शुक्रवार, 2 मई 2014

चुनाव-आतंकवाद की राजनीति

   लोकतंत्र में आम चुनाव एक ऐसा अवसर होता है जब यह अपेक्षा की जाती है कि सत्ता पक्ष द्वारा उसके कार्यकाल में किए गए कार्यों का विश्लेषण किया जाएगा। स्वयं सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियाँ गिनवाएगा। विपक्षी दल उसकी नाकामियों और नीतियों पर सवाल उठाएँगे। सभी दल देश और जनता की भलाई के लिए अपनी योजनाओं कार्यक्रमों की घोषणा करेंगे। जनहित के मुद्दों पर सकारात्मक बहस होगी। समाज के वंचित, पीडि़त और शोषित वर्गों को अपनी आवाज (आम तौर पर) गूँगे, बहरे और अंधे कानों और आँखों तक पहुँचाने में मदद मिलेगी, क्योंकि अक्सर सत्ता के नशे पूँजीतियों और कारपोरेट घरानों की चकाचैंध में राजनैतिक दलों के नेता न सुन पाते हैं और न देख पाते हैं। लेकिन यह एक कड़ुवी सच्चाई जिसका अनुभव हम इससे पहले के आम चुनावों में भी कर चुके हैं कि चुनावी सरगरमियाँ जैसे-जैसे तेज होती जाती हैं इन जनहित के मुद्दों को बड़ी धूर्तबाजी से हमारे राजनेता हाशिए पर पहुँचा देते हैं। फिर वही वंशवाद, व्यक्तिवाद आस्था, को भय और लालच के हथियार का प्रयोग करते हुए पूँजीपतियों और कारपोट घरानों के हजारो हजार करोड़ रूपयों के चुनावी निवेश से भोली भाली जनता को परोसा जाता रहा है। वही वातावरण इस चुनाव में निर्मित किया जाता हुआ महसूस हो रहा है। पहले वंशवाद और व्यक्तिवाद के साथ आस्था को ज्यादा महत्व दिया जाता था। भय का हथियार आमतौर पर सेकुलर माने जाने वाले दल मुसलमानों, ईसाइयों और दलितों को अपने पक्ष में रहने को मजबूर करने के लिए करते थे। लेकिन शायद 16वीं लोकसभा के लिए होने वाला यह चुनाव इस लिहाज से सबसे अलग होगा कि इसमें ‘भय’ और ‘असुरक्षा’ की भावना की (अगर इसकी धार को कुंद करने के लिए समय रहते सकारात्मक और प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो) सबसे बड़ी भूमिका होगी। यह भावना केवल मुसलमानों या ईसाइयों में ही नहीं होगी, जो लगातार पिछले कुछ वर्षो में होने वाले दंगों के कारण विकसित हो चुकी है, बल्कि इस बार उसका सबसे बड़ा शिकार बहुसंख्यक समाज को बनाने की तैयारी है। उसे मुद्दा बनाने के लिए माहौल बनाया जा रहा है। रोटी, कपड़ा, मकान, किसान, मजदूर, बुनकर, दलित, आदिवासी, जल, जंगल, जमीन जैसे बुनियादी सवालों की बात का शायद नेताओं के भाषणों और स्तम्भकारों के लेखों को श्रृंगारित करने के लिए ही किया जाएगा। निश्चित रूप से बहुसंख्यकों में ‘भय’ और ‘असुरक्षा’ की भावना को परवान चढ़ाने और इसे सबसे बड़े मुद्दे के तौर पर पेश करने का सबसे प्रभावी हथियार होगा ‘आतंकवाद’। लगता है कि संघ और भाजपा ने इसके लिए मन बना लिया है और विभिन्न एजेंसियों का उन्हें अपने पक्ष में माहौल बनाने में पूरा सहयोग भी मिल रहा है।
