गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

चुनावी समीकरण और धर्मनिरपेक्ष मूल्य

उत्तरप्रदेश में फरवरी 2012 में हुए चुनावों में समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। चुनाव परिणाम आने के पहले तक कांग्रेस यह दावा कर रही थी कि नतीजे विस्मयकारी होंगे अर्थात कांग्रेस का प्रदशर्न आशातीत रहेगा। नतीजों से यह साफ हो गया कि न तो कांग्रेस के दावों में कुछ दम था और न ही उसकी अपेक्षाएं यर्थाथपूर्ण थीं। चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी के नेतृत्व में उत्तरप्रदेश के कांग्रेस नेताओं ने जबरदस्त प्रचार अभियान चलाया। मुसलमानों को आरक्षण का लालच दिया गया और बाटला हाऊस मुठभेड़ पर श्रीमती सोनिया गांधी के आंसुओं का विशद विवरण सुनाया गया। अब यह साफ है कि इन सबका मुस्लिम मतदाताओं पर कोई असर नहीं पड़ा। अभी कुछ वषोर्ं पहले तक कांग्रेस के मुसलमानों ेजिसे पार्टी के विरोधी मुस्लिम वोट बैंक भी कहते हैंसे काफी सौहार्दपूर्ण संबंध थे। यह समझा जाता था कि चूंकि मुसलमान साम्प्रदायिक भाजपा का साथ नहीं दे सकते इसलिए उनके पास धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस का समर्थन करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
आईए, हम स्थिति का यर्थाथपरक विश्लेषण करें। यह सही है कि मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा यह अच्छी तरह समझता है कि उसके लिए भाजपा को मत देने का विकल्प उपलब्ध ही नहीं है। भाजपा साम्प्रदायिक राजनीति की प्रतीक है और आरएसएस की राजनैतिक शाखा है। आरएसएस अपने परिवार की विहिप, बजरंग दल, वनवासी कल्याण आश्रम आदि जैसी अनेक संस्थाओं के साथ मिलकर हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के अपने एजेन्डे पर काम कर रहा है। जहां तक साम्प्रदायिक हिंसा का सवाल है, सन 1984 के सिक्खविरोधी दंगों के दौरान कांग्रेस की भूमिका अत्यंत निंदनीय थी। मुसलमानों के कत्लओम और मुस्लिमविरोधी साम्प्रदायिक दंगों की भी कांग्रेस मूकदशर्क बनी रही। कांग्रेस ने दंगा पीड़ितों को न्याय दिलवाने के लिए कभी कुछ नहीं किया तब भी नहीं जब वह सत्ताधारी गठबंधन में शामिल थी या अकेले सत्ता में थी। सन 1992-93 के मुंबई दंगों के पीड़ितों को नजरअंदाज करना और उन्हें हाशिए पर पटक देना कांग्रेस की इस कुत्सित प्रवॢत्ति के उदाहरण हैं। मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर, समझौता एक्सप्रेस आदि आतंकी हमलों के बाद कांग्रेसशासित राज्यों की सरकारों ने निर्दोष मुस्लिम युवकों को प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन नौजवानों को गिरफ्तार किया गया, उन्हें शारीरिक प्रताड़ना दी गई, उनके कैरियर बर्बाद कर दिए गए और बाद में सुबूतों के अभाव में बिना कोई मुआवजा दिए उन्हें रिहा कर दिया गया। उनके सामाजिकआर्थिक पुनर्वसन के लिए कोई प्रयास नहीं किए गए।
इन सब कमियों के बावजूद, मुस्लिम समुदाय को इस बात का अहसास है कि कांग्रेस उसकी उतनी बड़ी शत्रु नहीं है जितनी कि भाजपा। गुजरात में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हुए मुसलमानों के कत्लओम ने इस अहसास को और मजबूत किया है। गुजरात में राज्य के प्रजातांत्रिक शासनतंत्र का चरित्र रातोंरात फासीवादी बन गया और वह हिन्दू राष्ट्र के पैरोकारों के इशारों पर नाचने लगा। मुसलमान इस तथ्य से भी नावाकिफ नहीं हैं कि अंततः यह साबित हो गया है कि देश में हुए कई आतंकी हमलों के पीछे संघी विचारधारा वाले और संघ से जुड़े हुए लोग थे और भाजपा ने उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की।
सन 1998 से 2004 के बीच केन्द्र की एनडीए गठबंधन सरकार के कार्यकलापों पर नजर डालने से कांग्रेस और भाजपा के बीच का अंतर और स्पष्ट हो जाता है। यदि मुसलमान चुनावी मैदान में भाजपा के अस्तित्व को भूल भी जाएं तो भी हमें कांग्रेस के इस दावे की सूक्ष्मता से जांच करनी होगी कि वह एक धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दल है और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है। हम पाते हैं कि इस मामले में कांग्रेस का रिकार्ड मिश्रित रहा है। एक ओर कांग्रे्रस ने सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की निुयक्ति की जिससे मुसलमानों की आर्थिकसामाजिक बदहाली देश के सामने आ सकी। दूसरी ओर समिति व आयोग की सिफारिशों पर अमल की गति इतनी धीमी है कि यह समझ पाना ही मुश्किल है कि अमल की दिशा में कोई प्रयास हो भी रहा है या नहीं। आतंकित मुसलमानों को ऐसी सरकारी नीतियों की दरकार है जो उन्हें उस घुटन से मुक्ति दिला सकें जो उनके विरूद्ध भयावह हिंसा और उनके दानवीकरण से जन्मी है। मुसलमानों को उनके मोहल्लों में कैद कर दिया गया है। मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा सरकारी सेवाओं में आरक्षण पाने की इच्छा रखता है परंतु इस सिलसिले में केवल चुनावी वायदों से उन्हें बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। विशेषकर तब जबकि वे सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की रपटों को धूल खाते देख रहे हैं।
