बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

भूमण्डलीकरण एवं उसके अनैतिक विकास से उत्पन्न अन्याय की भारतीय उच्चतम न्यायालय द्वारा भत्र्सना भाग 3

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कुछ राज्यों के नए भर्ती-शुदा पुलिस फोर्स के दिमाग में यह भर दिया गया है कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यदि किसी से खतरा है तो वे माओवादी हैं या नक्सलवादी हैं या उनसे सहानुभूति रखने वाले हैं (जो लोग भी हिंसा ग्रस्त लोगों से सहानुभूति रखते हैं वे ‘सस्पेक्ट’ हैं), या मुस्लिम अल्पसंख्यकों में तथाकथित ‘जेहादी’ हैं, इस शब्द का भी का दुरुपयोग किया गया (हालाँकि इस्लाम में इसका अर्थ ऐसे संघर्ष से है जो स्वयं की बुरी भावनाओं के खिलाफ किया जाता है)। यह एक तथ्य है, जैसा कि जस्टिस राजेन्द्र सच्चर कमीशन की रिपोर्ट एवं अन्य रिपोर्टों में माना गया है कि भारत के मुस्लिम अल्पसंख्यकों का आर्थिक-सामाजिक विकास अवरुद्ध है और उनका स्तर अनुसूचित जाति के समान है। पुलिस फोर्स में गलत दृष्टिकोण भर देने का प्रभाव यह पड़ा कि गांधीवादी सच्चे अम्बेदकरवादी (डाॅ0 बी0 अम्बेदकर जो अनुसूचित जातियों के मसीहा बने तथा भारतीय संविधान की संरचना करने वाले थे, उनके सिद्धांतों पर चलने वाले) वे लेखक तथा विद्वान जिन्होंने आदिवासियों, अनुसूचित जातियों तथा गरीब किसानों की समस्याएँ उठाईं और वे लोग जिन्होंने नागरिक स्वतंत्रता, समुदाय के स्वास्थ्य, पर्यावरण आदि के लिए कार्य किया और वे अल्पसंख्यक समुदाय के लोग जिनकी हिंसा और क्रान्ति के मामलों में दूर-दूर तक कोई संलिप्तता नहीं थीं, यही सब लोग माओवादी या जेहादी कहकर बन्दी बनाए गए तथा जेलों में डाल दिए गए।
प्रभावित क्षेत्रों की वास्तविक दशा को कोर्ट ने अपने फैसले में पुष्ट स्रोतों द्वारा संदर्भित किया है, इसमें योजना आयोग के एक ‘एक्सपर्ट ग्रुप’ की रिपोर्ट ‘विकास की चुनौतियाँ-अतिवादी प्रभावित क्षेत्रों में’ भी हंै, जो अप्रैल 2008 में प्रस्तुत की गई थी, इस रिपोर्ट से फैसले के आलोचक घबरा गए हैं- इसके ये अंश बताते हैं:-
‘‘स्वतंत्रता प्राप्ति के आरम्भ से ही विकास के साँचे ने समाज के वंचित वर्ग के असंतोष को अत्यधिक बढ़ा दिया है, जिससे इस वर्ग को अपूर्णीय क्षति पहुँची है। विकास में गरीब ने ही ज्यादा योगदान दिया, परन्तु बड़े वर्ग ने अपने फायदे के लिए उसे ही असमानुपातिक ढंग से वंचित किया, निर्वासित किया, और अमानवीय जीवन जीने पर मजबूर कर दिया। जहाँ तक आदिवासियों का मामला है, उनके सामाजिक ताने-बाने को तहस नहस किया, उनकी सांस्कृतिक पहचान को मिटा दिया तथा शोषण किया। विकास एवं उसके कार्यान्वयन के भ्रष्ट तरीकों द्वारा नौकरशाहों, ठेकेदारों, व्यापारियों, बिचैलियों तथा समाज के लालची वर्ग ने उनके
संसाधनों को छीना तथा भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया’’।