    जिस तरीके से और जिस अंदाज में ‘आतंकवाद’ के मुद्दे को उछाला जा रहा है उससे साफ है कि मकसद किसी सकारात्मक बहस शुरू करने का नहीं है बल्कि बहुसंख्यक समाज में ‘भय’ और ‘असुरक्षा’ की भावना उत्पन्न करके चुनावी लाभ उठाने का है। अगर यह कहा जाए कि आतंकवाद के नाम पर पिछले दिनों गिरफ्तारियों में जो तेजी आई है उसका इससे सीधा सम्बन्ध है तो गलत न होगा। हो सकता है कि पहली नजर में यह निष्कर्ष किसी आशंका या पूर्वागह का नतीजा मालूम हो लेकिन आतंकवाद के मामले में कई संस्थाओं, प्रतिष्ठानों और राजनैतिक दलों के दृष्टिकोण और व्यवहार इस निष्कर्ष के लिए ठोस आधार उपलब्ध कराते हैं। जाहिर सी बात है जब हम आतंकवाद के नाम पर होने वाली गिरफ्तारियों पर उँगली उठाते हैं तो इसका मतलब होता है खुफिया एवं जाँच एजेसियों को कटघरे में खड़ा करना। आखिर वह किसी राजनैतिक दल या गठबंधन के पक्ष में माहौल बनाने के लिए ऐसा क्यों करेंगे, आतंकवाद एक वास्तविक समस्या है। धमाके हो रहे हैं, बेगुनाह मारे जा रहे हैं फिर तो निश्चित है कि इस अपराध को अंजाम देने वाले भी होंगे। यदि कुछ लोग इस आरोप में पकड़े जा रहे हैं तो इसमें हैरत की क्या बात है, अगर कोई निर्दोष है तो उसके लिए अदालत का दरवाजा खुला हुआ है फिर इसमें किसी आशंका की गुंजाइश कहाँ है, लेकिन पिछले अनुभवों और वर्तमान कार्रवाइयों को जोड़ कर देखें तो हम यकीनी तौर पर इससे अलग सोचने को मजबूर हो जाते हैं।
    सबसे पहले संदेह के लिए पूरी गुंजाइश वहीं पैदा हो जाती है जब आतंकवाद को किसी धर्म या समुदाय से जोड़ कर देखने की कोशिश की जाती है। भारत में इसे इस्लाम और मुसलमानों से जोड़ने की शुरूआत संघ और भाजपा ने की और खुफिया एवं जाँच एजेंसियों तथा मुख्य धारा की मीडिया का उनको पूरा सहयोग मिला। आडवाणी का वह वाक्य सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन जितने आतंकवादी हैं सब मुसलमान हैं, कौन भूल सकता है। देश का मुसलमान शुरू से ही यह कहता आ रहा था कि आतंकी घटनाएँ एक साजिश हैं जिसको संचालित  कोई और करता है और खुफिया एवं जाँच एजेंसियाँ फँसाती मुसलमानों को हैं। महाराष्ट्र ए.टी.एस. प्रमुख स्व० हेमन्त करकरे ने 2008 में आतंक के उस चेहरे को बेनकाब किया जिसकी आशंका मुसलमान वर्षों पहले से जताता आ रहा था। यह रहस्य खुला तो एक के बाद कई बड़ी आतंकी वारदातों में आतंक के इस नए चेहरे का नाम जुड़ता गया। मालेगाँव 2006 और 2008 के धमाकों में वही हाथ पाए गए जो समझौता एक्सप्रेस, अजमेर शरीफ और मक्का मस्जिद बम धमाकों के अपराध में शामिल थे। मगर करकरे की 26/11 के मुम्बई आतंकी हमलों में हत्या के बाद उनके द्वारा की गई जाँच मालेगाँव 2006 के धमाकों से आगे उस दिशा में न बढ़ने देने के लिए आई.बी. और महाराष्ट्र ए.टी.एस. ने अपनी पूरी ताकत लगा दी और वह उस प्रयास में काफी हद तक सफल भी रहे। उस धमाके में साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित समेत अभिनव भारत तथा सनातन संस्थान से जुड़े कई आरोपियों की गिरफ्तारी और चार्जशीट दाखिल होने के बाद भी मालेगाँव के बेगुनाह फँसाए गए, मुस्लिम युवकों को जमानत तक पाने में हर रुकावट खड़ी की गई। इसी आरोप में संघ के आदिवासियों में काम करने के जिम्मेदार और गुजरात के डांग जिले में शबरी आश्रम के संस्थापक असीमानंद ने मजिस्ट्रेट के सामने धारा 164 के तहत पहले दिल्ली में और उसके एक महीना बाद राजस्थान की अदालत में अपना अपराध स्वीकार करते हुए मक्का मस्जिद, अजमेर, समझौता एक्सप्रेस, और मालेगाँव 2006 और 2008 के दोनों