बाटला हाऊस मुठभेड़, उसकी गहन जांच कराने से यूपीए2 का इंकार और मुस्लिम युवकों को आतंकी करार देने के अभियान ने मुसलमानों को गहरा धक्का पहुंचाया है। मुसलमान आगे ब़ने के लिए, आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए और अपनी योग्यतानुसार काम पाने के लिए छटपटा रहे हैं। वर्तमान परिस्थितियां ऐसी नहीं हैं कि मुसलमानों के ये सपने पूरे हो सकें। बाटला हाऊस मुठभेड़ की निष्पक्ष जांच कराने में कांग्रेस का रूचि न लेना यह दशार्ता है कि पार्टी में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का भाव देने वाले कदम उठाने का राजनैतिक साहस नहीं है। श्रीमती सोनिया गांधी के आसुंओं से मुसलमानों की जानें बचने वाली नहीं हैं। दिल्ली के पड़ोस में स्थित कांग्रेसशासित राजस्थान में पुलिस का एक मस्जिद में घुसकर वहां मौजूद लोगों पर गोलियां चलाना अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता है।
ऐसा लगता है कि कांगे्रस नेतृत्व में ऐसे लोगों की अच्छीखासी तादाद है जो धर्मनिरपेक्षता के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध नहीं हैं। इस मामले में कांग्रेस अवसरवादी नीतियां अपनाती रही है। वह कुछ दूर तक तो आगे ब़ती है परंतु प्रजातांत्रिकधर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के लिए निर्णयात्मक कदम उठाने से झिझकती है। यह सर्वज्ञात है कि सरकारी तंत्र का जबरदस्त साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है और धर्मनिरपेक्षता का झंडा बुलंद करने के लिए दृ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। उत्तरप्रदेश में मुसलमानों के सामने दो विकल्प थेमुलायम सिंह और कांग्रेस। मुलायम सिंह ने भी कुछ समय के लिए कल्याण सिंह से हाथ मिला लिया था। ये वही कल्याण सिंह हैं जिनके मुख्यमंत्रित्व काल में बाबरी मस्जिद ़ढहाई गई थी। , के शासनकाल में उत्तरप्रदेश में मऊ और कुछ अन्य स्थानों पर दंगे भी हुए थे। इसके बावजूद मुसलमानों ने मुलायम सिंह को कांग्रेस की तुलना में कम बुरा समझाऐसा चुनाव नतीजों से जाहिर है।
क्या यह वही कांग्रेस है जिसके महात्मा गांधी और पंडित नेहरू जैसे नेताओं ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था? आज की कांग्रेस का ुलमुल रवैया और उसकी कथनी व करनी में फर्क मुसलमानो को स्वीकार्य नहीं है। कांग्रेस के युवा नेताओं के दिमागों में भी साम्प्रदायिकता का जहर भर गया है। क्या सवा सौ साल पुरानी इस पार्टी को यह आवश्यक नहीं लगता कि वह अपने कार्यकर्ताओं में धर्मनिरपेक्षता की समझ विकसित करे? क्या कांग्रेस को अपने सदस्यों को यह नहीं बताना चाहिए कि अल्पसंख्यकों के बारे में फैलाए गए मिथकों और पूर्वाग्रहों का सच क्या है? क्या कांग्रेस नेताओं को यह नहीं जानना चाहिए कि किस तरह महात्मा गांधी ने हिन्दूमुस्लिम एकता की खातिर अपनी जान न्यौछावर कर दी थी और कैसे पंडित नेहरू, बहुवादी मूल्यों की रक्षा के लिए एक चट्टान की तरह डटे रहे थे? किसी भी पार्टी का निर्माण करते हैं उसके आम कार्यकर्ता और उनकी सोच। जब वे देखते हैं कि उनकी पार्टी के नेतृत्व का रवैया ही ढुलमुल है तो वे यह समझ नहीं पाते कि वे साम्प्रदायिक राजनीति के प्रति क्या रूख अपनाएं और दंगों के शिकार मुस्लिम समुदाय के साथ कैसा व्यवहार करें, क्या संवाद रखें? उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम, कांग्रेस के लिए एक चेतावनी हैं। अगर उसे भारतीय प्रजातंत्र की रक्षा करने का महती उत्तरदायित्व निभाना है तो उसे महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की विरासत पर चलना होगा, उनकी राह अपनानी होगी।
-राम पुनियानी

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म एक दूसरे के विलोम है । जब सत्यनिरपेक्षता, न्यायनिरपेक्षता जैसे शब्द अस्तित्व में नहीं है, तो फिर धर्मनिरपेक्षता शब्द हिन्दी में संभव ही नहीं है । इसलिए भारत पंथनिरपेक्ष है । धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग करने वाले लोग मानसिक रूप से बीमार है ।

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