गुरुवार, 18 दिसंबर 2025
स्तालिन तानाशाह थे..? ➖➖➖➖➖➖➖ भाग..२
स्तालिन तानाशाह थे..?
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भाग..२
स्तालिन=इस्पात
हां रूस में इस्पात को स्तालिन कहा जाता है।
जैसे अर्नेस्टो ग्वेरा को "चे" क्यूबा के क्रांतिकारीयों ने सम्बोधित किया था जिसका मतलब होता है "साथी,दोस्त,भाई"
और आज हम सभी #चे_ग्वेरा से हीं सम्बोधित करते हैं ठीक उसी प्रकार जिस स्तालिन को हम जानते हैं वो स्तालिन नहीं थे।
असली नाम "जोसेफ विसारिओनोविच" था।
जोसेफ विसारिओनोविच के अदम्य साहस, असाधारण दृढ़ता को देखकर बोलसेविक पार्टी के कॉमरेड ने #स्तालिन से नवाजा था।
जोकि आज हम "जे.वी स्तालिन " से जानते हैं।
स्तालिन कोई धन्ना सेठ के घर में पैदा नहीं हुए थे। स्तालिन सही मायने में सर्वहारा परिवार से थे। स्तालिन के पिता श्री #मोची यानी भारत के हिसाब से सम्बोधित करें तो चमार जाती के घर में पैदा हुए और माता श्री कपड़े धोने का काम करती थीं। भारतीये परिपेक्ष में #धोबी थीं।
आप कहेंगे की यह कौन सी बड़ी बात है। आब्राहम लिंकन, मार्टिन लुथर किंग ,नेनशल मंडेला आदि सरिखे लोग भी सर्वहारा वर्ग से हीं आये थे और देश दूनिंया के क्षीतिज पर चमक बिखेरने में कामयाब हुए।
लेकिन जिस विचार को आत्मसात करके स्तालिन-लेनिन के नेतृत्व में अपना योगदान दिया। लेनिन के सपनों का समाज बनाने में योगदान दिया वो और सबों से अलग करता है।
सोवियत क्रांति के बाद लेनिन का सानिध्य (नेतृत्व) सोवियत को जितनी मिलना चाहिए था उतना मिल नहीं पाया। मात्र पांच वर्ष हीं लेनिन ने नेतृत्व किये और आंदोलन के दौरान जो यातनाऐं झेली थी जिसकी वजह से लेनिन को अनेक विमारियों ने घेर रखा था..यही वजह थी कि वो ज्यादा दिन जीवित रह न सके।
एक बार फिर से सोवियत नेतृत्व विहिन हो जाती लेकिन...वो तो महान लेनिन के दूर दृष्टि थी जो समय रहते स्तालिन को पहचान गये थे। और अपने जीते जी बोल्सेविक पार्टी का महासचीव स्तालिन को 1922 में बना दिये थे।
प्रथम विश्व युद्ध के कारण सोवियत में हर तरह का आकाल मुंह बाये खड़ा थी। और वैसी वीकट प्रस्थिति में लेनिन को खोना..सोवियत अवाम को अवसाद में ढकेलने के लिए काफी था।
लेनिन जिनकी मृत्यु 1924 में होने पर स्तालिन ने लेनिन के पार्थिव शरीर के पास खड़े होकर पार्टी की एकता की रक्षा और सोवियत समाजवाद और दुनियां के कम्युनिस्ट आंदोलन को ताकतवर बनाने के लिए लेनिन के बताये हुए रास्ते,दी गयी दिशा निर्देश का अक्षर सह पालन करते हुए कार्य करते रहने का संकल्प लिया और अपने मृत्यु तक निभाया भी।
रोमा-रोला कहते हैं..
