बुधवार, 21 मार्च 2012

खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी एक अतुलनीय जन विरोधी फैसला




खुदरा व्यापार के विदेशीकरण की केन्द्रीय सरकार की मुहिम भारत के आम लोगों की आजीविका के साधनों पर एक बहुमुखी हमला है। इस निर्णय पर राजनीति के जंग में सरकार एक बार मुँह की खा चुकी है। वास्तव में यह फैसला स0प्र0ग0 दो की सरकार का नहीं है। कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व जोरशोर से इसके पीछे है किन्तु न केवल कुछ बड़े सहयोगी दल, अपितु कांग्रेस के अनेक लोग इस निर्णय के खिलाफ आवाज उठा चुके हैं। एक पारिवारिक सम्पत्ति की तरह चलने वाली कांग्रेस पार्टी को कम्पनी क्षेत्र के बड़े स्तम्भ अपने घर की दुकान बता रहे हैं। विदेशी कम्पनियों और सरकारों के पैरोकार, विदेशी तथा देसी अखबार, विदेशी कम्पनियों के भारत प्रवेश को यू0पी0ए0-2 की कुशलता और शक्ति का प्रतीक बता चुके हैं। खुल्लम खुल्ला विदेशी कम्पनियाँ भारत में खुदरा व्यापार में प्रवेश की अनुमति दिलाने के लिए लाॅबी करने यानी अपने पक्ष में प्रचार करने और रिझाने में मोटा खर्च कर रही हैं। खबर छपी है कि खुदरा व्यापार की एक बड़ी कम्पनी ने अपने पक्ष में निर्णय करने के लिए वर्षों से मुहिम चला रखी थी। वह अब तक 70 करोड़ रूपये इस गोरखधन्धे पर लगा चुकी है। क्या यह भारत की राजनीति और नीतिगत निर्णय प्रक्रिया में बाहरी वित्ती आर्थिक इकाइयों की सीधी-सीधी दखलंदाजी का उदाहरण नहीं है। असली मुद्दा यह भी है कि महज 70 करोड़ रूपये में ऐसा जन विरोधी नीतिगत निर्णय भारतीय लोकतंत्र पर थोपा जा सकता है। हजारों करोड़ रूपये के निवेश को यहाँ के खेती के बाद आम आदमी के रोजगार के दूसरे मुख्य धन्धों में लगाने की इजाजत ऐसी शर्तों, ऐसी प्रतिकूल चालू आर्थिक स्थिति और सरकार की घटती साख के दौरान तकनीकी तथा व्यावहारिक रूप से एक सुगमतम धन्धे में लगाने की आजादी विश्व की विशालतम कम्पनियों को दे दी गई थी। एक बार इसे स्थगित करने के बाद एक ओर तो इस आत्मघाती (आ बैल, मुझे मार नुमा) फैसले के पक्ष में प्रचार बढ़ा दिया गया है, दूसरी ओर यह घोषणा भी की जा रही है कि इसे शीघ्र लागू कराने की कोशिशें जारी हैं।
किस तरह बेहतर राजनैतिक या कम विरोध की स्थितियाँ पैदा की जाएँगी या इस निर्णय में सुधार किए जाएँगे ताकि कम से कम इसके गलत प्रभावों को कमतर किया जा सके, यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा है।
हाँ, कई बेतुकी दलीलें देकर जनता को भरमाने के प्रयास जरूर हो रहे हैं। यू0पी0 के विधान सभा चुनावों ने राजनैतिक लोगों को एक बार फिर जनता के दरवाजों पर दस्तक लगाने को मजबूर कर दिया है। इस अवसर का इस्तेमाल खुदरा व्यापार में विशाल विदेशी कम्पनियों की भारत प्रविष्टि के पक्ष में प्रचार करने के लिए भी किया जा रहा है। इस सिलसिले में एक बिना सिर पैर की दलील का उदाहरण इस मुहिम के खोखलेपन की पोल खोलने के लिए पर्याप्त नजर आता है।
