सोमवार, 9 अप्रैल 2012

गहरी विदेशी साजिशों की एक कहानी



    भारत में हरित क्रान्ति काफी विवादों में घिर चली है। अब इसके कई दुष्परिणाम दिखाई दे रहे हैं। फिर भी भारत सरकार दूसरी हरित क्रान्ति की बात कर रही है। हरित क्रान्ति के पक्ष मंे यह दलील दी जाती है कि भले ही इसके कुछ दुष्प्रभाव हुए हों किन्तु भारत में अनाज उत्पादन बढ़ाने के लिए यह जरूरी थी। भारत को अकालों और पी0एल0 480 जैसी अमरीका पर निर्भरता से मुक्ति दिलाने का काम हरित क्रान्ति ने किया। किन्तु यह भी शायद जानबूझकर पाला पोसा ग,या एक मिथक है। भारत के एक महान, किन्तु गुमनाम, कृषि वैज्ञानिक डाॅ0 रिछारिया के किस्से से यह पता चलता है।
          डाॅ0 राधेलाल रिछारिया का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले की सिवनीमालवा तहसील के आदिवासी अंचल में स्थित नंदरवाड़ा गाँव में 1911 को हुआ था। उनके पिता श्री हरलाल रिछारिया इस गाँव में प्राथमिक शाला के प्रधानाध्यापक तथा पोस्ट मास्टर थे। पढ़ने में तेज यह बालक तेजी से कक्षाओं में छलांग लगाता हुआ, वाराणसी और नागपुर में उच्च शिक्षा प्राप्त करके मात्र 23 साल की उम्र में पी0एच0डी0 करने इंग्लैण्ड के प्रतिष्ठित कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय पहुँच गया। उसके पास सुनिश्चित आर्थिक व्यवस्था नहीं थी, बीच में बीमार भी रहा, किन्तु दो वर्ष के रिकार्ड समय में पी0एच0डी0 पूरी करके स्वदेश लौट आया।
    डाॅ0 रिछारिया कई पदों पर रहे तथा कई फसलों पर उन्होंने अनुसंधान किया। किन्तु उनकी विशेषज्ञता चावल में रही। 1959 से 1967 तक वे कटक में केन्द्रीय चावल अनुसंधान संस्थान के निदेशक पद पर रहे। उनके नेतृत्व में वहाँ के वैज्ञानिक चावल की देशी किस्मों से ज्यादा पैदावार वाली किस्में विकसित करने पर काम कर रहे थे और उन्हें महत्वपूर्ण सफलता भी हासिल हुई थी। किन्तु इसी बीच डाॅ0 रिछारिया ने देखा कि उनकी जानकारी के बगैर मनीला (फिलीपीन्स) स्थित अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक वहाँ हस्तक्षेप कर रहे हैं तथा विदेशी किस्मों को यहाँ प्रचलित करने की कोशिश कर रहे हैं। मनीला का यह संस्थान अमरीका और विश्व बैंक द्वारा स्थापित किया गया था और भारत में हरित क्रान्ति के नाम पर ज्यादा पैदावार देने वाली विदेशी चावल की किस्में लादने की कोशिश कर रहा था। डाॅ0 रिछारिया ने इसका विरोध किया और भारत सरकार को चेतावनी देते हुए पत्र लिखे। उनका कहना था - (1) इनसे भारत में
धान की फसल में नई बीमारियाँ आएँगी और कीट प्रकोप ज्यादा होगा। (2) इनके साथ रासायनिक खाद और रासायनिक कीटनाशकों का काफी उपयोग करना पड़ेगा, जिससे लागत बढ़ेगी और जमीन खराब होगी। (3) इनका आनुवांशिक आधार बहुत संकीर्ण है, जिसके कारण कुछ साल में पैदावर कम होने लगेगी। (4) भारत की विविध तरह की मिट्टी, पानी उपलब्धता और जलवायु के इलाकों के लिए ये किस्में माफिक नहीं है। (5) इनमें सूखा और कम-ज्यादा पानी को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं है। (6) भारत के वैज्ञानिक ऐसी विदेशी किस्में और ऐसे तरीके विकसित कर रहे हैं, जिनसे चावल की पैदावार काफी बढ़ सकती है।