रोमा रोलां ने सोवियत क्रांति को शुरू में आम तौर पर समर्थन तो किया, पर कुछ-कुछ मुद्दों पर उनका मतांतर था। बाद में सोवियत समाजवाद को और अच्छी तरह से अध्ययन करने के पश्चात् उनके विचारों में तब्दीली आयी और 1931 में उन्होंने एक पत्र में लिखा,
"सोवियत संघ के लक्ष्य और कर्म में विश्वास रखता हूं। जब तक इस शरीर में जान रहेगी, तब तक मैं सोवियत संघ को समर्थन करता रहूंगा।"
( आई विल नॉट रेस्ट-रोमा रोलां)
1933 में एक कदम और आगे बढ़कर एक सवाल के जवाब में इस मनीषी ने लिखा, "आज कम्युनिज्म सामाजिक संघर्ष की एक ऐसी विश्वव्यापी संस्था है, जो समझौता करना नहीं जानती, गोपनीयता बरतना नहीं जानती, जो एक सुचिंतित निर्भीक तर्कवाद को आधार बनाकर ऊंचे पर्वतों पर अधिकार करने चली है। ... शायद काफी लोग पार्टी से बाहर हो जायेंगे, शायद अनेक बार पीछे हटने पड़ेंगे-जो लोग पीछे हैं, उन्हें तेजी से आगे आने का हम लेखकगण आह्वान करते हैं। कारवां कभी रूकेगा नहीं।"
( आई विल नॉट रेस्ट-रोमा रोलां)
इस बीच रोमा रोलां ने 1927 में यहां तक लिखा था, "कम्युनिज्म में मैं एक नयी जनशक्ति देख रहा हूं। फासीवाद के खिलाफ अभियान में सबसे ताकतवर फौजों में से यह एक प्रमुख फौज होगी।"
जाहिर है कि पश्चिमी दुनिया की बुर्जुआ सभ्यता के भयावह संकट को देखकर बीसवीं सदी के इन दो श्रेष्ठ मानवतावादी स्तालिन द्वारा संचालित सोवियत संघ की नयी सभ्यता के चमकते प्रकाश से मुग्ध होकर जीवन के अंतिम दौर में कम्युनिज्म की ओर आकर्षित हुए थे।"
( आई विल नॉट रेस्ट-रोमा रोलां)
बीसवीं सदी के एक और प्रख्यात मानवतावादी बुद्धिजीवी व नाटककार बर्नार्ड शॉ ने स्तालिन की तुलना साम्राज्यवादी दुनिया के राजनेताओं से करते हुए कहा था, "स्तालिन एक अनुभवी राजनेता हैं। उनके मुकाबले पश्चिमी दुनिया के राजनेता मोम के क्षयिष्णु पुतले की तरह प्रतीत होंगे, जो एक ऐसे दुष्ट व स्वचालित सामाजिक व्यवस्था में लटक रहे हैं, जिस व्यवस्था का एकमात्र मंत्र है निराधार बातें, झूठी कहानियां और काम-काज की पुरातन पद्धति।" (जी.बी शा, एक पियारसन-ए पोस्ट स्क्रिप्ट, कलिंस,लंदन 1951)
इस विचार के आधार पर कि इंग्लैंड के मुकाबले अमेरिका में ज्यादा आजादी है, उनके परिचित विशिष्ट नागरिकों- एलानर और कनेल ने जब 1948 में अमेरिका जाना चाहा तो बर्नार्ड शॉ ने कहा, "दुनिया में सिर्फ एक ही देश है, जहां आपको सही अर्थों में स्वतंत्रता मिलेगी-उसका नाम है रूस। वहां महान स्तालिन जीवित हैं।" (न्यू स्टेट्समैन एंड नेशनल, 10/1934)
सिर्फ इतना ही नहीं, 6 अगस्त 1950 को रेनॉल्ड न्यूज को दिये गये जीवन के प्रायः अंतिम साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया, "मि. शॉ, क्या आप कम्युनिस्ट हैं?" तो उनका बेहिचक जवाब था, "हां, मैं निश्चित तौर पर कम्युनिस्ट हूं। कम्युनिज्म के खिलाफ लड़ाई एक घोर मूर्खता है। ... भविष्य उसी देश का है जो कम्युनिज्म को सबसे तेजी के साथ सबसे ज्यादा आगे ले जा पायेगा।" (जी.बी शॉ-आर.पी दत्त)
क्रमश: जारी...
#Dharmedra Kumar
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