बलजीत सिंह
ग़ज़ल
हार के कोई इसमें लंगर करता है!
तैर के कोई पार समंदर करता है!
उसकी मर्ज़ी होती है जब जी चाहे!
मुझको मेरे घर से बाहर करता है!
दीवाने की आदत ही कुछ ऐसी है!
खूँ से अपनी ज़ुल्फ़ों को तर करता है!
मेरे सारे हीरे रख कर वो दिलबर!
मेरी जानिब कंकर पत्थर करता है!
दुनियादारी का इक झोंका यादों के!
फीके फीके सारे मंज़र करता है!
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