    आज हम देख सकते हैं कि पचास साल पहले डाॅ0 रिछारिया द्वारा दी गई यह चेतावनी कितनी सच साबित हुई। किन्तु अंतर्राष्ट्रीय ताकतें इसे आगे बढ़ाने के लिए बैचेन थीं, क्योंकि इससे भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाइयों का एक बड़ा बाजार बनता। किन्तु विदेशी प्रभाव में आई भारत सरकार ने भी इस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। उल्टे डाॅ0 रिछारिया को 1967 में कटक के संस्थान के निदेशक पद से हटा दिया गया। अपनी देशभक्ति का यह इनाम मिलने से डाॅ0 रिछारिया काफी परेशान रहे। वे उच्च न्यायालय में भी गए, जहाँ उनका मुकदमा प्रसिद्ध वकील श्री रंगनाथ मिश्र ने लड़ा (जो बाद में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तथा मुख्य न्यायाधीश बने)। डाॅ0 रिछारिया मुकदमा जीते, किन्तु अब तक उनकी सेवानिवृत्ति की उम्र हो गई थी। 
    डाॅ0 रिछारिया देश के ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर के चोटी के कृषि वैज्ञानिक थे। यदि वे सत्ता और विदेशी ताकतों की नाराजी मोल नहीं लेते तो नई दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के निदेशक बनते। उनसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी बीच-बीच में सलाह लेती थी। 1971 में
मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने उनको बुलाया और उनके नेतृत्व में रायपुर में ‘मध्यप्रदेश चावल अनुसंधान संस्थान‘ शुरू किया गया। (तब छत्तीसगढ मध्यप्रदेश में शामिल था)। कर्मठ रिछारिया साहब फिर अपने काम में लग गए। छत्तीसगढ मंे घूम-घूम कर, आदिवासी इलाकों में भी जाकर, उन्होनें धान की 17000 से ज्यादा किस्में इकट्ठी की और उनका एक जीवंत संग्रह बनाया। उन्होंने पाया कि कई किस्में ऐसी हैं, जिनमें विदेशों से आई ज्यादा पैदावार वाली किस्मों से ज्यादा उत्पादन मिल सकता है। उन्होंने बताया कि मध्य प्रदेश (छत्तीसगढ़) मंे कम से कम 13 ऐसी धान की किस्में हैं, जिनमें प्रति हेक्टेयर 40 से 76 क्विटल तक पैदावार देने की संभावना है। ऐसी ही किस्में देश के अन्य भागों में भी मिल सकती हैं।
    किन्तु डाॅ0 रिछारिया का यह काम फिर विदेशी ताकतों की नजर में खटकने लगा। अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान मनीला के वैज्ञानिको ने डाॅ0 रिछारिया से इन किस्मों के जनन-द्रव्य के लेन-देन का प्रस्ताव रखा था, जिसे उन्होने नामंजूर कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि 1976 में
मध्य प्रदेश में चावल अनुसंधान के लिए विश्व बैंक का 4 करोड़ रू0 का एक प्रोजेक्ट आया जिसमें शर्त रखी गई कि रायपुर के चावल अनुसंधान संस्थान को बंद करके जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय में विलय कर दिया जाए। कारण यह बताया गया कि दो जगह एक ही काम नहीं होना चाहिए। गौरतलब है कि इस विश्वविद्यालय का कुलपति मनीला के अंतर्राष्ट्रीय संस्थान के बोर्ड का सदस्य भी था। अंतर्राष्ट्रीय साजिश पूरी हुई तथा रायपुर का संस्थान बंद कर दिया गया।
    डाॅ0 रिछारिया को एक बार फिर बड़ा झटका लगा। फिर भी जीवन के अंतिम वर्षो में वृद्धावस्था के बावजूद वे छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा और अन्य जन संगठनों के साथ देशी बीजों को बचाने के काम में लगे रहे।