धमाकों में अपने साथियों की भूमिका का खुलासा कर दिया। तब यह भी पता चला कि उन धमाकों में संघ से जुड़े कई लोग शामिल थे। सुनील जोशी जिसकी 2007 में उसके ही साथियों ने हत्या कर दी थी, संघ का प्रचारक था। सुनील की तरह मध्यप्रदेश के ही रहने वाले लोकेश शर्मा और संदीप डांगे, रामजी कालसांगर भी संघ के प्रचारक थे और इन सभी ने बम बनाने और उसे प्लांट करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी। असीमानंद के इकबालिया बयान के अनुसार संघ के बड़े नेता और राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार स्वयं षड्यंत्र रचने और धमाकों की योजना बनाने में प्रत्यक्ष शामिल थे। उन्होंने पैसे और कुछ बम प्लान्टर भी उपलब्ध करवाए थे। इतना ही नहीं संघ के वर्तमान सर संघ चालक को भी न केवल इन गतिविधियों की जानकारी थी बल्कि उनका आर्शीवाद भी प्राप्त था। लेकिन किसी एजेंसी ने इस सिलसिले में किसी बड़े नेता को गिरफ्तार नहीं किया। हद तो यह है कि सूत्रों द्वारा मीडिया में उनको क्लीन चिट दी जाने लगी। कई नेताओं से पूछताछ की भी औपचारिकता एजेंसियों ने पूरी नहीं की। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आरोपियों की गिरफ्तारी और उनसे पूछताछ में जाँच एजेंसियाँ इतने बड़े-बड़े मामलों में उनकी संलिप्तता का राज क्यों नहीं उगलवा पाई थीं, बेगुनाह मुसलमानों के गिरफ्तारी के बाद ही कबूलनामें हासिल कर लेने में माहिर जाँचकर्ता अचानक इन आरोपियों के मामले में इतने अक्षम क्यों नजर आने लगे, या फिर यह मान लेना चाहिए कि नीयत का फर्क था,        चूँकि इन तमाम धमाकों में मुसलमानों को गिरफ्तार करके केस को पहले ही हल करने का दावा किया जा चुका था और इससे पहले तक होने वाले हर धमाके को इस्लामी आतंकवाद या जिहादी आतंकवाद की संज्ञा दी जाती रही थी इसलिए आतंक के इस चेहरे के सामने आने के बाद इसे ‘भगवा’ आतंकवाद कहा गया। हालाँकि यह उतना ही गलत है जितना कि आतंकवाद को ‘इस्लामी या जेहादी’ आतंकवाद का नाम देना। आतंकवादी धमाकों में इस नए चेहरे के काले कारनामों की सूची लम्बी होने लगी और 2003 तक की कई घटनाओं में इन्हीं के हाथ होने का खुलासा हुआ। इसमें जालना, पूरना, परभनी, मोडासा और जम्मू की पीर मट्ठा मस्जिद के धमाके भी शामिल थे। यह भी पता चला कि सुनील जोशी ने कई मंदिरों में पाइप बम धमाके की योजना बनाई थी ताकि हिन्दुओं को भड़काया जा सके। इसके लिए उसने अपने एक दोस्त के कारखाने में लोहे के कुछ विशेष पाइप भी बनवाए थे। सुनील की 2007 में हत्या हो जाने के कारण इस दिशा में जाँच आगे नहीं बढ़ सकी थी। या यह कहा जाए कि खुफिया और जाँच एजेंसियों को, जो जाँच को इस दिशा में आगे बढ़ाना नहीं चाहती थीं इसका बहाना मिल गया और बात वहीं खत्म हो गई। 2006 में नांदेड़ में बम बनाते हुए बजरंग दल के लोग मारे गए थे और वहाँ से नकली दाढ़ी, टोपी, और कुर्ता पाजमा बरामद हुआ था जो इसका साफ प्रमाण था कि बम धमाके करके मुसलमानों को फँसाने का काम किया जा रहा है। लेकिन उसकी जाँच सही तरीके से नहीं की गई और मामला रफा-दफा हो गया। कानपुर में बन बनाते समय होने वाली घटना की कहानी भी बिल्कुल नांदेड़ जैसी ही थी। इसमें भी मारे जाने वाले बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के