गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

संसद, लोकतंत्र कठपुतलियाँ हैं औद्योगिक कंपनियों की

हम संसद हैं और ही हम लोकतंत्र का स्वांग भरते हैं
भारत में अधिकांश राजनीतिक दल के नेतागण मजदूर और किसान के लिए हैरान व परेशान रहते हैं, उनके सारे वक्तव्य मजदूर और किसानो की उन्नति के लिए होते हैं। इन राजनीतिक दलों दवारा उनके कल्याण के लिए नए-नए नियम बनाये जाते हैं। जिसका प्रभाव ये पड़ा है कि मजदूर और किसान भूख से व्याकुल होकर आत्महत्याएं कर लेता है वहीँ दूसरी ओर पूंजीपतियों के कल्याण के लिए कोई भी राजनीतिक दल खुल कर उनके समर्थन में कानून बनाने की बात नहीं करता है। पर 1947 में अगर कोई पूँजीपति का व्यवसाय 100 करोड़ रुपये का था तो उसके व्यवसाय में करोड़ गुना तक की वृद्धि हुई है।
संसद के अन्दर उद्योगिक घरानों से लाभ लेने वाले सांसद गण हमेशा उनके पक्ष में विधि के निर्माण कार्य करते हैं जिसके एवज में उद्योगिक घराने हजारो हजार करोड़ रुपये अपने उनके राजनीतिक दलों को देते हैं जो चुनाव के समय मतदातों को लुभाने में खर्च किये जाते हैं। सामान्य दिनों में बड़े नेताओं की सभाओं का सारा खर्च उद्योगिक घराने ही उठाते हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को ओबलाइज करने के लिए भी पैसा उद्योगिक घराने ही उपलब्ध करते हैं। बड़े नेताओं के रहने खाने से लेकर सभी प्रकार का खर्च भी उद्योगिक घराने उठाते हैं। सांसद और विधान सभाओं में उनके द्वारा वित्त पोषित सदस्य उनके हितों के अनुरूप कार्य करते हैं। अब तो सदस्य विधान परिषद् से लेकर जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में भी राजनीतिक दल हजारो करोड़ रुपये मतदाताओं को खरीदने के लिए देते हैं।
कहने के लिए लोकतंत्र है। संसद जनता द्वारा चुनी गयी है, लेकिन यह सत्य नहीं है यहाँ तो उद्योगिक घरानों के लोग नए तरह मुखौटे लगाये हुए बैठे हैं, जो इस देश के मजदूर, किसान की श्रमशक्ति को कैसे छीना जाए उसके लिए विधि का निर्माण करते हैं। छत्तीसगढ़ से लेकर उड़ीसा, बिहार, महाराष्ट्र, मणिपुर तक की प्राकृतिक संपदाओं को कैसे उद्योगिक घराने को सौंप दिया जाए उसके लिए प्रयास करते हैं। वहां के मूल निवासियों का सब कुछ छीन कर इन उद्योगिक कंपनियों के साम्राज्य में वृद्धि करने के लिए भी तरह-तरह के कानून बनाये जाते हैं। संसद हो या लोकतंत्र सब उद्योगिक घरानों की कठपुतलियाँ हैं।

सुमन
लो क सं घ र्ष !

5 टिप्‍पणियां:

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

आम आदमी के हित में आपका
योगदान महत्वपूर्ण है।
सराहनीय लेखन....हेतु बधाइयाँ...ऽ. ऽ. ऽ
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सदाचार
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नेता अय्यारी ने॥
अफ़सर की मक्कारी ने॥
सदाचार को मारा है-
गोली भ्रष्टाचारी ने॥
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सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

जब तक चुनाव लड़ने के लिये धन की जरूरत पड़ती रहेगी इस से छुटकारा नही होगा।
विचारणीय पोस्ट लिखी है।

shyam gupta ने कहा…

बिल्कुल सही कथन है , बधाई---
---परन्तु व्यापारी , कार्पोरट तो सदा ही से राजनीति आदि में धन खर्च करते रहे हैं---राणा प्रताप को भी नगर सेठ भामाशाह ने ही युद्ध के लिये धन दिया था....व्यपारी वर्ग सदा से ही समाज का धन- संग्राहक वर्ग रहा है व होना चाहिये ---हां ..
१.- धन शुद्ध क्रिया कलापों से एकत्र हुआ होना चाहिये,नैतिक कार्यों द्वारा नहीं
२- धन शुद्ध दान व देश कल्याण के रूप में खुले आम देना चाहिये बिना किसी प्रतिदान व शर्त के; व्यापार बढोतरी, व्यापार के व व्यक्तिगत लाभ के लिये नही...समाज के व्यापार( कार्य) के लिये ...तभी वह सच्चा व्यापारी है..
३----आज यही तो नहीं कर रहे व्यापारी क्योंकि वे कार्पोरेट-जगत के हैं ..व्यापारी नहीं
४.- और सबसे ऊपर तो शासन, सत्ता, अधिकारी व जनता..हर मोड पर व्यक्ति को स्वयं नैतिक होना पडेगा...

हिंदीब्लॉगजगत ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

जिसकी लाठी उसकी भैंस यह शास्वत सत्य है सवाल चाहे पूंजीपतियों का हो या अपराधियों का, इस भैंस को (मालिक के अलावा)कोई भी हांक कर ले जा सकता है...

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