    एक देशभक्त कृषि वैज्ञानिक के साथ हुई इन साजिशों का दुनिया को पता तब चला, जब अस्सी के दशक के उत्तरार्द्र्ध में टाइम्स आॅफ इंडिया में प्रसिद्ध लेखक श्री क्लाड अल्वारेस का लेख ‘द ग्रेट जीन राॅवरी‘ (जबरदस्त जीन डकैती) शीर्षक से आवरण कथा के रूप में प्रकाशित हुआ। बाद में प्रसिद्ध पत्रकार भारत डोगरा ने उनके जीवन और काम के बारे में लिखा। भोपाल में 11 मई 1996 को उनका देहांत हो गया।
         रिछारिया एक बार फिर 2002 में चर्चा में आए जब रायपुर के कृषि विश्वविद्यालय ने यूरोप की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी सिनजेन्टा से करार किया। इस करार से डाॅ0 रिछारिया का अद्भुत धान संग्रह इस कम्पनी को मिल जाता, जिनकी मदद से वह नई किस्मंे निकालकर उनका पेटेन्ट कराके, खूब मुनाफा कमाती। जब बहुत हल्ला मचा तो इस करार को रद्द करना पड़ा।
    डाॅ0 रिछारिया के इस किस्से से हमें कई बातें सीखने को मिलती हैं।
    एक, हरित क्रांति के नाम पर भारत और इसके किसानों के साथ धोखा हुआ है और जान-बूझकर उन्हें एक गलत चक्र में फँसा दिया गया है जिसका नतीजा वे आज भुगत रहे हैं। यदि डांॅ0 रिछारिया कि चेतावनी पर ध्यान दिया गया होता तो आज यह नौबत नहीं आती। हमारे वैज्ञानिक ऐसा अनुसंधान कर रहे थे, जिनसे देशी किस्मों से और देशी तरीकों से हमारी पैदावार बढ़ सकती थी। किन्तु एक साजिश के तहत उन्हे आगे नहीं बढ़ने दिया गया। आज भी हमारी कृषि नीति देशहित-जनहित के बजाय देशी-विदेशी कंपनियों के स्वार्थाें को ज्यादा समर्पित है।
    दो, भारत सरकार और सत्ता प्रतिष्ठानों में विदेशी घुसपैठ, विदेशी प्रभाव और दबाव काफी ज्यादा है। इसके कारण कई बार उनका फैसला देशहित-जनहित में होने के बजाय विदेशी साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने में होता है। इसलिए देश ने विकास का एक गलत अनुपयुक्त रास्ता चुन लिया है। इस मायने में हम आज भी पूरी तरह आजाद नहीं हैं।
    तीन, भारत के वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी भी ज्यादातर अपने ज़मीर को गिरवी रखकर विदेशी नकल और सत्ता के साथ सामंजस्य को मंजूर कर लेते हंै। रिछारिया से ही कुछ कनिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डाॅ0 एम0एस0 स्वमीनाथन थे। वे तत्कालीन विदेशी निर्देशों को पूरी तरह स्वीकार करते हुए सर्वोच्च पद पर पहुँच गए और हरित क्रांति के जनक कहलाने लगे। बाद में, अब वे उसी जबान से हरित क्रांति की आलोचना भी कर लेते हैं। स्वामीनाथन और रिछारिया भारत के वैज्ञानिकों औंर बुद्धिजीवियों की दो धाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक पूरी तरह अवसरवादी, स्वार्थी और सत्ता के साथ सामंजस्य करने वाली तथा दूसरी देशभक्त और सिद्धांतों से समझौता न करने वाली। अफसोस की बात है कि रिछारिया जैसे लोग बहुत बिरले हैं।
    क्या हम अब भी चेतेंगे। अपनी किस्मत का फैसला खुद करेंगे, देश को बचाएँगे और सही रास्ते पर ले जाएँगे। क्या डाॅ0 रिछारिया का त्याग और संघर्ष बेकार जाएगा?  
   -सुनील   

                        मो. 09425040452
   

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