
कर्नल गद्दाफी कट्टरपंथी व रूविदी विचारधारा के सख्त विरोधी थे। वे एक अरबअफ्रीकी कबीलाई मुस्लिम तानाशाह होने के बावजूद एक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के व्यक्ति थे। पश्चिमी देश भी शायद दुनिया में ऐसे ही धर्मनिरपेक्ष शासक चाहते हैं परंतु अपने पिट्ठू रूविदी शासकों को छोड़कर। ऐसे में गद्दाफी के शासन के अंत के बाद अब लीबिया में अभी से इस प्रकार के स्वर बुलंद होने लगे हैं गोया
आधुनिकता की राह पर आगे ब़ता हुआ लीबिया इस सत्ता परिवर्तन के बाद धार्मिक प्रतिबद्धताओं की गिरफ्त में भी आता दिखाई दे रहा है। यदि ऐसा हुआ तो यह रास्ता अफगानिस्तान व पाकिस्तान जैसी मंज़िलों की ओर ही आगे ब़ता है और यदि लीबिया उस रास्ते पर आगे ब़ा तो लीबिया का भविष्य क्या होगा? इस बात का अभी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है। सवाल यह है कि क्या अमरीका अथवा नाटो देश लीबिया के इन ज़मीनी हालात से वाकिफ नहीं हैं। या फिर किसी दूरगामी रणनीति के तहत जानबूझ कर इस सच्चाई से आँखें मूँदे बैठे हैं। दूसरी स्थिति लीबिया में सत्ता संघर्ष की भी पैदा हो सकती है। कर्नल गद्दाफी का अंत तो ज़रूर हो गया है मगर उस कबीलाई समुदाय का अंत नहीं हुआ जिससे कि गद्दाफी का संबंध था तथा जो लीबिया में अपनी मज़बूत स्थिति रखते हैं। आने वाले समय में गद्दाफी समर्थंक ये शक्तियाँ चुनाव में हिस्सा ले सकती हैं तथा सत्ता पर अपने वर्चस्व के लिए सभी हथकंडे अपना सकती हैं। यदि ऐसी स्थिति में लीबिया को गृह युद्ध का सामना करना पड़ा तो निश्चित रूप से पश्चिमी शक्तियाँ ही इसकी ज़िम्मेदार होंगी।
गोया साफतौर पर यह नज़र आता है कि लीबिया को गद्दाफी की तानाशाही व उसकी क्रुरता का बहाना लेकर तबाह व बर्बाद करने की एक सुनियोजित साज़िश रची गई और इराक के घटनाक्रम की ही तरह लीबिया के तेल भंडारों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की चालें पश्चिमी देशों द्वारा बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से चली जा रही हैं। इराक की ही तरह लीबिया भी दुनिया के दस प्रमुख तेल उत्पादक देशों में एक है। लिहाज़ा पश्चिमी देशों को अपने दुश्मन राष्ट्राध्यक्ष की मुट्ठी में लीबिया की तेल संपदा का होना अच्छा नहीं लगा। नतीजतन इन साम्राज्यवादी देशों ने बैठेबिठाए कर्नल गद्दाफी को दुनिया का सबसे क्रुर तानाशाह तथा मानवाधिकारों का हननकर्त्ता बताते हुए उसे मौत की मंज़िल तक पहुँचा दिया। परंतु अंत में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सद्दाम हुसैन रहे हों अथवा कर्नल गद्दाफी इन सभी तानाशाहों को भी यह ज़रूर सोचना चाहिए था कि साम्राज्यवादी पश्चिमी देशों की गिद्ध दृष्टियाँ चूँकि इन देशों की प्राकृतिक तेल संपदा पर टिकी हुई हैं लिहाज़ा उन्हें इन पर नियंत्रण करने हेतु कोई न कोई बहाना तो अवश्य चाहिए। नि:संदेह इन तानाशाहों ने अपने स्वार्थपूर्ण व क्रुरतापूर्ण कारनामों के चलते इन शक्तियों को अपनेअपने देशों में घुसपैठ करने व देश को तबाह करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया है। प्रश्न यह है कि अमरीका व पश्चिमी देशों की छलपूर्ण नीतियों का यह सिलसिला कभी समाप्त भी होगा या फिर उनकी इस प्रकार की मनमानी भविष्य में भी यूँही चलती रहेगी?