लोग थे। लेकिन यहाँ तो विस्फोटकों की मात्रा इतनी अधिक पकड़ी गई थी कि तत्कालीन पुलिस अधीक्षक को कहना पड़ा था कि पूरे कानपुर शहर को उड़ाने के लिए पर्याप्त थी। लेकिन इस मामले की जाँच भी आगे नहीं बढ़ी और फाइनल रिपोर्ट लगा कर मामला समाप्त कर दिया गया। गोवा में सनातन संस्थान के सदस्यों द्वारा स्कूटर पर ले जाया जाने वाला बम रास्ते में ही फट गया, मामला थोड़े समय के लिए मीडिया में आया और उसका अंजाम नांदेड़ और कानपुर जैसा ही हुआ। कितने ही स्थानों पर बम बनाते या ले जाते हुए होने वाले धमाकों को पटाखों की आड़ में छुपाया गया। यह सब सम्भव नहीं था यदि खुफिया और जाँच एजेंसियाँ ईमानदारी से काम करतीं और कोई कारण नही था कि इतने सघन अभियान के बाद अब तक भारत से आतंकवाद की जड़ें उखड़ न गई होतीं चाहे उसका नाम और रंग कुछ भी होता। जहाँ एक तरफ खुफिया और जाँच एजेंसियाँ इन आतंकवादियों को संरक्षण दे रही थी वहीं बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को उन्हीं धमाकों के आरोप में पकड़ रही थी और उनके खिलाफ सबूत गढ़ कर उनका जीवन नष्ट कर रही थीं और यातनाएँ देकर अपराध स्वीकार करवा रही थीं। इन सभी मामलों में फर्जी फँसाए गए मुस्लिम आरोपियों के मामले में पुलिस के पास (उसके  अनुसार) सबूत भी थे, बरामद किए गए बम और नक्शे भी थे और सरकारी गवाह भी थे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि सबूत कैसे बनाए जाते हैं और कहानी कैसे गढ़ी जाती है। खुफिया और जाँच एजेंसियों के अहलकार किस तरह से मुसलमानों को आतंकवादी बना कर पूरे समुदाय को बदनाम करने का काम करते थे और उसके समर्थन में झूठे सबूत गढ़ते थे उसका और ठोस सबूत मिलता है गुजरात के इनकाउंटरों से। विस्तार में जाए बिना इतना काफी होगा कि इशरत जहाँ, सोहराबुद्दीन, सादिक जमाल मेहतर और तुलसी प्रजापति फर्जी मुडभेड़ मामलों में कई बड़े पुलिस अधिकारी जेल में हैं। इशरत जहाँ केस में आई.बी. के स्पेशल डायरेक्टर राजेन्द्र कुमार और तीन अन्य आई.बी. अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट तक दाखिल कर दी है। यह तो मात्र वह मामले हैं जो संयोग से खुल गए हैं। देश में इतने संवेदनशील मुद्दे पर इतना बड़ा फर्जीवाड़ा होता रहा, मुसलमान फँसाए जाते रहे जब उसका खुलासा हो गया तो अन्य वारदातों की पुनर्विवेचना के लिए सरकार और एजेंसियों को खुद पहल करनी चाहिए थी लेकिन इसकी बार बार माँग के बावजूद कोई कदम न उठाया जाना यह साबित करता है कि सरकार ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती जिससे उन चेहरों को फिर किसी आतंकवादी घटना से जुड़ा हुआ पाए जाने का रहस्य खुल जाने की सम्भावना मात्र भी हो। इन खुलासों के बाद से जितनी भी आतंकवादी वारदातें हुई हैं उनमें जब भी कभी ऐसी सम्भावना पैदा हुई है उसे तुरन्त खारिज किया गया है और जल्दबाजी में मुसलमान नौजवानों की गिरफ्तारियाँ हई हैं। पुणे जर्मन बेकरी धमाकें के मामले में हिमाचल बेग की गिरफ्तारी की बात हो या जंगली महाराज रोड धमाकों के दयानंद पाटिल में थैले में फटने वाले बम के बाद उसे मामूली चोट बता कर क्लीन चिट देने की बात, सब एक ही रणनीति की कड़ी मालूम होती हैं।
