मंगलवार, 5 अगस्त 2025

कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक में मौलाना हसरत मोहानी का योगदान

'तेलंगाना प्रगतिशील लेखक संघ', 'तेलंगाना साहित्य अकादमी' और 'तेलंगाना अरब अकादमी' के संयुक्त राज्य अमेरिका में एक दिव्य दीक्षा का आयोजन किया गया। 'उर्दू हॉल', हिमायत नगर में इस दीक्षांत समारोह का आयोजन स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, संपादक और मकबूल शायर मौलाना हसरत मोहानी पर किया गया था। वर्ष 2025 हसरत मोहानी का 150वाँ जन्म जयंती वर्ष और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का शताब्दी वर्ष है। इस बात पर विचार किया जा रहा है कि इस साल मेमोरियल बनाने के लिए इस इवेंट को विशेष रूप से तैयार किया गया था। एसोसिएशन में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के अलावा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोगियों, सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और छात्रों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। सत्र की शुरुआत से पहले प्रगतिशील लेखक संघ का झंडा फहराया गया। उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष मंडल में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पी. लक्ष्मीनारायण, संगठन के राष्ट्रीय महासचिव सुखदेव सिंह सीआ, सचिव टी.एस. नटराजन, डॉ. मोहनदास, अविनाश तिवारी, संगठन के अध्यक्ष मंडल सदस्य के नथमल शर्मा, पूनम सिंह और आंध्र प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष आर. चन्द्रशेखर रेड्डी, तेलंगाना प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष आर. वी. रामराव के अलावा पूर्व राज्य सभा के सदस्य अज़ीज़ पाशा भी शामिल थे। सत्रह में स्वागत भाषण तेलंगाना अरबिया प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अविनाश रानी बावा ने दिया, वहीं उद्घाटन भाषण पूर्व विधायक कॉमरेड चाडा वेंकट रेड्डी ने दिया। मुख्य चर्चा पी.एस.सी. तुर्क विश्वविद्यालय के पूर्व राष्ट्रपति प्रोफेसर एस. वी. सत्यनारायण ने दिया। सत्रह के विशिष्ट अतिथि तेलंगाना साहित्य अकादमी के सचिव डॉ. नमोजी बालाचारी थे। इस सत्र में आंध्र प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष एटुकेरी प्रसाद को भी सम्मानित किया गया। पूर्व राज्य सदस्य सभा अज़ीज़ पाशा ने मौलाना हसरत मोहानी को याद करते हुए कहा, "हसरत मोहानी की जिंदगी और उनके कारनामों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। वे हिंदुस्तान की मिली-जुली तहजीब के प्रतीक थे। संविधान सभा के सदस्य थे और उन्होंने भारत विभाजन का विरोध किया था।" वर्ष 2026 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के नब्बे वर्ष पूरे हो रहे हैं। संगठन की विरासत को याद करते हुए, प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पी. लक्ष्मी नारायण ने कहा, "आपकी स्थापना के बाद से ही संगठन देश भर के प्रतिष्ठित विद्वान, बुद्धिजीवियों और दार्शनिकों का समर्थन कर रहा है। वर्ष 1938 में प्रगतिशील लेखक संघ के दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में न केवल पंडित विहारी नेहरू, सरोजिनी नायडू शामिल हुए, बल्कि गुरुदेव रसिकनाथ टैगोर ने भी इसमें अपना अपना लिखित राजदूत भेजा।" प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. सुखदेव सिंह सिरसा ने कहा, ”देश की आज़ादी में मौलाना हसरत मोहानी का बड़ा योगदान है। वर्ष 1921 में उन्होंने ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा दिया। इस नारे के साथ बाद में भगत सिंह ने ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ को जोड़ा। बाद में ये नारे देश के कोने-कोने में गूँजे। आज़ादी के बाद भी इन नारों की प्रासंगिकता ख़त्म नहीं हुई है। साम्राज्यवाद के नए-नए चेहरे आज हमारे सामने आ रहे हैं। फासीवाद और कॉरपोरेट के ख़िलाफ़ भी हमें उसी तरह एकजुट होना पड़ेगा। जब भी इस तरह के हालात पैदा होंगे, इन नारों की प्रासंगिकता बनी रहेगी।” डॉ. सिरसा ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ”आज हैदराबाद में हसरत मोहानी पर सेमिनार आयोजित हो रहा है। हमें मोहानी के साथ-साथ मखदूम मोहिउद्दीन को भी याद करना चाहिए। आज जब दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में युद्ध का माहौल बना हुआ है, तब उनकी नज़्म ‘जाने वाले सिपाही से पूछो, वो कहाँ जा रहा है’ बहुत याद आती है। यह नज़्म युद्ध की भयावहता को दर्शाती है।” कॉमरेड चाडा वेंकट रेड्डी ने कहा, ”फासीवाद ने हमारे देश को बहुत नुकसान पहुँचाया है। आज हमारी सांस्कृतिक भिन्नता और सामाजिक ताना-बाना सभी कुछ इसके निशाने पर है। ऐसे माहौल में हसरत मोहानी को याद करना इसलिए ज़रूरी है कि उन्होंने हमेशा राष्ट्रीय एकता की बात की। मौलाना होने के बावजूद उन्होंने कृष्ण भक्ति की नज़्में लिखीं।” सेमिनार के उद्घाटन सत्र में तेलुगु भाषा की तीन किताबों के अलावा किताब ‘बलराज साहनी: एक समर्पित और सृजनात्मक जीवन’ (गार्गी प्रकाशन, नई दिल्ली) का विमोचन भी हुआ। विमोचन के बाद किताब के संपादक ज़ाहिद ख़ान ने संक्षेप में किताब की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा, ”किताब की ख़ासियत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव पी.सी. जोशी का एक लंबा आलेख है, जो उन्होंने बलराज साहनी पर लिखा था। इसके अलावा किताब में बलराज साहनी के करीबी दोस्त ख़्वाजा अहमद अब्बास, जसवंत कंवल और बलराज साहनी के बेटे परीक्षित साहनी के लेख शामिल हैं, साथ ही बलराज साहनी की कुछ तक़रीरें और निबंध भी हैं।” सत्र के अंत में तेलंगाना प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. पल्लेरु वीरास्वामी ने सत्र में शामिल सभी अतिथियों और श्रोताओं का धन्यवाद किया। उद्घाटन सत्र के बाद मौलाना हसरत मोहानी की शख्सियत और उनके राजनीतिक एवं साहित्यिक योगदान पर दो और सत्र हुए, जिनमें विद्वान वक्ताओं ने अपने महत्वपूर्ण वक्तव्य दिए। सेमिनार का दूसरा और महत्वपूर्ण सत्र ‘हसरत मोहानी और साहित्य’ विषय पर था। इस सत्र की मुख्य अतिथि थीं-प्रोफेसर कीर्तिमालिनी विट्ठलराव जावले (डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, महाराष्ट्र)। अन्य वक्ताओं में शामिल थे-डॉ. मोहम्मद काशिफ (हैदराबाद विश्वविद्यालय), प्रोफेसर अर्शिया (हैदराबाद विश्वविद्यालय), डॉ. रफिया सलीम (हैदराबाद विश्वविद्यालय), श्रीमती महजबीन, तेलंगाना प्रगतिशील लेखक संघ उर्दू की अध्यक्ष डॉ. अवधेश रानी बावा और लेखक-पत्रकार ज़ाहिद ख़ान। सत्र में शामिल सभी वक्ताओं ने अपने लिखित वक्तव्य पढ़े, जो मौलाना हसरत मोहानी की शख्सियत और उनके साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक योगदान को बेहद उम्दा तरीके से उजागर करते थे। खास बात यह थी कि ये सभी लेख एक-दूसरे के विषय से भिन्न थे। श्रोताओं ने इन लेखों को बहुत पसंद किया। ज़ाहिद ख़ान ने अपने लेख का आरंभ इस अंदाज़ में किया, ”जंग-ए-आज़ादी में सबसे पहले ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का जोशीला नारा बुलंद करना और हिंदुस्तान की पूर्ण आज़ादी की मांग-महज़ ये दो बातें ही मौलाना हसरत मोहानी की बावक़ार हस्ती को बयान करने के लिए काफी हैं। वरना उनकी शख्सियत से जुड़े ऐसे अनेक किस्से और हैरतअंगेज़ कारनामे हैं, जो उन्हें जंग-ए-आज़ादी के पूरे दौर और फिर आज़ाद हिंदुस्तान में महान बनाते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उनके बारे में कहा था, ‘मुस्लिम समाज के तीन रत्न हैं और मुझे लगता है कि इन तीनों में मोहानी साहब सबसे महान हैं।”’ उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ”वर्ष 1925 में मौलाना हसरत मोहानी का झुकाव कम्युनिज़्म की ओर हो गया। यहाँ तक कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के पहले सम्मेलन की नींव उन्होंने ही रखी। वर्ष 1926 में कानपुर में हुई पहली ‘कम्युनिस्ट कॉन्फ्रेंस’ में मौलाना हसरत मोहानी ने ही स्वागत भाषण पढ़ा, जिसमें उन्होंने पूर्ण आज़ादी, सोवियत रिपब्लिक की तर्ज़ पर स्वराज की स्थापना और स्वराज स्थापित होने तक किसानों और मज़दूरों के कल्याण पर ज़ोर दिया। वर्ष 1936 में जब लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस हुई, तो मौलाना हसरत मोहानी केवल एक निमंत्रण-पत्र पर बिना किसी औपचारिकता के कानपुर से इस कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने लखनऊ पहुँच गए। अपनी तक़रीर में उन्होंने न केवल प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र और इसके मकसद से सहमति जताई, बल्कि इस बात पर भी ज़ोर दिया कि ‘साहित्य में आज़ादी की तहरीक की झलक होनी चाहिए। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेखकों को मज़दूरों, किसानों और तमाम पीड़ित इंसानों की पक्षधरता करनी चाहिए। लेखक को ज़िंदगी के अधिक महत्वपूर्ण और गंभीर मसलों की ओर ध्यान देना चाहिए।”’ अपनी इस तक़रीर में साहित्यकार और आलोचक ज़ाहिद ख़ान ने अक्टूबर 1945 में हैदराबाद में आयोजित प्रगतिशील उर्दू साहित्यकारों की ‘अखिल भारतीय कॉन्फ्रेंस’ का भी ज़िक्र किया, जिसमें मौलाना हसरत मोहानी ने न केवल हिस्सा लिया, बल्कि इस कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष-मंडल में भी शामिल थे। उन्होंने आगे कहा, ”ग़ज़ल को दोबारा ज़िंदगी बख्शने वाले और ग़ज़ल की आलीशान इमारत के पाँच स्तंभों-फ़ानी बदायूनी, असग़र गोंडवी, फ़िराक़ गोरखपुरी और जिगर मुरादाबादी के साथ हसरत मोहानी भी एक अहम स्तंभ माने जाते हैं। मशहूर आलोचक रशीद अहमद सिद्दीकी ने मौलाना हसरत मोहानी पर लिखे अपने रेखाचित्र में उनकी कई खूबियों को बयान करते हुए लिखा है, ‘किसी से न दबने वाला, हर शख्स से स्नेह करने वाला, ज़बान का दाता, शायरों का वली, ग़ज़ल का इमाम, साहित्य का खिदमतगार। कैसी सच्ची बात एक अज़ीज़ ने कही कि ‘सियासत कोयले का कारोबार है, जिसमें सभी का हाथ और बहुतों का मुँह काला होता है, सिवाय हसरत के।”’ ज़ाहिद ख़ान ने अपने लेख में एक और खास बात का ज़िक्र करते हुए कहा, ”देश का संविधान बनाने वाली समिति में मौलाना हसरत मोहानी शामिल थे। संविधान सभा के सदस्य और संसद सदस्य रहते हुए उन्होंने कभी वीआईपी सुविधाएँ नहीं लीं। यहाँ तक कि वे संसद से वेतन या कोई भी सरकारी सुविधा नहीं लेते थे। हसरत मोहानी संविधान सभा के एकमात्र ऐसे सदस्य थे, जिन्होंने संविधान पर अपने हस्ताक्षर नहीं किए, और इसका कारण यह था कि उन्हें लगता था कि देश के संविधान में मज़दूरों और किसानों की सत्ता स्थापित होने का कोई ठोस प्रावधान नहीं है।” सत्र के समापन पर तेलंगाना के क्रांतिकारी लेखक संघ उर्दू के जनरल निखत आरा रॉयलन ने दीक्षांत समारोह में सभी राष्ट्रमंडल और शोकसभाओं में भाग लिया। (प्रस्तुति : जाहिद ख़ान)

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