तनवीर जाफरी
मो. 09896219228
समाप्त
आधुनिकता की राह पर आगे ब़ता हुआ लीबिया इस सत्ता परिवर्तन के बाद धार्मिक प्रतिबद्धताओं की गिरफ्त में भी आता दिखाई दे रहा है। यदि ऐसा हुआ तो यह रास्ता अफगानिस्तान व पाकिस्तान जैसी मंज़िलों की ओर ही आगे ब़ता है और यदि लीबिया उस रास्ते पर आगे ब़ा तो लीबिया का भविष्य क्या होगा? इस बात का अभी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है। सवाल यह है कि क्या अमरीका अथवा नाटो देश लीबिया के इन ज़मीनी हालात से वाकिफ नहीं हैं। या फिर किसी दूरगामी रणनीति के तहत जानबूझ कर इस सच्चाई से आँखें मूँदे बैठे हैं। दूसरी स्थिति लीबिया में सत्ता संघर्ष की भी पैदा हो सकती है। कर्नल गद्दाफी का अंत तो ज़रूर हो गया है मगर उस कबीलाई समुदाय का अंत नहीं हुआ जिससे कि गद्दाफी का संबंध था तथा जो लीबिया में अपनी मज़बूत स्थिति रखते हैं। आने वाले समय में गद्दाफी समर्थंक ये शक्तियाँ चुनाव में हिस्सा ले सकती हैं तथा सत्ता पर अपने वर्चस्व के लिए सभी हथकंडे अपना सकती हैं। यदि ऐसी स्थिति में लीबिया को गृह युद्ध का सामना करना पड़ा तो निश्चित रूप से पश्चिमी शक्तियाँ ही इसकी ज़िम्मेदार होंगी।
गोया साफतौर पर यह नज़र आता है कि लीबिया को गद्दाफी की तानाशाही व उसकी क्रुरता का बहाना लेकर तबाह व बर्बाद करने की एक सुनियोजित साज़िश रची गई और इराक के घटनाक्रम की ही तरह लीबिया के तेल भंडारों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की चालें पश्चिमी देशों द्वारा बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से चली जा रही हैं। इराक की ही तरह लीबिया भी दुनिया के दस प्रमुख तेल उत्पादक देशों में एक है। लिहाज़ा पश्चिमी देशों को अपने दुश्मन राष्ट्राध्यक्ष की मुट्ठी में लीबिया की तेल संपदा का होना अच्छा नहीं लगा। नतीजतन इन साम्राज्यवादी देशों ने बैठेबिठाए कर्नल गद्दाफी को दुनिया का सबसे क्रुर तानाशाह तथा मानवाधिकारों का हननकर्त्ता बताते हुए उसे मौत की मंज़िल तक पहुँचा दिया। परंतु अंत में यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सद्दाम हुसैन रहे हों अथवा कर्नल गद्दाफी इन सभी तानाशाहों को भी यह ज़रूर सोचना चाहिए था कि साम्राज्यवादी पश्चिमी देशों की गिद्ध दृष्टियाँ चूँकि इन देशों की प्राकृतिक तेल संपदा पर टिकी हुई हैं लिहाज़ा उन्हें इन पर नियंत्रण करने हेतु कोई न कोई बहाना तो अवश्य चाहिए। नि:संदेह इन तानाशाहों ने अपने स्वार्थपूर्ण व क्रुरतापूर्ण कारनामों के चलते इन शक्तियों को अपनेअपने देशों में घुसपैठ करने व देश को तबाह करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया है। प्रश्न यह है कि अमरीका व पश्चिमी देशों की छलपूर्ण नीतियों का यह सिलसिला कभी समाप्त भी होगा या फिर उनकी इस प्रकार की मनमानी भविष्य में भी यूँही चलती रहेगी?
तनवीर जाफरी
मो. 09896219228
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