धीरे-धीरे फिर वही वातावरण बनाने का प्रयास लगातार महसूस होता है जो आतंकवाद के इस नए चेहरे के बेनकाब होने से पहले था। खुफिया और जाँच एजेंसियाँ मुख्य धारा की मीडिया के सहारे इसके लिए आधार
उपलब्ध करवाती हैं उसके बाद में सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर माहौल बनाने का बेड़ा संघ और भाजपा तथा कुछ और संगठनों और दलों का होता है। लेकिन बीच-बीच में अदालतों के फैसले इस लय को तोड़ देते हैं। हिमायत बेग को जर्मन बेकरी का मुख्य अभियुक्त बनाया गया था और जिसको निचली अदालत से गढ़े हुए सबूतों के आधार पर फाँसी की सजा भी हो गई थी अब बेगुनाह साबित हो गया। भाजपा और संघ को आतंकवाद के नाम पर राजनैतिक लाभ उठाने में अदालती फैसलों के कारण सबसे बड़ा धक्का अभी हाल ही में उत्तर-प्रदेश में लगा। जब कानपूर के वासिफ हैदर को अदालत ने उन सभी 9 आरोपों से बरी कर दिया जो एस.टी.एफ. ने गढ़े थे। बिजनौर के नासिर को भी अदालत ने बरी किया जिसे ऋषीकेश से एस.टी.एफ. ने उठाया था और लखनऊ से आर.डी.एक्स. के साथ गिरफ्तार दिखाया था। सबसे बड़ी बात यह कि उसकी बेगुनाही की गवाही ऋषीकेश के उस हिन्दू स्वामी ने अपने खर्च से अदालत में हाजिर हो कर दी थी जो उसके वहाँ से उठाए जाने का प्रत्यक्षदर्शी था। अदालत ने भी स्वामी के उस कदम की सराहना अपने फैसले में की है। यह घटनाएँ अप्रत्याशित थीं और उत्तर-प्रदेश जैसे राज्य में जहाँ लोकसभा की 80 सीटें हों वहाँ मजबूत प्रदर्शन के बिना दिल्ली दूर ही रह जाएगी। इसका आभास भाजपा को पहले से है, शायद मोदी को बनारस से चुनाव लड़ाने के पीछे संघ की मंशा भी यही है। लेकिन मोदी के विकास (हालाँकि जब गुजरात के विकास की बात होती है उसका एक मतलब 2002 का दंगा भी होता है) का महल गिर चुका है और उसको लेकर किए जाने वाले दावों की हर दिन पोल खुल रही है। ऐसे में उत्तर-प्रदेश सहित देश के अन्य भागों में आतंकवाद का भय दिखा कर यह यकीन दिलाने की कोशिश की जा रही है कि भाजपा ही इस दानव से निजात दिला सकती है। 23 मार्च को राजस्थान में अलग अलग स्थानों से चार मुसलमानों की गिरफ्तारी (उनमें से दो को जामिआ नगर दिल्ली से गिरफ्तार किया गया था) दिखाई गई और बताया गया कि उनका सम्बन्ध इंडियन मुजाहिदीन से है। इसी तरह जिस तहसीन अखतर को बौद्धगया और पटना
धमाकों के आरोप में साल भर से ज्यादा समय से पुलिस तलाश कर रही थी जोधपुर से गिरफ्तार कर लिया गया। हैदराबाद के मौलाना अब्दुल कवी जो देवबंद जाने के लिए दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरे थे उन्हें गुजरात पुलिस ने वहीं से गिरफ्तार कर लिया। अगले ही दिन गोरखपुर से दो पाकिस्तानियों की गिरफ्तारी दिखाई गई। इससे पहले राजस्थान से गिरफ्तार चार आईएम आतंकियों में भी वकास पाकिस्तानी है जो यहाँ छात्र के तौर पर रह रहा था। इन गिरफ्तारियों में किसका मामला लियाकत अली शाह, हिमायत बेग और मुखतार राजू बंगाली जैसा होगा यह तो बाद में देखा जाएगा लेकिन जो माहौल अभी बनाना है उसके लिए तो आधार मिल ही गया है। लेकिन उत्साह में पाक नागरिकों को भी इंडियन मुजाहिदीन का आतंकी बताना हास्यास्पद और संदेहास्पद नहीं लगता।            मगर माहौल तो इंडियन मुजाहिदीन ही से बनेगा इस लिए यह मजबूरी भी थी कि इनको लश्कर या जैश के साथ जोड़ने के बजाए आई.एम. का आतंकी बताया जए। 