राजनैतिक पार्टियों की असफलताओं के कारण केन्द्र एवं राज्यों में सरकारें एक के बाद एक आती जाती रहीं, जमीनों पर मनमाने कब्जे होते रहे जिसके कारण जो आन्दोलन हुए तथा जो समस्याएँ उत्पन्न हुईं, उन पर लोकतांत्रिक तरीके से इन सरकारों ने विचार नहीं किया, यहाँ तक कि संसद में दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों तथा बंगाल की ‘लेफ्ट फ्रन्ट’ सरकार ने भी यही ढंग अपनाया। सभी ने जालिमाना तरीके से इन आन्दोलनांे को बुरी तरह से कुचला। कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों पर यह जोर दिया है कि इन आन्दोलनों से निपटने के लिए वे संवैधानिक दायरे में रहकर ही कोई समाधान खोजें तथा इसे केवल ‘‘ला एण्ड आर्डर’ की समस्या न समझें। इस संबंध में योजना आयोग के ‘एक्सपर्ट ग्रुप’ की रिपोर्ट का उद्धरण दिया है-
‘‘आन्दोलन अनेक प्रकार के होते हैं, यह तर्क संगत नहीं है कि केवल अशान्ति या ‘ला एण्ड आर्डर’ की समस्या समझकर इन्हें शक्ति के द्वारा दबाया जाए। असंतोष को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में देखकर इन्हें वर्गीकृत करना चाहिए और जन-समस्याओं को एजेन्डे में लेना चाहिए, सरकार को ‘विधि के शासन’ के दायरे से बाहर न जाना चाहिए। यह न जानना आश्चर्य की बात नहीं है कि असंतोष का तुरन्त कारण क्या था, आश्चर्य यह है कि राज्य इसकी जड़ नहीं तलाश कर सका।
कोर्ट के फैसले में इस बात की कलई खोली गई कि ऐसे प्रयास होते हैं कि इस प्रकार के आन्दोलनों को राक्षसी आन्दोलनों के रूप में पेश किया जाए। यह भी अन्तर बताया गया कि सरकारी हिंसा के जवाब में वंचित वर्ग प्रति हिंसा के लिए मजबूर किया जाता है। बहरहाल इससे आगे आकर इस वर्ग को नगरीय भारत के लोकतंत्र वादियों से सम्पर्क साधना चाहिए ताकि इन आन्दोलनों को व्यापक रूप दिया जा सके। अब इस बात को मान्यता मिल रही है और आर्थिक व वित्तीय आधिपत्य बनता जा रहा है कि इस व्यवस्था से हम विकसित होंगे, परन्तु सच यह है कि इससे भूमण्डल की समस्त सम्पदा एवं पर्यावरण नष्ट होगा।
चूँकि नगरीय भारत में बौद्धिक एवं राजनैतिक ‘वैकूम’ बनता जा रहा है, इन हालात में कोर्ट का फैसला इस बात की चेतावनी है कि भारतीय संविधान को एक ऐसे पैक्ट का रूप न दिया जाए जिससे राष्ट्रीय आत्महत्या का रास्ता निकलता है और यह न हो कि विनाश कारी नीतियों का विरोध करने वाले वंचितों और शोषितों को हिंसक रूप से कुचला जाए। हिंसक आन्दोलनों को भी सरकारें संवैधानिक तरीकों से ही नियंत्रित करें। कोर्ट के अनुसार मध्य एवं पूर्वी भारत में ‘विधि के शासन’ को तार तार कर दिया गया। जबकि संविधान एक ऐसा अभिलेख है जो सभी नागरिकों के लिए जीविका के अधिकार, जीवन के
अधिकार एवं सम्मानजनक जीवन जीने के प्रति संकल्पबद्ध है। कोर्ट उन लोगों को जो नीति निर्माण करते और लागू करते हैं याद दिलाता है कि अतिवादिता और गरीबी के बीच गहरा सम्बन्ध है जो शस्त्र शक्ति से हटाया नहीं जा सकता। अंत में कोर्ट उन लोगों की प्रंशसा करता है जो वंचित वर्ग हेतु संघर्ष करके मुसीबतें झेल रहे हैं। अमरीका में दासता के उन्मूलनकर्ता फ्रेडरिक डगलस का दृष्टिकोण कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि ‘‘शक्तिशाली वर्ग के सामने जब तक जोरदार ढंग से माँग नहीं रखी जाती, वह मानता नहीं है।’’

समाप्त

-नीलोफर भागवत
अनुवादक-डा.एस0एम0 हैदर

1 टिप्पणी:

Ritu ने कहा…

सब कुछ एकदम उलझा हुआ सा है
उच्‍चतम न्‍यायालय की भूमिका सराहनीय है पर न्‍यायपालिका बाकी संस्‍थाओं की जिम्‍मेदारियों का तो निर्वहन नहीं कर सकती...

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