कांग्रेस के एक अति शक्तिशाली नेता ने किसानों को एक बहुत ही लचर और सच्चाई से कोसों दूर दलील देकर वालमार्ट जैसी कम्पनियों के आगमन से मिलने वाले फायदों का खाका खींचा। इस दलील का सार यह है कि किसान के आलू जैसे उत्पादन को अभी बहुत कम कीमत पर खरीदा जाता है और उसका इस्तेमाल करके डिब्बा या थैली बन्द सामान जैसे उत्पाद बनाकर उन्हें कई गुना ऊँचे दामों पर बेच दिया जाता है। इस तरह किसान को अपनी मेहनत का लाभ बहुत नाम मात्र मिल जाता है। दूसरी ओर मुख्य रूप से किसान द्वारा पैदा किए गए सामान को काफी ऊँची या महँगी दरों पर बेचा पाता है। यह सारा लाभ कृषिमाल का इस्तेमाल करने वाले उत्पादक हजम कर लेते हैं जाहिर है यह सिलसिला लगातार चला आ रहा है। सरकार और देश के लोग मिलकर इन हालात को बदल नहीं पाए है।
नेता आम सभाओं में कहते हैं कि अब सरकार इस कमी को दूर करके किसान को उसका हक दिलाना चाहती है। अब सरकार विदेशी, मुख्य रूप से यूरोप और अमरीका की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के सहारे यह करने जा रही है।
प्रत्येक कम्पनी जो 2500 करोड़ रुपये से ज्यादा का निवेश भारत के दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में काम कर सकने मंे समर्थ है (कुल 53 शहरों में) उनको अब भारत में खुदरा दुकानें खोलने की इजाजत देना कांग्रेस की सदारत में चलने वाली सरकार का लगभग एक तरफा निर्णय था। अभी तो विरोध के चलते इसे लागू नहीं किया जा पा रहा है किन्तु सरकार इस निश्चय पर अडिग है और इसे लागू करवा कर किसान को उसकी उपज के अच्छे दाम दिलाने को कटिबद्ध है। जाहिर है इस सरकार को अति विशाल पूँजीवाली विदेशी कम्पनियों का दामन थामकर किसानों को उनके माल का अच्छा दाम दिलाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझ रहा है। अब तक के अपने लम्बे शासनकाल में किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम दिला पाने में नाकामयाब सत्ता अब इन बाहरी विशाल कम्पनियों के माध्यम से इस मकसद को अंजाम देना चाहती है।
यहाँ दो सवाल विचारणीय हैं सच है किसान को उसकी फसल के उचित दाम मिलने में कई बाधाएँ आती हैं। उदारीकरण के बीस सालों में पेप्सी जैसी बाहरी कम्पनियों मैकडोनालड स्टारबक, सब वे, जैसी कई रेस्त्रां सीधे किसानों से फसल खरीदने वाली बहुराष्ट्रीय अनाज व्यापारी कम्पनियों को भारत में न्यौता गया, किन्तु स्थिति सुधरी नहीं। अनुबन्ध खेती में अग्रणी पंजाब जैसे राज्यों में जहाँ आलू, टमाटर की विदेशी कम्पनियों से अनुबन्ध या कान्ट्रेक्ट, खेती का चलन बहुत बढ़ा, किसानों को आलू सड़क पर फेंकने को मजबूर होना पड़ा। खाद्य प्रसंस्करण के नाम पर हानिप्रद पैकटों में नमकीन बेचने को इतना बढ़ाया गया कि लाखों हलवाइयों का रोजगार घटा। ये सब बाजार की शक्तिशाली कम्पनियों को बढ़ावा देने का नतीजा है। इन्हीं नीतियों के सूत्रधार अब अपने करतूतों के खराब नतीजों से किसानों को बचाने के लिए और ज्यादा कड़ी, प्रतियोगिता, खुदरा व्यापारियों को न्यौतकर किसान को न्यायपूर्ण वाजिब कीमत दिलाने का झूठा भरोसा दिला रहे हैं। राजस्थानी में कहावत है कि ‘झूठ बोलने वाला और जमीन पर सोने वाला तंगी महसूस नहीं करता’’। इस वादे का दो मुँहा चरित्र और खुलकर सामने आता है जब यह कहा जाता है कि किसान की उपज उससे अच्छे (यानी ऊँचे) दामों पर खरीदी जाएगी और वही फसल उपभोक्ताओं को सस्ती बेच दी जाएगी।
-कमल नयन काबरा
क्रमश:

कोई टिप्पणी नहीं:

Share |