    चूँकि मोदी चुनाव वाराणसी से लड़ रहे हैं इस लिए गिरफ्तारियों का कनेक्शन वहाँ तक न पहुँचे तो बात अधूरी रह जाती है। पुलिस और खुफिया एजेंसियों के सूत्रों के हवाले से जो खबरें अखबारों में छपी हैं उनमें आजमगढ़ के डाक्टर शहनवाज और मिर्जा शादाब के बारे में कहा गया है कि उत्तर भारत में आई.एम. ने आतंकी हमले की कमान इन दोनों को सौंपी है। यह बात पकड़े गए कथित आतंकवादियों ने पूछताछ में बताई है। उन्होंने यह भी खुलासा किया है कि उत्तर-प्रदेश में आई.एम. के 150 स्लीपिंग माड्यूल्स हैं जिनका इस्तेमाल हमलों के लिए किया जा सकता है। शायद यह बताने की जरूरत नहीं कि पूछताछ में यह भी पता चला कि हमले मोदी और उनकी रैलियों पर किए जाएँगे। आजमगढ़ से वाराणसी की दूरी मुश्किल से 50-60 किलोमीटर है। इस लिजाज से आजमगढ़ माड्यूल ही इस पटकथा में सबसे फिट बैठता है और पिछले कुछ समय से मीडिया में इसी हवाले से चर्चा में रहने के कारण सबसे ज्यादा प्रभावी भी साबित हो सकता है। इसी तरह का माहौल जदयू से भाजपा के रिश्ते टूटने के बाद बिहार में भी बनाया गया था।
    यहाँ यह प्रश्न दिमाग में उठना स्वाभाविक है कि खुफिया और जाँच एजेंसियों को ऐसा करने की जरूरत ही क्यों है और उसके लिए भाजपा के ही हक में माहौल बनाने का क्या औचित्य है, तो इस सवाल का जवाब अगर सवाल ही से दिया जाए तो यह पूछा जा सकता है कि जिन बम धमाकों में असीमानंद और प्रज्ञा एंड कंपनी का हाथ था उसमें बेकसूर मुसलमानों को फँसाने के पीछे क्या राज हो सकता है, या इशरत जहाँ को पकड़ कर हत्या कर दी जाती है और उसे लशकर का आतंकी बताने के लिए ए.के. 47 दिखाई जाती है तो इसके पीछे क्या रहस्य हो सकता है, क्या यह एक व्यक्ति के दिमाग की खराबी कह कर टालने योग्य बात है। नहीं यह मामला कुछ और है। खुफिया एजेंसियों को असीमित अधिकार चाहिए और साथ ही किसी प्रकार की जवाबदेही भी नहीं रहे उसके लिए लोगों में भय और असुरक्षा का भाव उत्पन्न होना आवश्यक है। भाजपा को देश की सत्ता चाहिए ऐेसे में भय और असुरक्षा का हथियार बहुत प्रभावी हो सकता है मगर इसके लिए उसे मुसलमानों से जोड़ना जरूरी है। इसलिए यदि कोई वास्तविक शत्रु न हो तो काल्पनिक शत्रु पैदा करना उसके लिए राजनैतिक मजबूरी है। धमाकों के लिए माहौल बनाने से लेकर जरूरत पड़ने पर उसे अंजाम देने तक का इंतेजाम संघ के पास है, और उसका आरोप उस काल्पनिक शत्रु के सिर थोपने की कुंजी खुफिया और जाँच एजेंसियों के पास। यदि दोनों अपने अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह सही तरीके से करते हैं तो लक्ष्य को आसान बना सकते हैं। जब जनता इसको स्वीकार कर लेगी तो फासीवाद में उसे अपने लिए रक्षक दिखाई देने लगेगा और शायद यह मान लिया जाएगा कि वह ‘सामूहिक चेतना’ अब जनता में भी वास्तव में पैदा हो गई है जिसको संतुष्ट करने के लिए अफजल गुरू को फाँसी पर चढ़ाया गया था।    
 -मसीहुद्दीन संजरी
मो0-09455571488     लोकसंघर्ष पत्रिका  चुनाव विशेषांक से

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