड़ जनता का हुआ है जिसका इस चुनाव से किंचित सम्बंध नहीं है, क्योंकि इस सत्तारूढ़ पार्टी को देश भर से मात्र सत्रह करोड़ वोट मिले थे।
    यह वही विकास माॅडल है जिसकी भारतीय जनता को समाचार पत्रों, रेडियो, सोशल मीडिया से लेकर टी.वी. के सभी न्यूज चैनलों पर प्रत्येक पाँच-पाँच मिनट पर दुहाई दी जा रही थी। एक उभरा हुआ नेता बार-बार यह कह रहा था कि हम सारे देश को गुजरात जैसा बना देंगे। किन्तु यह विकास माॅडल जिसे एक तिलिस्म की तरह प्रयोग करके हम सबको अभिभूत किया जा रहा था इसमें एक हाॅरर है जो मुझे ही नहीं आप सभी को आतंकित करेगा और जो हर भुतही शय की भाँति बाहर और दूर से खूबसूरत लगता है। एक दिन जब मैं
गांधीनगर से अहमदाबाद जा रहा था उसी दिन चैबीस घण्टों में सात सेंटीमीटर वर्षा हुई और गुजरात का विकास माॅडल चीखने लगा। मैंने देखा कि सड़कंे नदियाँ बन गई हैं, आॅटो पानी में डूब गये हैं, कारें जहाँ की तहाँ पानी में तैरकर बन्द हो गई हैं। खैर! यह इस अन्ध विकासवाद के लिए एक स्वाभाविक बात है कोई बड़ी बात नहीं। यह विकास पानी और मनुष्य के निकलने  के सारे रास्ते बन्द कर देता है।
    सौभाग्य या दुर्भाग्य से मैं गांधीनगर जो कि गुजरात की राजधानी है, का प्रवासी हूँ। यह वही शहर है जहाँ तीन किलोमीटर का आॅटो का किराया सौ रुपये है, जहाँ चीनी पचास रुपये किग्रा0 और आलू अस्सी रुपये किग्रा0 बिकता है। जहाँ के निवासियों को कार्पोरेटी मुनाफाखोरी संस्कृति ने जानवर बना दिया है, जो सिर्फ मुनाफे की तलाश में रहते हैं और यू0पी0 बिहार के लोगों को गालियाँ देते हुए उन्हीं को ऊँची दरों पर अपने घरों का अधिकांश भाग किराये पर देते हैं। जहाँ के पुलिस और खुफिया हमेशा आतंकवादियों की तलाश में रहते हैं और न मिलने पर किसी निर्दोष मुस्लिम युवक को आतंकवादी बनाकर गायब कर देते हैं।
    चमाचम सड़कों, फुटपाथों, चैराहों और चैड़े ग्रीन मफलरों वाला यह नया-नया शहर प्रत्येक उस मध्यवर्गीय व्यक्ति को आकर्षित करता है जो सुविधा भोगी, स्वार्थी, उदरंभरि और दिखावेदार है। लेकिन इन चमाचम सड़कों और फुटपाथों के और पीछे, जहाँ ग्रीन मफलर हैं, उन्हीं से थोड़ा और आगे मफलरों के पीछे या उसी में भारत की वही राज्य दर राज्य विस्थापित की गई भोली और निर्दोष जनजातियाँ पत्ती और गत्तों के झोपड़ों में महानगरीय जीवन शैली को अपनी पीली और अतृप्त आँखों से निहारती हुई नारकीय जीवन जी रही हैं। ये शहर के हुस्न की बुनियाद है। ये जनजातियाँ जो अदृश्य मानव हंै जिन्हें कोई नहीं देख पाता या देखना नहीं चाहता, इस राज्य और देश के किसी भी विकास माॅडल का हिस्सा नहीं रही हंै। राष्ट्रवादी सरकार जिसने राष्ट्रवाद को फासीवाद का पर्याय बना रखा है। इन्हें अपने राज्य और राष्ट्र का हिस्सा नहीं मानती तथा अपने विकास माॅडल में इन्हें भागीदार नहीं बनाना चाहती क्योंकि गुजरात का विकास माॅडल सिर्फ और सिर्फ बिड़ला, अम्बानी और अडानी के लिए है। गांधीनगर की महँगाई से ऊबकर जब मैं किसी चायखाने पर चाय पीने के लिए जाता हूँ तो वहाँ खड़ा कोई सामान्य गुजराती मुझसे वार्तालाप में कह रहा होता है-मोदी जी ने हमारे वास्ते क्या किया? कुछ नई ये सब (गांधीनगर की महानगरीय व्यवस्था) तो आप लोग (बाहरी) का वास्ते हैं। बरोबर! यह सुनकर मैं मुस्कराता हूँ और चाय पीकर अपने महँगे अस्थायी आशियाने की ओर लौटता हूँ।
    मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा के बाद सबसे अधिक जनजातियाँ गुजरात में हैं। यानी गुजरात देश में चैथा सबसे बड़ा जनजातियों वाला राज्य है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन्हीं जनजातियों का सबसे अधिक विस्थापन, दमन और शोषण हो रहा है। इंडियन एक्सप्रेस का गुजरात संस्करण, चाय के साथ मेरे हाथ में है और यह लेख लिखने से पहले मैंने पढ़ा है कि किस प्रकार एक बिल्डर ने राजनैतिक कार्पोरेटी धन बल की सहायता से किसी आदिवासी नागरिक की करोड़ों रुपये मूल्य की जमीन फर्जी कागजों के सहारे छीन ली है और इस प्रक्रिया में राजस्व प्रशासन का भी सहयोग है। यहाँ के कार्पोरेटी औद्योगिक विकास में भी एक फासीवाद है क्योंकि अम्बानी और अडानी के अतिरिक्त यहाँ कोई एक आटा चक्की तक नहीं लगा सकता। पूरे भारत की तरह यहाँ भी केवल सवर्णों (प्रमुख रूप से पटेल और शाह) का ही कब्जा हर क्षेत्र में है। किसी भी कमजोर अथवा आर्थिक सामाजिक रूप से पिछड़ी जाति को उभरने का ये कोई भी मौका नहीं दे रहे हैं। दुःख की बात तो यह है कि इस राज्य की सरकार (जो अब पूरे देश की सरकार है) के पास इन लोगों के लिए कोई प्रभावी अथवा ठीक ठाक योजना नहीं है। विकास का दावा कर चुनाव जीतने वाली इस राज्य की सरकार में यहाँ के दलित और आदिवासी बच्चे चढ़ी हुई नदियांे में पिलकर अथवा रस्सियों के पुल पर अपनी जान जोखिम में डालकर स्कूल जाते हैं।
    मैंने गुजरात के विकास माॅडल को भुतहा विकास माॅडल इसलिए कहा है कि मुझे गांधी नगर की शान्त सड़कों और यहाँ के विकास से डर लगता है, या कुछ ऐसी ही अनुभूति होती है। चमाचम सड़कों पर मुझे गरीब जनजातियों के बच्चों, महिलाओं की आत्माएँ भटकती हुई दिखाई देती हैं जिनकी हत्याकर उनके कंकालों की नींव पर इस भुतहा विकास माॅडल का ढाँचा खड़ा किया गया है। कितना हास्यापद है। कितनी घृणा होती है यह देखकर कि चमाचम सड़कों के किनारे शानदार फुटपाथों पर सुबह सुबह आदिवासियों के बच्चे कतारबद्ध उकड़ू बैठकर अपनी हाज़्ात रफा कर रहे होते हैं। गुजरात के विकसित आदर्श विकास माॅडल (जो पूरे देश में लागू होने वाला है) के बीच में, खुले आसमान के नीचे तराशे गये पत्थरों से निर्मित फुटपाथ पर इन टट्टी करते हुए बच्चों के सामने से सड़क पर कोई महंगी विदेशी कार, भीतर का वातावरण वातानुकूलित करके स्पीड से गुजर जाती है और उस कार की पाॅलिशदार चमक में, उसके शीशों पर, टट्टी करते हुए बच्चों और उनके द्वारा त्याग किये गये मल का प्रतिबिम्ब पलभर के लिए ठहर जाता है। विकास की यह तस्वीर क्या डरावनी नहीं है?
    मैं कभी नहीं चाहूँगा कि मेरे राज्य उत्तर प्रदेश में जहाँ की जनता सिर्फ कृषि पर निर्भर है, ऐसा कोई भुतहा विकास माॅडल लागू हो जिसमें यहाँ की गरीब जनता हवन सामग्री बनाकर आहुति के रूप में उग्र हिन्दुत्व  के विकास यज्ञ में झोंक दी जाए।
कोई भी सरफिरा धमका के,
जब  चाहे  जिना  कर ले
हमारा  मुल्क  इस माने में
बुधुआ  की  लुगाई  है।
-अदम गोण्डवी

-संतोष अर्श  
मोबाइल: 09919988123
लोकसंघर्ष पत्रिका -सितम्बर अंक में प्रकाशित

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